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गुरुपास्ताव्यस्तोत्रम् ॥
(भावार्थ ) अनहिल्लपाटकनामके नगरमें दुर्लभ संज्ञकराजाके समक्ष श्री जिनदत्तसृरिने शिथिलाचारी साधुओंसे वाद प्रतिवाद किया, और जैसे सिंह हाथिओंसे सामनाकर उन्हें चीरकर फेंकदेताहै वैसेही जिनदत्तसूरिने शास्त्रार्थमें उन शिथिलाचारियोंको पराजित किया ॥ १०॥
॥गाथा ॥ दशमच्छेरयनिसिविप्फुरंत सच्छन्दसूरिमयतिमिरम् । सूरेणवसूरिजिणे, सरेण हयमहियदोसेण ॥११॥
(छाया) अहितदोषेण सूरिजिनेश्वरेण दशमाश्चनिशि विस्फुरतस्वछन्दसूरिमततिमिरं सूरेणेवहतम् ॥ ११ ॥
... ( पदार्थ) ( अहिय ) नहीं प्रिय हैं ( दोसेण ) रागादि दोष जिनको ऐसे (सूरिजिणेसरेण) सूरिजनेश्वराचार्यने ( दशमन्छेरयनिसी ) दशम असंयमीरूप पूजा लक्षणआश्चर्यरूप रात्रि में ( विफ्फुरन्त ) स्फुरा यमाण ( सच्छन्दसूरिमयतिमिरं) अपने इच्छानुसार चलनेवाले . शिथिलाचारियोंका मतरूप अन्धकार ( सूरेणव ) सूर्यकेसमान (हयम् ) नष्ट किया ॥ ११ ॥