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________________ उल्लासिक्क स्तोत्रम् || ( पदार्थ ) ( उल्लास ) देदीप्यमान ( क्रम ) पार्श्वोके ( नक्ख ) नखोंसे ( निग्गय ) निकली हुई ( पहा ) कान्ति यह ही मानो एक ( दण्ड ) लकड़ी उसके ( छलेण ) मिषसे ( वन्दारुण ) नमस्कारकरनेवाले ( अङ्गिणं ) प्राणियोंको ( निव्वाण ) मोक्षके ( मग्ग) मार्गकी ( आवाले ) श्रेणीको ( पयडं ) स्पष्टतासे ( दिसन्तौ ) दिखलानेवालेके ( इव्वं ) समान (कुन्द) कुन्दके पुष्प और (इन्दु ) चन्द्रमाके समान ( उज्जल ) स्वच्छ ( दन्त ) दांतोंकी ( कान्ति ) प्रभाके ( मिसउ ) मिषसे (नीहन्त ) निकला है ( नाण) ज्ञानके (अंकुर ) अंकुरोंका ( उकेरे) समुदाय जिन्होंसे ( खेमङ्करे ) सुखकरनेवाले ( दोवि) दोनों को भी ( दुइज्ज ) दूसरे और ( सोलस ) सोलमें अजित और शान्तिनाथ स्वामी को (अहं) मैं जिनवल्लभसुरि (त्थोस्सामि ) स्तुति करता हूं. ( भावार्थ ) दैदीप्यमान पार्वोके नर्खोसे निकली हुईकान्ति यहही मानो एक लकड़ी उसके मिषसे नमस्कारकरनेवाले प्राणियों को मोक्षके मार्ग की श्रेणीको स्पष्टतासे दिखलाने
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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