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अजितशान्ति स्तवनम् ॥
३३ के सूर्यसे भी अधिक है स्वकान्ति जिनकी, आकाश में विहार करनेवाले जंघाचारणादि मुनियोंने स्वमस्तक से वंदना की है जिनको ।
(सुमुखंछंदः)
॥ सुमुहं ॥ असुरगरुलपरिवंदिरं किंनरोरगणमं सि। देव कोडिसयसंथुयं समणसंघपरिवदिरं ॥ २० ॥
(छाया) असुरगरुडपरिवंदितं किन्नरोरग नमस्यितं देवकोटिशत संस्तुतं श्रमणसंघपरिवंदितम् ।
(पदार्थ) ( असुर ) असुरकुमार (गरुल ) सुपर्णकुमारादि भवनवासी देवताओंने (परि) आसपासआकर (वंदि) वंदन किया है जिनको, ( किंनरोग ) किन्नर निकाय
और व्यंतरनिकाय जातीके देवताओंने (णमंसिअं) नमन कियाहै जिनको, (देवकोडिसय) सोकोट देवताओं ने ( संथुयं ) स्तुति कीहै जिनकी, ( समण ) साधुओं ने और ( संघ ) श्रावक श्राविकाओंने ( परिवंदिअं) स्तवन किया जिनका. ( समणसंघः साधुसमुदाय )।