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उक्लासिक स्तोत्रम् ॥
(फुड ) स्पष्ट और ( गण ) घन जो ( रस ) श्रृंगाररस और ( भाव ) रति इन्होंसे ( उदार ) भरपूर ( सिंगार ) शृंगारसे ( सारं ) प्रधान ( नट्टोवयारं ) नृत्यसे पूजा ( अकासि ) करती हुईं. ( भावार्थ )
भगवद्दर्शनके अन्तरायसे डरी हुई और प्रणाम करने में मन्द ऐसी देवांगनाएं रमणीय हैं चरणन्यास जिसमें बहुत से मनोहर हैं अंगविक्षेप जिसमें स्पष्ट और घन रस और रतिसे भरपूर शृंगारसे प्रधान ऐसे नृत्यद्वारा भगवत्पूजा करती हुई.
॥ गाथा ||
थुणह ह अजिअसंती ते कयासेससंती ॥ कणयस्यपिसंगा छज्जए जाणि मुत्ती ॥ सरभसपरिरंभारंभिनिव्वाणलच्छी ॥ घणथणघुसिणं कप्पं कपिंगकियव्व ॥ ७ ॥ (छाया)
भो भव्याः कृताशेषशान्ती तौ अजितशान्ती स्तुत ययोः राजिता मूर्तिः सरभसपरिरंभाभिनिर्माणलक्ष्मी घन स्तनवसृणाङ्क पङ्कपिंगकृतेव कनकरजःपिशंगा अस्ति.