Book Title: Panch Pratikramana Sarth
Author(s): Gokaldas Mangaldas Shah
Publisher: Shah Gokaldas Mangaldas
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य देव श्री भ्रातृचन्द्रमरि ग्रन्थमाळा (५५ में) श्रीमन्नागपुरीयबृहत्तपागच्छीय (श्रीपार्श्वचन्द्रसूरि गच्छ) श्रीपञ्च प्रतिक्रमण सार्थ सुरिन्द्रं भ्रातृचन्द्राख्यं दिव्यं स्याद्वादवादिनम् ॥ पदस्थं नयनिष्णातं वन्दे श्रीमुक्तिनन्दनम् ॥११॥ उपदेशकजं० यु० प्र० भ० - पुज्यपाद जैनाचार्यबर्यश्रीभ्रातृचंन्द्रमरिश्वरजीमहाराजसाहेबनाशिष्यरत्नमुनिराजश्रीप्रसादचन्द्रजीमहाराज Jain Edoaudumi Navas EPIVADXAPOISONATA STMAVMPIRAravina Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१) विरमगाम निवासी, शेठ श्री जसराजभाइ मोहनलालना स्मरणार्थे तेमना धर्मपत्नी विधवा बेन छबलबाट तरफयो. अमदावाद सामलानी पोळना माविको तरफथी थयेल मदद ६३) शा. रतिलाल मोकमचंदभाइना तरफथी .५१) शा. पोपटलाल सांकळचंदना स्मरणार्थे सेमना धर्मपत्नी बेन केवळीबाइ तरफथी५१) शा. जेशोंगभाइ खेमचंदना धर्मपत्नी बेन चंपाबेन तरफथी. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यश्रीभ्रातृचन्द्रसूरि ग्रन्थमाला पुस्तक ५५ मुं (श्रीपार्श्वचंद्रसूरि गच्छ ) __श्रीमन्नागपुरीय बृहत्तपागच्छीय श्रीदेवसि-राइप्रतिक्रमणसत्र __(शब्दार्थ-पदार्थ-विशेषार्थ-फूटनोट-विधि वगेरे अनेक उपयोगी विषयो सहित) : उपदेशक: पूज्यआचार्यदेवश्रोसागरचंदसूरीश्वरजीना शिष्यरत्न मुनिश्री वृद्धिचंद्रजी महाराज साहेब. : द्रव्य सहायक: शेठ प्राणजीवनदास गुलावचंदना स्मरणार्थ तेमना पुत्र चीमनलाल तथा शेट हरिलाल हकमचंदना स्मरणार्थ तेमना भत्रीजा शेठ चीमनलाल बालाभाइ प्रकाशक : शाह मोकलदास मंगलदास (सामळानी पोळ) वि० सं. १९९८, सन् १९४२ वीर सं. २४६८ प्रथम आवृत्ति अमूल्य प्रति ५०० धी वीरविजय प्रीन्टींग प्रेसमां शा. केशवलाल शांकळचंदे छाप्युं ठे. सलापोस क्रोसरोड-अमदावाद. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ messassacrescom पु अर्पण पत्रिका महूमपरमपूज्य परमोपकारी गुरुराज आचार्यदेव श्रीश्रीश्री १००८ भ्रातृचंद्रसूरीश्वजी महाराज साहेब तथा भाचार्यश्रीमद सागरचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज साहेब. जेओए पोताना चारित्रवडे, जगजीवोना अंतःकरणने सुवासित करीने, पोतानी अमृतमय वाणीथी अमारा जेबा अनेक जीवोने आनंद पमाडी, उत्तम देहथी, परोपकारादि उत्तम कार्य साधी, विद्वत् शिरोमणि सकलशास्त्र पारगामी, समता अने क्षमाना समुद्ररूप थइ, जगतनी अंदर निर्मल यशने अचल स्थापी, प्रातःस्मरणीय आपश्रीजी स्वर्गवासी थया, ते उक्त आपना अनेक गुणोथी आकर्षाइने, आपना अमर आत्माने, आ लघु पुस्तक समर्षण करीए छीए. ली. वृद्धिचंदजी | Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रभाते अने सांजे अवश्य करवा जेवू तेने आवश्यक कहे छे. अने तेने ज प्रतिक्रमण कहे छे. आत्माना विकासने लक्ष्यमा लइने जो प्रत्येक क्रियाओ करवामां आवे तो सम्यक्त्व, चारित्र वगेर गुणोनी शुद्धि थतां ते करनार मोक्ष मेळवी शके छे माटे आ आवश्यक क्रियाने शास्त्रमा आध्यात्मिक क्रिया कही छे. ___आ क्रिया पांच प्रकारे कही छे. दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चौमासिक अने सांवत्सरिक. ज्यारे अहीं प्रथमनी बेज बताववामां आवी छे. . १ सामायिक, २ चतुर्विशतिस्तव, ३ बांदगां, ४ प्रतिक्रमण, ५ कायोत्सर्ग, अने ६ प्रत्याख्यान आ छ अध्ययनरूप होवाथी प्रति__क्रमणना छ आवश्यक छे. उपर्युक्त सामायिक आदिनो अर्थ सामान्य रीते विचारतां जणाय छे के, आ आवश्यक क्रिया करवाथी आश्रवनो निरोध थतां, संवरनी प्राप्ति अने तृष्णानो नाश थाय छे अने तेटलो वखत अवश्य समभाव प्रकट थता, अनुक्रमे ते क्रिया करनार मनुष्य मुक्ति मेळवी शके छे. आ ग्रन्थना मुख्य आश्रयदाता सेवाभावी मुनिश्री विद्याचंदजी महाराजना सदुपदेशथी बीकानेर निवासी शेठ श्रीमान् बाबू हजारीमलजी नथमलजी संपत्तलालजी, मूळचंदजी रामपुरीयाए तेमनां छपातां पुस्तक उपरथी ५००) कोपी वधारे काढवानी अनुमति आपवा माटे Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा मुनिश्रीवृद्धिचंदजी महाराजना सदुपदेशथी खंभातनिवासी, शेठ चीमनलाल प्राणजीवनदास तथा शेठ चीमनलाल बालामाइ अमदावाद निवासीनो पण आभार मानवामां आवे छे. . आ ग्रंथनी प्रेस कोपी अने छपातां तेना प्रुफो मननपूर्वक जोइ जवा माटे तथा संपादन कार्य माटे भावनगर निवासी व्याकरणतीर्थवैयाकरणभूषण पंडित अमृतलाल मोहनलाल संघवीने तथा तेमने केटलीक मौलिकसलाह आपवा बदल पूज्य मुनिराज श्री लामचंद्रजी महाराजसाहेब तथा सुशीलभाइ सुमतिचंद मंगळदासे प्रुफ जोवामा मदद करी छे ते बदल अहीं तेओने तथा शा. वाडीलाल लल्लुभाइ वगेरेने धन्यवाद आपवामां आवे छे. आ ग्रन्थमा अन्य जे जे भाइओए मदद आपी छे तेओनो आभार मानवामां आवे छे. ___प्रमादवश के दृष्टिदोषथी या प्रेसदोषथी शास्त्रविरुद्ध कंह पण लखाण थयु होय तेनो त्रिविधे मिच्छामि दुकडं दइए छीए. पार्श्वचंद्र गच्छीय उपाश्रय वीर संवत् २४६८ शामळानी पोळ-अमदावाद । प्रकाशक Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गस्थ परमपूज्य जैनाचाये श्री भ्रातृचंद्रसूरीश्वरजी महाराज. जन्म : सं.१९२० सूरिपद : स. १९६७ वै. वांकडीया वडगाम-मारवाड. सु. १३ सीवगंज. दीक्षा : सं. १९३५ फा. सु. २. स्वर्गवास : १९७२ Jail Education Interest, EN TTA. For Private & pofsona CIE CnlyThetatuww.jallelibrary.org Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका ११८ १९९ ०. m WW ० ० ० विषय पृष्टांक. नमस्कार मंत्र. पंचिदिय. इच्छामि खमासमण इरियावहिये. तस्स उत्तरी. अन्नत्थ ऊससिएणं. लोगस्स-नामस्तव पडिलेहणाना ५० बोल. (करेमिभंते) सुगुरुवंदन. चैत्यवंदन (एस-करेमि) अन्नाण कोह. सिरिरिसहेसरनी थूइ. जं किंचि. नमुत्थुणं वा शकस्तव. । इच्छामि ठामि अतिचारनी आठ गाथा. सातलाख. अढार पापस्थानक. चारविकथा. सब्यस्साव. चत्तारिमंगलं. वंदित्तु (श्राद्धप्रतिक्रमणस्त्र) १२४ विषय पृष्टांक.. अब्भुट्ठिओ. आयरिय उवज्झाए. १९१ सचलोए अरिहंत चेइआणं. १९३ पुख्खरवरदीवड्ढे.. १९४: सिद्धाणं बुद्धाणं. इच्छामोऽणुसहिँ नमो० २०३ नमोदुरि रागादि. शांतिनाथजीनुं स्तवन जय वीयराय. विनयनी सज्झाय. २१२ चउक्कसाय. जावंति चेइआई. २१७ जावंत केविसाहू. २१८ उवसग्गहरं स्तोत्र. २१९ सामाइय. वयजुत्तो. अथ राइप्रतिक्रमण विधि २२७. जगचिंतामणि चैत्यवंदन. २२७ भरहेसर बाहुबलोनी सज्झाय २३५ छमासी तपचिंतवणा. २४० तीर्थमाला. २.४१ चैत्यवंदन-विशाललोचनदलं २४६ वीस विहरमाण जिन स्तुति. २४९ ० 3 १०५ १०९ ११९ १२१ । १२२ १२३ | Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ विषय पृथंक. विषय पृष्टांक. श्री समेतशिखरजीनुं स्तवन, २५३ सिद्धचक्रनुं चैत्यवंदन-१ २५९ साधुजीने चौद प्रकारना दाननी सिद्धाचळजीन. . निमंत्रणा २५६ श्रीशांतिनाथy. २५९ श्री सरस्वती-श्रुतदेवीनी स्तुति २५६ श्री जिनप्रतिमा स्थापन स्तुतिः २६० चैत्यवंदन करनेकी विधि, २५७ श्री नवपद स्तवन. '२६१ गुरुवन्दन करेनेकी विधि. २५७ श्री शत्रुजय स्तवन सामायिक लेनेकी विधि २५८ श्री शांतिनाथजीनु ,, २६२ २६२ सामायिक पारनेकी विधि शान पंचमीनी सज्झाय २५८ श्री पार्श्वचन्द्रसूरिनो छंद पच्चक्रवाण " " २६४ नवकारसिनु पच्चक्खाण पोरसिन ६५९ । आचार्य श्री सागरचन्द्रसूरिजीनो छंद, युगप्रधान श्रीपाश्चचन्द्रमूरि दादाका छंद सूरिपार्श्वचन्द्र हुवा अबतारी । जस नामतणी महिमा भारी ॥ कट टले मिटे तापतगो । पूज्य दादाजीरो जापजपो ॥ १ ॥ पूज्य नामे सब कष्टटले ॥ वलि भूत प्रेत तो नाहि छले । मिले न चोर होय गप्पचपो || पू० ॥ २॥ लक्ष्मी दिनदिन वधजावे । ओर दुख नेडो तो नहि आवे ॥ व्योपारमें होवे बहुत नफो ॥ पू० ॥ ३ ॥ अडयो काम तो होइ जावे। वलि बिगडयो काम तो बनजावे ॥ भूल चूक नहि खाय डफो ॥ पू० ॥ ४ ॥ राजकाजमें तेज रहे । वलि खनाखमा सबलोक कहे ॥ आछिजायगा जाय रूपो ॥ पू० ॥ ५॥ पूज्य नामतणो जिण लियो ओटो । तस कदे नहि आवे तोटो | घर घर बारणे कांइ तपो, पू० ॥ ६॥ एक माला नित्य नेम रखो। किण वात तणो नहि होय धको ॥ खालि विमान ओर टले जीसपो ॥ पू० ॥ ७॥ स्व गच्छतणी प्रतिपाल करे । मुनिराम सदा तुम ध्यान धरे । कोइ प्रत्यक्ष घात मति उथपो ॥ पू०॥ ॥ ८॥ इति ॥ ओं ही श्री पार्श्ववन्द्रसूरिसदगुदुभ्यो नमः । . Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीभ्रातृचन्द्रसूरिषद्पदी-स्तवनम् ॥ . " व्रजराज आज सांवरो बंसी वजा गयो" इत्यनेन रागेण गीयते. श्रीभ्रातृचन्द्रसूरिराजमर्थदायकं । मजस्व हे सखे ! गुरुं विरागिनायकम् ।। ढेर ॥ संसारमेतमुज्झितुं समीहसे यदा। मुक्तिं च यातुमिच्छसि प्रमोदतस्तदा ॥ श्रीभ्रातृ०॥१॥ प्रवेशमीहसे यदा धियो निवेशने । तदा मनः प्रसारयेममोपदेशने ॥ श्रीभ्रातृचन्द्र० ॥२॥ करालकाल एष संनिधौ समागतः । किमीक्षसे विनश्वरं फलं हि रागतः ॥ श्रीभ्रातृचन्द्र० ॥३॥ विहाय कर्म शास्त्रमर्म धर्मकर्मणे । ग्रहीतुमीहसे यदा तदा सुशर्मणे ॥ श्रीभ्रातृचन्द्र० ॥४॥ श्रीपार्शचन्द्रसूरिराजवंशदीपकं । मुमुक्तिराजधानिकाध्वनः समीपकम् ॥ श्रीभ्रातृ०॥५॥ तपःप्रकर्षनिर्जितोरुपञ्चसायकं । महानिदेशनासुधारसप्रदायकम् ॥ श्रीभ्रातृचन्द्र० ॥६॥ नित्यानन्देन रचिता भाईलालेन गापिता । आचार्यभ्रातृचन्द्रस्य षट्पदास्तां मुखाम्बुजे॥ श्रीभ्रातृ०॥७॥ . १ समीपयतीति समीपकस्तं-मुक्तिराजधान्याः सामीप्यदर्शकम्. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्व तीर्थकरोना माता पिता विगेरे संबंधी संक्षिप्त हकीकत जाणवा माटे नीचेनो कोठो आप्यो छे. तीर्थकर नाम. ! पिता. माता. जन्मस्थान | लांछन शरीरमान. वर्ण. आयुष्य. १ ऋषभदेव नाभि मरुदेवा | अयोध्या वृषभ ५००धनुष सुवर्ण ८४लाखपूर्व २ अजितनाथ जितशत्रु विजया अयोध्या | हस्ती ४५०धनुष सुवर्ण ७२लाखपूर्व ३ संभवनाथ जितारि सेना । श्रावस्ति | अश्व ४००धनुष सुवर्ण ६० लाखपूर्व ४ अभिनंदन संवर सिद्धार्था) अयोध्या वानर ३५०धनुष सुवर्ण ५० लाखपूर्व ५ सुमतिनाथ मेघरथ सुमंगला अयोध्या | क्रौंच ३०० धनुष सुवर्ण ४० लाखपूर्व ६ पद्मप्रभ | श्रीधर सुसीमा कौशांबी पद्म २५० धनुष रक्त ३० लाखपूर्व ७ सुपार्श्वनाथ सुप्रतिष्ठ, पृथ्वी काशी स्वस्तिक २००धनुष सुवर्ण २० लाखपूर्व ८ चंदप्रभ महासेन लक्ष्मणा चंद्रपुरी | चंद्र १५०धनुष श्वेत १०लाखपूर्व ९सुविधिनाथ सुग्रीव | रामा । काकंदी ! मकर १००धनुष श्वेत २लाखपूर्व १०शीतलनाथ दृषरथ । नंदा भद्दिलपुर श्रीवत्स ९०धनुष सुवर्ण १लाखपूर्व ११श्रेयांसनाथ विष्णुराज विष्णु , सिंहपुर | गेंडो । ८०धनुष सुवर्ण ८४लाखवर्ष १२ वासुपूज्य वसुपूज्य जया । चंपा पाडो । ७०धनुष रक्त ७२लाखवर्ष १३ विमलनाथ कृतवर्म | श्यामा । कंपिलपुर भुंड६०धनुष सुवर्ण ६० लाखवर्ष १४ अनंतनाथ सिंहषुन सुयशा | अयोध्या सिंचाणो ५०धनुष सुवर्ण ३० लाखवर्ष १५ धर्मनाथ | भानु | सुव्रता | रत्नपुर | वज्र ४५धनुष सुवर्ण १० लाखवर्ष १६ शांतिनाथ | विश्वसेन अचिरा | हस्तिनापुर मृग । ४०धनुष सुवर्ण १लाखवर्ष १७ कुंथुनाथ | सूर | श्री हस्तिनापुर बकरो | ३५धनुष सुवर्ण ९५हजारव. १८ अरनाथ | सुदर्शन देवी | हस्तिनापुर नंदावत, ३० धनुष सुवर्ण ८४हजारव. १९ मल्लिनाथ | कुभ प्रभावती| मिथिला | कुंभ । २५धनुष नील ५५हजारव. २० मुनिसुव्रत | सुमित्र पद्मा । राजगृह , काचबो २०धनुष कृष्ण ३०हजारव. २१ नमिनाथ विजय वप्रा । मिथिला नीलकम. १५धनुष सुवर्ण १०हजारव. २२ नेमिनाथ समुद्रवि | शिवा । शौरिपुर शंख । १०धनुष श्याम १हजारव. २३ पार्श्वनाथ | अश्वसेन वामा । काशी । सर्प । ९ हाथ नील १०० वर्ष. २४ वर्धमान- सिद्धार्थ त्रिशला क्षत्रियकुंड सिंह ७ हाथ सुवर्ण ७२ वर्ष, स्वामी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपार्श्वप्रभुपादपद्ममधुलिङ्जातः सदा सेवया श्रीजैनेन्द्रमुखाब्जनिस्मृतवचोविस्तारित श्रेयसे ।। संसाराब्धिनियामकं बुधवरं देवैः सुसंपुजितम् । तं सूरिं सुखदं भजे गुरुवरं चद्रोत्तरं सागरम् ॥ सं १९४३ भाडिया परमपूज्य शासनमान्य आगमरहस्यवेदी आचार्यदेव आचार्य पर सं१९९३ श्री भ्रातृचंद्र सुरीश्वरजीना पट्टधर शिष्य आचार्य अमदावाद देवश्री १००८ श्री सागरचंद्र सुरीश्वरजी साहेब. म्वर्ग सं १९ www.jainekytovat चंभात Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीसागरचंद्रसूरिगुरुगुणाष्टकम् योऽपांसुलैमुनिवरैरपि माननीयो-विज्ञानदानकरणेन वदान्यभूमा । दुष्टेन्द्रियाश्वदमनेन धुरीणदान्तो जैनान्शुभं दिशतु सागरचन्द्रसूरिः ॥ १ ॥ मानापमानविजयेन सदैव शान्तः शास्त्रार्थपारगमनेन नितान्तधीरः । आत्मीयधर्मपरिरक्षणजागरूकः, पायात्स सागरमुनिर्भविनो भवाब्धेः ॥ २ ॥ सत्यादिभिक्षुकमहाव्रतपालनोत्कः सद्भावभावितमनाः समभावशाली । षड्जीवरक्षणविधिप्रथिताभिधेयो, भूयाद्भवाब्धितरणे स मुनिस्तरीव ॥३॥ कर्माष्टकेन्धनकभस्मविधानदक्षो-वैराग्यवाससुरभीकृतदिप्रदेशः। त्यागेन साधुजनकीर्तितत्यागिशब्दोजैनान्सदावतु स सागरचन्द्रसूरिः ॥ ४ ॥ यः शास्त्रसागरविलोडनदेवतेन्द्रो-निष्कास्य ज्ञानममृतं पिबति प्रमोदात् । आचार्यसर्वगुणभृद्यतिधर्मपालो-जैनेन्द्रशासनमणिर्जयतान्मुनीशः ॥५॥ विज्ञातपाणिनिमहामुनिशास्त्रसारः, काणादशासनविगाहनलब्धबोधः । साहित्यसाररसनिर्झरमजनोत्को, जीयात्स सागरमुनिभवपाशछेत्ता ॥ ६ ॥ योऽनेकदुर्गमवितर्कविनाशदक्षो, वन्दारु. जैनसुजनस्य स कल्पवृक्षः । भक्तयब्धिवृद्धिकरणे शरदिन्दुकल्पो, भूयादलं मुनिवरो जिनधर्मपुष्टयै ॥ ७ ॥ बीजं जिनेन्द्रनिहितं भुवि भारतेऽस्मिन्, उद्गच्छदङ्करयुतं गणपा अकार्षुः । तजातधर्मविटपी बहुपर्णशाखः, पोषं नयत्वनुदिनं मुनिरेष तं च ॥ ८ ॥ परमपूज्य मुनि महाराजश्री जगतचन्द्रजी गणितुं अष्टक (शिखरिणीवृत्तम् ) सदा शान्तं दान्तं मविजनमनोऽले सुकमलम् । ददानं सम्यक्त्वं भवजलधिपाराय कृतिने ॥ सुधावाचासङ्घान् शिवपदपथान् संविदधतम् । जगचन्द्रं वन्दे जितमदरिपुं तं गणिवरम् ॥ १॥ नवो जातश्चन्द्रो जगति सुखदः कोऽपि मुनिपो।। यशोमिविख्यातो जित-मदन-मोहादिकलहः ॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .: . अजनं यो वीरप्राचरणपणे मधुकरः ! जगच्चन्द्रं वन्दे जितमदरिघु तं गणिवरम् ॥२॥ अपारे संसारे तरणिरिव सन्तारकुशलः । गभीरेणान्धि योऽजयदनघकल्याणमुखदः ॥ सदा रक्तः पद्मे मधुप इव सुभ्रातवरणे । जगच्चन्द्रं वन्दे जितमदरिपुं तं गणिवरम् ॥३॥ चकार श्रीपार्श्वप्रभु-गुणगणैर्योऽतिविमलां । कथां सम्पदात्रीं भवभयहरां मुक्तिजननीम् ॥ अहंकाराद्रिं यः क्षणमपि विडोजाः स्म जयति । जगच्चन्द्रं वन्दे जितमदरिपुं तं गणिवरम् ॥ ४॥ तमोहन्त्रीं यस्य प्रकृतिमधुरां भव्यसुखदां । कथां पीत्वा लोकोऽमृतमपि च पातुं न यतते ।। सदा मास्वत्तल्यो जनहृदयप विघटितुम् । जगच्चन्द्रं वन्दे जितमदरिपुं तं गणिवरम् ॥५॥ मुनिर्विद्याचन्द्रो निजसुत इवाभूत् सहचरः। स्वमावं यस्यैतं शशिन इव दृष्ट्वा मुखकरम् ॥ सदानन्दं दाता निरुपमयशा यो दुरितहत् । जगच्चन्द्रं वन्दे जितमदरिपुं तं गणिवरम् ॥ ६ ॥ महामोहस्तम्बेरम-हननकर्ता हरिवरः । सदा सङ्घः पूज्यो दिनकर इवाभूत् मियवरः॥ जिनेशोक्त धर्म शिवयुवतिसङ्गाय यतते । जगच्चन्द्रं वन्दे जितमदरिपुं तं गणिवरम् ॥ ७॥ जितान्तः-शत्रु बुधजनशरण्यो मुनिवरो । मजन् यो देवेशाश्चितचरणपगं जिनवरम् ॥ गतः स्वर्ग कल्परिव मुनिलामाय मुखदः । जगतच्चन्द्रं वन्दे जितमदरिपुं तं गणिवरम् ॥ ८॥ | Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वगस्थ परम पूज्य तपस्वी मुनिमहाराज श्रीजगतचंद्रजी गणी (बावाजी) जन्म : सं. १९३५ देशलपुर, दीक्षा : सं. १९५५ कच्छ-अंजार स्वगस्थः सं. १९९७ वै. शु. ४ बुध. उनावा. