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________________ गुरुपारतन्ध्यस्तोत्रम् ॥ श्रेष्ट वाणीके कथन में उत्कृष्ट थे, वे सूरिजिनकल्लभ अष्टापद के समान हुए ॥ १७-१८॥ (शरभपक्षे ) भावर्थ उपर किये हुए है पांव जिसने, चार पांवके सम्बन्धसे संचार करनेवाला, बड़े पराक्रमी सिंहको मारनेवाला, ऊंची उठानेसे जिसकी सूंड शोभायमान है, अपने शुभ्र और दृढ़ ऐसे चार दांतोको दिखाने वाला, जिसको किसी पशुका बिलकुल भय नहीं है और जिसका शरीर बडे पहाडके समान है ऐसे शरभके तुल्य सूरि जिनवल्लभ हुए ॥ १७-१८ ॥ अथ विशेषेणस्वगुरोर्गुणोच्चारणपूर्वकं वन्दनं करोति ॥ गाथा ॥ जुगपवसगमपीउ सपाणपाणियमणाकयाभवा। जेणजिणवल्लहेणं गुरुणातंसबहावन्दे ॥ १९ ॥ (छाया) येन जिनवल्लभेन गुरुणा भव्याः युगप्रवरागमपीयूषपानप्रीणितमनसः कृताः तं सर्वथा वन्दे ॥ ( मनसः इति सकारस्य मूले प्राकृतत्वाल्लोपः। ) ॥ १९ ॥ (पदार्थ) ( जुग ) युगमें ( पवरागम ) श्रेष्ट सिद्धान्तरूप
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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