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________________ उलासिक स्तोत्रम् ॥ (छाया) ययोः निचितदुरितदा रूद्दीत ध्यानाग्निज्वालापरिगतमित्र गौरं कनकनिकष रेखाकान्तिचोरं एतादृशं रूपं चिंतितं ( सत् ) गाढसंस्तंभिताभिव चिरस्थिरां लक्ष्मी कुर्य्यात्. ( पदार्थ ) ( निचिअ ) अनेक जन्मोंमें इकट्ठे किये हुए ( दुरिअ ) दुष्टकर्मरूप ( दारु ) लकडियोंसे (उद्दित्त ) प्रदीप्तकी हुई ( झाण ) ध्यानरूप ( अग्गि ) अग्निकी ( जाला ) ज्वालाओंसे मानों ( परिगयमिव ) व्याप्त किया है क्या ? ऐसा ( गौरं ) उज्वल ( कणयनिहस ) सोनेकी कसोटी परकी ( रेहा ) रेखाकी ( कन्ति ) कान्तिको ( चोरं ) चुरानेवाला ऐसा ( जाण ) अजितनाथ और शान्तिनाथ स्वामीका ( रूवं ) रूप (चिंतिअं) चिंतन करने से ( इह ) इस जगत में ( गाढ ) अत्यन्त ( संथभिअन्त्र ) नियंत्रित की हुई के सामान ( चिरथिरं ) निश्चल ऐसी ( लच्छि ) लक्ष्मीको ( करिता ) करता है. ( भावार्थ ) अनेक जन्मोंमें इकट्ठे किये हुए दुष्टकर्मरूप लकडियोंसे प्रज्वलित की हुई ध्यान रूप अग्नि की ज्वालाओंसे
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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