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________________ उल्लासिक स्तोत्रम् ॥ ( छाया ) तथापि बहुमानोल्लास भक्तिभरेण गुणकणमपि चिन्ता मणिमित्र कीर्तयिष्यामि अथवा अलं अनयोः अचिन्त्या नन्तसामर्थ्यतः मे सर्व्वे वाञ्छितं लघु निश्चितं फलिष्यति. -- ( पदार्थ ) ( तहवि ) तोभी ( हु ) प्रकट ( बहुमाण ) अन्तः करणके प्रेमविशेषसे ( उल्लास ) बढ़ी हुई (भत्ति ) प्रीतिके ( व्भरेण ) अतिशय से ( गुणकणमवि ) गुणलेशभी ( चिन्तामणिव्व ) चिन्तामणिके समान ( कित्तेहामि) कीर्तन करूंगा ( अहव ) अथवा (अलं) बस इस बिचारसे ( ओसिं ) इन्होंकी ( अजित और शान्तिनाथस्वामी की ) ( अचिंत ) बिचारमें न आनेवाली ( अनंत ) अन्त न होनेवाली (सामत्थ) शक्तिसे ( मे) मेरे ( सव्वं ) सब ( वांछिअं ) इच्छित ( लहु) शीघ्रही ( णिच्छिनं ) निश्चयपूर्वक ( फलहइ ) फलीभूत होंगे, ( भावार्थ ) तोभी अन्तःकरण के प्रेमविशेषसे बढ़ी हुई भक्ति के अतिशय से भगवानका गुणलेशभी चिन्तामणि के समान
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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