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________________ गुरुपारतः यस्तोत्रम् ॥ हैं परस्पर वैरभाव जिन्होंने दूरकिये हैं हृदयके संदेह जिन्होंने प्रणामकरने वाले प्राणियोंको दिए हैं सुख बाहुल्य जिन्होंने और छत्तीस श्रेष्ट गुणोंके निवास स्थान ॥ २ ॥ ॥ गाथा ॥ पत्तसुजइत्तसोहा समत्थपरतिथिजणियसंखोहा। पडिभग्गलोहजोहा दंसियसुमहत्थसत्योहा ॥३॥ (छाया) प्राप्तसुयतित्वशोभाः समस्तपरतीर्थिजनितसंक्षोभाः प्रतिभमलोभयोधाः दर्शितसुमहार्थशास्त्रौघाः ॥ ३ ॥ . (पदार्थ ) (पत्त.) प्राप्तकीहै ( सुजइत्त ) उत्तम यतित्व की (सोहा) शोभा जिन्होंने (समत्थ ) सम्पूर्ण (पतिथि) परतीर्थि जनोंको ( जणिय ) उत्पन्न किया है (संखोहा) संक्षोभ जिन्होंने (पडिभग्ग) नष्ट किया है (लोह) लोभरूप ( जोहा) योधा जिन्होंने ( दसिय ) बतलाया है ( सुमहत्थ ) अत्यन्त गंभीर अर्थशाली ( सत्योहा ) शास्त्र समुह जिन्होंने ॥ ३ ॥
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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