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक ४१९ , ४२. " ४२१ مر ० ४०२ ० ० س विषय एकासणा बियासणानु , आयंबिलनु । तिविहार उपवासनु चउविहार , पाणहारनु चउविहारनु तिविहारनु दुविहारनु " ४, चउद नियमनु मुठिसहियं गंठसहियंनु ,, देशावगाशिक श्री आदि-अजितशांति स्तवन ४ ,, शांतिनाथ स्तवन , श्री पार्श्वनाथनु श्री पार्श्वनाथ मंत्रगर्भित , ., . , , ४ ,, श्री जगडीआ मंडन , ४२५ श्री जिनेन्द्र श्री सद्गुरुनी स्तुति श्री भ्रातृचंन्द्र सूरीश्वरजीनो छंद ४२७ आ० दे० श्री भ्रातृचन्द्रसूरी श्वर गुणनी सज्झाय ४२८ , सागरचन्द्रसूरि स्तुति ४३० ० विषय पृष्टांक. चतुर्विंशति-जिन-अर्हत चैत्यवंदन२५७ श्री महावीरस्वामिनी स्तुति २९३ श्रावक पाक्षिकादि अतिचार ३०१ पुढवाइसु पत्तेयं ३५१ अजितशांति स्तवन ३५५ पक्खि सज्झाय चोमासी प्रतिक्रमण विधि ४०२ सांवच्छरिक ,, ,, पोसह विधि ४०३ पोसहनु पञ्चक्खाण सवारना पडिलेहण विधि अरहंदेवोनी सज्झाय देववंदन विधि ४०६ चैत्यवंदन जिनेन्द्र स्तुति ४०८ पञ्चक्खाण पारवानी विधि ४०९ , , गाथा ४१० सांजना पडिलेहण विधि ४११ मांडला ४१२ राइ संथारा विधि ४१४ संथारा पोरिसि ४१४ पोसह पारवानी गाथा ४१८ पञ्चक्खाण पच. ४१९ पुरिमट्ठ अवड्ड , ४१९ । ه ० م ० ० م ० ४३१ स्व. मु. श्री जगतचन्द्रजीगणीनी स्तुति ४३२ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रक पंक्ति अशुद्धि शुद्धि अनंत अंत राणा हुओ. १४ १३ २३ १९२ १९९ राणी आसाययाए आसायणाए थाओ जे . जेणे थया बतावे छे:- हुआ कहेवा मनहारी मनोहारी जगह जगही बाजी गाथा डबल छे एकवार बोलवी उळोदरी उणोदरी चार नवकार आह नवकार परंपरागयाणं परंपरगयाणं विपुलगिरि० विपुलगिरि वैभारगिरि आदा आदी मण्ड मण्डन ० जेयल ० जेयबलः समहार० समाहार० प्राप्तुवन्तः प्राप्तवन्तः यानसदृशः यानयानसदृशः शखवत् शंखवन् २४१ २६० २६५ २६५ ૨૬૮ ૨૭ર Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ २७२ २७४ २८१ २८४ २८४ २८७ २८८ २९६ ३२४ ३२७ ३३४ ३४० ३६६ ३६७ ३७७ ३९१ ४०३ ૪૪ ४०५ ४१० ४११ पंक्ति १४ १२ २ १६. 28 २० ८ १० १९ १५ १२ ११ २ १७ 9 २४ १० १० २५ अशुद्ध उज्जित० द्वादशमं संहननंः समिचीना B उत्तरः ना-मनुष्यने दुद्योत स्वदारा संतोष० स्वदारासंतोष परदारा ० दो० पर भूके गय- हाथ विधानमां विण-नियम खमासभण अरहंदेवीनी शुद्ध उज्झित● द्वादशं संहननं समीचीना सम्मत्तमि आहाराहियं प्रभुख पूर्वक० पूर्वक जेमणे प्रभुना सुंदर गतिवाला बे पगोने वारंवार १८० उत्तरम् न-नही • दुद्योत दोष परे मूके गय-हाथी निधानमां विण-विनय खमासमण अरहंदेवोनी संमत्तंमि आराहियं प्रमुख Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - mmmmm पच्चक्खाणनो कोठो. ता. १ थी १६ सुधीनु अंतर काढीने पच्चरूखाणनो समय पारवो. नीचेनो कोठो अमदावादना टाइम प्रमाणे छे. बहारगामवाळाए ५ मीनीट उमेरीने पच्चख्खाण पारवु. मास सू. उ.सू. अ.| नवका. पोरिसी साठ पो. पुरिमळू.| अक्ट क. मि.क. मि.क. मि.क. मि.क. मि. क. मि.क. मि.) जान्यु १७-२२६-५ ८-१०१०-३११-२४/१२-४४३-२५/ , १६७-२५६-१५८-१३१०-८११-२९/१२-५०३-३३ फेब्रुआरी १७-२१६-२७८-९१०-८११-३१/१२-५४३-४१/ १६७-१३६-३६८-११०-४ ११-३०१२-५५३-४६| १ ७-४६-४२७-५२ ९-५९/११-२६१२-५३३. १६६-५०६-४८७-३८ ९-५०११-२०१२-४९३-४९ १ ६-३४६-५४७-२२ ९-३९११-१२/१२-४४३-४९ १६६-२०७-०७-८ | ९-३०११-५ १२-४०३-५० १६-८ ७-६ ६-५६ ९-२३/११-०१२-३७३-५२ १६६-०७-१३६-४८ ९-१९१०-५०१२-३७३-५५५ १५-५५/७-२०६-४३, ९-१७१०-५८१२-३८३-५९ १६/५-५४७-२६६-४२, ९-१७१०-५९/१२-४०४-३ । १५-५८७-२९६-४३, ९-२१११-३ १२-४४४-७ १६६-४ ७-२७६-५२ ९-२५/११-६ १२-४६)४-७ १६-११/७-२१६-५९ ९-२९/११-८/१२-४६/४-४ १६६-१७७-११७-५। ९-३१११-८ १२-४४३-५८ १.१६-२३६-५७७-११ ९-३२११-६ १२-४०३-४९ १६६-२७६-४२७-१५ ९-३१११-३ १२-३५/३-३९ कटो. १६-३३६-२७७-२१/ ९-३२/११-१ १२-३०३-२९ १६६-३८६-१३७-२६, ९-३२१०-५९१२-२६३-२० नवेम्बर १६-४६६-१७-३४ ९-३५/११-० १२-२४३-१३| . १६६-५५५-५४७-४३ ९-४०११-३ १२-२५३-१० डीसेम्बर १ -५ ५-५२७-५३ ९-४७११-८१२-२९३-११ .. १६७-१५५-५६८-३ । ९-५६/११-१६।१२-३६३-१०॥ 9ur or or rur । । ओगष्ट س س س Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ ॐ श्री पार्श्वनाथाय नमः । श्री पञ्चप्रतिक्रमणसूत्र. ( अर्थसहित) १ नवकार (नमस्कार) सूत्र. मु०-नमोअरिहंताणं शनमो सिद्धाणं २ । नमो आयरियाणं ३॥ नमो उवज्झायाणं ४ नमो लोए सव्वसाहूणं ५। एसो पंचनमुकारो ६। सव्वपावप्पणासणो ७ मंगलाणं च सव्वेसिं ८। पढम हवइ मंगलं ॥९॥ शब्दार्थ:नमो-नमस्कार थाओ. आयरियाणं-आचार्योने. अरिहंताणं-अरिहंतोने. उवज्झायाणं-उपाध्यायोने. लोए-लोकने विषे एटले अढी सिद्धाणं-सिद्धोने. द्वीपने विषे वर्तता. *आ अने आना पछीनुं बन्ने सूत्रो स्थापना करती वखते उपयोगी छे. आ सूत्रां, अरिहंत अने सिद्ध ए बे प्रकारना देवने तथा आचार्य, उपाध्याय अने साधु ए त्रण प्रकारना गुरुओने नमस्कार कर्या छे. आ पांच परमेष्ठी परमपूज्य गणाय छे. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सन्वसाणं-सर्व साधुओने. | मंगलाण-मंगलोने मध्ये. पसो-आ. च-तथा. पंचनमुक्कारो-पांच परमेष्ठीने सन्वेसिं-सर्व. करेलो नमस्कार. पढम-प्रथम, पहेलं. सव्वपावप्पणासणो - सर्व- हवइ-छे. पापोनो नाश करनार छे. । मंगलं-मंगल. नमो अरिहंताणं-नमस्कार हो अरिहंतोने। नमो सिद्धाणं-नमस्कार हो सिद्धोने। नमो आयरियाणं-नमस्कार हो आचार्योने । नमो उवज्झायाण-नमस्कार हो उपाध्यायोने । नमो लोए सव्वसाहूण-नमस्कार हो लोकमां सर्व साधुओने । एसो पंचनमुक्कारो-ए पांचेने करेलो नमस्कार । सव्वपावप्पणासणो-सर्व पापने सर्वथा नाश करनार छ। मंगलाणं च सव्वेसिं-मंगलोमां अने सर्वमा । पढम हवइ मंगलं-पहेलु होय छे मंगल, मावार्थ-श्री अरिहंत भगवान १, श्री सिद्ध भगवान २, श्री आचार्य महाराज ३, श्री उपाध्यायजी महाराज १, तथा अढीद्वोपरूप लोकने विषे वर्तता सर्वसाधुओ ५, ए पांच परमेष्ठीओने के जेमना १०८ गुणो छे, तेमने मारो नमस्कार छे. आ पंच परमेष्ठीने करेलो Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमस्कार सर्व पापोने नाश करनार छे, तथा सर्व एटले लौकिक अने अलौकिक सर्व प्रकारना मंगलोमां प्रथम मंगल छे. इति नमस्कार सूत्र १. xआ पांच परमेष्ठीना एकसो ने आठ गुणो छे ते नीचे प्रमाणे. " बारस गुण अरिहंता, सिद्धा अठेव सूरि छत्तीसं। उवज्झाया पणवीसं, साहू सगवीस अठसयं ॥" बार गुण अरिहंत देव, प्रणमीजे भावे । सिद्ध आठ गुण समरतां दुःख दोहग जावे ॥ आचारज गुण छत्रीस, पचवीस उवज्झाय । सत्तावीस गुण साधुना, जपतां शीवसुख थाय ॥ “ अरिहंतना बार गुण छ, सिद्धना आठ गुण छे, आचार्यना छत्रीश गुण छे, उपाध्यायना पचीश गुण छे अने साधुना सत्तावीश गुण छे. सर्व मळीने पंचपरमेष्ठीना १०८ गुण छे." ते नीचे प्रमाणेअरिहंतना आठ प्रातिहार्य अने चार मूळ अतिशय मळीने कुल बार गुण आप्रमाणे छे__ अरि एटले राग-द्वेषादि अभ्यंतर शत्रुने हंत एटले हणनारा, जे Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवळज्ञान प्राप्त करीने भव्यजीवोने प्रतिबोध दे अने प्रतिबोध देवा माटे विहार करे एवां बार गुणवाळा तीर्थंकर भगवानने अरिहंत कहे छे. १ अशोकवृक्ष-ज्यां भगवाननुं समवसरण रचवामां आवे छे, त्यां तेमना देहथी बार गुणो उंचो अशोकवृक्ष रचवामां आवे छे, तेनी नीचे बेसी भगवान देशना आपे छे. २ सुरपुष्पवृष्टि-एक योजन प्रमाण समवसरणनी भूमिमां जळमां तथा स्थळमां उत्पन्न श्रयेला सुगंधी पांच वर्णोवाळां तथा भगवाननां अतिशयने लइने जेना जीवोने बाधा-पीडा थती नथी, एवां सचित्त पुष्पोनी ढींचण सुधी वृष्टि-वरसाद देवताओ करे छे. ३ दिव्यध्वनि-भगवाननी वाणीने मालकोश राग, वीणा, वांसळी विगेरेना स्वरवडे देवो पूरे छे. ४ चामर-रत्नजडित सुवर्णनी दांडीवाळा चार जोडी श्वेत चामरो समवसरणमां देवताओ भगवानने वींझे छे. ५ आसन-देवताओ भगवानने बेसवा माटे रत्नजडित सुवर्णतुं सिंहासन रचे छे. ६ भामंडल-भगवानना मस्तकनी पाछळ शरद ऋतुना सूर्य जेवं उग्र तेजस्वी भामंडल देवताओ रचे छे, तेमां भगवान- तेज संक्रमे छे. तेम न करे तो भयवाननुं मुख जोइ शकाय नहीं. ७ दुंदुभि-भगवानना समवसरण वखते देवताओ देवदुंदुभि | Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बगाडे छे, ते एम सूचवे छे के--हे भव्य प्राणीओ! तमे शिवपुरना सार्थवाह तुल्य आ भगवाननी सेवा करो-तेमनुं शरण करो. ८ छत्र-समवसरणमां देवताओ भगवानना मस्तक उपर शरदचंद्र जेवां उज्ज्वल अने मोतीना हारोथी सुशोभित उपराउपर त्रण त्रण छत्रो रचे छे, भगवान पोते समवसरणमा पूर्वाभिमुख-पूर्व दिशानी सामे बेसे छे, अने बीजी त्रण दिशाओमां देवताओ भगवंतना ज प्रभावथी प्रतिबिंबो रचीने स्थापे छे, तेथी कुल बार छत्रो ते वखते होय छे. अन्य वखते त्रण न छत्र होय छे. समवसरण न होय त्यारे पण आ आठ प्रातिहार्यो तो होय ज छे. हवे चार मूळ अतिशय (उत्कृष्ट गुण) कहे छे ९ अपायापममातिशय-अपायनो एटले उपद्रवनो अपगम-- नाश. ते घोताने आश्रयी अने बीजाने आश्रयो एवा बे प्रकारे छे. तेमां बीजाने आश्रयी अपायापगम अतिशय ए के-जेनाथी बीजाना उपद्रवो नाश पामे, अर्थात् ज्यां भगवान विहार करता होय त्यां दरेक दिशामां मळी सवासो योजन सुधी प्रायः रोग, मरकी, वेर, अवृष्टि, अतिवृष्टि, वगेरे थाय नहीं. हवे पोताने आश्रयी अपायापगम अतिशयना द्रव्यथी अने भावथी एम बे प्रकार छे. तेमां द्रव्यथी अपाय एटले सर्व प्रकारना रोगो, ते पोताने सर्वथा क्षय थया होय छे. तथा भावथी अपाय एटले अढार प्रकारना अभ्यंतर दोषो, ने पण पोताने सर्वथा होता नथी. ते अढार दोषो आ छे. --दानांतराय १, लाभांतराय २, भोगांतराय ३, Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपभोगांतराय ४, वीयांतराय ५, हास्य ६, रति ७, अरति ८, भय ९, शोक १०, जुगुप्सा ११, काम १२, मिथ्यात्व १३, अज्ञान १४, निद्रा १५, अविरति १६, राग १७, अने द्वेष १८. १० ज्ञानातिशय-भगवान केवलज्ञानवडे सर्व लोकालोकन संपूर्ण स्वरूप जाणे छे. ११ पूजातिशय-श्रीतीर्थंकर सर्वने पूज्य छे. अर्थात् राजा, वासुदेव, बलदेव, चक्रवर्ती, देवताओ अने इंद्रो विगेरे सर्वे तेमने पूजे छे, अथवा तेमने पूजवानी इच्छा करे छे.. १२ वचनातिशय-श्रीतीर्थकरनी वाणी देव, मनुष्य अने तिथंच सर्वे पोतपोतानी भाषामां समजे छे. केम के तेमनी वाणी अर्धमागधी होय छे. ते वाणीना ३५ गुणो आप्रमाणे छे.-सर्व ठेकाणे समजाय तेवी १, योजन प्रमाण भूमिमां सरखी रीते संभळाय २, प्रौढतावाळी ३, मेघ जेवी गंभीर ४, स्पष्ट शब्दवाळी ५, संतोष उपजावनारी ६, दरेक श्रोता मने ज कहे छे एम जाणे तेवी ७, पुष्ट अर्थवाळी ८, पूर्वापर विरोध न आवे तेवी ९, महापुरुषने छाजे तेवी १०, संदेह विनानी ११, दूषणरहित अर्थवाळी १२, कठण विषय पण सुगम लागे तेवी १३, ज्यां जेवू शोभे तेवू बोलाय एवी १४, छ द्रव्य अने नवतत्वनी पुष्टि करे तेवी १५, प्रयोजनवाळी १६, पद रचनावाळी १७, छ द्रव्य अने नव तत्वनी पटुतावाळी १८,मधुरतावाळी १९,बीजानो मर्म न भेदाय तेवी चतुराइवाळी २०, धर्म अने अर्थ ए वे पुरुषार्थने साधनारी २१,दीवानी जेम अर्थनो प्रकाश करनारी २२,परनिंदा अने आत्मश्लाघारहित Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३, कर्ता, कर्म, क्रियापद, काळ अने विभक्तिवाळी २४, सांभळनारने आश्चर्य उत्पन्न करे तेवी २५, वक्ता सर्व गुण संपन्न छे एवं स्पष्ट जणाइ आवे तेवी २६, धैर्यतावाळी २७, विलंबतारहित २८,भ्रांतिरहित २९, सर्व श्रोता प्राणी पोत पोतानी भाषामां समजे तेवी ३०, सारी बुद्धि उत्पन्न करे तेवी ३१, पदना एटले शब्दना अर्थने अनेक अर्थपणे बोले तेवी ३२, साहसिकपणे बोले तेवी ३३, पुनरुक्ति दोषरहित ३४, तथा सांभळनारने खेद न उपजे तेवी ३५. सिद्ध भगवानना आठ गुण आ प्रमाणे आठ कर्मनो सर्वथा क्षय करीने जेओए मोक्षपद मेळव्यु छे तेने सिद्ध कहे छे. १ अनंतज्ञान-ज्ञानावरणीय कर्मनो सर्वथा क्षय थवाथी केवलज्ञान प्राप्त थाय छे, तेनाथी सर्व लोकालोकनुं स्वरूप जाणे छे. . २ अनंतदर्शन-दर्शनावरणीय कर्मनो सर्वथा क्षय थवाथी केवलदर्शन प्राप्त थाय छे, तेनाथी लोकालोकना स्वरूपने देखे छे. ३ अव्याबाध मुख-वेदनीय कर्मनो सर्वथा क्षय थवाथी सर्वप्रकारनी पीडारहित निरुपाधिपणुं प्राप्त थाय छे. ४ अनंतचारित्र-मोहनीय कर्मनो क्षय थवाथी आ गुण प्राप्त थाय छे तेमां क्षायिक सम्यक्त्व अने यथाख्यात चारित्रनो समावेश थाय Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे, तेथी सिद्ध भगवान आत्मस्वभावमां सदा अवस्थित रहे छे. तेज त्यां चारित्र छे. ५ अक्षय स्थिति --- आयुष्यकर्मनो क्षय थवाथी नाश न थाय एवी अनंत स्थिति प्राप्त थाय छे. सिद्धनी स्थितिनी आदि छे, पण अंत नथी, तेथी सादि अनंत कहेवाय छे. एक सिद्ध आश्री सादि अनंतस्थिति छे अने अनंतसिद्ध आश्री अनादि अंत स्थिति छे. - ६ अरूपीपं – नामकर्मनो क्षय थवाथी वर्ण, गंध, रस अने स्पर्शरहित थाय छे, केम के शरीर होय तो ज वर्णादिक होय छे, पण सिद्धने शरीर नथी, तेथी तेने अरूपीपणुं प्राप्त थाय छे. ७ अगुरुलघु — गोत्रकर्मनो क्षय थवाथी आ गुण प्राप्त थाय छे, तेथी भारे, हळवो के उंच नीचपणानो व्यवहार रहेतो नथी. ८ अनंतवीर्य — अंतराय कर्मनो क्षय थवाथी अनंत दान, अनंत लाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग अने अनंत बीर्य प्राप्त थाय छे, एटले के समग्र लोकने अलोक करी शके अने अलोकने लोक करी शके तेटली सिद्धमां स्वाभाविक शक्ति होय छे, छतां ते सिद्धोए कदि पण तेवुं वीर्य फोव्युं नथी, फोरवता नथी अमे फोरवशे पण नहीं, केमके तेमने पुद्गलनी साधे कांइ पण संबंध होतो नथी. आ अनंतवीर्यना गुणथी पोताना आत्मिक गुणोने जे रूपे छे ते रूपे ज धारी राखे छे. फेरफार थवा देता नथी. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यना छत्रीश गुण नीचे मुजबपांच आचारने जे पाळे, अने बीजाने पळावे, अने धर्मना जे नायक छे, साधुओमां राजासमान तेने आचार्य कहे छे. तेमना छत्रीस गुणो स्पर्श-त्वचा १, रसना-जिह्वा २, घ्राण-नासिका ३, चक्षु-नेत्र ४, अने श्रोत्र-कान ५, ए पांच इंद्रियोनो संवर करनार एटले पोतपोताना शुभाशुभ विषयोमा रागद्वेषथी प्रवर्ततां ते ते इंद्रियोनो रोध करनार मारा गुरु छे. जेमके कोमळ वस्तुनो स्पर्श थतां तेने सुखकारक मानी तेनापर राग न करे, तथा कर्कश वस्तुनो स्पर्श थतां तेने दुःखदायक मानी तेना पर द्वेष न करे. ए रीते पांचे * इंद्रियोना विषयोमां जाणवु. तथा नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यनी गुप्तिने धारण करनार मारा गुरु छे. अहीं ब्रह्मचर्यनी नव गुप्ति (वाड) आ प्रमाणे छे. १ स्त्री, पशु के नपुंसकनो निवास होय त्यां शीलवत धारीए रहेवू नहीं. २ स्त्रीनी कथा न करवी अथवा स्त्रीनी साथे सराग दृष्टिए *पांच इंद्रियोना २३ विषय. स्पर्शनेन्द्रियना आठ विषय-हलकुं, भारी, लुखं, चोपडेल, खरबचहूं, सुंवाळु, ठंडं अने गरम. रसनेन्द्रियना पांच विषय-मीठं, खाटुं, कडवू, कषायलं, अने तीखं. घ्राणेन्द्रियना बे विषय-सुगंध अने दुर्गध. चक्षुरिन्द्रियना पांच विषय-सफेद, काळु, पीलु, लीलु अने रातुं. श्रोत्रेन्द्रियना प्रण विषय–सचित्त, अचित्त अने मिश्र. