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________________ नमिऊणस्तोत्रम् ॥ गजशावाः तैः मुक्ताः परिच्युताः सीत्काराः कातरशब्दाः तैः प्रचुरे परिपूरिते समरे संग्रामे तव प्रभावेण तव प्रतापेन धवलं उज्वलं यशः ख्याति प्राप्नुवन्ति लभते ॥ १६-१७ ॥ ... (पदार्थ ) (पासजिण ) हे पार्श्वजिन (पावपसमिण ) हे पापोंके प्रणाशक ( निज्जिय ) जीतलिये हैं (दप्पुद्धर) शूरताके गर्वसे अन्ध ( रिउनरिंद ) शत्रुराजाओंके (निवहा ) समूह जिन्होंने ऐसे ( भडा ) शूरपुरुष (तिखखग्य ) तीक्षण खड्गोंके ( अभिग्घाय ) प्रहारों से ( पविद्ध ) बेरोक ( उडुय ) इधर उधर नाचने लगतेहैं ( कबंधे ) मस्तक रहित कबंध जिसमें (कन्त) भालोंसे ( विणिभिन्न ) छिदेहुएहैं अंग जिन्होंके ऐसे ( करिकलह ) हाथियोंके बच्चोंके ( मुक्कसिक्कार ) निकले हुऐ सीत्कारोंसे ( पउरम्भि ) प्रपूरित ऐसे ( समरम्भि ) संग्राममें ( तुह ) आपके (प्पभावेण ) प्रभावसे ( धवलं ) उज्वल ( जसं ) कीर्ति ( पावन्ति ) प्राप्त करते हैं ॥ १६-१७ ॥
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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