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अजितशान्ति स्तवनम् ॥
५७.
प्रसाद है जिन्होंको ( परमेण ) उत्तम ( मुक्खसुहेण ) मोक्षसुखसे ( अविसायं ) विषादरहित (तं ) पूर्वोक्त जिनयुगल ( मे) मेरे ( विसायं ) खेदको ( नासेउ ) माशकरो ( अ ) और (परिसावि) सभाजननी ( पसायं ) अनुग्रह ( कुणउ ) करो । ( भावार्थ )
ज्ञानादि अनेक गुणोंका प्रसाद है जिन्होंको सर्वोत्तम मोक्षसुख होनेसे खेदरहित ऐसे पूर्वोक्त जिनयुगल मेरे खेदको नाशकरो और इस स्तोत्रको सुननेवाले सभाजन भी मुझपर क्षमारूप अनुग्रह करो ।
( गाथाछंदः )
॥ गाहा ॥
तमो एउअनंदि पावेउनंदिसेणमभिनंदि । परिसाइ विसुहनदि ममयदिसउसंजमेनंदि ॥ ३७ ॥
( छाया )
तत् ( जिनयुगलं ) ( लोकानां ) नंदि मोदयतु नंदिषेणञ्च अभिनंदि प्रापयतु परिषदोऽपि सुखनंदें दिशतु संयमे ममच नंदि दिशतु ।