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अजितशान्ति स्तवनम् ॥
पूजित ऐसे ( अजिअं ) अजितनाथस्वामीको ( सरणं) शरण ( उवसरिअ) जाकर (अहं ) मैं ( सययं ) निरंतर ( उवणमे ) नमस्कार करताहूं।
(भावार्थ) असंयममें अरति संयममें रति और अज्ञान इनसे रहित, निवृत्तहैं जरा और मरण जिनका, देव, असुरकुमार, सुपर्णकुमार, और नागकुभार, इन्होंकेपति इन्द्रने सम्यक् प्रकारसे प्रणिपात कियाहै जिनको, अथवा देव, भवनपति, ज्योतिष्क, व्यंतर, विद्याधर इन्होंके स्वामीने भलेप्रकारसे नमस्कार कियाहै जिनको, शोभन नैगमादि नयोंको स्वीकारकरवानेमें चतुर, अभयकरनेवाले, मनुष्योंसे और देवताओंसे पूजित, ऐसे अजितनाथ स्वामीको शरणागत होकर मैं निरंतर नमस्कारकरताहूं।
(सोपानकछंदः)
( सेवाणय) तं च जिणुत्तममुत्तमनित्तमसत्तधरं अजवमद्दवखंतिविमुत्तिसमाहिनिहिं ॥ संतिअरं पणमामि दमुत्तम तित्थयरं ! संतिमुाणें मम संति समाहिवर दिसउ ॥८॥