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________________ १४ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ (भुअंगं ) सर्पको (कीडसरिसं ) कीडे के समान (मन्नंति) मानते हैं ॥ ८-९ ॥ ( भावार्थ ) अब गाथाद्वय से सर्पविषनिवारकत्वरूप प्रभाव वर्णन करते हैं । मनुष्य इस लोकमें आपके नामाक्षररूप प्रख्यात और सिद्ध गारुडमंत्र से प्रभावशाली होकर मृत्युप्रद विषके वेग को अत्यन्त दूर टाल देते हैं और चमकदार फणावाले सुशोभि देहवाले चंचल और लालनेत्र वाले चपल जिव्हा वाले नये मेघ के समान भयंकर आकृतिवाले विकाल सर्पको कीडेकेसमान मानते हैं ॥ ८-९ ॥ अथ गाथायुगलेन प्रभोः पञ्चमतस्करभय निवारकत्वप्रभावो वर्ण्यते Į || गाथा || अडवीसुभिलतकर पुलिंदसदूलसद्द भीमासु । भयविदुलवुन्नकायर उल्लूरि पहियसत्थासु ॥१०॥ अवित्तविहवसारा तुहनाहपणाममत्तवावारा । aarयविश्वासिग्धं पत्ताहिय इच्छियं ठाणं ॥ ११ ॥
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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