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अजितशान्ति स्तवनम् ॥
(पदार्थ) . . (तं ) वह जिनयुगल ( नंदि) हर्ष ( मोएउ) करो (अ) और ( नंदिसेणं ) नंदिषेण कविको (अभिनंदि ) आनंदसमृद्धि ( पावेउ ) प्राप्त कराओ (परिसाइवि ) श्रोतृजनसभाको भी ( सुहनंदि ) सुखसमृद्धि (दिसउ ) देओ (य) और ( मम ) मुझे ( संजमे ) सतरहप्रकारके संयममें ( नंदि ) आनंद (दिलउ ) देओ।
(भावार्थ ) वे अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामी सम्पूर्ण जीवों को और नंदिषेण कविको आनंद समद्धि देओ. और श्रोतृजनसभाको भी सुखसमृद्धि देओ और मुझे सतरह प्रकारके संयमोंमें आनंद देओ।
(गाथाछंदः)
॥ गाहा ॥ पक्खिअचाउम्मासिअ संवच्छरिए अवस्स भणिअन्वो । सोयव्वो सव्वेहिं उवसग्ग निवारणो एसो ॥ ३८॥
(छाया) पाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकेषु अवश्यं भणितव्यः