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________________ तंजय स्तोत्र ॥ धिष्टायिका देवियां (वि) भी (सया) सदा (तिस्थस्स) चतुर्विधसंघके (संताव) संतापको (पणासंतु) नाशकरो. (भावार्थ ) जिनशासनमें उप्तन्न हुऐ हुऐ उपद्रव निवारण रूप की है रक्षा जिन्होंने और शुभहै भाव जिन्होंके ऐसी चोवीस जिनशासनकी अघिष्टायिका देवियां भी हमेश चतुर्विध संघके संतापको नाशकरो. (गाथा) जिणपवयणमिनिरया विरयाकुपहाउसव्वहासब्बे ॥ वेयावच्चकराविय तित्थस्स हवंतु संतिकरा ॥१५॥ (छाया) जिनप्रवचने निरताः कुपथात् सर्वथा विरताः सर्वे वैयावृत्तकरा श्चापि तीर्थस्य शांतिकरा : भवन्तु, __ (पदार्थ ) (जिण पवयणमि ) जिनशास्त्रमें ( निरया ) कियाहै आदर जिन्होंने ( कुपथाउ ) महिषवध रूप निंदनीक मार्गसे ( सव्वहा ) सब प्रकारसे (विरया) जुदे (य) और ( सव्वे ) सब ( वेयावच्चकरा ) वेयावच्च करने
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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