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________________ उवसग्गहरस्तोत्रम् ॥ आशा यस्येतिव्युत्पत्त्या ) प्रनष्टहोगईहै सांसारिक सुखाभिलाषा जिनकी ऐसे (कम्मघण) कर्मोंके समुदाय से ( मुक्कं ) मुक्त ऐसे अथवा ( कम्मघणमुक्कं ) शुद्धचेतनरूप चांदको आच्छादितकरनेवाले कर्मरूप मेघोंसे मुक्त ऐसे (विसहर ) विषको धारणकरनेवाले सादिकोंके ( विस ) दृष्टिविष आशीविष लाला विषोंका (निन्नासं ) नाशकरनेवाले अथवा (विसहर) मिथ्यात्वरूप विषको धारणकरने वाले जो मिथ्यात्वी जीव उन्होंके ( विस ) मिथ्यात्वरूप विषका (निन्नासं) अत्यन्त नाशकरनेवाले (मंगल) उपद्रवानिवृत्तिरूप मंगल और (कल्लाण) सुखवृद्धिरूप कल्याणके ( आवास ) स्थानभूत ऐसे ( पासं ) पार्श्वप्रभुको (वन्दामि ) मैं नमस्कार करताहूं ॥ १ ॥ (भावार्थ ) दुःख ८५ उपसर्गोंका नाशकरनवाल पा नामक यक्ष है सेक्क जिनका अथवा रागद्वेषमोहकृत जन्मजरा मरणरूप उपसर्ग का नाशकरनेवाले प्रनष्ट होगईहै सांसारिक सुखाभिलाषा जिनकी शुद्धचेतनरूपचांदको आच्छादितकरनेवाले कर्मरूपमेघोंसे मुक्त विषधारी तिर्यक्
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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