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________________ भजितशान्ति स्तवनम् ॥ __ १७ (छाया) जितारिंगणं जितसर्वभयं (अथवा पुनरुक्तिदोषपरिहारार्थ) जीवश्रव्यभगं भवौघरिघु एतादृशं अजितं प्रयतः अहं प्रणमामि ( सः) भगवान् मे पापं प्रशमयतु । (पदार्थ) (जिअ ) जीतेहैं (अरिंगणं) अष्टकर्मरूपशत्रु समुदाय जिन्होंने (जिअ) संज्ञिपंचेन्द्रियजीवोंको (सव्वभयं ) श्रवणकेयोग्य, ऐश्वर्यजिन्होंके ( भवोह ) संसारके प्रवाहके (रिलं) शत्रु ऐसे (अजिअं) अजितनाथस्वामीको ( अहं ) मैं (पयउ ) मन वचन कायसे ( पगमामि ) नमस्कार करताहूं वह ( भयवं) भगवान ( मे ) मेरे ( पावं ) पापको ( पसमेउ) नष्टकरो। (भावार्थ) जीतेहैं अष्टकर्मरूपशत्रुओंके समुदाय जिन्होंने संज्ञिपंचेन्द्रियजीवोंको श्रवणयोग्यहै परम ऐश्वर्य जिन्होंका संसारप्रवाहकेशत्रु ऐसे अजितनाथस्वामीको मैं मनवचनकाय से प्रणामकरताहूं वे अजितनाथभगवान् मेरे पापोंको नष्टकरो।..... .
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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