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________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ १९ ( वयण ) वचनरूप ( पहरण ) शस्त्रको ( धरा ) धारण करनेवाले मानव ( पज्जलिअ ) प्रज्वलित (अनल) अग्निसमानहैं ( नयनं ) नेत्र जिसके (दूर) दूरसेही ( वियारिय ) फैलाया है ( मुहं ) मुख जिसने (महा) बड़ा है ( कार्य ) शरीरं जिसका ( नह ) नख रूप ( कुलिस ) वज्रके ( घाय ) प्रहारसे ( विलिअ ) चीरदिया है ( गइंद ) गजेन्द्रहाथी के ( कुंभत्थल ) गण्डस्थलका ( आभोअं ) विस्तार जिसने ऐसे (सीह) सिंहको (कुद्धपि ) क्रुद्ध होने पर भी (न) नहीं (गणंति) गिनते हैं ॥ १२-१३ ॥ ( भावार्थ ) अब दो गाथाओं में पार, भगवान् का सिंहमय निरासरूप प्रताप लिखते हैं । हे प्रभो आपके नखरूप रत्नोंमे आदरसहित प्रणाम करनेवाले राजाओंकी प्रतिमा प्रतिबिंबित होती है आपके वचनरूप शस्त्रको धारण करनेवाले भव्य जीव प्रज्वलित अग्नि समान नेत्र्वाले दूरसेही खानेके हेतु फाडा है मुख जैसने, मोटे शरीरवाले और नखरूप बज्र प्रहारसे छिन्न भिन्न कर दिया है गजेन्द्र हाथी का
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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