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________________ १६ तंजय स्तोत्र ॥ वाले (वि) भी ( तित्थरस ) चतुर्विध संघको ( संतिकरा ) दुरितोपशमन करने वाले ( हवन्तु ) होओ, ( भावार्थ ) जिन शास्त्रमें किया है आदर जिन्होंने महिषवध रूप निंदनीक मार्ग से सर्वथा जुदे और सब वेयावच्च करनेवाले भी चतुर्विध संघको दुरितोपशमन करनेवाले होओ. ( गाथा ) जिणसमय सिद्ध सुमगा वहिय भव्वाण जाणय साहृज्जो || गीयरई गीयजसो स परिवारो सुहंदि - सउ ॥ १६ ॥ (छाया) जिनसमयसिद्धसुमार्गवहितभव्यानां जनितसहाय्यः सपरिवारः गीत रतिः गीतयशाः सुखं दिशतु. ( पदार्थ ) ( जिण समय) जिनशास्त्रमें (सिद्ध) निश्चित (सुभगा ) जो सुमार्ग उसमें ( वहिय ) आश्रव रहित ( भव्वाण ) भव्यजीवोंको ( जागिय ) उत्पन्न किया है ( साहज्जो ) साहाय्य जिसने ऐसेगीयरई) दक्षिण दिग्भव गतिरति
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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