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________________ गुरुपारतव्यस्तोत्रम् ॥ . (पदार्थ ) में श्रीजिनदत्तसूरि ( अहिब ) समुद्रके समान (मयरहियं) आठप्रकारके मदोंसे रहित उदधिपक्षे (मयर) जलजंतुओको (हियं ) हितकारक ( गुणगण ) ज्ञानादिगुणों के समूह येही मानो ( रयण ) रत्न उन्होंकी (सा) लक्ष्मी उसका (आय) लाभ उसे (रं) देनेवाला उदधिपक्षे ( गुणगण) शुलादिरोगापहरण और ऋद्धिवृद्धिसौभाग्यादिजननादिगुणहैं जिन्होंमें ऐसे ( रयण ) कर्केतनादि सोलह भेदके रत्नोंकी और (सा) लक्ष्मी की (आयर ) खदान (तं ) उस प्रसिद्ध ( सुगुरुजण) सामान्यचार्योंमें युग प्रधानत्वसे श्रेष्ट श्रीसुधर्मस्वामि प्रमुख आचार्योंका समूह उनके (पारतंत) आम्नाय को ( सायरं ) भयरहित उदधिपक्षे ( साय ) सुखको (२) देनेवाला ( पणमिऊणं ) नमस्कार कर (थुणामि ) स्तुति करता हूं ॥१॥ (भावार्थ) मैं जिनदत्तसूरि जलजंतुओंको हितकारक शुलादिरोगोंके नाशक और ऋडिसिद्धिके जनक ऐसे (ककेंतनादि सोलह भेदके) रत्नोंकी खदान और अत्यन्त सुरवकारक
SR No.002456
Book TitleStotradi Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKantimuni, Shreedhar Shastri
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages214
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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