SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उस गहरस्तोत्रम् ॥ ( भावार्थ ) जो मनृष्य विषधरस्फुलिंगनामक अष्टादशाक्षर मंत्रको निरंतर कंठमें धारणकरता है, उसके सूर्यादिग्रहजन्य दुःख कफकुष्टजलोदरादिरोग कॉलराप्लेगादि उपद्रव एकांतरापाली आदि दुष्टज्वर नाशको प्राप्तहोते हैं ॥ २ ॥ ( गाथा ) चिउदूरेमंतो, तुज्झपणामोवि बहुफलोहोइ । नरतिरिए सुविजीवा पावंतिनदुःखदोगचं ॥ ३ ॥ ( छाया ) विषधरस्फुलिंगमंत्रः दूरे तिष्टतु तव प्रणामोऽपि बहुफलः भवति नरतिर्यक्ष्वपि जीवाः दुःखदौर्गत्यं न प्राप्नुवन्ति ॥ ३ ॥ ( पदार्थ ) ( मंतः ) विषधरस्फुलिंगमंत्र तो ( दूरे) दूरही ( चिठ्ठउ ) रहो परंतु ( तुज्झ ) आपको ( पणा मोबि ) प्रणाम भी (बहुफलो ) आरोग्यधनधान्यादिसमृद्धिरूप फलको देनेवाला ( होइ ) होता है ( नर ) मनुष्य जातिमें और ( तिरिएसु ) तिर्यग्जाति में (वि) भी उत्पन्न हुवे हुए ( जीवा ) जीव ( दुःख ) संकट
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy