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________________ उवसम्गहरस्तोत्रम् ॥ सर्पादिकोंके विषका नाशकरनेवाले अथवा मिथ्यात्वरूप विषको धारणकरनेवाले निथ्यात्थियोंके मिथ्यात्वरूप विषको उन्मूलितकरनेवाले उपद्रवनिवृत्तिरूप मंगल और सुखवृद्धिरूपकल्याणके निवासभूत ऐसे पार्थप्रभुको मैं वन्दनकरताहूं ॥१॥ ... (गाथा) . विसहरफुलिंगमंतं कंठेधारेइजोसयामणुउँ । तस्स ग्गहरोगमारी दुजराजति उवसामं ॥ २ ॥ . (छाया) यः मनुष्यः सदा विषधरस्फुलिंगमंत्रं कंठे धारयति तस्य ग्रहोगमहामारीदुष्टज्वराः उपशमं यान्ति ॥ २ ॥ (पदार्थ) (जो ) जो ( मणुउ ) मनुष्य (विसहरफुलिंगमंत) विषधरस्फुलिंग नामक अष्टादशाक्षरात्मकमंत्रको (सया) निरंतर ( कंठे ) कंठमें (धारेइ ) धारणकरताहै (तरस) उसके (गह) सूर्यादिकग्रहकृतदुःख (रोग) कफकुष्टजलोदरादिरोग ( मारी ) कॉलरा प्लेगादि उपद्रव (दुठुजरा) ऐकाहिकादिदुष्टज्वर ( उवसामं ) नाशको ( जंति ) प्राप्तहोतेहैं ॥२॥
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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