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________________ गुरुपारतन्त्र्यस्तोत्रम् || ( सहई) शोभायमान है ( जस्स ) जिसका (करो) शुण्डादण्ड अर्थात् सूंड ऐसा, ( दसिय ) दिखाया है (निम्मल ) शुभ्र और (निच्चल ) दृढ़ ( दन्त ) दांतोका ( गणो ) समूह जिसने, (गणिय ) नहीं गिना है ( सावउँछ ) श्वापदोंका ( भउ ) भयं जिसने, (गुरु ) बडे (गिरि ) पर्वतके समान (गुरुङ) उंचा ऐसा जो शरभ उसके समान सूरि जिनवल्लभ थे॥ १७-१८॥ (भावार्थ) सब आचार्योंसे उत्तम चारित्रवाले, द्रव्यानुयोग १ कालानुयोग २ गणितानुयोग ३ और धर्मानुयोग ४ इन चार अनुयोगोंसे प्रधान है प्रवर्तन जिन्होंका अत्यंत गर्व करनेवाले राजाओंकेभी पूज्य अथवा क्रोध गर्व और राग इनका नाश करनेवाले, व्याख्यानके समय जिनका ऊंचा किया हुआ हात शोभता है ऐसे, मुक्तिमार्ग बतलाकर जिनने पापरहित और व्रताचरणमें तत्पर ऐसे मुनिओंका समूह बतलाया, सुसाधुओंसे नित्य घिरे होनेके कारण जिनको मिथ्यात्वी श्रावकोंका कुछ भय नहीं था, प्रतिज्ञा पूरीकरनेके कारण जो
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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