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उल्लासिक स्तोत्रम्
वालेके समान कुन्दपुष्प और चन्द्रमाके समान स्वच्छ दांतोंकी प्रभाके मिषसे निकला है ज्ञानके अंकुरोंका समुदाय जिन्होंसे, सुखकरनेवाले ऐसे दूसरे और सोल हवें अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीकी में जिन वल्लभसूरि स्तुति करता हूं.
॥ गाथा ॥ चरमजलहिनीरं जो मिणिजं जलीहिं || खयसमयसमीरं जो जणिज्झा गईए ॥ सयलनहयलं वा लंघए जो परहिं ॥ अजियमहव संतिं सो समत्थो धुणेउम् ॥२॥ (छाया)
चरम जलधिनीरं योऽञ्जलिभिर्मिनुयात् क्षयसमयसमीरं यो गत्या जयेत् सकलनभस्तलं यः पद्भ्यां लंघयेत् स अजितमथवा शान्ति स्तोतुं समर्थः ॥ ( पदार्थ )
( चरम ) स्वयंभूरमणनामक ( जलहि ) समुद्रके ( नीरं ) जलको ( जो ) जोमनुष्य ( अंजलीहिं ) अंजलियों से (मिणिज्यं ) मापसकता है ( खयसमय ) प्रलयकालके (समीरं ) वायुको ( जो ) जोमनुष्य