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वातचीत न करवी. ३ स्त्रीओना एक आसन पर एटले शयन, आसन, पाट, पाटला उपर ज्यां स्त्री बेठी होय ते स्थाने बे घडी थया पहेला बेसवू नहीं. ४ मीना अंगोपांग जोवा के चिंतववा नहीं. ५ भौत, पडदा के खपेडाने ओथे स्त्री-पुरुष कामक्रीडा करता होय त्यां बेसबुं .. नहीं. ६ पूर्वे करेली कामभोगनी क्रीडानुं स्मरण करवू नहीं. ७ ब्रह्मव्रतधारीए स्निग्ध-रसकसवाळो मादक आहार लेवो नहीं. ८ शरीरनी विभूषा एटले श्रृंगारवडे शोभा करवी नहीं. ९ क्षुधा शांत थाय तेथी अधिक लुखो आहार पण करवो नहीं. तथा क्रोध, मान, माया अने लोभ ए चार प्रकारना कषायरहित मारा गुरु छे. आ प्रमाणे कुल अदार गुणे करीने युक्त मारा गुरु छे. आ सूत्रमा अढार दोषो बतावेला छे तेनो त्याग एज गुणो तरीके मानेलो छे. अर्थात् हेयद्वारा गुणो बताव्या छे. हवे अढार गुणो बतावे छे. ते आ प्रमाणे प्राणातिपात विरमण १, मृषावाद विरमण २, अदत्तादान विरमण ३, मैथुन विरमण ४, अने परिग्रहविरमण ५, ए पांच महावतोए करीने सहित मारा गुरु छे. पांच प्रकारनो आचार बतावे छे ते नीचे मुजब. ___ आठ प्रकारना ज्ञानाचारनी शुद्धि १, आठ प्रकारना दर्शनाचारनी शुद्धि २, आठ प्रकारना चारित्राचारनी शुद्धि ३, तप आचार एटले छ बाह्य अने छ आभ्यंतर एम बार प्रकारना तपनी शुद्धि ४, अने वीर्याचार एटले मन, वचन अने कायानी शक्तिने धर्मकार्यमा जोडवारूप Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ त्रण प्रकारना वीर्यनी शुद्धि ५, ए पांच प्रकारनो आचार पाळवाम समर्थ मारा गुरु छे. पांच समिति अने त्रण गुप्ति बतावे छे ते आ प्रमाणे.. इर्यासमिति एटले मार्गमां जतां - आवतां जीवोनी रक्षा माटे उपयोग पूर्वक चालवं ते १, भाषासमिति एटले निरवद्य - पापरहित अने कोइ पण जीवने दुःख उत्पन्न न थाय तेवुं वचन बोलवु ते २, एषणासमिति एटले आहार, वस्त्र, पात्र विगेरे शुद्ध विधिपूर्वक दोष टाळीने ग्रहण करवां ते ३, आदानभांडमात्रनिक्षेपणासमिति एटले जीवरक्षा माटे यतना - जयणापूर्वक वस्त्र, पात्रादिक लेवां तथा मूकवां ते ४, तथा पारिष्ठापनिका समिति एटले जीवनी रक्षापूर्वक शुद्ध भूमिने विषे यतनाथी मळ, मूत्र, श्लेष्म विगेरे परठववां- मूकवां ते ५, आ पांच समितिवडे युक्त मारा गुरु छे, तथा मनोगुप्ति एटले पाप कार्यना विचारथी मन गोपवj - अटकाव ते १, वचनगुप्ति एटले निरवयवचन पण कारण विना बोलवा नहि ते २, अने कायगुप्ति एटले शरीरने पापकार्यथी अटकाव तथा यतनापूर्वक जग्याने पुंजी प्रमार्जी उठवुं, बेसवुं, जवुं, आववुं विगेरे क्रिया करवी ते ३, आ त्रण गुप्तिए सहित मारा गुरु छे. प्रथमना अने पछीना मली ३६ गुणो थया, आ छत्रीश गुणो आचार्यना छे. उपाध्यायना पचीस गुणो आ प्रमाणे. जेओ सिद्धांतने भणे अने बीजाने भणावे, अने पच्चीस गुणयुक्त Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होय तेने उपाध्याय कहे छे. आचार्यजी साधुओमां राजा समान छे ज्यारे उपाध्यायजी महाराज प्रधान समान छे. तेओना पच्चीश गुण आ छे. ___आचारांग १, सूयगडांग २, ठाणांग ३, समवायांग ४, भगवती ५, ज्ञाताधर्मकथा ६, उपासकदशांग ७, अंतगडदशांग ८, अनुत्तरोववाइ ९,प्रश्नव्याकरण १०, अने विपाक ११,आ अग्यार अंग, तथा उववाइ १, रायपसेणी २, जीवाभिगम ३, पन्नवणा ४, जंबुद्वीपपन्नत्ति ५, चंदपन्नत्ति ६, सुरपन्नत्ति ७, कप्पिया ८, कप्पवर्डिसिया ९, पुफिया १०, पुष्फचूलिया ११, अने वह्निदशांग १२, आ बार उपांगने भणे तथा भगावे तेथी ११ अंग अने १२ उपांग मळी (२३) गुण थया, अने चरणसित्तरि (२४) तथा करणसित्तरिने (२५) पाळे ए बे गुण मेळवतां कुल २५ गुण उपाध्यायना छे. साधु महाराजना सत्तावीस गुण आ प्रमाणे जाणवा. ___मोक्षमार्गने साधवानो यत्न करे, सर्वविरति चारित्र लइने सत्तावीस गुणयुक्त होय तेने साधु कहेवाय छे, ते साधु महाराजना सत्तावीस गुण नीचे प्रमाणे छे. प्राणातिपात विरमण १, मृषावाद विरमण २, अदत्तादान विरमण ३, मैथुन विरमण ४, अने परिग्रह विरमण ५, ए पांच महाव्रत, तथा रात्रिभोजन विरमण ६, ए छ व्रतना छ गुण. पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय अने त्रसकाय ए छ कायनी रक्षा करे ते छ गुण होवाथी कुल बार गुण थया. पांच इंद्रियोनो निग्रह करे, ते पांच गुणो मेळववाथी १७, गुण थया. तथा लोभनिग्रह १८, क्षमा Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ पंचिंदिय सूत्र. मू-पंचिंदिअसंवरणो, तह नवविहवंभचेरगुत्तिधरो। चउविहकसायमुक्को, इअ अठारस गुणेहिं संजुत्तो ॥१॥ पंच महन्वयजुसो, पंचविहायारपालणसमत्थो। पंचसमिओ तिगुत्तो, छत्तीसगुणो गुरू मज्झ ॥२॥ शब्दार्थःपंचिंदिअ-पांच इंद्रियोना विषयोने | तह-तथा, संवरणो-रोकनार नवविह--नव प्रकारना १९, चित्तनी निर्मळता २०, शुद्ध रीते वस्त्रादिकनी पडिलेहण २१, संयमयोगमा प्रवृत्ति एटले पांच समिति अने त्रण गुप्ति आदरवी तथा निद्रा, विकथा अने अविवेकनो त्याग २२, अकुशळ मननो निरोध २३, अकुशळ वचननो निरोध २४, अकुशळ कायानो निरोध (एटले तेमने कुमार्गे जता अटकाववा) २५, शीतादिक परीषहो सहेवा २६, अने मरणादि उपसर्गो सहेवा २७. x पद ९, संपदा ८, गुरु ७, लघु ६१, सर्व वर्ण ६८. ____x विभक्ति अंतमां होय तेने पद कहे छे, अर्थ संपूर्ण थया पछी विश्राम स्थानने वाक्य अथवा संपदा कहे छे, विसर्गवाळा, अनुस्वारवाळा अने जोडीया अक्षरनी पूर्वना हुस्वअक्षरने पण गुरु-दीर्घ कहे छे. एक मात्रावाळो, संयोग वगरनो अक्षर होय तेने हस्व अक्षर कहे छे अने अ थी ह सुधीना वर्णो कहेवाय छे. वर्णोना बे भेद छे. स्वर अने व्यंजन. अ थी औ सुधीना स्वरवर्ण अने क थी ह सुधीना व्यंजन वर्ण कहेवाय छे. . Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा करीने, बंमचेर-ब्रह्मचर्यनी जुत्तो-सहित गुत्तिधरो-गुप्तिने धारण करनार तथा तथा पंचविहायार-पांच प्रकारनो चउविह-चार प्रकारना आचार कसाय--कषायथी । पालणसमत्थो-पाळवामां समर्थ मुक्को-रहित पंचसमिओ-पांच प्रकारनी सइअ-आ उपर कहेला, मितिवाळा, तथा अठारसगुणेहिं-अढार गुणोए तिगुत्तो-त्रण गुप्तिए गुप्त, ए रीते कुल, संजुत्तो-सहित, छत्तीसगुणो-छत्रीश गुणवाळा, पंचमहब्बय-पांच महाव्रतोए । गुरु-गुरु छे. करीने मज्झ-मारा, पंचिदिअसंवरणो-पांच इंद्रियोने संवरनार रोकनार, तह नवविहबंभचेरगुत्तिधरो-तेमज नव प्रकारनी ब्रह्मचर्य गुप्तिना धारण करनारा, . चरविहकसायमुक्को-चार प्रकारना कषायथी रहित, इअ अठारसगुणेहिं संजुत्तो-एम अढार गुणोए सहित, पंचमहन्वयजुत्तो-पांच महावत सहित, पंचविहायारपालणसमत्थो-पांच प्रकारना आचार पाळवामां समर्थ, पंचसमिओ तिगुत्तो-पांच समितिवाळा अने त्रण गुप्तिवाळा, छत्तीसगुणो गुरू मज्झ-छत्रीश गुणवाळा गुरु मारा, Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ:-पांच इंद्रियोनो संवर एटले निग्रह करनार, तथा नव प्रकारनी ब्रह्मचर्यनी गुप्ति (वाड) ने धारण करनार, तथा चार प्रकारना कषायथी रहित, आ अढार गुणोए सहित तथा पांच महाव्रतोए करीने सहित तथा पांच प्रकारनो आचार पाळवामां समर्थ, तथा पांच प्रकारनी समितिवाळा, तथा त्रण गुप्तिए गुप्त ए रीते कुल छत्रीशx गुणवाळा मारा गुरु छे. २ पद ८, गाथा २, गुरु १०, लघु ७०, सर्ववर्ण ८०. इति पंचिंदिअ सूत्र. २. ३ * खमासमण वा प्रणिपात सूत्र. मू०-इच्छामि खमासमणो! वंदिउंजावणिज्जाए निसीहिआए, मत्थएण वंदामि ॥ शब्दार्थ:इच्छामि-हुँ इच्छु छु अने . जावणिज्जाए-शक्तिने अनुसारे, तेथी करीने, निसीहिआए-सर्व पाप व्यापाखमासमणो-हे क्षमाश्रमण-- रनो निषेध करीने, क्षमावान् तपस्वी ?, मत्थएण-मस्तकवडे. वंदिर-वांदवाने. वंदामि-वांदं छु.. x आ छत्रीश गुण विस्तारथी आचार्य महाराजना गुणोना वर्णनमा वर्णव्या छे. __ * आ सूत्र श्री वीतराग देव अने गुरु महाराजनी सामे उमा रही बे हाथ जोडी पंचांग-बे हाथ, बे ढींचण, अने मस्तक आ पांच अंग जमीने लगाडी प्रणाम-वंदना करवान छे. | Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छामि खमासमणो-हे क्षमावंत तपस्यो हुँ इच्छु छु... बंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए-बीजां पाप व्यापारनो त्याग करी शक्ति मुजब वांदवाने. मत्थएण वंदामि-मस्तकवडे वंदन करुं छं. भावार्थ:-हे क्षमाश्रमण तपस्वी मुनिराज ! हुं सर्व पाप व्यापारनो त्याग करी शरीरनी शक्ति प्रमाणे एटले शरीरनी शक्ति गोपव्या विना सर्व शक्तिने फोरवीने आप गुरु महाराजने वंदना करवा इच्छु छु, अने तेज प्रमाणे मस्तक नमावीने आपने वांदुं छं. गुरु ३, लघु २५, सर्ववर्ण २८. इति खमासमण सूत्र ३. ॥४ अथ इरियावहियं सूत्र । मू०-इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इरियावहियं पडिकमामि ? इच्छं । इच्छामि पडिक्कमिउं १॥ इरियावहियाए विराहणाए २। शब्दार्थ:इच्छाकारेण-इच्छाथी, इच्छा- इरियावहियं -- इरियावहिपूर्वक. गमनागमन करतां थयेल संदिसह-आज्ञा आपो. भगवन् हे भगवन् ! हे पूज्य जीवबाधादि पापक्रिया. गुरुमहाराज. Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमामि-हुं पडिक्कमुं (पाछो । हठवा, बचवा. हटुं) छु. इरियावहियाए-मार्गमां चालतां इच्छं-आपनी आज्ञा प्रमाण छे. फरता. इच्छामि-हुं इच्छु छु. विराहणाए-जीवनी विराधना पडिक्कमिउं-पापक्रियाथी पालो । थइ होय. इच्छाकारेण संदिसह भगवन् !-हे पूज्य गुरु महाराज! आपनी इच्छाथी आज्ञा आपो. इरियावहियं पडिकमामि*- रस्तामां चालता अथवा फरतां लागेली पापक्रियाथी हुँ पाछो हटुं! इच्छं-आपनी आज्ञा प्रमाण छे. इच्छामि पडिक्कमि इरियावहियाए विराहणाए-हुँ पापथी निवर्त्तवाने इच्छु छु, जवा-आववाना मार्गमां तथा साधु श्रावकना धर्ममार्गमा जे विराधना ( पापयुक्त क्रिया) थइ होय. भावार्थ--हे पूज्य गुरुमहाराज ! आपनी इच्छाए करीने मने आज्ञा आपो के जेथी हुं इर्यापथिकीने पडिक, एटले मार्गमा चालतां जे पाप . * अहीं गुरुमहाराज कहे के-पडिकमेह-पापक्रियाथी पाछो हठ, पछी आगलनो पाठ बोलवो। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाग्युं होय तेनाथी निवर्तु. (त्यारे गुरु महाराज आदेश आपे केपडिक्कमह-तुं प्रतिक्रमण कर) पछी शिष्य ' इच्छं' कहे एटले आपनी आज्ञा प्रमाण छे एम कहे. १ इर्यापथिकी संबंधी एटले मार्गमां जतां आवतां जे कांई विराधना एटले जीवहिंसादिक पाप मने लाग्यु होय, ने पापथी पाछो फरवाने हुं इच्छु छु. २ ते इपिथिकी विराधनाने ज बतावे छे मू०-गमणागमणे ३। पाणकमणे, बीयकमणे, हरियकमणे, ओसा-उत्तिंग-पणग-दग-मट्टी-मकडासंताणा-संकमणे ४। शब्दार्थ:गमणागमणे-जतां आवतां. | उत्तिंग-कीडियारं. . पाणकमणे-प्राणी (जीव) चां पणग-सेवाळ, पांच प्रकारनी ___ प्या होय. लील-फूल. बीयकमणे-धान्यना बीज चां दग-काचुं पाणी. ___प्या होय. हरियकमणे - लीली वनस्पति __ मट्टी-माटी. .... चांपी होय. मक्कडासंताणा-करोळीयानी जाळ ओसा-झाकळ. संकमणे-चांपी होय. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ गमणागमणे पाणकमणे एक स्थानेथी बीजे स्थाने जतां आवतां कोई पण प्राणी (जीवो) नुं आक्रमण करतां - दबावतां. atraमणे हरियकमणे - बीजने आक्रमण करतां, लीली वनस्पतिनुं आक्रमण करतां. ओसा - उत्तिंग-पण - दग-मट्टी- मक्कडासंताणा - संकमणे - झाकळ, कीडीयोना दर, पांचवर्णनी लील-फूल - सेवाल, काचुं पाणी, माटी, सचित्त माटी सहित काचुं पाणी, कोच्चड, अने करो - ळीयानी जाळ ए बधांने आक्रमण करतां - दबावतां चांपतां. ४ भावार्थ - मार्गमां जतां आवतां जीवोने दबाववाथी, बीजने चांपवाथी, लीली वनस्पति खुदवा-चांपवाथी, तथा झाकळ, कीडीओनां दर, पंचवर्णी लील फूल - सेवाळ, काचुं पाणी, सचित्त माटी अने करो - कौयानी जाळ ए सर्वने दबाववाथी जे कोई जीवोनी में विराधना करी होय एटले तेमने पीडा उपजावी होय. ते केवा जीवो ? ते बतावे छे- मू० - जे मे जीवा विराहिया ५। एगिंदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चउरिंदिया, पंचिंदिया ६। शब्दार्थः - जे-जे कोई मे-में जीवा - जीवो विराहिया - विराध्या- दुःखी कर्या होय एगिंदिया - एक इन्द्रियवाळा : Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेइंदिया-बे इन्द्रियवाळा चउरिंदिया-चार इन्द्रियवाळा तेइंदिया-त्रण इन्द्रियवाळा पंचिंदिया-पांच इन्द्रियवाळा जे मे जीवा विराहिया-जे जीवोनी में विराधना करी होय अर्थात् जे जीवोने दुःखी कर्या होय, कया कया जीव ? ते बताबे छे. एगिंदिया-एक इन्द्रियवाळा-पृथ्वी, जळ, अग्नि, वायु-हवा, अने वनस्पति, बेइंदिया-बे इन्द्रियवाळा-शंख, पूरा, अळसीया विगेरे. तेइंदिया-त्रण इन्द्रियवाळा-कीडी, कुंथवा, मकोडा, माकड, जू विगेरे. चउरिदिया-चार इन्द्रियवाळा-माखी, वींछी, भमरा, विगैरे. पंचिंदिया-पांच इन्द्रियवाळा-साप, जानवर, पक्षी, तियेच, नारकी, देवता, माणस विगेरे. भावार्थ-पृथ्वी, जळ (पाणी), अग्नि, वायु-हवा, अने वनस्पति आदि एक इन्द्रियवाळा, शंख, पुरा, अळसोया आदि बे इन्द्रियवाळा, कोडी, कुंथवा, मकोडा, माकड, जू आदि त्रण इंद्रियवाळा, माखी, वाँछी, भमरा आदि चार इन्द्रियवाळा, अने साप, जानवर-गायभेंस-बळद-वाघ-सिंह-चित्तो तथा पक्षी-मोर-ढेल-पारेवु-चकली-पोपट तथा माणस-स्त्री-पुरुष-छोकरो-छोकरी विगेरे पांच इन्द्रियवाळा. Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाख्या तेओनी केवी रीते विराधना थइ होय ? ते बतावे छे मू-अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलामिया, उद्दविया, ठाणाओ ठाणं संकामिया, जीवियाओ ववरोविया, तस्स मिच्छामि दुक्कडं ७॥ शब्दार्थ:अमिहया-लाते मार्या संकामिया-मूक्या वत्तिया-धूळवडे ढांक्या जीवियाओ-जीवितथी लेसिया-मोय साथे घस्या संघाइया-भेगा कर्या ववरोविया - चूकाव्या-मारी संघट्टिया-स्पर्श कर्या परियाविया-परिताप उपजाव्या । तस्स-ते किलामिया-खेद पमाड्या मिच्छा-मिथ्या-निष्फळ थाओ. उद्दविया-बोवराव्या ठाणाओ ठाणं-एक ठेकाणेथी मि-मारं . बीजे ठेकाणे दुक्कडं-पाप, दुष्कृत. अभिहया-उपर कहेला एकेन्द्रिय विगेरे जीवोमांथी सामे आवता होय तेने मार्या होय. बत्तिया-कोई पण जीवोने धूळ अथवा एवा बोजा पदार्थोथी ढांक्या न होय. लेसिया-परस्पर अथवा जमीन या भीत साथे घस्या होय. Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ संघाइया संघट्टिया-एक बीजाने मेळव्या होय अथवा हाथ आदि लगाडी दुःख आप्यु होय. परियाविया-कष्ट आप्यु होय. किलामिया-थकाड्यां होय, मरवा जेवा कर्या होय. उद्दविया-हेरान कर्या होय, बीवराव्या होय. ठाणाओ ठाणं संकामिया-एक ठेकाणेथी बीजे ठेकाणे बहुज खराब रीते मूक्या होय. जीवियाओ ववरोविया-आयुष्यथी चूकाव्या होय अथवा जीवननो नाश कर्यो होय. तस्स मिच्छामि दुक्कडं-ते संबंधी जे कांइ पाप मने लाग्युं, अथवा ते ते जीवोने कोइ प्रकारचं कष्ट पहोंचायुं होय ते पाप मारूं निष्फल थाओ, हु दोष रहित थाउं. भावार्थ-ते जीवाने में लाते मार्या होय अथवा सामे आवतां हण्यां होय, धूळे ढांक्या होय, भीते के भोंये के परस्पर घस्यां होय, परस्पर जीवोना शरीरो एकठां कयाँ होय, स्पर्श करबाथी दुःखी कर्या होय, परिताप-दुःख उपजाव्युं होय, किलामणा उपजावी होय एटले मरण तुल्य कर्या होय, त्रास पमाड्या होय, एक स्थानेथी बीजे स्थाने मूक्या होय के जीवितथी जूदा कर्या होय आ रीते करवाथो मने जे पाप लाग्युं होय ते मारुं पाप निष्फल थाओ अर्थात् ते पापर्नु हुं मिच्छामि दुबई आपुं छु. | Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. पद २६, संपदा ८, गुरु १४, लघु १३६, सर्ववर्ण १५०. इति इरियावहिय सूत्र ४ ॥ अथ तस्स xउत्तरी ॥ मू-तस्स उत्तरीकरणेणं, पायच्छित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं, विसल्लीकरणेणं, पावाणं कम्माणं निग्घायणटाए, ठामि काउस्सग्गं ॥ शब्दार्थ. तस्स-ते पापने, उत्तरीकरणेणं-तेने विशेष शुद्ध ____ करवा माटे, पायच्छित्तकरणेणं-प्रायश्चित्त करवा माटे, विसोहीकरणेणं-विशेष शुद्धि करवा माटे विसल्लीकरणेणं-शल्य रहित करवा माटे पावाणं कम्माणं-पाप कर्मोने निग्घायणट्ठाए-नाश करवा माटे ठामि-करुं छु काउस्सग्ग-काउस्सग्ग x आत्माने लागेला पापोनी शुद्धि इरियावहियं करवाथी थाय छे, छतां आत्माना परिणामो बराबर शुद्ध न होवाथी-कंइक अशुद्धि रहेवाथी तेंवा आत्माने वधारे श्रेष्ठ उत्कृष्ट शुद्ध करवा माटे आ सूत्र छे. