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उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ मईए ) गतिसे ( जणिज्झा ) जीतसकता है ( बा ) अथवा ( सहल ) सकल ( नहयलं ) आकाशतलको ( जो) जोमनुष्य ( पएहिं ) पावोंसे (लंघए) उल्लंघनकरसकताहै (मो ) वह ही ( अजिअं ) अजितनाथस्वामीकी (अहव ) अथवा ( संति ) शान्तिनाथस्वामीकी (थुणेउम् ) स्तुतिकरनेको (समत्थो) समर्थ होताहै.
. (भावार्थ ) .. स्वयंभूरमणनामक समुद्रके जलको जो मनुष्य अंजलियोंसे माप सकताहै प्रलयकालके वायुको जो मनुष्य अपनी गतिसे जीतसकताहै अथवा संपूर्ण आकाशतलको जो मनुष्य पावोंसे उल्लंघनकरसताहै वही मनुष्य अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीकी स्तुति करनेको समर्थ होताहै..
॥ गाथा ॥ तहवि हु बहुमाणुल्लासभत्तिभरेण ॥ गुणकणमवि कित्तेहामि चिन्तामणिव्व ॥ अलमहवअचिंता पंतसामत्थओसिम् ॥ फलहइ लहु सव्वं वंछिअं णिच्छिअं मे ॥३॥