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________________ - अजितशान्ति स्तवनम् ॥ (छाया) सर्वदुःख प्रशान्तिभ्यां सर्वपापप्रशान्तिभ्यां आर्जितशान्तिभ्यां एतादृशाभ्यां अजितशान्तिनाथाभ्यां सदा नमः अस्तु । अत्रै नमःशब्दयोगजचतुर्थ्यर्थेप्राकृतत्वात् षष्टी द्विवचनस्य च बहुवचन सर्वत्र । सन्दुक्खप्पसंतीर्ण इत्यत्र पकारो घुर्गुरुर्वा समासेचेति द्वित्वस्य पाक्षिक स्वात् ॥ द्वितीये चतुर्थे च पादे संतिणं पसंतिणं चेत्य, पार्षत्वात् दीर्घाभावः अन्यथाहि छन्दोभंगः स्यात् ।। (पदार्थ) ( सव्व ) संपूर्ण ( दुवख ) वेद्यकर्म ( पसंतीणं ) प्रशान्त होगयेहैं जिन्होंके अथवा (दुवख) (दुष्टानिखानि इन्द्रियाणि दुःखानि तेषां प्रशांन्तिः इष्टानिष्टविषयेषु ययोः ) दुष्ट इन्द्रियां इष्टअनिष्ट विषयोंसे (प्पसंतीणं) शांतहोगईहैं जिन्होंकी अथवा ( सव्वदुवखप्पसंतीणं) संपूर्ण योग्य जंतुओंकी दुःखप्रशान्ति होगईहै जिन्होंसे (सब ) संपूर्ण ( पाव ) पाप (प्पसतिणं ) प्रशान्त होगए हैं जिन्होंके (अजिय ) न जीती जानेवाली ( संतीणं ) शान्ति. जिन्होंकी ऐसे ( अजियसंतिण)
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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