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ ने तस्स उत्तरीकरणेणं ते आत्माने विशेष शुद्ध करवा माटे अथवा ते पापनी विशेष शुद्धि-फरी शुद्धि करवा माटे, पायच्छित्तकरणेणं-प्रायश्चित्त करवा माटे, विसोहीकरणेणं-आत्माना परिणामनी विशेष शुद्धि करवा माटे अथवा आत्माना आंतरिक मेलनो नाश करवा माटे, विसल्लीकरणेणं-माया, निदान, अने मिथ्यात्व एत्रण शल्य रहित करवा माटे, पावाणं कम्माणं निग्घायणट्ठाएबधां पाप कर्मोनो नाश करवा माटे, ठामि काउस्सग्गं-हुँ कायाना व्यापार-प्रवृत्तिने छोडीने काउस्सग्ग ... ध्यानमा रहुं छं-स्थिर थाउं छं. मावार्थः-पापथी मलीन थयेलो आत्मा इरियावहीथी मिच्छामि दुकडं देवावडे शुद्ध थाय छे, तो पण आत्मानो परिणाम पूर्ण शुद्ध न होय तो तेने अधिक निर्मळ बनाववा माटे वारंवार आत्माने उत्तम संस्कारवाळो करवो जोइए, तेथी करीने प्रायश्चित्त करवू जोइए, प्रायश्चित्त पण परिणामनी विशुद्धि विना थइ शकतुं नथी, तेथी परिणामनी शुद्धि करवी आवश्यक छ, परिणामनी शुद्धिने माटे पण (माया-कपट रूप शल्य, निदान-फलनी इच्छा रूप शल्य, अने मिथ्यात्व-कदाग्रह रूप शल्य) आ त्रणे शल्यनो त्याग करवो जरुरी छे, तेथी करीने Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . शल्यना त्याग माटे तथा बीजां सर्व पाप कर्मोनो नाश करवा माटे हुं कायोत्सर्ग करूं छं. कारण के कायोत्सर्गथी ज ते सर्व थइ शके छे. पद ६, संपदा १, गुरु १०, लवु ३९, सर्ववर्ण ४९, इति तस्स उत्तरी सूत्र ५ कायोत्सर्ग एटले सर्व प्रकारना पाप व्यापारथी कायाने वोसराववी अर्थात् कायानो त्याग करवो ते, आवी कायोत्सर्ग करवानी प्रतिज्ञा करवाथी कायानो काइपण व्यापार थाय तो कायोत्सर्गनी प्रतिज्ञानो भंग थाय तेथी तेनो भंग न थवा माटे अमूक आगारो मोकळा राखवामां आवे छे एटले के केटलाक अशक्य परिहास्वाळा व्यापारोनी छूट मूकवामां आवे छे तेथी प्रतिज्ञानो भंग थतो नथी, ते आगारोने ज हवे बतावे छे. ॥६ अथ *अन्नत्थ ऊससिएणं सूत्र ॥ . मू०-अन्नत्थ ऊससिएणं, नीससिएणं, खासिएणं, छीएण, जंभाइएणं, उड्डएणं, वायनिसग्गेणं, भमलीए, पित्तमुच्छाए । ___* आ सूत्रवडे करवानो काउस्सग्ग १९ दो। ठोडीने करवानो छे. ते १९ दोष नीचे प्रमाणे १. घोटकदोष-घोडानी जेन एक पग ऊचो राखे, वांका पग राखे ते. Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ शब्दार्थ अनत्थ-बीजेठेकाणे, उच्छ्वास | जमाइएणं-बगासु आववाथी आदि आगारो सिवाय उड्डएणं-ओडकार आववाथी अन्य क्रियाद्वारा, वायनिसग्गेणं-वाछूट थवाथी ऊससिएणं-उंचो श्वास लेवाथी, नीससिषणं-नीचो श्वास लेवाथी भमलीए-चकरी आववाथी खासिएणं-उधरस आववाथी । पित्तमुच्छाए-पित्तवडे मूर्छा डीएणं-छौंक आववाथी ____आववाथी २. लतादोष-वायराथी जेम वेलडी चाले तेम शरीरने धूणावे ते.. ३. स्तंभादिदोष-थाभला आदिने ओठीगण दइ बेसे ते. ४. मालदोष-उपर मेडी अथवा माळ होय तेने मस्तक टेकावी रहे ते. ५. उदिदोष-गाडानी उंधनी पेठे अंगुठा तथा पानी मेळवीने पग राखे ते. ६. निमडदोष-निगड (बेडी)मां पग नांख्यानी पेठे पग पहोळा राखे ते. ७. सबरिदोष-नागी भीलडीनी पेठे गुह्य स्थाने हाथ राखे ते. ८ खलिणदोष- घोडाना चोकडा (लगाम)नी जेम हाथ रजोहरण (लोपा) बुक आगळ राखे ते. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्नत्य-अन्यत्र एटले नीचे लखेला आगार-अपवादो सिवाय बीजी क्रियाओ द्वारा, अर्थात्-नीचे बतावेला उच्छ्वास-निःश्वास विगेर आगारो-अपवादो काउस्सग्ग करती वेळाए थाय तो दोष-अतिचार लागतो नथी, काउस्सग्ग भंग थयो गणातो नथी, परन्तु ते सिवाय बीजी कोइ पण क्रिया काउस्सग्ग ध्यानमां थइ शकती नथी, अर्थात् का उस्सग्ग भंग थयो गणाय छे, आ बार आगारो सिवाय कायाना व्यापारनो त्याग करुं छं. क्या क्या आगारनी छूट छे ? ते नीचे प्रमाणे ९. वधूदोष-नवी परणेली स्त्रीनी जेम माथु नीचं राखे ते. १० लंबोत्तरदोष-डूंटीनी उपर अने ढींचणथी नीचे लांबुं कपडु राखे ते. ११ स्तनदोष-डांस मसाना भयथी, अज्ञानथी अथवा शरमथी हृदयने स्त्रीनी जेम ढांकी राखे ते. १२ संयतिदोष-टाढ आदिना भयथी साध्वीनी जेम बेउ खंभा ढांकी राखे एटले आलुं शरीर ढांकी राखे ते. १३ भमुहंगुलिदोष-आलावो गणवाने अर्थे अथवा काउस्सग्गनी संख्या गणवाने आंगळी तथा पापणना चाळा करे ते. १४ वायसदोष--कागडानी जेम डोळा फेरवे ते. ... १५ कपित्थदोष-पहेरेलां कपडां जू अथवा परसेवाए करी गंदा-मेला थवानी बीकथो कोठनी जेम छूपावी राखे ते. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ऊससिएणं-उंचा श्वास लेवाथी, नीससिएण-नीचो श्वास मूकवाथी, खासिएणं छीएणं जंभाइएणं-उधरस, छींक अने बगासुं आववाथी उड्डएणं-ओडकार आववाथी, वायनिसग्गेणं-पुंठ द्वारा वा संचार थवाथी, भमलीए पित्तमुच्छाए-चकरो आववाथी, पित्तना प्रकोपथी मूर्छा आववाथी, भावार्थ-हवे हुँ कायोत्सर्गनी प्रतिज्ञा करूं छु, तेमां नीचे जणावेला आगार सिवाय बीजे कोई पण कारणे मारा कायोत्सर्गनो हुँ भंग नहीं करूं. ते आगारो आ प्रमाणे-उंचो श्वास लेतां, नीचो श्वास मूकतां, उवरस खातां, छींक आवतां, बगासुं खालां, ओडकार खातां, पूंठे 'पवन छूटतां, चकरी आवतां, पित्तनां प्रकोपथी बेभान थइ जतां. १६ शिर:कंपदोष-भूत अथवा यक्षना आवेशवाळा माणसनी जेम माथु धूणावे ते. १७ मूकदोष-मूंगानी जेम हुं हुं करे ते. १८ मदिरादोष-आलावा गणतां दारु पोधेलानी जेम बडबडाट करे ते. १९ प्रेक्ष्यदोष-बांदरानी जेम आसपास जोया करे, होठ हलाव्या करे ते. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० - मुहुमेहिं अंगसंचालेहिं, मुहुमेहिं खेलसंचालेहिं, सुहुमेहिं दिट्ठिसंचालेहिं ॥२॥ एवमाइएहिं आगारेहिं अभग्गो अविराहिओ हुज्ज मे काउस्सग्गो ॥ ३॥ शब्दार्थ: सुहुमेहिं-सूक्ष्म अंगसंचालेहिं - अंग चालवाथी खेलसंचाले हिं-बळखो आव वाथी (कफ) दिट्ठिसंचालेहिं - दृष्टि चालवाथी एवमाइएहिं - ए विगेरे -२९ आगारेहिं- आगारों अभग्गो - अखंडित अविराहिओ - अविराधित विरा धना रहित हुज्ज हो मे - मारो काउस्सग्गो-काउस्सग्ग सुहुमेहिं अंगसंचालेहिं —— सूक्ष्म प्रकारथी शरीरनो संचार थवाथी, शरीर जरापण चालवाथी. सुहुमेहिं खेलसंचालेहिं — सूक्ष्म कफ या थूकनो संचार थवाथी. सुहुमेहिं दिट्ठसंचालेहिं — सूक्ष्म दृष्टि संचार थवाथी, आंखनी कीकी या भ्रमर वगेरे चालवाथी. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *एवमाइएहिं आगारेहिं—ए विगेरे आगारो-अपवादोथी. अभग्गो अविराहिओ-अभंग अने विराधना रहित. हुज्ज मे काउस्सग्गो-मारो काउस्सग्ग हो-थाओ. भावार्थ-सहेज शरीर भ्रूजवाथी-फरकवाथी, जराक थुक के कफ गळवाथी तथा नेत्रनी पापण के कीकी चलाववाथी आटली छूटथी मारो कायोत्सर्ग अखंडित अने अविराधित होजो ॥३॥ ते कायोत्सर्ग क्यांसुधी अखंड राखवो? ते बतावे छे. मू०-जाव अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं न पारेमि ॥४॥ ताव कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं वोसिरामि ।५। (चार नवकार अथवा एक लोगस्सनो काउस्सग्ग करवो. पछी लोगस्स बोलवो.) १ अहीं आदि शब्द आप्यो छे तेथी नीचे लखेला वीजा पण चार आगारो लेवाना छे–ते आ प्रमाणे_अग्निना उपद्रवथी बीजे स्थाने जवू पडे, तथा अग्नि, दीवा वीजलीना प्रकाशथी वस्त्रादिक ओढवां पडे १, बिलाडी, उंदर विगेरेनी आड पडे अथवा पंचेंद्रिय जीवनुं छेदन भेदन थतुं होय तो बीजे स्थाने जवु पडे २, अकस्मात् चोरनी धाड पडे तेथी अथवा राजादिकना भयथी बीजे स्थाने जवू पडे ३, सिंह विगेरे उपद्रव करता होय अथवा सादिक झेरी प्राणीओ डंश करवा आवता होय अथवा भीत पडती होय एवे एवे कारणे बीजे स्थाने जq पडे. ४ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ:जाव-ज्यांसुधी काय-कायाने अरिहंताणं-अरिहंत ठाणेणं-एक स्थानके भगवंताणं-भगवंतोने मोणेणं-मौनपणे नमुक्कारेणं-नमस्कार करीने झाणेणं-ध्यानवडे न पारेमि-न पारं अप्पाणं-पोतानी ताव-त्या सुधी वोसिरामि-बोसिरावु छु. जाव-ज्यां सुधी. अरिहंताणं भगवंताणं नमुक्कारेणं-अरिहंत भगवंतोने नमस्कार वडे, अर्थात् 'नमो अरिहंताणं' एवू पद न बोलुं त्यां सुधी. न पारेमि-हुं कायोत्सर्गने पारुं नहीं, ताव-त्यां सुधी. कायं ठाणेणं मोणेणं झाणेणं अप्पाणं-पोतानी कायाने स्थिर स्थानक वडे, मौन धारण करवावडे तथा शुभ ध्यान वडे. वोसिरामि-पापक्रियाथी बोसरावु छु-तनुं छं. अर्थात् पोताना शरीरने अशुभ-पाप व्यापारथी दूर रा छं. 'नमो अरिहंताणं' पद बोली अरिहंत भगवंतोने नमस्कार करी काउस्सग्ग पूर्ण न करूं त्यां मुधी हुं शरीरने निश्चल राखुं छु, वचनथी मौन धारण करुं छु, अने मनथी शुभध्यान धारण करी पापना बधां कृत्योथी जूदो थाउं छु.. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२. भावार्थ-ज्यांसुधी अरिहंत भगवानने नमस्कारवडे एटले 'नमो अरिहंताणं' एम बोली नमस्कार करीने हुं कायोत्सर्ग पारुं नहीं पटले समाप्त करूं नहीं, यसुधी हुं मारी पोतानी कायाने स्थिर राखी, मौन धारण करी तथा शुभ ध्यानमा रही सर्व पापकार्योंथी वोसरावुं छुमारी कायाने पाप कार्यथी जूदी राखुं छं. पद २८, संपदा ५, गुरु १३, लघु १२७, सर्ववर्ण १४० इति अन्नत्थ ऊससिएणं सूत्र ६ ॥ ७ अथ लोगस्स--नामस्तवX सूत्र ॥ मू० - लोगस्स उज्जोअगरे, धम्मतित्थयरे जिणे । अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसं पि केवली ॥ १ ॥ लोगस्स - लोकने, उज्जोअगरे - उद्योत करनारा, धम्मतित्थयरे -- धर्मरूप तीर्थना करनारा, जिणे - जिनोने अरिहंते-- अरिहंत भगवानोने, कित्तइस्सं -- हुं स्तवीश, चउवीसं -- चोवीशे पि--पण केवली -- केवली भगवानोने X आ सूत्रमां चोवीस तीर्थंकरोनी नामपूर्वक स्तुति छे, माटे आनुं बीजुं नाम नामस्तव अथवा चतुर्विंशति स्तव या चडवीसत्थो एम बीजां त्रण नामो पण बोलाय छे. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३ लोगस्स उज्जोअगरे --- लोकमां एटले स्वर्ग, मृत्यु अने पाताल आ त्रण जगतमां धर्मनो उद्योत करवावाळा, धम्मतित्थयरे जिणे ---- धर्मरूप तीर्थने स्थापवावाळा, राग-द्वेषादि अंतरंग शत्रुओने जीतवावाळा, अरिहंते कित्तइस्सं, चउवीसं पि केवली — एवां चोवीशे केवळज्ञानी तीर्थकरोनी हुं स्तुति करीश, कीर्त्तन करीश ॥ १ ॥ भावार्थ-स्वर्ग, मृत्यु अने पाताळ ए त्रणे लोकमां प्रकाश करनारा, धर्मरूपी तीर्थनुं स्थापन करनारा, राग-द्वेषने जीतनारा अने केवळज्ञान तथा केवळ दर्शनने धारण करनारा चोवीशे तीर्थंकरोनी हुं स्तुति करीश एटले हुं स्तुति करुं हुं ॥ १ ॥ * • * श्रीऋषभदेवनो जन्म विनितानगरीमां थयो. तेमना नाभिराजा पिता अने मरुदेवा माता हतां बधा तीर्थंकरोनी माताओ पहेला स्वप्ने सिंह देखे पण मरुदेवा माताए प्रथम वृषभ दीठो. एने गर्भनो महिमा जाणी तेमनुं श्री ऋषभदेव नाम राख्यं तथा घर्मनी आदिना प्रवर्त्तावनार होवाथी बीजं आदिनाथ नाम पण कहीए. तेमनुं पांचसें धनुष्य प्रमाण शरीर अने चोराशी लाख पूर्वनुं आयुष्य हतुं. तेओ सुवर्ण वर्णवाळा अने वृषभ लांछनवाळा हता. तेमने सो पुत्र हता. मोटानुं नाम भरत हतुं जेमने आरिसाभुवनमां केवळज्ञान थयुं हतुं अने ९९. पुत्रो दीक्षा लड् केवळज्ञान पामी मोक्षे गया हता. ३ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू०. ते स्तुति आ प्रमाणे -उसभमजिअं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमई च । पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे ॥ २ ॥ शब्दार्थः उसभम् - श्री ऋषभदेव स्वामीने अजिअं - अजितनाथने च - अने वंदे - हुं वंदना करूं छु संभवं - संभवनाथने अभिगंदणं- अभिनंदन स्वामीने ३४ सुमई-सुमतिनाथने पउमप्प - पद्मप्रभुने सुपासं-सुपार्श्वनाथने जिणं - जिनेश्वरने चंदष्पहं - चंदप्रभप्रभुने श्री अजितनाथ - अयोध्या नगरीमां जन्म्या. तेमना पिता जीतशत्रु राजा हता अने तेमनी मातानुं नाम विजयाराणी हतुं. ते राजा राणी प्रथम पासाबाजी रमतां त्यारे राणी हारी जती अने राजानी जीत थती पण भगवंत गर्भे आग्या पछी राणा जीते अने राजा हारे, एवो गर्भनो महिमा जाणीने अजितनाथ नाम दीधुं. तेमनुं साडाचार सें धनुष्य प्रमाण शरीर, बहोतेर लाख पूर्वनुं आयु, सुवर्णवर्ण अने लांछन हाथीनं हतुं. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसममजिअंच वंदे-श्री ऋषभदेव भगवान अने श्री अजितनाथ भगवानने हुं वंदन करूं छु. संभवमभिणंदणं च सुमई च-श्री संभवनाथ प्रभुने, श्री अभिनंदन प्रभुने, तथा श्री सुमतिनाथ भगवानने. श्री संभवनाथनो-श्रावस्ति नगरीमा जन्म थयो हतो तेमना पिताजीतारि राजा अने माता सेना राणी हतां. देशमांदुष्काळ हतो छतां भगवंत गर्भे आव्याथी अणचिंतव्यो पृथ्वीमां धान्यनो संभव थयो तेथी संभवनाथ नाम दीधुं. तेमनुं चारसें धनुष्य प्रमाण शरीर अने साठ लाख पूर्व- आयु हतुं. सुवर्ण वर्णवाळा हता तथा लांछन घोडान हतुं. श्री अभिनंदन-स्वामीनो अयोध्या नगरीमा जन्म हतो. तेमना पिता संवर राजा अने माता सिद्धार्था रागी हतां. भगवंत गर्भे आव्या पछी इंद्रमहाराज आवीने भगवंतनी माताने घणीवार स्तवी जता हता, तेथी राजाप्रमुखे जाण्यु जे ए गर्भनोज महिमा छे माटे अभिनंदन नाम दीधैं. साडा त्रणसें धनुष्य प्रमाण शरीर तथा पचास लाख पूर्वनु आयुष्य हतुं. लांछन वानर, अने सुवर्ण वर्णवाळा हता. श्री सुमतिनाथनो-अयोध्या नगरीमां जन्म हतो. तेमना पिता मेघरथ राजा अने माता सुमंगला हता. प्रभु गर्भमा रह्या पछी ते माममा एक वणिकनी बे स्त्रीओ हती. तेमां न्हानीने पुत्र हतो अने म्होटी बंच्या हती पण ते छोकरानुं प्रतिपालन बन्ने माताओ करती Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पउमप्पहं सुपासं--श्री पद्मप्रभस्वामीने, श्री सुपार्श्वनाथ प्रभुने, जिणं च चंदप्पहं वंदे-अने राग-द्वेषने जीतवावाळां श्री चंद्रप्रभ भगवानने हुं वंदन करु छु ॥ २ ॥ भावार्थ-श्री ऋषभदेव १, श्री अजितनाथ २, श्री संभवनाथ ३, श्री अभिनंदन स्वामी ४, श्री सुमतिस्वामी ५, श्री पद्मप्रभ ६, श्री सुपार्श्वनाथ ७, अने राग-द्वेषने जीतवावाळां श्री चंद्रप्रभ ८, भगवानने हुं वंदन करूं छु.॥ २ ॥ हती. एम करतां ते वाणियो ब्यारे मरण पाम्यो त्यारे म्होटी स्त्री धननी लालचे कहेवा लागी जे " पुत्र मारो छे माटे जेनो पुत्र होय तेनुधन थाय." तेमज न्हानीनो तो दीकरो हतो तेथी तेणे का के "ए पुत्र म्हारो छे अने धन पण मारुंज छे." एम बन्ने शोक्योनो टंटो थयो. ते वढती वढती दरबारमा आवी ते वारे गर्भना महिमाथी राणीने चुकादो करवानी भली बुद्धि उत्पन्न थइ, तेथी ए बन्नेने राणीए कडं के “ बन्ने मळीने धन अझै अर्द्ध वहेंची लो अने छोकराना पण बे भाग करी अझै अर्द्ध वहेंची लो!” ते सांभळी नानी स्त्री बोली के “मारे द्रव्य जोइतु नथी, छोकराना कांइ बे विभाग थाय नहि, ए छोकरो एनो छे ते म्हारोज छे." ते सांभळी राणी बोली के" ए छोकरो न्हानी स्त्रीनो छे. केमके पुत्रनु मृत्यु थाय त्यां सुधी पण म्होटी स्त्रीथी ना कहेवाणी नहीं अने न्हानी स्त्रीए मारवानी मनाइ करी, माटे पुत्र अने धन एने हवाले करो अने म्होटी स्त्रीने घरथी बहार Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ मू० - सुविहिं च पुष्कदंतं, सीयल सिज्जंसवासुपुज्जं च । विमलमणतं च जिणं, धम्मं संतिं च वंदामि ॥३॥ शब्दार्थ: सुविहिं च पुष्पदंतं-जेमनुं बीजुं नाम पुष्पदंत छे एवा श्री सुविधिनाथने सीयल - श्री शीतलनाथने सिज्जेस - श्रेयांसनाथने वासुपुज्जं - वासुपूज्य स्वामीने विमलं - विमलनाथने अनंतं-अनंतनाथने धम्मं - धर्मनाथने संति-शांतिनाथने काढो." गर्भना महिमाश्री भगवंतनी माताने एवी बुद्धि उपजी ते माटे सुमति नाम दीर्घं. तेमनुं त्रणसें धनुष्य प्रमाण शरीर, चालीश लाख पूर्वनुं आयुष्य, सुवर्ण वर्ण तथा क्रौंच पक्षीनुं लांछन हतुं. - श्री पद्मप्रभ – स्वामीनो कौशांबीनगरीमां जन्म हतो. तेमना पिता श्रीधरराजा अने माता सुसीमारागी हतां, भगवंत गर्भे आव्या पछी माताने कमलनी शय्या सूत्रानो दोहलो उपज्यो ( जे देवताए पूर्ण कर्यो ) तेथी अने भगवंतनुं शरीर पद्म ( कमल) सरखं रक्तवर्णे हतुं तेथी पद्मप्रभ नाम दीधुं. तेमनुं अढीरों धनुग्य प्रमाण शरीर अने त्रीश लाख पूर्वनुं आयुष्य हतुं. लांछन पद्मनुं हतुं तथा वर्णे रक्त हता. श्री सुपार्श्वनाथनो - णारसी नगरीमां जन्म हतो. तेमना पिता सुप्रतिष्ठ राजा अने माता पृथ्वीराणी हतां. मातानां बन्ने पासां Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविहिं च पुप्फदंत-जेमर्नु बीजुं नाम पुष्पदंत छे एवा श्री सुविधिनाथ भगवानने. सीयलसिज्जंसवासुपुज्ज च-श्री शीतलनाथ, श्री श्रेयांसनाथ अने श्री वासुपूज्य भगवानने. रोगे करी व्याप्त हतां, ते भगवान गर्भे आव्या पछी ( बन्ने पासां) सुवर्णवर्णी अने घणां सुकोमळ थयां माटे सुपार्थ नाम दीधुं. (एक प्रतमां ' भगवंतना पितानां बे पासां कोढ रोगवाळां हतां, तेने भगवंतनी माताए हाथ फेरख्याथी सुकुमाळ नोरोगी थयां'' एवो पाठ लख्यो छे.) तेमनुं बसो धनुष्य प्रमाण शरीर अने वीश लाख पूर्वर्नु आयुष्य हतुं. सुवर्ण वर्ण अने लांछन साथियानुं हतुं. - श्री चंद्रप्रभस्वामी-चंद्रपुरी नगरीमां जन्म्या हता. तेमना पिता महसेन राजा अने माता लक्ष्मणा राणी हता. भगवंत गर्भे आव्या पछी माताने चंद्रमार्नु पान करवा ( पीवा )नो दोहलो उपन्यो (जे प्रधाने बुद्धिए करी पूर्ण कराव्यो ) ए गर्भनो प्रभाव जाणी चंद्रप्रभ नाम दीधु, तेमनु एकसो पचास धनुष्य प्रमाण शरीर अने दश लाख पूर्वन आयुष्य हतु. श्वेत वर्ण अने लांछन चंद्रनुं हतु. श्री सुविधिनाथ-(एमनुं बीजं नाम पुष्पदंत छे.) तेमनो काकंदी नगरीमा जन्म हतो. तेमना पिता सुग्रीवराजा अने रामा राणी माता हता. भगवंत गर्भे आव्या पछी माता तथा पिता भलो विधिए Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च वंदामि-श्री विमलनाथप्रभु, श्री अनंतनाथप्रभु, राग-द्वेषने जीतवावाळा श्री धर्मनाथप्रभु अने श्री शांतिनाथ प्रभुने हुं वंदन करूं छं॥ ३ ॥ भावार्थ-जेमनुं बीजं नाम पुष्पदंत छे एवा श्री सुविधिनाथ ९ भगवानने, शीतळनाथने १०, श्रेयांसनाथने ११, अने श्री वासुपूज्य १२ भगवानने, विमळनाथने १३, अनंतनाथने १४, अने राग-द्वेषना जीतनारा धर्मनाथने १५, तथा श्री शांतिनाथने १६, हुं वंदना करं छं ॥३॥ करी धर्म करवा लाग्या, एवो गर्भनो प्रभाव जाणी सुविधिनाथ नाम दोधुं. अने मचकुंदनां फूलनी कळी सरखा प्रभुना उज्ज्वळ दांत हता माटे बीजं पुष्पदंत नाम दीधुं. तेमनुं एकसो धनुष्य प्रमाण शरीर, बे लाख पूर्व- आयुष्य, श्वेत वर्ण अने मगरमच्छर्नु लांछन हतुं. श्री शीतळनाथनो-भदिलपुर नगरमा जन्म हतो. तेमना पिता दृढरथ राजा अने माता नंदा राणी हता. पिताना शरीरे दाहज्वर थयो हतो ते भगवंत गर्भे आव्या पछी राजाना शरीरनी उपर राणीए हाथ फेरव्याथी शीतलता थइ, एवो गर्भनो महिमा जाणी शीतळनाथ नाम दीधुं. तेमनु नेवु धनुष्य प्रमाण शरीर अने एक लाख पूर्वआयुष्य हतुं. सुवर्ण वर्ण अने श्रीवच्छनुं लांछन हतुं. श्री श्रेयांसजिननो-सिंहपुरनगरमा जन्म हतो. तेमना पिता विष्णुराजा अने माता विष्णुराणी हतां.कोइ देरासरमां परंपरागत देवता अधिष्ठित सज्जा (शय्या)नी पूजा थती हती. ते सज्जाए जे बेसे अथवा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. . मू०-कुंथु अरं च मल्लिं, वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिणं च । वंदामि रिट्ठनेमि, पासं तह वद्धमागं च ॥ ४ ॥ शब्दार्थःकुंथु-कुंथुनाथने वंदामि-हुं वंदन करुं छु अरं-अरनाथने रिठ्ठनेमि-अरिष्टनेमिने मल्लिं-मल्लिनाथने पासं-पार्श्वनाथने वंदे-वंदन करूं छु तह-तथा मुणिसुव्वयं-मुनिसुव्रतस्वामीने नमिजिणं-नमिजिनने वद्धमाणं-वर्द्धमानस्वामीने सूवे तेने उपद्रव ऊपजे. ते भगवंत गर्भे आव्या पछी माताना मनमां आव्युं जे देवगुरुनी प्रतिमानी पूजा थाय ते तो खरं छे पण सज्जानी पूजा तो कयांए सांभळी नथी. एम चितवी सज्जाना रक्षा करनार पुरुषे मनाइ कर्या छतां पण प्रभुनी माता ते सज्जा उपर बेठां तथा सूतां ते छतां गर्भना प्रभावथी अधिष्ठित देवता उपद्रव न करी शकयो अने सज्जा मूकी जतो रह्यो. त्यार पछी राजा प्रमुखे ते सज्जा वपराशमां लोधी, एवो गर्भनो महिमा जागी श्रेयांस नाम दीधुं. तेमनुं एंशी धनुष्य प्रमाण शरीर अने चोराशी लाख वर्षतुं आयुष्य हतुं. सुवर्ण वर्ण हतो अने लांछन गेंडानुं हतुं. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंथु अरं च मल्लिं-श्री कुंथुनाथ भगवान, श्री अरनाथ भगवान, अने श्री मल्लिनाथ भगवानने. वंदे मुणिसुव्वयं नमिजिगं च-श्री मुनिसुव्रतस्वामी अने राग-द्वेषने जीतवावाळा श्री नमिनाथ भगवानने हुं वंदन करूं छु. __ श्री वासुपूज्य-स्वामीनो चंपानगरीमा जन्म हतो. तेमना पिता वसुपूज्यराजा अने माता जयाराणी हतां. भगवंत गर्भे आव्या पछी इंद्रमहाराज वारंवार आवी वसु एटले रत्ननी वृष्टि करीने मातापितानी पूजा करता तेथी वासुपूज्य नाम दीधुं. तेमनुं सित्तेर धनुष्य प्रमाण शरीर अने वहातेर लाख वर्षनु आयुष्य हतुं. रक्त वर्ण अने लांछन पाडा, हतुं. श्री विमळनाथनो-कपिलपुरनगरमा जन्म हतो. तेमना पिता कृतनमराला अने माता श्यामारागी हतां. भगवंत गर्ने आव्या पछी तेमना नगरमा कोइ स्त्री-भर्तार देहरे आवी उतया. त्यां कोइ व्यंतरी–देवी रहेती हती तेणे ते पुरुषनुं रूप दोटु. तेथी तेने कामक्रीडा करवानी अभिलाषा थइ. पछी तेनी स्त्रीना जेवू पोतानुं रूप विकुर्वी व्यंतरी तेनी पासे सूती. प्रभाते बन्ने स्त्री समान देखी पुरुष का जे " आमां म्हारो स्त्री कोण ? " त्यारे पहेली बोली के ए म्हारो भर्तार छे अने बीजी बोली के ए म्हारो भर्तार छे. एम वढतां बढतां सर्व राजा पासे आव्यां. राजा तथा प्रधान बेहु स्त्रीने समान देखी कोइ रीते निवेडो करी शक्या नहि. पछी राणीए पुरुषने दूर ऊभो राख्यो अने बन्ने खीने पग दूर ऊभी Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ કર वंदामि रिट्ठनेमि, पासं तह वद्धमाणं च-अरिष्टनेमि जेमनुं प्रसिद्धनाम श्री नेमिनाथ छे तेमने, श्री पार्श्वनाथ भगवानने, अने श्री वर्धमान स्वामीने जेमनुं प्रसिद्ध नाम श्री महावीर स्वामी छे तेओने हुं वंदन करुं छं ॥ ४ ॥ भावार्थ-श्री कुंथुनाथने १७, तथा अरनाथने १८, मल्लिनाथने १९, मुनिसुव्रतस्वामीने २०, तथा राग-द्वेषने जीतनारा नमिनाथने २१, वांदुं छु. श्री अरिष्टनेमिने २२, तथा पार्श्वनाथने २३, अने श्री महावीर स्वामीने २४, हुं वंदन करुं छं ॥ ४ ॥ राखीने कडं के "जे पोताना सत्यना प्रभावथी भर्तारने स्पर्श करे तेनो ए भर्तार जाणवो." ते सांभळी व्यंतरीए देवशक्तिना प्रभावे पोतानो हाथ लांबो करी भर्तारने स्पर्श कर्यो तेवोज राणीए तेनो हाथ पकडी लइने कह्यं के "तुं तो व्यंतरी छे माटे तारे स्थानके जती रहे." एवी रोते चुकादो थवाथी विमळ मतिवाळी राणी कहेवाणी, ते गर्भनोज प्रभाव जाणी विमळनाथ नाम दीधुं. तेमनुं साठ धनुष्य प्रमाण शरीर अने साठ लाख वर्षनुं आयुष्य जाणवू. सुवर्ण वर्ण अने सूकर (मुंड)नुं लांछन जाणवू. - श्री अनंतनाथनो-अयोध्या नगरीमा जन्म हतो, तेमना पिता सिंहसेन राजा अने माता सुयशा राणी हता. एक वखत स्वप्नमां जेनो अंत न आवे एवं मोटुं चक्र राणीए आकाशने विषे भमतुं दोढुं अने अनंत रत्ननी माळा दीठी तथा अनंत गांठना दोरा करी बांध्या, तेथी Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३ मू०-एवं मए अभिथुआ, विहुयरयमला पहीणजरमरणा ।। चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा में पसीयंतु ॥५॥ शब्दार्थ: चउवीसं पि-चोवीसेने पण एवं-एवी रीते मए-में अभिथुआ-स्तव्या विहुयरयमला-टाळ्या छे कर्म रूप रज अने मल जेमणे पहीणजरमरणा-विशेष क्षय कयां छे, जरा अने मरण जेमणे जिणवरा-जिनवरो, सामान्या केवळीओमां श्रेष्ठ तित्थयरा-तीर्थंकरो मे-मने, मारा उपर पसीयंतु-प्रसन्न थाओ लोकोना ताव गया, एवो गर्भनो प्रभाव जाणी अनंतनाथ नाम दीधुं. तेमनुं पचास धनुष्य प्रमाण शरीर अने त्रीशलाख वर्षनुं आयुष्य जाणवू सुवर्ण वर्ण तथा लांछन सिंचाणानुं जाणवू. श्री धर्मनाथस्वामी-रत्नपुर नगरमां जन्म्या हता. तेमना पिता भानुराजा अने माता सुत्रता राणी हतां. राजा राणीने पूर्वे धर्म उपर अल्प राग हतो ते भगवंत गर्भे आव्या पछी नन्नेने धर्म उपर अत्यंत राग थ्यो, एवो गर्भनो महिमा जाणी धर्मनाथ नाम दीधुं. तेमनुं ४५ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ - एवं मए अभिथुआ – ए रीते माराथी स्तवायेला अर्थात् -स्तुति करायेला. विहुयरयमला पहीणजरमरणा -- जेओ कर्मरूप रज अने मेलथी रहित छे अने जे वृद्धावस्था तथा मरणथी छुटा छे. चवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु अने जेओ - सामान्य केवळीओमां श्रेष्ठ छे, एवा चोवीसे तीर्थंकर भगवान् मारा उपर प्रसन्न थाओ ॥ ५ ॥ धनुष्य प्रमाण शरीर अने दश लाख वर्षनुं आयुष्य जाणवुं. सुवर्ण वर्ण तथा वज्रनुं लांछन जाणवुं. श्री शांतिनाथनो —- गजपुर नगरमा जन्म हतो. तेमना पिता विश्वसेन राजा अने माता अचिरा राणी हतां वळी ते देशनां मरकोनो उपद्रव घणो हतो ते भगवंत गर्भे आग्या पछी माताए अमृत छांटचं तेथी मरकीथो शांति थइ. एवा गर्भना प्रभावथी शांतिनाथ नाम दीधुं. 'मनुं चालीश धनुष्य प्रमाण शरीर अने एक लाख वर्षनुं आयुष्य जाणवुं. सुवर्ण वर्ण तथा लांछन मृगनुं जाणवु. श्री कुंथुनाथनो - हस्तिनापुर नगरमां जन्म हतो अने तेमना पिता सूर राजा अने माता श्री राणी हतां. भगवंत गर्भे आग्या पछी माताजी स्वप्नमां ननो थूभ पृथ्वीने विषे दीठो तथा शत्रु हता ते कुंथुआनी जेवा न्हाना थया अथवा कुंथुआ प्रमुख न्हाना महोटा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ - ए प्रकारे में ( नामपूर्वक) स्तव्या, ते चोवीशे तीर्थंकरो तथा बीजा पण तीर्थकरो जेओओ (कर्मरूप) रज तथा मळने टाळ्या छे तथा जेमणे जरा- वृद्धावस्था अने मरण अतिशये करीने क्षय कर्या छे जीवोनी जयगा देशमां प्रवर्त्ती, तेथी कुंथुनाथ नाम दीघुं. तेमनुं . पांत्रीश धनुष्यनुं शरीर अने पंचाणुं हजार वर्षनुं आयुष्य जाणवुं.. सुवर्ण वर्ण तथा लांछन छाग (बोकडा) नुं जाणवुं. श्री अरनाथनो — गजपुर नगरमा जन्म हतो. तेमना पिता सुदर्शन राजा अने माता देवी राणी हतां. भगवंत गर्भे आव्या पछी राणी स्वप्नमां रत्नमय आरो तथा थूभ दीठां, एवो गर्भनो महिमा जाणी अरनाथ नाम दीधुं तेमनुं त्रीश धनुष्य शरीरनुं मान अने चोराशी हजार वर्षनुं आयुष्य जाणवुं सुवर्ण वर्ण तथा लांछन नंदावर्त्तनु जाणवुं. श्री मल्लीनाथ - मिथिलानगरीमां जन्म्या हता. तेमना पिता कुंभराजा अने माता प्रभावती राणी हतां. भगवंत गर्मे आव्या पछी माताने एक रात्रिए छए ऋतुनां फूलनी शय्याए सुवानो दोहलो ऊपज्यो, ते देवताए पूर्यो, एवो गर्भनो प्रभाव जाणी श्री मल्लिनाथ नाम दीघुं. तेमनुं पचीश धनुष्य शरीरनुं मान अने पंचावन हजार वर्षनुं आयुष्य जाणवुं. नीलवर्ण तथा लांछन कुंभनुं जाणवुं. श्री मुनिसुव्रत स्वामिनो -राजगृह नगरीमां जन्म हतो.. तेमना पिता सुमित्र राजा अने माता पद्मा राणी हतां भगवंत गर्भे Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा जे सामान्य केवळीओमा श्रेष्ठ छे, एवा ते तीर्थंकरो मारा उपर प्रसन्न थाओ ॥ ५ ॥ आव्या पछी मातापिता मुनिराजनी पेरे श्रावकनां भलां बार व्रत साचववा लाग्यां, एवो गर्भनो प्रभाव जाणी मुनिसुव्रत नाम दीधुं. तेमनुं वीश धनुष्य शरीरमान अने त्रीश हजार वर्षनुं आयुष्य जाणवू. कृष्ण वर्ण तथा लांछन काचबानुं जाणवू. श्री नमिजिन-मिथिला नगरीमा जन्म्या हता. तेमना पिता विजय राजा अने माता वप्रा राणी हतां. भगवंत गर्भे आव्या पछी सीमा"डिया राजा भगवतना पिताना शत्रु हता ते चढी आव्या. गामना किल्लाने चारे बाजु लश्करनी पडाव नांखी वीटी लीg. राजाने घणी बीक लागो पण राणीए किल्ला उपर चढीने शत्रुओने वांकी नजरे जोया. राणीनुं तेज वैरी राजाओथी खमायुं नहि, तेथी सर्व आवीने भगवंतनी माताने नमस्कार करी कहेवा लाग्या के अमारा उपर सौम्यदृष्टिए जुओ. राणीए तेमना उपर सौम्य नजरे जोइ माथे हाथ मूक्यो. सर्व राजाओ राणीने पगे लागी आज्ञा मागी पोतपोताने नगरे गया, एवो गर्भनो प्रभाव जाणीने -नमिनाथ नाम दीधुं. तेमनुं पनर धनुष्य शरीरनुं मान अने दश हजार वर्षेनुं आयुष्य जाणवू. सुवर्ण वर्ण तथा लांछन नीला कमळनुं जाणवू. श्री अरिष्टनेमि-प्रभुनो सौरीपुर नगरमां जन्म हतो. तेमना पिता समुद्रविजय राजा अने माता शिवादेवी राणी हता. प्रभु गर्ने Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० – कित्तिय वंदियमहिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । आरुग्गबोहिलाभं, समाहिवरमुत्तमं दिंतु ॥ ६॥ शब्दार्थ: कित्तिय - स्तव्या बंदियांचा महिया-पूज्या जे ए- जेओ, ए 'लोगस्स - लोकमां उत्तमा- उत्तम सिद्धा-सिद्ध थया छे आरुग्ग - आरोग्य बोहिलाभं सम्यग् दर्शननो लाभ - समाहिवरं - प्रधान समाधि उत्तमं - उत्तम दिंतु आपो आव्या पछी माताएं स्वप्नमां अरिष्ट एटले काळा रत्ननी रेल दीठो तथा आकाशमां चक्र उछळतुं दीटुं, एवो गर्भनो प्रभाव जाणी अरिष्टनेमि नाम दीघुं. बीजुं नाम श्री नेमिनाथ. तेमनुं दश धनुष्य शरीरमान अने एक हजार वर्षनुं आयुष्य, श्याम वर्ण अने लांछन शंखनुं हतुं. श्री पार्श्वनाथस्वामीनोवणारसीनगरीमां जन्म हतो. तेमना पिता अश्वसेन राजा अने वामा राणी माता हतां. भगवंत गर्भे आया -पछी माताएं अंधारी रात्रे पोतानी पासे सर्प जतो दीठो. ते सर्पना जवाना मानी व मां राजानो हाथ देखी राणीए ऊंचो कर्यो, तेथी राजा जागी कश्या ने बोल्या के 'शा माटे हाथ ऊंचो कीधो ?' राणीए सर्प दीठानुं Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ कित्तियवंदियमहिया - जेओ इन्द्रआदि देवताओथी स्तवायेला छे, वंदायेला छे, अने पूजायेला छे. जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा - जेओ समस्त लोकोमा उत्तम छे, अने सिद्ध थयेला छे, अर्थात् सिद्धि पदने पामेला छे ते भगवान् मने... आरुग्गबोहिलाभं—– आरोग्य तथा सम्यक्त्वनो लाभ. समाहिवरमुत्तमं दिंतु — तथा प्रधान - उत्तम समाधि आपो अर्थात् समाधिनुं श्रेष्ठ वरदान आपो ॥ ६ ॥ भावार्थ — जेमने इंद्रादिक देवोए पण स्तव्या छे, वा पूज्या छे, तथा जेओ लोकने मध्ये उत्तम - प्रधान सता सिद्धि पदने पाया छे, ते सर्वे तीर्थंकरो मने आरोग्य-नीरोगीपणुं, बोधिनी प्राप्ति अने उत्तम समाधिनुं वरदान आपो ॥ ६ ॥ क. राजा कहे 'तमे जूटुं बोलो छो.' पछी दीपक मंगावी जोयुं तो सर्प दीठो. ते वारे विस्मय पामी राजाए विचायुं जे में न दीठो ने राणीए दीठो एं गर्भनो प्रभाव छे, एम जाणी श्री पार्श्वनाथ नाम दीघुं. तेमनुं नव हस्त प्रमाण शरीर अने एक सो वर्षनुं आयुष्य जाणवुं. नील वर्ण तथा लांछन सर्पनुं जाणवुं. श्री वर्द्धमानस्वामीनो - क्षत्रियकुंडनगरमां जन्म हतो. तेमना पिता सिद्धार्थ राजा अने माता त्रिशला राणी हतां. भगवंत गर्भे आव्या पछी माता पिता समस्त ऋद्धिए वृद्धि पाम्या, धन धान्यादिकना भंडार Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू-चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा । सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥७॥ शब्दार्थःचंदेसु-चंदना समूहथी पेठे, मोटा समुद्र जेवा निम्मलयरा-अतिनिर्मळ । गंभीरा-गंभीर आइच्चेसु-सूर्यना समूहथी सिद्धा-सिद्ध भगवानो अहियं-अधिक सिद्धि-सिद्धि-मोक्षने पयासयरा-प्रकाश करनारा । मम-मने सागरवर-स्वयंभूरमण समुद्रनी। दिसंतु-आपो तथा देश नगरादिकनी वृद्धि थइ. सर्व राजा आज्ञामां वर्त्तवा लाग्या, एवो गर्भनो प्रभाव जागी वर्द्धमान नाम दोधुं. वळी बाल्यावस्थामां मेरुपर्वत अंगुठे चाप्यो तथा आमलकी क्रीडा करतां देवता हार्यो, माटे इंदमहाराजे श्री महावीर एवं बीजुं नाम दीधुं. तेमनु सात हाथy शरीर अने बहोतेर वर्षनुं आयुष्य जाणवं. सुवर्ण वर्ण अने लांछन सिंहy जाणवं. महावीरस्वामी २४ मा तीर्थकर थया. त्यार पछी कोइ पण तीर्थकर भगवान थया नथी तेमज आ अवसर्पिणी काळमां थवाना पण नथी. हालमा जे जैनधर्म प्रवर्ते छे ते श्री वीरप्रभुनु ज शासन समजवू. तेमनी पाटे सुधर्मास्वामी गणधर थया. हालमा जे साधुओ जैनधर्मने माननारा छे ते सघळा तेओनी पाटपरंपराए थयेला समजवा. