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________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ सेवारूप ( सलिलंजलि ) जलपूरित अंजलिके ( सेय ) सेचनसे ( वुड्ढिअच्छाया ) वृद्धिंगतहै शोभा जिन्होंकी ऐसे होकर ( पुणो ) फिर ( वणव ) दावानलसे ( दढा ) जलेहुए ( गिरिपायव ) पर्वतीयवृक्षोंके (ब) समान (लच्छि ) आरोग्यरूप संपदाको (पत्ता) प्राप्त होतेहैं ॥ २-३ ॥ (भावार्थ) ___ अब दो गाथाओंसे पाचप्रभुका रोगभयनाशक. वरूपसे प्रभाव कथन करतेहैं । सडगएहैं हाथपांवनखमुखादि अवयव जिन्होंके, बैठगईहै नासिका जिन्होंकी, प्रनष्टहोगयाहै लावण्य जिन्होंका कोढरूपमहारोगसे उत्पन्नहुई हुई पीडा जनित संतापरूप अग्निकी चिनगारियोंसे जलगयाहै सारा शरीर जिन्होंका ऐसे. प्राणी. भी आरके चरणोंकी आराधनारूप जल पूरित अंजलीके सेचनसे बढ़गई है शरीरकी कान्ति जिन्होंकी ऐसे होकर फिर बनके अग्निसे जलेहुए पर्वतीयवृक्षों के समान आरोग्यरूप संपदा को प्राप्त होतेहैं ॥ २३ ॥
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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