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गुरुपरतन्त्र्य स्तोत्रम् ॥
- (छाया) सुवशीलचौरनिराकरणसमर्थः जिनमते निश्चलः युगप्रवरशुद्धसिद्धान्तज्ञातःप्रणतसुगुणजनः ( चपरणपञ्चल शब्दो क्रमेणनिरास समर्थ वाचकौ ) ॥९॥
(पदार्थ) (सुहसील ) विषयसुखमैलंपट ( चोर ) केवलसाधुवेश धारणकरनेवाले और विश्वस्तभक्त जनोंके जैनसम्यक्त्व बोधिरत्नोंको असदुपदेशद्वारा चुरानेवाले ऐसे लिङ्गी साधुओंके ( चप्परण) द्वारा जिनराजसिद्धान्तोक्त युक्ति द्वारा बलात्कारसे मतखण्डनमें (पच्चल) समर्थ (जिणमयंमि) जिनतमे (निच्चलो ) निश्चल (जुगपवर ) युगप्रवर सुधर्म स्वामीके ( सुद्ध सिद्धत ) निदोष अंगोपांगरूप सिद्वान्तके निरंतर अभ्याससे ( जाण) प्रसिद्ध और (पणय) प्रणाम करतेहैं ( सुगुण ) सद्गुणी ( जणो) जन जिनको ॥ ९ ॥
(भावार्थ) विषयसुखमें लंपट केवल साधु वेषकोहि धारणकरने वाले भक्तजनोंके जैनसम्यक्त्व बोधिरत्नोंको असदुपदेशद्वारा चुरानेवाले ऐसे लिडीसाधुओंके जिनराज