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________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ तित्थंकर सोलसम सन्तिजिणवलहसंतह ।। कुरु मंगल मम हरलु दुरिअमखिलंपि ॥ थुणंतह ॥ १७ ॥ (छाया) विजयाजितशत्रुपुत्र श्रीअजित जिनेश्वर तथा अचिराविश्वसेनतनय पंचमचक्रीश्वर षोडश तीर्थंकर सतां वल्लभ शान्तिजिन इत्थं मम मंगलं कुरु आखिलं दुरितं हरस्व तथा स्तुवतामपि (मंगलंकुरु अखिलं दुरितं हर) (पदार्थ ) ( विजया ) विजयानाम्नीमाता और ( जियसत्तु) जितशत्रु नामक पिता इन्होंके (पुत्त ) पुत्र ऐसे (सिरि ) शोभायुक्त ( अजिअ जिणेसर ) हे अजित. नामक जिन भगवन् ( तह ) और ( अइरा ) अचिरानाम्नीमाता (विससेण ) विश्वसेन नामक पिता इन्होंके ( तणय ) पुत्र ( पंचम ) पांचवें (चन्कीसर) चक्रवर्ती ( सोलसम ) सोलहवें ( तित्थंकर ) तीर्थंकर ( संतह ) सत्पुरुषों के (वल्लह ) प्यारे ( संतिजिण ) हे शान्तिनाथ जिन भगवन् ( इय ) पूर्वोक्तप्रकारसे ( मम.) मेरे और ( पिथुणंतह ) इसस्तवनको पठन
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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