SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गुरु पारतन्त्र्य स्तोत्रम् || २५ ( पीउस ) अमृतके ( पाण) प्राशनसे ( पीणिय ) सन्तोषित हैं ( मणा ) मन जिन्होंके ऐसे ( कया ) किये हैं (भव्वा ) समस्त भव्य जीव ( जेण ) जिन ( जिणवणं) जिनवल्लभ ( गुरुणा ) गुरुने ( तं ) उनको (सहा) मनवचनकाय से ( वन्दे ) नमस्कार करता हूं ॥ १९ ॥ ( भावार्थ ) युगके बीच में श्रेष्ट सिद्धान्तरूप अमृत पिलाकर समस्त भव्य जीवोंके मनको सन्तुष्ट करनेवाले तत्वोपदेशक जिनवल्लभ सूरिको मनसे, वाणीसे और शरीर से मैं नमस्कार करता हूं ॥ १९ अथ गाथा इयेन सुधर्मस्वाम्यादिगुरुपारतन्त्र्यसर्वसंघभारवहन क्षमस्य गुरोरुत्कर्षमाह । ॥ गाथा ॥ विप्फुरियपवरपवयण सिरोमणी वढदूव्वहर व मोया जोसे साणंसेस व्वसहइस ताणताणकरो || २० || सच्चरियाणमहीणं सुगुरूणंपारतंतमुव्वहइ जयइ जिणदत्तमूरी सिरिनिलउं पणय मुणितिलउं ॥ २१ ॥
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy