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________________ १८ तंजय स्तोत्र ॥ तमें (वास) निवास करने वाले ( देव ) देवता और (देवी) देवियां (जिण सासण) जिन शासन में (डिआणं) स्थित भव्य जीवों के (सव्वाणि) संपूर्ण (दुहाणि) दु:ख (हि ं तु ) नाशकरो । ( भावार्थ ) घरमें गोत्र में क्षत्रमें जलमें स्थलमें वनमें पर्वत में निवास करने वाले देव और देवियां जिनशासन में स्थित भव्य जीवों के केश निवारण करो 1 ( गाथा ) दसदिसिपाला सखित्तपालया नवग्गहा सन - क्खत्ता || जोग राहुग्गह काल पास कुलि अद्ध पहरोहं ॥ १८ ॥ सह काल कंट एहिं सविधिवत्थेहिं कालवेला हिं॥ सव्वे सव्वत्थ सुहं दिसन्तु सव्वरस संघस्स ॥ १९ ॥ ( छाया ) सक्षेत्रपालकाः दशदिक्पालाः सनक्षत्राः नवग्रहाः योगिनी राहुग्रह कालपाश कुलिकार्धप्रहरैः सह कालकंटैः सह सविष्टिवत्सैः कालवेलाभिः सह सर्व्वे सर्व्वस्य संघस्य सर्व्वर्थसुखं दिशन्तु
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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