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‘सिग्धमवहर स्तोत्र ॥
(गाथा ) . जिणदत्ताणंसम्म मन्नति कुणंति जेयकारिति । मणसावयसावउसा जयंतु साहम्मियातेवि ॥१३॥
(छाया) ये जिनदत्ताज्ञा मनसा वचसा वपुषा सम्यक मन्यते ये च तां कुर्वन्ति ये च तां कारयन्ति तेऽपि साधर्मिकाः जयन्तु ।। १३ ॥
(पदार्थ) (जे) जो (जिण ) जिनभगवानने (दत्त) दी हुई ( आणं ) आज्ञाको (मणसा) मनसे (वयसा) वाणीसे ( वउसा ) शरीरसे ( सम्म ) योग्य ( मन्नति ) मानते हैं ( कुगंति ) करते हैं ( कारिति ) करवाते है ( तेवि ) वेभी ( साहाम्मया ) साधर्मिक ( जयन्तु ) विजयी होवो ॥ १४ ॥
(भावार्थ) जिन भगवानने दी हुई आज्ञाको जो मन वचन कायसे योग्य मानते हैं स्वयं आचरण करते हैं और अन्योंसे भी आचरण करवाते हैं वे साधर्मिक भी विजयी होओ ॥ १३ ॥
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