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________________ ॥ श्रीः॥ अथ श्रीजिनदत्तमूरिकृततंजयास्यस्तोत्रं प्रारभ्यते. ॥श्री वीतरागायनमः ॥ तं जयउ जएतित्थं जमित्थ तित्थाहिवेणवीरेण सम्मं पवत्तियं भव्वसत्तसंताणसुहजणयम् ॥१॥ (छाया) तत् जगति तीर्थ जयतु यदत्र भव्यसत्वसंतानसुखजनकं तीर्थाधिपेन वीरेण सम्यक् प्रवर्तितम् . (पदार्थ) (तं ) वह प्रसिद्ध (जए ) जगतमें (तित्थं ) चतुर्वर्ण संघ ( जयउ ) विजयको प्राप्त होओ (जम् ) जो (इत्थ) इस जगतमें ( भव्य ) भव्य (सत्त) जीवोंके (संताण) समूहको ( सुह) सुख ( जणयम् ) पेदा करनेवाला (तित्थाहिवेण ) चतुर्विध संधकेस्वामी (वीरेण ) महावीरस्वामीने ( सम्म ) भलेप्रकारसे ( पवत्तियम् ) स्थापन किया
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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