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंदेसु निम्मलयरा-जेओ चन्द्रोथी पण अधिक निर्मळ छे. आइच्चेसु अहिय पयासयरा--जेओ सूर्योथी पण अधिक प्रकाश करवावाळा छे. सागरवरगंभीरा-अने जेओ मोटा समुद्र-स्वयंभूरमण नामनासमुद्रनी जेम गंभीर छे. सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु-एवा सिद्ध भगवान मने मोक्ष आपो, अर्थात् सिद्ध परमात्माना अवलम्बनथी मने मोक्ष पद मळो ॥ ७ ॥ भावार्थ-सर्वचंद्रोथी विशेष निर्मळ, सर्व सूर्योथी अधिक प्रकाश करनारा अने स्वयंभूरमण समुद्र जेवा गंभीर सिद्ध भगवंतो मने मोक्षमार्ग देखाडो, एटले मोक्ष आपो, अर्थात् तेमना आलंबनथी मने मोक्षनी प्राप्ति श्राओ ॥ ७ ॥ पद २८, संपदा २८, गुरु २७, लघु २२९, सर्ववर्ण २५६. इति लोगस्स- नामस्तव सूत्र ७. ॥८ अथ पडिलेहणा॥ १ इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसीहि आए मत्थएण वंदामि ॥ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पडिलेहणं संदिस्साए मि ॥ इच्छं ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसोहिआए मत्थएण वंदामि ॥ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् पडिलेहणं करेमि ॥ इच्छं ॥ ( पछी मुहपत्तिनी २५ पडिलेहणा तथा शरीरनी २५ पडिलेहणा करवी । पडिलेहणा करती वखते नीचे लखेला पचास बोल चिंतववा) ॥ पडिलेहणाना ५० बोल ॥ मुहपत्तिनी २५ पडिलेहणा-सम्यक्त्वमूल निर्मल दृष्टिए जीव जोई जयणा करूं. ( एम बोली दृष्टि पडिलेहणा करवी ) सम्यक्वमोहनीय, मिश्रमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय परिहरु ॥ कामराग, स्नेह राग, दृष्टिराग परिहरं ॥ सुदेव, सुगुरु, सुधर्म आदरं ।। कुदेव, कुगुरु, कुधर्म परिहरूं ।। ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदरं ॥ ज्ञानविराधना, दर्शनविराधना, चारित्रविराधना परिहरूं ॥ मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति आदरं ॥ मनोदंड, वचनदंड, कापदंड परिहरु ॥ शरीरनी २५ पडिलेहगा-हास्य, रति, अरति परिहहें ॥ भय, शोक, दुर्गन्छा परिहरूं ॥ कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या परिहरु । ऋद्धिगारव, रसगारव, सात गारव, परिहरु ॥ मायाशल्य, नियागशल्य, मिथ्यात्वशज्य परिहरं ॥ क्रोध, मान, परिहीं ॥ माया, लोभ परिहरु, पृथ्वीकाय, अप्काय, ते उकाय, वाउकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय विराधना परिहरं ॥ ( पछी) १ इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए मत्थएण वंदामि ॥ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सामाइयं संदिस्साएमि ॥ इच्छं। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ २ इच्छामि खमासमणो बंदिउं जावणिजाए निसीहिआए मत्थएण वंदामि || इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सामाइयं ठाएमि ॥ इच्छं ॥ ( पछी एक नवकार गणी नीचे प्रमाणे बोले ) इच्छाकारेण संसिह, भगवन् सामायिक दंडक उच्चारावोजी ॥ एम बोली सामायक उचरे ॥ ॥ ९ अथX करेमि भंते सूत्र वा सामायकनुं पच्चक्खाण ॥ मू० - करेमि भंते! सामाइयं । सावखं जोगं पच्चक्खामि जाव नियमं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं || शब्दार्थः करेमि - करुं कुं भगवन् ! भंते ! - हे सामाइयं - सामायिक सावज - सावध, पाप सहित जोगं - व्यापार नो पच्चक्खामि - निषेध करूं छु, त्याग करूं छु जाव - ज्यांसुधी नियम-नियमोनुं पज्जुवासामि - सेवन करूं दुविहं-बे प्रकारे तिविहेण-त्रण प्रकारे X सम एटले सरखुं छे मोक्ष साधन प्रत्ये सामर्थ्य जेनुं एवा ज्ञान दर्शननो आय एटले लाभ छे जेमां ते अथवा सम एटले मध्यस्थ भाव तेनो लाभ जेमां थाय छे ते अथवा सम एटले समानभाव - सर्व Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करेमि भंते सामाइयं-हे भगवन् (हुं सामायक ग्रहण करूं छु) सावजं जोगं पच्चक्खामि ते माटे पापवाळा व्यापारनो त्याग करूं छं. जीवने मित्र तरीके लेखवारूप लाभ जेमां थाय छे ते सामायक कहिये, प्रत्याख्यानना भांगा ४९ छे, तेमा ४० मा भांगे सामायक थाय छे. पाप सहित व्यापार करुं नहि, करा, नहि, मन वचन कायायें. ए ४० मो भांगो छे. मांगा ४९ करवानी रीत: आंक ११-१ करण. आंक १२-१ करण. आंक १३-१ करण. आंक २१-२ करण. आंक २२-२ करण. आंक २३-२ करण. आंक ३१-३ करण. आंक ३२-३ करण. आंक ३३-३ करण, ४९ ते आ प्रमाणे १ योग. २. योग. ३ योग. १ योग, २ योग. ३ योग. १ योग, २ योग. ३ योग. भांगा ९ ९ मळी. भांगा ९. १८ ,, भांगा ३ २१ ॥ भांगा ९ ३० ,, भांगा ९ ३९ भांगा ३ ४२ ,, भांगा ३ ४५ , भांगा ३ ४८ , भांगो १ ४९, Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाव नियमं पज्जुवासामि—ज्यांसुधी हुं आ नियमनुं सेवन करूं त्यां सुधी. दुविहं तिविहे —बे करण ( करवुं, कराववुं, ) अने त्रण योगी मन वचन, कायारूप. ५४ भावार्थ - हे भगवन् ! हुं सामायिक व्रत ग्रहण करुं छं. एटले रागद्वेषनो अभाव अने ज्ञान, दर्शन तथा चारित्रनी प्राप्तिरूप सामायिकने करुं लुं, तेथी सावध योगनो हुं त्याग करूं लुं, अने ज्यांसुची आ नियमनुं हुं सेवन करूं त्यांसुधी बे करण अने त्रण प्रकारे एटले. १ मने कर नहीं. २ मने कराव नहीं, ३ मने अनुमोदवुं नहीं. ४ वचने कर नहीं. ५ वचने कराव नहीं. ६ वचने अनुमोदवुं नहीं. ७ कायाए कर नहीं. ८ कायाए कराववुं नहीं. ९ कायाए अनुमोदवुं नहीं. १० मन वचने करवुं नहीं. ११ मन वचने करावकुं नहीं. १२ मन वचने अनुमोदवुं नहीं. १३ मन कायाए करवुं नहीं. १४ मन कायाए कराववुं नहीं.. १५ मन कायाए अनुमोदवुं नहीं, १६ वचन कायाए करवुं नहीं. १७ वचन कायाएं कराववुं नहीं... १८ वचन कायाए अनुमोदवुं नहीं. १९ मन वचन कायाए करवुं नहीं. २० मन वचन कायाए कराववुं. नहीं. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू०-मणेणं वायाए कारणं । न करेमि न कारवेमि । तस्सभंते पडिक्कमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि॥ शब्दार्थ: पडिकमामि-निवृत्त थाउं छु, पाछो हटुं छु निंदामि-निंदा करुं छु मणेणं-ममथी वायाए-वचनथी कारणं-कायाथी न करेमि-न करूं न कारवेमि-न करावं तस्स-तेथी, पूर्व में पापथी भंते-हे भगवन् ! करेला गरिहामि-गुरु महाराजमी साक्षीए निंदा करुं छु अप्पाणं-पोताने, आत्माने वोसिरामि-पापथी हटुं छु २१ मन वचन कायाए अनुमो. दवू नहीं. २२ मने करवू करावq नहीं. । २३ वचने करवू करावq नहीं. २४ कायाए करवू करावq नहीं. २५ मने करवू, अनुमोदवू नहीं. २६ वचने क अनुमोदवू नहीं. २७ कायाए करवू अनुमोदवू नहीं. २८ मने करावq अनुमोदएं नहीं. २९ वचने करावq अनुमोदकुं नहीं. ३० कायाए करावq अनुमोदर्रा नहीं. ३१ मन वचने करवू करावबुं नहीं. .. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मणेणं वायाए कारणं-मन, वचन अने काय ए त्रण प्रकारना योगथी. न करेमि न कारवेमि-हुं पोते पाप व्यापारने न करूं, अने बीजाने न करावं, अर्थात् पाप व्यापारने पोते करवो अने बीजा पासे कराववो ए बन्ने क्रियानो त्याग करु. ३२ मन कायाए करवू करावq नहीं. ३३ वचन कायाए करवू करावq नहीं. ३४ मन वचने करवू अनुमोदकुं __नहीं. ३५ मन कायाए करवूअनुमोदq नहीं. ३६ वचन कायाए करवू अनुमो q नहीं. ३७ मन वचने करावq अनुमो- दवू नहीं. ३८ मन कायाए कराव_ अनुमो- वू नहीं. ३९ वचन कायाए करावq अनु मोदq नहीं. । ४० मन वचन कायाए करवू करावq नहीं. ४१ मन वचन कायाए करवू अनुमोदq नहीं. ४२ मन वचन कायाए करावq अनुमोदq नहीं. ४३ मने करवं, करावq अनुमो दवू नहीं. ४४ वचने करवू करावईं अनुमो दुवू नहीं. ४५ कायाए करवू करावq अनु मोदवू नहीं. - Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्स भते ! पडिकमामि-हे भगवन् ! ते पूर्व करेलां पापथी पाछो हटुं छं. निंदामि गरिहामि-आत्म साक्षीए ते अपराधनी निंदा करुं छु, अर्थात् हृदयथी तेने खराब समजु छु, गुरु महाराजनी सामे गुरु महाराजनी साक्षीए ते पापनी विशेष निन्दा करुं छं. अप्पाणं वोसिरामि-आ रीते हुं पोताना आत्माने पापथी पालो हठावू छु, भावार्थ-मन, वचन अने कायाए करीने बे करणनो त्याग एटले हुं पोते पापव्यापार करुं नहीं, तथा करावू नहीं, हे भगवन् ! पूर्वे करेला ते पाप व्यापारथी हुं निवत् छु, तेनी हृदयमा निंदा करूं छु, गुरुनी समक्ष गर्दा करुं छु, अने एवा पापवाळा मारा आत्माने हुँ वोसरा, छं एटले तनुं छु, अर्थात् पापथी मुक्त करुं छु । ___ गाथा १, गुरु ७, लघु ६९, सर्ववर्ण ७६. . ४६ मन वचने करवू करावq । ४८ वचन कायाए करवू करावq अनुमोदवू नहीं. अनुमोवू नहीं. ४७ मन कायाए करवू करावq । ४९ मन वचन कायाए कर अनुमोदq नहीं. करावq अनुमोदवू नहीं. ए ४९ भांगाने त्रण काल ( भूत भविष्य वर्तमान )थी गणतां १४७ भांगा थाय. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ॥ अथ सुगुरु वन्दन सूत्रम् ॥ मू०-इच्छामि खमासमणो ! वंदिलं जावणिज्जाए निसीहिआए ॥१॥ शब्दार्थ: इच्छामि-हुं इच्छु छु खमासमणो-हे क्षमाश्रमण ! जावणिज्जाए-शरीरनी शक्तिने । अनुसारे निसीहिआए-अन्य व्यापारनो त्याग करीने, (निवृत्तथइने) .. चंदिउं-वंदनकरवाने __ *आ सूत्रवडे आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर अने रत्नाधिक ए पांच पदस्थ गुरुमहाराजने वंदन कराय छे तेथी आ सूत्रनुं नाम सुगुरुवांदणा, ज्यारे गुरुमहाराज शांत चित्ते, सन्मुख आसने बेठा होय अने वंदन देवराववामां उजमाल होय त्यारे तेओनी आज्ञा मागीने वंदना करवी. पण व्याक्षिप्त चित्त होय, अवळा मुखे बेठा होय, आहार नीहार करतां होय अगर करवाने इच्छता होय, त्यारे वंदन करवू नहि. केमके तेथी तेमनो अनादर अने आशातना थाय छे, ए वात लक्ष्यमा राखवी, प्रतिक्रमण करतां, वाचना लेता, काउस्सग्ग करतां, अपराध खमावतां, प्राहुणा साधुजी आवे त्यारे, आलोचना लेता, पच्चख्खाण करतां, अने अंत समय अनशन आदरतां वंदन अवश्य कर, जोइए. : Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छामि खमासमणो! वंदिउंजावणिज्जाए निसीहिआएहे क्षमाश्रमण गुरुमहाराज! हुं शरीरनी शक्तिने अनुसारे आपने वांदवा चाहुं छु ( इच्छु छं)॥१॥ भावार्थ-हे क्षमाश्रमण ! हुं शरीरने अन्य पाप व्यापारथी निवृत्त करी शक्ति प्रमाणे आपने वंदना करवा इच्छु छु. (आ प्रमाणे शिष्य पूछे त्यारे जो गुरुमहाराज अस्वस्थ होय तो 'तिविहेण' एवो शब्द बोले, आथी शिष्य संक्षेपथी वंदन करवानी आज्ञा मळी एम समजे छे, आवी गुरुनी इच्छा जणाय तो शिष्ये पण संक्षेपथी ज वंदना करवी, परंतु जो गुरु स्वस्थ होय तो 'छंदेण' एवो शब्द बोले, तेथी इच्छानुसार वंदननी आज्ञा मळी एम शिष्य समजे छे.) त्यारे शिष्य आ प्रमाणे प्रार्थना करे छे मस्तक नमाववावडे वंदन थाय ते फिट्टावंदन, बे खमासमण देवा वडे वंदन थाय ते थोमवंदन अने बे वांदणां देवावडे द्वादशावतवंदन थाय छे. ए त्रण वंदनाना अनुक्रमे जघन्य, मध्यम अने उत्कृष्ट एम त्रण भेद गणाय. ___आ वांदणां देतां पच्चीश आवश्यक साचवां जोइए ने न साचके तो वंदन करनार पण निर्जराफळ पामे नहि. ते आवश्यक आ प्रमाणे 'इच्छामि खमासमणो' प्रमुख 'अणुजाणह' पर्यंत बोलतां पोतानुं अधु शरीर नमाडी देवामां आवे ते प्रथम अवनत अने फरी बीजीवार पण तेमज करतां बीजं अवनत जाणवू. जन्म थती वखते Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० मू० -- अणुजाणह मे मिउग्गहं ॥ २ ॥ शब्दार्थ. मिउग्गहं- परिमित अवग्रहनी अणुजाह मे मिउग्गहं— माटे मने परिमित अवग्रहनी आज्ञा अणुजाणह-आज्ञा आपो मे -मने - आपो ॥ २ ॥ भावार्थ - हे गुरुमहाराज ! मने मित अवग्रहनी एटले साडात्रण हाथ प्रमाण क्षेत्री आज्ञा आपो, ते सांभळी गुरुमहाराज 'अणुजाणामि' हुँ आज्ञा आपुं हुं एम कहे. अथवा दीक्षा योग आदरती वखते जेवी मुद्रा होय तेवी नम्र मुद्रा ( बे हाथ जोडी ललाटे लगाडवारूप ) वंदन करती वखते धारण करवी ते यथाजात जाणवु, 'अहो कार्य, काय ' रूप त्रण अने 'जता भे जवणिज्जं च मे ' रूप बीजा त्रण एम छ, एक वखतना वंदनमां अने ते छबीजी वखतना वंदनमां मळी १२ आवर्त ( गुरुचरणे हाथनां तळांलगाडी पछी ते पोताना ललाटे लगाडवारूप ) थाय छे. 'काय संफासं' कहेतां स्वमस्तक गुरुचरणे नमाडवुं तथा “खामेमि खमासमणो " कहेतां फरी स्वमस्तक नमाडवु एवी रीते बीजोवार वंदन करतां बे वखत मस्तक नमाडवु. एम सर्व मळी चार वखत शिर नमन थाय छे, मन, वचन अने कायाने अन्य व्यापारथी निवर्तात्री वंदन करती वखते सारी रीते गोपवी राखवारूप ऋण गुप्ति जाणवी. 'अणुजाणह मे मिउग्गहं' · - Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यारे शिष्य आ प्रमाणे करेमू०-निसीहि अहोकायं कायसंफासं खमणिज्जो भे. किलामो, अप्पकिलंताणं बहुसुभेण भे दिवसो वइक्कतो!॥३॥ जत्ता भे? ॥४॥जवणिज्जं च मे ॥५॥ शब्दार्थ करीने निसीहि-पापक्रिडाने रोकीने अप्पकिलंताणं-अल्प ग्लानि-- अहोकायं-आपना चरणने वाळा एवा कायसंफासं-मारा उत्तमांगवडे बुहुमुभेण-धणा शुभ भाववडे स्पर्श करुं र्छ दिवसो-आ दिवस खमणिज्जो-आप क्षमा करवा योग्य छो वइक्तो !-व्यतीत थयो छे ? जत्ता-यात्रा भे-आपनो भे-आपनी किलामो-खेद थयो होय-काइ । जवणिज-मन तथा इंद्रियोनी बाधा पीडा थइ होय तो ते पीडा रहित वर्ते छे ? कही बन्ने वखत वंदन करतां गुरु-आज्ञा पामीने अवग्रहमा प्रवेश करवो ते बे प्रवेश जाणवा, अने प्रथम वंदन करती वखते 'आवस्सिआए' कहीने अवग्रहमांथी बाहेर नोकळवू ते एक निष्क्रमण समजवू एवी रीते द्वादशावर्त वंदन करती वखते पच्चीश आवश्यक साचवां ज जोइए. तेमज द्वादशावर्त वंदनना ३२ दोष ते पण टाळवा जोहए. ते ३२ दोष नीचे प्रमाणे: Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निसीहि-गुरुवंदन सिवाय बीजो व्यापार निषेध्यो छे, एवो शिष्य. अहो-कायं-आपना चरणने. कायसंफासं-मारा उत्तमांगवडे स्पर्श करूं छु. खमणिज्जो मे किलामो--मारा स्पर्श करवाथी आपने काइ "पण बाधा-पीडा थइ होय तो ते आप क्षमा करवा योग्य छो. - अप्पकिलंताणं बहुसुमेण भे दिवसो वइकंतो-अल्प . ग्लानिवाळा एवा आपनो आ दिवस घणा शुभ भावनडे करीने व्यतीत थियो छे ? जत्ता भे?-आपनी यात्रा. जवणिज्जं च भे?--तथा आपनुं शरीर मन तथा इन्द्रियोनी पीडारहित वर्ते छे ? . १ अनाहृतदोष-गुरुनो अनादर करबो ते. २ स्तब्धदोष-विनयपूर्वक गुरुने नमन नहि करतां स्तब्धपणे स्टार उभा रहे ते. सुलादिक रोग थयो होय तो द्रव्यथी न नमी शके पण नमवाना भाव होय तो ते श्रेष्ठ कहेवाय. पण जे जागी जोइने स्तब्धपणे उभो रहे तेने अविनयी जाणवो. ३ पविद्धदोष-काइपण व्यवस्था वगर जवा देवानी क्रिया ते : वेठरूप जाणीने करे अने संपूर्ण करे नहि ते त्रीजी पविद्ध दोष. . ४ सपिंडितदोष-मुखथकी सूत्रना वचन सिवाय बीजा वचन : बोले अने पोताना हाथ पग स्थिर राखे नहीं ते सपिंडित दोष. · Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-पछी शिष्य मात्र गुरुवंदन सिवाय अन्य क्रियारूप व्यापारनो निषेध करी, अवग्रहमा प्रवेश करी, विधिपूर्वक बेसी साधु होय तो डाबा ढींचण उपर अने श्रावक होय तो चरवला उपर मुखवस्त्रिका मूकी बे हाथ ललाटे लगाडी गुरुना चरणने स्पर्श करतो आ प्रमाणे बोले-आपना अधःकायने एटले चरणोने मारा हाथ अने मस्तके करी सारी रीते स्पर्श करवाने मने आज्ञा आपो. पछी गुरुनी आज्ञा पामी गुरुना चरण प्रत्ये पोताना हाथ तथा मस्तके करी स्पर्श करे, पछी मस्तके बे हाथ लगाडी गुरुनी सन्मुख दृष्टि राखी- खमणिजो भे' इत्यादि पदो बोले. एटले के हे भगवंत ! मारा स्पर्शथी आपने काइ खेद थयो होय तो ते आप क्षमा करवाने लायक छो. तथा अल्प ग्लानिवाळा आफ्नो ५ टोलकदोष-तीडपक्षीनी पेठे एक जग्याए स्थिर नहि बेसतां जेमतेम उठबेश करी वंदन कर्या करे ते. ६ अंकुशदोष-गुरु उभा होय के बेठा होय तेनो विचार कर्या वगर तेमने आग्रहथी बेसाडीने पोते वांद. महाराज बेसी जाओ मारे वांदवा छे एम कहे, ते छठो अंकुशदोष. ७ कच्छपदोष-वांदती वखते काचबानी पेटे आगळ पाछळ फर्या करे ते सातमो कच्छपदोष. ८ मत्स्यदोष-माडलं जेम पाणीमां स्थिर रहेतुं नथी तेम जे वंदन करतां स्थिर रहे नहि ते आठमो मत्स्यदोष. ९ मनप्रदुष्टदोष-गुरु पासेथी पोतानी इच्छा प्रमाणे कार्यसिद्ध न थवाथी मनमा द्वेष अने इर्षा लावीने वांदे ते नवमो मनप्रदुष्टदोष, Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजनो दिवस सुखे समाधिए निर्गमन थयो छे ? त्यारे गुरु 'तहत्ति' कहे, एटले हा, सुखे समाधिए व्यतीत थयो छे. पछी शिष्य आ प्रमाणे कहे-हे पूज्य ! आपनी तप, नियम, संयम अने स्वाध्यायरूप यात्रा निराबाधपणे वर्ते छे ? त्यारे गुरु कहे के-'तुम्मं पि वट्टए' तमारी पण संयम यात्रा निराबाधे वर्ते छे ? त्यारे शिष्य बोले के-आपनुं शरीर इंद्रिय तथा नोइंद्रियनी (मन) पीडा रहित छे ? त्यारे गुरु कहे के ' एवं' हा. एम ज छे. . १० वेदिकादोष-बे हाथ धुंटग उपर मुकवा अथवा बन्ने हाथनी बच्चे धुंटण राखवा, बे हाथनी वच्चे एक धुंटण राखे अथवा खोळामां हाथ राखे एवी रीते वंदन क्रिया करे ते वेदिकादोष. ११ भयदोष-जो हुं नहि वांदुं तो आचार्य मने काढी मुकशे अथवा एमने माटुं लागशे, एम भयथी वांदवू ते अगारयमो भयदोष. १२ भजंतदोष-बोजाओ पण गुरुने भजे छे माटे हुं पण भजवाना पूर्वक वांदु तो ठीक, एम विचारवू ते भजंतदोष. . १३ मैत्रीदोष-जो हुं आचार्यने वांदीश तो आचार्य मारी साथे मैत्रीभाव राखशे अने मारापर प्रीति राखशे ते मैत्रीदोष. १४ गारवदोष-समाचारीमां लोको मने श्रेष्ठ क्रियापात्र कहेशे एम विवारीने वांदवू ते गारवदोष. १५ कारणवांदणुं-आलोकना सुखनी इच्छाथी जे वांदे ते कारणदोष. Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे शिष्य पोताना अपराधनी क्षमा मागे छे मू०-खामेमि खमासमणो ! देवसिअं वइक्कम ॥ ६॥ आवस्सियाए पडिक्कमामि खमासमणाणं देवसिआए आसाययाए तित्तीसन्नयराए जं किंचि मिच्छाए मणदुकडाए वयदुक्कडाए कायदुक्कडाए, कोहाए माणाए मायाए लोहाए सबकालिआए • सव्वमिच्छोवयाराए सव्वधम्माइक्कमणाए आसायणाए जो मे अइआरो कओ तस्स खमासमणो पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ ७॥ शब्दार्थःखामेमि-हुँ खामुं छु व इकम्म-अपराधने खमासमणो-हे क्षमाश्रमण ! आवस्सियाए-आवश्यक क्रिया देवसिअं-दिवस संबंधी संबंधी अतिचारने १६ स्तैन्यदोष-बीजाथी शरमाइने तेमनी नजर चुकवीने वांदी लेवं ते स्तैन्यदोष. १७ प्रत्यनीकदोष-आहारनिहारना काम वखते जे वांदवू ते प्रत्यनीकदोष. १८ रुष्टदोष-क्रोधायमान थयो थको अथवा गुरुने क्रोधायमान करतो थको वांदे ते रुष्टदोष. १९ तर्जीतदोष-- मस्तक, आंगळी के भ्रकुटीवडे गुरुनी तर्जना करवी एटले याद राखजो, एम भय गुरुने बतावे अने वांदे ते तर्जीतदोष.. Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिकमामि--पडिक्कमुं बुं एटले | कायदुक्कडाए-कायाना दुष्कृत. ते थकी निवृत्त थाउं छु वाळी खमासमणाणं-आप क्षमाश्रम कोहाए-क्रोधथी थयेली णोनी माणाए-मानथी थयेली देवसिआए-दिवस संबंधी मायाए-मायाथी थयेली आसायणाए-आशातना वडे लोहाए-लोभथी थयेली तित्तीसन्नयराए-तेत्रीशमाथी सव्वकालिआए-सर्वकाल संबंधी कोइ पण एक सबमिच्छोवयाराए-सर्व प्र. जं किंचि-जे काइ कारना मिथ्या उपचार मिच्छाए-मिथ्याभावथी थयेली संबंधी मणदुक्कडाए-मनना दुष्कृतवाळी सव्वधम्म-सर्व प्रकारना धर्मवयदुक्कडाए-वचनना दुष्कृत- अइक्कमणाए-उल्लंघन करवाथी वाळी थयेली २० शठदोष-चांदवाथी गुरु अने बीजाओ मारो विश्वास करशे एम विचारीने वांदवू ते शठदोष. २१ हीलितदोष-पाछळथी गुरुनी हेलनाकरे अने वांदे ते २२ कुंचितदोष-बांदतां वांदतां देशादि संबंधी वचन विकथा करे ते कुंचितदोष. २३ द्रष्टाद्रष्टदोष--लोकोने देखाडवाने लोको होय त्यारे जे वांदे ते द्रष्टाद्रष्टदोष. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसायणाए-आशातनावडे जो-जे काइ, मे-में अइयारो-अतिचार को-को होय, तस्स-तेने पडिकमामि-हुँ पडिकमुं छु निंदामि-निंदुं छु गरिहामि-गुरु साक्षीए गर्दा करुं छु अप्पाणं-तेवा पापमय आत्माने वोसिरामि-बोसरा, छं-पाठो खेंची लउं छु ___ २४ अंगदोष-सन्मुख हाथ नहि राखतां जमणी अने डाबी बाजुए राखोने वांदवू ते शृंगदोष. २५ करदोष--वांदवानो कर मानीने वांदवु एटले शुं करीए वांद्या विना छुटको नथी एम कहे ते करदोषः २६ मोचनदोष--बांदवाना करमांथी मुक्त थवानी इच्छाथी वांदवू एटले चालो आ काम एक उकेली लइए ते मोचनदोष. २७ आश्लिष्टअनाश्लिष्टदोष-जमीन उपर मस्तक लगाडे न लगाडे अथवा रजोहरण साथे हाथ लगाडे पग मस्तके न लगाडे, मस्तके लगाडे पण रजोहरणे न लगाडे, मस्तके न लगाडे अने रजोहरणे पण न लगाडे ते आश्लिष्ट अनाश्लिष्टदोष जाणवो अने चोथो भांगो ने बन्नेने हाथ लगाडीने वांदे ते दोष नथी. . २८ न्यूनदोष-उतावळथी पाठ कहेतां वचन रही जाय ते न्यूनदोष. Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खामेमि खमासमणो ! देवसि, वइक्कम-हे क्षमाश्रमण ! दिवस संबंधी अपराधने हुं खामुं छं ॥६॥ ___आवस्सियाए पडिक्कमामि-आवश्यक क्रियासंबंधी अतिचारने पडिक्क, छं एटले ते थकी निवृत्त थाउं छु. खमासमणाणं देवसिआए, आसायणाए तित्तीसनयराएआप क्षमाश्रमणोनी दिवस संबंधी तेत्रीश आशातनामांथी कोइ पण एक आशातनावडे. जं किंचि मिच्छाए-अने जे कांइ मिथ्याभावथी थयेली. मणदुक्कडाए वयदुकडाए कायदुकडाए-मनना दुष्कृतवाळी, वचनना दुष्कृतवाळी, कायाना दुष्कृतवाळी. कोहाए माणाए मायाए लोहाए---क्रोधथी थयेली, मानथी थयेली, मायाथी थयेली, लोभथी थयेली. २९ चुलिकादोष-वांया पछी वधारे मोटे सादे मथ्थएण वंदामि एम बळी विशेष कहे ते चुलिकादोष. ३० मूकदोष-मुंगे मोढे वांदे ते मूकदोष. , ३१ ढहरदोष-मोटा सादथी वांदणासूत्रनुं बोलवू ते ढड्ढरदोष. . - ३२ चुडलीकदोष---रजोहरण आम तेम फेरक्तां वांदे ते चुडलीकदोष. Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वकालियाए सबमिच्छोवयाराए-सर्वकाळसंबंधी, सर्वप्रकारना मिथ्या उपचार संबंधी. सब्बधम्माइक्कमणाए आसायणाए-सर्वप्रकारना धर्मर्नु उल्लंघन करवाथी थयेली आशातनावडे. जो मे अइयारो कओ-जे काइ में अतिचार कयों होय. तस्स खमासमणो पडिकमामि-तेने हे क्षमाश्रमग ! हुं पडिक्क, छं. निंदामि गरिहामि-तेने हुं निंदं कुं, गुरु साक्षीप गही करंडु. अप्पाणं वोसिरामि-तथा तेवा पापमय आत्माने वोसरावू छं--पाछो खेंची लडं चुं. भावार्थ:--अवश्य कर्तव्य जे चरणसितरी अने करणसित्तरी विगेरे सेवतां पाळतां जे काइ अतिचार लाग्या होय ते थकी हुं निरंतु छं. वळी आप क्षमाश्रमगनो दिवस संबंधी तेत्रीशमांथो काइ पण आशातना थइ होय, तथा मिध्याभावरूप आशातना थइ होय, * गुरु महाराज संबंधी तेत्रीश आशातना अवश्य वर्जवी जोइए ते आ प्रमाणे १ गुरु महाराजनी एक पडखे, बीजे पडखे तेमज अत्यंत नजदीक अडकीने १ चालतां-हीडतां, २ उभा रहेतां अने ३ बेसतां आशातना लागे छे. परंतु जो खास अगत्यना कारगसर तेम करवू पडे, तो आशयशुद्धिथी अने अधिक लाभना कारणथी आशातनानो Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० तथा दुष्ट मनथी, दुष्ट वचनथी, दुष्ट कायाथी, क्रोधथी, मानथी, मायाथी, लोभथी, सर्वकालसंबंधी, सर्व मिथ्या उपचारथी एटले कूड दोष गणालो नथी. एम दरेकना त्रण त्रण भेद करतां तेना ९ भेद थइ शके छे. १० गुरु महाराज पहेलां भोजन वखते चलु करी लेवाथी के आचमन लेवाथी दोष लागे. ११ बाहेरथी गुरु साथे आव्या छतां जो गुरु महाराजथको पहेलां गमणागमणे आलोवे एटले 'इरियावही' पडिक्कमे तो गुरुनो अनादर-विनयभंग करवाथी दोष लागे. १२ रात्रीसंथारो कर्या बाद गुरु महाराज कंइ पुछे के बोलावे त्यारे सांभळ्युं नहीं सांभळ्युं करी उत्तर नहीं आपतां केवळ मौनज धारी रहे तो आशातना लागे. १३ गुरु पासे आवेला कोइ गृहस्थादिकने वश करी लेवा गुरु महाराज तेमने बोलावे ते पहेलां पोते बोलावी ले, तो गुरुआशातना लागे. १४ भिक्षावृत्तिथी आणेलां आहार पाणी प्रमुख गुरु महाराज पासेज प्रथम हाजर करो देवां जोइए अने गोचरो पण त्यांज आलोक्वी जोइए, तेने बदले तेम नहीं करतां ते संबंधी इच्छा मुजब वर्ततां एटले “गुरु पहेलां उतावळ करी आवेली गोचरी कोइ साधु जोइ ले.. तेमज ते बीजा साधु पासे आलोवी ले तो गुरुआशातना लागे. १५ आवेली गोचरी गुरु पहेलां बोजाने बतावी दे, तो दोष लागे. १६ आवेलां. आहार पाणी वापरवा बोजाने निमंत्रण करीने पछी गुरु महाराजने निमंत्रण करे तो तेथी अनादर दोष लागे. १७ मधुर खाद्य पदार्थ भिक्षामा आवेलो जाणी आपइच्छाए गुरुने पूछ्या वगर पताने गमे तेने आपी देवाथी आशातना लागे. १८ सरस स्निग्ध पदार्थ आवेलो Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपटथी, अष्टप्रवचनमातारूप सर्व धर्म कार्यन अतिक्रमण करवाथी जे काइ आशातना लागी होय अने तेणे करीने में जे अतिचार को होय, होय तो ते गुर्वादिकने नहीं आपता पोतेज आरोगी जाय, तो गुरु आशातना लागे. १९ गुरु महाराज साद करीने बोलावे त्यारे व्हेरानी पेरे कशो पण उत्तर पाछो न आपे, शून्यवत् बेसी रहे; तो दोष लागे. २० ज्यारे कोई बडील साधु साद करे त्यारे सामा थइ जेम आवे तेम बोले-आ मारीज केडे लाग्या छे. मनेज देख्यो छे, आमनी साथे क्याथी पानां पड्यां, इत्यादिक कटु भाषण करतां दोष लागे. २१ गुरु पासे जइ नम्रपणे जवाब देवाने बदले पोताना आसने बेठा बेठा उत्तर आपवाथी गुरुआशातना लागे. २२ शुं कहो छो! शुं छे ? कहोने ! इत्यादिक विनय रहित भाषग गुरु साथे करतां आशातना लागे. २३ कंइ काम करवा गुरु महाराज शिष्यने बोलावे त्यारे तोछडाइ भरेली रीते बोले के तमेज करोने ! मने शामाटे कहो छो? अथवा टुंकारादि देतां गुरु आशातना लागे. २४ वाह ! अमनेज दिठा छेने ! तमे जाते केम करता नथी ? अथवा बोजा शिष्यने करवा केम कहेता नथी ? एम गुरुमहाराजने तर्जना करतां गुरुआशातना लागे. २५ गुर्वादिक वडील साधुओने व्याख्यान प्रमुख करतां देखी शिष्य दुमणो थाय पण प्रमुदित न थाय, तो गुरुआशातना लागे अथवा गुर्वादिक वडीलनो कोइ रोगी होय तेने देखी दुमणो थाय तो तेथी पण गुरुआशातना लागे. २६ गुरुमहाराज व्याख्यानादिक करता होय त्यारे 'ए तमे भूली गया छो, आ वात तमने याद नथी, एनो अर्थ ए न होय' इन्यादिक अनुचित Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ तेने हे क्षमाश्रमण! गुरु ! आपनी समीपे हुं पडिक, छं, आत्म साक्षीए निहुँ छं. आप गुरुनी साक्षीए गर्दा करूं छं. अने तेवा पापमय मारा आत्माने हुं वोसरा, छं-तनुं छं. बीजी वारना वांदणामां आवस्सिआए' ए पद कहेवू नहीं. अने रात्रि प्रतिक्रमणमां 'राइ वइकंता', पाक्षिकप्रतिक्रमणमां 'पक्खो वचन बोलतां गुरुआशातना लागे. २७ अथवा ए बाबत हुं तमने पछी सारी रीते समजावोश एम आप डहापण बतावत्रा सभा समक्ष बोली, चालती कायाको भंग करे, तो तेथी गुरुआशातना लागे. २८ अथवा एवे अवसरे आवीने शिष्य कहे के महाराज ! पोरसीवेळा के आहारवेळा थइ गइ छे एम कहोने पर्षदानो भंग करे तो गुरुआशातना लागे. २९ अथवा पर्षदा उठी गइ न होय एटलामां आप डहापग बताक्वा माटे गुरुमहाराजे व्याख्यानमां कहेलीज वात वधारे विस्तारी बतावे तो गुरुआशातना लागे. ३० गुरु संबंधी शय्या-संथारा प्रमुखने पोताना पग विगेरेथी संघट्ट करी पाळु खमावे नहीं तो आशातना लागे. ३१ गुरुनी शय्या के संथारादिक उपर पोते बेसे के आळोटे के असभ्य रीते तेनो स्पर्श करे तो गुरुआशातना लागे. ३२ गुरुथकी उंचा आसने बेसे, अथवा गादी करी बेसे अथवा गुरु जेवां के तेथो अधिक मूल्यवाळां वस्त्र वापरे तो दोष लागे. ३३ गुरु जेवा समान आसन उपर बेसे अथवा गुरु जेवां समान वस्त्र लइ वापरे तो गुरुआशातना लागे. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वइकंतो, चातुर्मासिक प्रतिक्रमणमां ' चउमासी वइक्वंता' अने सांवत्सरिक प्रतिक्रमणमां 'संवच्छरो वइक्कतो' ए रीते पाठ कहेवो. पद ५८, गुरु २५, लघु २०१, सर्ववर्ग २२६. ॥ इति सुगुरुवंदना सूत्र १० ॥ (ए रीते बे वांदगा देवा. बीजो बांदगो बेठा रही पूरी करवो. चउविहार उपवास करनारे बांदणा देवा नहि. पछी “ आवस्सई" भणी अवग्रह बहार नीकळी कहेQ-इच्छकारी भगवन् पसाय करी पञ्चख्खाण कराबो एम कही यथाशक्ति पञ्चख्खाग कर. ) पछी इच्छामि खमासमणो वंदिउं जावणिज्जाए निसीहिआए मत्थएण वंदामि ॥ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् चैत्यवंदन करूं । इच्छं ॥ (एम कही डाबो ढीचण भूमिथी ऊंचो, ने जमणो ढीचण भूमि उपरज राखवो अने बे हाथ जोड़ी मुहपत्ति मोढा पासे राखी बोलq.) ॥११ अथ चैत्यवंदन ॥ मू-श्रीपार्श्वनाथो भवपापताप-प्रशांतधाराधरचारुरूपः । विघ्नौघहंता प्रणतोरगेन्द्रः,समस्तकल्याणकरोजिनेन्द्रः॥१॥ शब्दार्थःश्रीपार्श्वनाथ:-श्री पार्श्वनाथ ) भव-संसारना भगवान् पाप-पापरूप Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ताप-तापने प्रणत-नमस्कार करवावाळां प्रशांत-खूब सारी रीते शांत | उरगेन्द्रः-नागकुमार देवना करवामां अधिपति-धरणेन्द्र धाराधर-बरसाद (जेवा) समस्त-तमाम चारुरूपः-सुंदर रूपवाळा कल्याणकर:-कल्याणोने करवाविघ्न-अंतरायना वाळां ओघ-समूहने । जिनेन्द्रः-सामान्य केवळीनां हंता-हणनारा-नाश करनारा नायक नाव श्रीपार्श्वनाथो भवपापताप-अतिशयरूप लक्ष्मीए युक्त श्री पार्श्वनाथ भगवान् संसारना दुःख रूप तापने. प्रशांतधाराधरचारुरूपः-खूब सारी रीते शांत करवामा वरसादनी जेम सुंदर रूपवाळां. विघ्नौघहंता प्रणतोरगेन्द्रः-अंतरायनी परंपराने नाश करवावाळा अने जेओ धरणेन्द्रथी वंदायेला छे. .. समस्तकल्याणकरो जिनेन्द्रः-तमाम जातना कल्याणने . करवावाळां, अने सामान्य केवळीना स्वामी. भावार्थ-आठ महा प्रातिहार्यरूप लक्ष्मीवाळा, अने पार्श्व नामना यक्षना उद्धारक, तथा नाथ-स्वामी एटले योग-क्षेमने करवावाळां, योग एटले नहीं मळवावाळां दर्शन, ज्ञान अने चारित्र तेने मेळवी आपनारा Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने ते मळ्या पछी तेनुं रक्षण करवावाळां, एवां गुणोवाळा होवाथी तेओने नाथ कहे छे, संसारमां बनता अशुभ कर्म-पाप तद्रूप तापदुःख-ग्लानि-खेद तेनाथी हेरान थयेला जीवोने खूब सारी रीते शान्ति करवामां पाणीथी भरेला वादळ जेवां, (पार्श्वनाथ भगवाननो वर्ण नील. छे अने वर्षाऋतुना वादळ पण नील होय छे अने ते उन्हाळाना असह्य तापथी हेरान थयेला लोकोने वरसाद वरसावी शांति आपे छे एज प्रमाणे पार्श्वनाथ परमात्मा पण शांति आपनारा छे.) अर्थात् नील वर्णवाळा अने भव्य जीवोने विघ्न-अंतराय-दुःख तेना समूहने नाश करनारा,. तथा नागकुमार देवताना अधिपति धरणेन्द्र तेनाथी सेवायेला तथा तेरमा गुणस्थानमा रहेला सामान्य केवळी तेना पग अधिपति, श्री पार्श्वनाथ परमात्मा बबानां कल्याण करवावाळां थाओ अर्थात् सर्व प्रकार, कल्याण करवावाळां थाओ ॥१॥ मू०–एस करेमि पणाम, जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स । सेसाणं च जिणाणं, सगणहराणं च सव्वेसिं ॥१॥ शब्दार्थःएस-आ हुं, सेसाणं-शेष, बाकी, करेमि-करुं छु, च-अने पणाम-प्रणाम-नमस्कार, जिणाणं-जिनेश्वरोने, जिणवर-जिनवरोमां, वसहस्स-वृषभ-मुख्य जेवां, सगणहराणं-गणधरोथी सहित,. वद्धमाणस्स-महावीर स्वामीने सव्वेसिं-सर्वेने, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एस करेमि पणाम-आ हुं प्रणाम करूं छु, जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स-जिनवरोमां श्रेष्ठ श्री वर्द्धमान स्वामीने, सेसाणं च जिणाणं-तथा बीजा जिनेश्वरोने, सगणहराणं च सव्वेसिं-तथा गणधरो युक्त बधांने भावार्थ-मोहनो नाश करवावाळा मुनिवरोमां, तथा क्रोध, मान, माया अने लोभरूप चार कषायने नाश करनारा सामान्य केवळीओमां धुरंधर वृषभ जेवां, श्री वर्धमान महावीर स्वामीने तथा भूत अने भविध्यना सर्वे तीर्थकरो तथा बाको रहेला त्रेधीश तीर्थकरो तथा तेमना गणधरो ते सर्वेने हुं नमस्कार-वंदन करूं छु ॥ १ ॥ मू-जगमत्थयत्थियाणं, वियसियवरनाणदसणधराणं । नाणुज्झोयगराणं, लोगमि नमो जिगवराणं ॥२॥ शब्दार्थ:'जग-जगतना धरागं-धारण करनारा मत्थय-मस्तक उपर नाण-ज्ञान त्थियाणं-स्थिर रहेला उज्झोयगराणं-उद्योत-प्रकाश 'वियसिय-विकसेला करनारा वर-श्रेष्ठ-उत्तम लोगमि-लोकमा रहेला नाण-ज्ञान नमो-नमस्कार हो दंसण-दर्शन, जिणवराणं-जिनेश्वरोने Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगमत्थयत्थियाणं-जगतना मस्तक उपर रहेलाओने. वियसियवरनाणदंसणधराणं-विकसित उत्तम ज्ञान तथा दर्शनने धारण करनाराने. नाणुज्झोयगराणं-ज्ञाननो प्रकाश करवावाळाने... लोगमि नमो जिणवराणं लोकोमां, जिनवरोने नमस्कार हो.. भावार्थ-जगतना मस्तक उपर रहेला ताज जेवा तथा उज्जवळ अने श्रेष्ठ ज्ञान तथा दर्शनने धारण करनारा, लोकोमा ज्ञानरूपी तेजने प्रकाशकरनारा श्री जिनेश्वर परमात्माने नमस्कार थाओ ॥२॥ मु०-तित्थयरे भगवंते, अणुत्तरपरक्कमे अमियनाणी । तिन्ने सुगइगइगए, सिद्धिप्पहदेसए वंदे ॥३॥ . . शब्दार्थ:तित्थयरे-तीर्थंकरो गइ-गति भगवंते- भगवंतोने गए-गयेला . अणुत्तर-अत्यंत श्रेष्ठ सिद्धि-मोक्षमो परकमे-पराक्रमी प्पह-मार्ग अमिय-माप न थइ शके देसए - देखाडनारा, उपदेश. नाणी-ज्ञानवाला देनारा तिन्ने-तरेला वंदे-वंदन करूं छु सुगइ-उत्तमगति Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ तित्थयरे भगवंते-तीर्थनी स्थापना करनारा भगवानोने. अणुत्तरपरक्कमे अमियनाणी-अत्यंत श्रेष्ठ पराक्रमवाळा, तथा अनहद ज्ञानवाळा. तिन्ने सुगइगइगए-पोते संसार समुद्रने तरी गयेला, तथा सिद्धिगतिने पामेला. सिद्धिप्पहदेसए वंदे-मोक्षनो मार्ग बतावनारने हुं वांदुं छं. भावार्थ-साधु, साध्वी, श्रावक अने श्राविकारूप चतुर्विध संपनी स्थापना करनारा तीर्थकर भगवानोने, तथा अधिक पराक्रमवाळाउत्कृष्ट आत्मबळवाळां, तथा कोइथी माप न थइ शके तथा हणी न शकाय एवा उत्कृष्ट ज्ञानवाळां, तथा ज्यांथी कदापि पार्छ नथी आववान एवा सिद्धिगति नामना स्थानने पामेला, तथा मोक्षमार्गने बताबवावाळां श्री देवाधिदेवने हुं नमस्कार करुं छं-वांदुं छु. ॥३॥ मू०-वंदामि महाभाग, महामुणिं महायसं महावीरं । अमरनररायमहिय, तित्थयरमिमस्स तित्थस्स ॥४॥ शब्दार्थःवंदामि-हुं वंदन करूं छु महावीरं-अधिक बळवान् एवा महाभागे-मोटा भाग्यशाळीने महावीर स्वामीने, महामुणिं-मुनिवरोमां श्रेष्ठने अमर-देवता महायसं-महान् यशस्वीने नर-मनुष्य Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राय-राजा (आदिथी) इमस्स-आ वर्त्तमान-चालु महिय-पूजित तित्थस्स-तीर्थने वित्थयरम्-तीर्थकरने वंदामि महाभाग-म्होटा नसीबवाळाने हुं वादं छु महामुणिं महायसं महावीरं-महान् यशस्वी, मुनिश्रेष्ठ श्री महावीर परमात्माने अमर-नर-रायमहियं-देव, मनुष्य अने राजा अथवा देव अने मनुष्यना अधिपतिओथी पूजायेला तित्थयरमिमस्स तित्थस्स--वर्तमान तीर्थना तीर्थकरने भावार्थ--जन्मथीज जे महा भाग्यशाळी छे, मुनि समुदायना वडील छे, तथा जेओ महा यशस्वी छे, देव अने मनुष्यना स्वामोथी पूजित छे तथा साधु-साध्वी-श्रावक तेमज श्राविकारूप चतुर्विध तीर्थसंघना अंतिम स्थापक होवाथी परम तीर्थना तीर्थपति छे, एवा परम तीर्थंकर परमात्मा महावीर देवने हुं वंदन करूं छु. ॥ ४ ॥ मू-वयणामएण भुवणं, निव्वावंता गुणेसु ठावंता। जियलोय-मुद्धरंता, अरिहंता हुतु मे सरणं ॥५॥ शब्दार्थःवयण-वाणीरूप निव्वावंता-शांतिपमाडता अमएण-अमृतवडे गुणेसु-गुणोने विषे भुवणं-भुवनना लोकोने ठावंता-स्थापन करता Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जियलोयं-जीव लोकने उद्धरंता--उद्धार करता अरिहंता--अरिहंतो | हुंतु--याओ मे--मारं सरणं-शरण वयणामएण भुवणं-वचनरूप अमृतवडे, जगतमा रहेला प्राणीओने. निव्वावंता गुणेसु ठावंता-शांति आपता तथा गुणोने विषे. स्थिर करतां. जियलोयमुध्धरता--तथा जीवलोकनो उद्धार करतां. . 'अरिहंता हंतु मे सरणं-अरिहंत भगवंतो मारु शरण थाओ आश्रय स्थान बनो. भावार्थ-देव, मनुष्य अने तिर्यंच सर्वे जीवो पोतपोतानी भाषामां समजी शके तेवी संस्कारीत पांत्रीश गुणवाळी वाणीरूप अमृत वडे अशुभ कर्मना योगथी भव--संसारनी अंदर पीडा पामता प्राणीओने उपदेशरूप अमृत चखाडी अने संपूर्ण गुणोने विषे स्थिर करनारा अने ते द्वाराज समग्र जीव लोकनो उद्धार करनारा अरिहंत परमात्मा मारूं शरण थाओ मने आश्रय आपो. ॥ ५ ॥ मू-उज्झियजरमरणाणं, समत्तदुक्खत्तसत्तसरणाणं । तिहुयणजणमुहियाणं, अरिहंताणं णमो ताणं ॥६॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ उज्झिय-त्याग कर्यो छे तिहुयण-त्रण जगतना जर-वृद्धावस्था जण-लोकोनुं मरणाणं-तथा भरणनो मुहियाणं-खूब सारी रीते हीत समस-बधां करनारा दुक्खत्त-दुःखोथी अरिहंताणं-अरिहंतोने सत्त-पीडायेलां णमो--नमस्कार थाओ सरणाणं--(प्राणीओना) शरणरूप ताणं-रक्षण करनाराने, उज्झियजरमरणाणं-दूर कर्यां छे जन्म, जरा अने मरण जेमणे. __ समत्तदुक्खत्तसत्तसरणाणं-तमाम दुःखोथी पोडाता प्राणीओना शरण-आश्रयस्थान. तिहुयणजणमुहियाणं-त्रणे जगतना जीवोनुं सारी रीते हीत करनारा, तथा अरिहंताणं णमो ताणं-रक्षण करनारा, अरिहंतोने नमस्कार थाओ. भावार्थ-जेओए फरीवखत नहीं जन्मवानो, वृद्धावस्थानो तथा मरणनो भय सदाने माटे नाश कयों छे, तथा संसारना पारावार दुःख परंपराथी त्राय त्रायमान थइ गयेला जीव समुदायना जेओ रक्षण स्थान Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समा छे, अने स्वर्ग, मृत्यु अने पाताळ आ त्रणे जगतना प्राणी मात्रनु सूक्ष्ममां पण सूक्ष्म रीते हीत करनारा छे एवा रक्षक श्री अरिहंत परमात्माने मारो नमस्कार थाओ ॥६॥ तेह श्री अरिहंतजीने म्हारो नमस्कार थाओ, केवा ते श्री अरिहंत जे श्री अरिहंते राग-द्वेषरूपी अरि-वैरी जीत्या अने अढार दोषरहित थया ते अढार दोष बतावे छे: ॥ अथ अन्नाण कोह ॥ मू०-अन्माण १ कोह २ मय ३ माण ४ लोह ५ माया ६ रइअ ७ अरइअ ८॥ निद्दा ९ सोग १० अलियवयण ११, चोरिया १२ मच्छर १३ भयाय १४ ॥१॥ शब्दार्थ:अन्नाण-अज्ञान अरइअ-अरति कोह-क्रोध निदा-निद्रा मय-मद सोग-शोक माण-मान अलियवयण-असत्य वचन लोह-लोभ चोरिया-चोरी माया-माया मच्छर-मत्सर रइअ-रति भयाय-भय-बीक Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ भावार्थ - १ दोष अज्ञान, २ दोष क्रोध, ३ दोष मद, ४ -दोष मान, ५ दोष लोभ, ६ दोष माया, ७ दोष रति, ८ दोष अरति, ९ दोष निद्रा, १० दोष शोक, ११ दोष असत्य वचन, १२ दोष चोरी करवापणुं, १३ दोष मत्सर ( एटले अदेखाइ ) १४ दोष बीक लागवी ॥ १ ॥ मू० - पाणिवह १५ पेमकीला १६, पसंग १७ हासा १८ य जस्स ए दोसा । अट्ठारस वि पणट्ठा, नमामि देवाहिदेवं तम् ॥ २ ॥ शब्दार्थः पाणिवह जीवने मारवो पेमकीला - प्रेमनी रमत पसंग - परिचय हासा - हस य - अने जस्स-जेना ए-आ दोसा- दोष-- दुर्गुण अट्ठारस - अढार विपण पणट्ठा - नाश पाम्या नमामि नमस्कार करुं छु देवाहिदेव - देवना पण देव तम्-तेने भावार्थ: - १५ दोष कोइ पण प्राणी जीवनी हिंसा करवी, १६ दोष प्रेमपूर्वक रमत करवी, १७ दोष कोइनी साथ परिचय करवो १८ दोष हसवापणं, ए अढार दोषो जेमने समूळगा नाश थयेला छे एवा ते देवाधिदेवने हुं नमुं हुं ॥ २ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू-एहवा देवाधिदेव सुरासुरविहितसेव सर्वज्ञ भगवन्त जगन्नाथ जगजीवना तारक कुगतिमार्ग निवारक शब्दार्थ:एहवा-एवा, उपर वर्णवेला भगवन्त-सर्व शक्तिवाळा देवाधिदेव-देवना पण देव परमात्मा सुर-देवता जगन्नाथ-त्रण जगतना नाथ - योग अने क्षेमने करनारा असुर-असुरदेव जगजीवना-दुनियामा रहेला विहित-करी छे प्राणीओने सेव-सेवा-भक्ति तारक-तारवावाळा सर्वज्ञ-सर्व पदार्थाने तथा भावोने । कुगतिमार्ग-कुगतिमार्गने संपूर्ण रोते जाणनारा निवारक-अटकाववावाळां भावार्थ-बीजी गाथामां वर्णव्या प्रमाणे जेओ देवोना पण देव छे, सुर अने असुर पण जे परमात्मानी भक्ति करे छे, तथा जेओ सर्व वस्तु तथा सर्व प्रकारना भावोने संपूर्ण रीते जाणे छे, सर्व प्रकारचें ज्ञान होवाथी शक्तिवाळा छे, स्वर्ग, मृत्यु अने तिर्छा ए त्रणे लोकना स्वामी छे अने तेथी करीने सर्वनुं योग-क्षेम-रक्षण करनारा छे, त्रण जगतमां रहेला प्राणी मात्रना जेओ तारणहार छे, अने कुगतिनो पोते अंत-पार पामेला होवाथी तेनाथी अटकाववा जेओ समर्थ छे. तथा . Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० - निरीह निरहंकार निस्संग निर्मम शान्त दान्त करुणासमुद्र विश्वोपकारसागर अनंतगुणना आगर चउसठ इंद्रना पूजनीक शब्दार्थः निरीह - जेओने कोइ जातनी इच्छा नयी निरहंकार - अने तेटला माटेज अभिमान वगरना निस्संग - माटेज सर्व प्रकारना संबंध रहित निर्मम - सर्व प्रकारनी आसक्तिथी रहित शान्त - मनना विकारो रहित शान्त स्वभावो दान्त - इन्द्रियोनुं दमन करनारा करुणा समुद्र - दयाना एक सागर एवा विश्वोपकारसागर - समुद्रनी जेम जगतमां उपकार करनारा अनंतगुणना आगर - समस्त गुणोनी खाण जेवा चउसठ इंद्रना पूजनीक - चोसठ इन्द्रथी पूजायेला भावार्थ —– जेओने कोइ जातनी इच्छा नथी, अने तेटला माटे अभिमान वगरना, तथा सर्वप्रकारना संबंधरहित, ममत्व - मारापणाथी रहित, मनना विकारोने जीतवाथी शान्त बनेला, इंद्रियोने काबूमां राखनारा, प्रत्येक जीव उपर दयाभाव वरसावनारा होवाथी करुणाना समुद्र जेवा, समुद्र जेम रत्न- आदि आपीने उपकार करे छे ते प्रमाणे Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन अने सम्यक्चारित्र रूप त्रण रत्नना आपनारा होवाथी समस्त प्रकारना उपकार करवामां सागर जेवा, जेनो कोइ पण वखत अंत नही थइ शके एवा समग्र गुणोनी खाण जेवा अने तेथी करीने भुवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक ए चार निकायना मळी चोसठ देवोथी पूजाएला. मू०-वज्रऋषभनाराच संघयण, समचतुरस्रसंस्थान, __ अष्टसहस्र वरपुरुषलक्षणना धरणहार . शब्दार्थःवज्रऋषभनाराच संघयण अष्टसहस्र-आठ हजार वज्रऋषभ नाराच संघयण वाळा वरपुरुष-श्रेष्ठ पुरुषना समचतुरखसंस्थान-समाकृति- लक्षणना-लक्षणोने वाळा धरणहार-धारण करनारा भावार्थ:-बज्रऋषभनाराचसंघयणवाळा, (एटले प्रथम संघयणवाळा ) सरखी आकृतिवाळा, एक हजार ने आठ उत्तम पुरुषोना लक्षणो सहित एटले एक हजार ने आठ जेमां उत्तम लक्षणो छे. एवा तथा मू०-समुद्रनी पेरे गंभीर, मेरुपर्वतनी परे धीर संखनी परे निरंजन, वायुनी परे अप्रतिबद्ध विहार, आकाशनी परे निरालंब, जीवनी परे अप्रतिहतगति, कूर्मनी परे गुप्तेन्द्रिय, खडगीजीवना श्रृंगनी परे एक, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ:-समुद्रनी जेम गंभीर स्वभाववाळा, विनाश समयना पवनथी पण कोइ वखत मेरु पर्वत जेम चालतो नथी तेम उपसर्गनी परंपराथी परमात्मा कदिपण चलायमान थतां नथी, जेम शंख उज्ज्वल छे तेवी रीते पोताना गुणोथी उज्ज्वल छे, जेम हवा पोतानी इच्छा प्रमाणे स्वतंत्र चाले छे, तेवी रीते कोइनी पण रोकावट वगर स्वतंत्र रीते विहार करवावाळा छे, जीवनी गति जेम सदाय चालवानीज छे तेवीज रीते तेमनी पण गति कोइ जग्याए अटकायेल नथी अर्थात् तेमने कोइ रोकी शकतुं नथी, काचबानी जेम सर्वे इन्द्रियोने गोपाववाळा छे, जेम गेंडानुं एक शिंगडुं छे तेम ज भगवान पोते पण एकलाज छे बीजा कोइनी सहायतावाळा नथी. मू-भारंडपंखियानी परे अप्रमत्त, सिंहनी परे दुर्धष्य, वृषभनी परे अढारसहस, सीलंगरथ धुरंधर, चंद्रमानी परे सौम्यकान्ति, सूर्यनी परे सतेज, पंखियानी परेविप्रमुक्त,कुक्षिसंबल, वसुंधरानी परे सर्वसह, भावार्थ:-भारंड पक्षीनी जेम आळस वगरना छे, सिंहनी जेम कोइ पण वखत कोइनाथी पण हार पामवावाळा नथी, वृषभ-बळदनी जेम अढार हजार शीलांगरथनी धूरा-धूसरीने धारण करनारा छे, चंद्रनी जेम शीतलताना गुणने-तेजने धारण करवावाळा छे, सूर्यनी जेम तेजवाळा छे, पक्षिनी जेम स्वतंत्र छे. कोइनी रोक-टोकवाळा नथी, कुखमां रहेल तेज शंबल (भालु) छे जेमनी पासे तथा पृथ्वी-भूमिनी जेम तमाम बाबतोने सहन करनारा छे. Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू-अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, चउत्रीश अतिशयसंयुक्त, पांत्रीश भाषागुणपरिकलित, अष्टमहाप्रातिहार्य विराजमान पादपीठिका सहित सिंहासनासीन,छत्रत्रयचामर शोभायमान पूठ पाछळ भामंडल दीपे, तेजे करी श्रीसूर्यने जीपे, भावार्थ:-जेमना ज्ञाननो पार नथी एवं अनंत ज्ञानने धारण करनारा, अनंतदर्शनवाळा, चार अतिशय जन्मथी, ओगणीश देवताओए करेला तथा कर्मनो क्षय-विनाश थवाथी अग्यार एम मळी चोत्रीश अतिशयने धारण करवावाळां छे, भाषाना पांत्रीश गुणोए सुशोभित, अशोकवृक्ष १, सुरपुष्पवृष्टि २, दिव्यध्वनि ३, चामर ४, आसन ५, भामंडळ ६, दुंदुभि ७, अने छत्र ८ आ आठ प्रातिहार्यथी शोभायमान, पग मूकवानी पीठिकायें सहित जे सिंहासन तेना उपर बीराजेला, त्रण लोकचं रक्षण करवा रूप माथे त्रण छत्रोथी सुशोभित तथा बन्ने बाजु इंद्रादिकथी वीझाता बे चामरोए सुशोभायमान, जेमनी पूंठ पाछल नील वर्णवाळू सूर्यना आकारना सरखा तेजवाळु भामंडल शोभे छे तथा अत्यंत तेजना समुदाय होवाथी सूर्यने पण जीती लीधेल छे, मू०-श्रीअरिहंत उपर अशोकवृक्ष छाया करतो संघाते चाले, धर्मध्वज आगल छती लहलहे, आकाशगत धर्मचक्र जलहले, देवदुंदुभि स्वामी आगल वाजे, श्रीअरिहंतनी वाणी मेघनी परे गाजे, योजनहारिणी वाणी-अमृतसमाणी-सर्वभाषानुगामिनी, Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ:-आपना सामीप्यपणाथी शोकरहित थतुं अशोक वृक्ष आपनी उपर छाया करतुं साथे चाले छे, इंद्रध्वज पण आपना आगमननी सूचना आपवाज जाणे आगल चालती होय नहीं तेवी रीते शोभे छे, आपनी विधमानताने सूचवतो धर्मध्वज पण आकाशमा प्रकाश फेंके छे, प्रत्येक प्राणीना कानमा मंगलिक ध्वनि फेंकतो देवतानो दुंदुभिनो शब्द पण वागे छे, वर्षाऋतुना मेघनी गंभीरतावाळी श्री अरिहंत परमात्मानी वाणी गाजे छे, तथा एक योजन सुधी तथा प्रत्येक प्राणीने पोतपोतानी भाषामां संभळाय तेवो परमात्मानी वाणी छे अने अमृत जेवी उपमावाळी तथा सर्व भाषाने मळती छे. मू-सकल लोकना संशय हरे, त्रिभुवनजनना मनने करे उत्साह, मुक्तिनगरी प्रते सार्थवाह, मावार्थ:-सर्व लोकना संशयने हणनारा, त्रण भुवननी अंदर रहेनारा जनोना मनने उत्साह करनारा, तथा सार्थवाहनी जेम मुक्तिपथे लइ जनारा. एहवा श्रीअरिहंत भगवंत गुणवंत देवाधिदेव, तेहनी गुणस्तुति भ[: __ (एम बोली उभा थइ थूइ भणवी) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्रीमत् श्री समरचन्द्र सूरिजीनी बनावेली पांच गाथावाळी ॥। १२ अथ सिरि रिसहेसरनी थूइ || ( छप्पय छंद ) मू० - सिरिरिसहेसर गुणनिधान, सेवक सुखदायक अजिते जीत्या कर्म सबल, हुवा जगनायक संभव भवना भय हरेवि, पाम्या शिवराज अभिनंदन जिन मुझ मिल्या, सिद्धा सवि काज सुमति सुमति दायक जिनह, सुरनर सारे सेव पद्मप्रभ जिनदंसणे, जनम मरण संखेव ॥ १ ॥ भावार्थ:- पहेला श्री ऋषभदेव स्वामी गुणोना भंडार छे अने सेवक सुखना आपनारा छे, बीजा श्री अजितनाथ श्री संभवनाथ जेओ महा बळवान होवाथी कठीन एवां शक्या अने तेथी करीने जगतना नायक भगवान के जेओए पोताना भव-संसारना जे भय तेने दूर करी - तेनो विनाश करी मोक्षना राज्यने पाम्या, चोथा श्री अभिनंदन स्वामी मने मळ्यां जेथी मारां बधां कामो सिद्ध थयां सारी बुद्धिने आपनारा पांचमा श्री सुमतिनाथ भगवान छे के जेओनी देव अने मनुष्य सेवा करे छे, छट्टा श्री पद्मप्रभ प्रभु छे जेओना दर्शनथीज जन्म-वृद्धावस्था मरण आत्रणे टळी जाय छे. ॥ १ ॥ मू० - श्री सुपास मुज पूरे आश, भवना दुःख वारी, चंद्रप्रभ जिनतणी, कान्ति देखत मनहारी, सुविधि सुविधिपर धर्म कह्यो, तिहुयण जणसाखी, कर्माने पण थया. त्रीजा भगवान छे के सहेजमां जीती Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतल संयमसिरि वरी, षट् जीवसु राखी, श्री श्रेयांस पाय प्रणमीये, इग्यारमो जिणिंद वासुपूज्य मन ध्याइये, केवलनाण दिणिंद ॥२॥ भावार्थ:-सातमा श्रीसुपार्श्वजिन मारी आशा पुरे छे अने भवना दु:खोने निवारनारा छे, आठमा श्री चन्द्रप्रभजिननी कान्ति देखवा मात्रथीज भन्योना मनने हरी ले छे, नवमा श्री सुविधिनाथे सुविधिए करीने त्रण भुवनना लोकनी सामे धर्मनुं स्वरूप बताव्युं छे, दशमा श्री शीतलजिनेश्वरे संयमरूप लक्ष्मीने अंगीकार करी छ काय जीवोनी सारी रीते रक्षा करी, अगीयारमा जिनेश्वर श्री श्रेयांसनाथना चरणने नमोये, बारमा केवळ ज्ञानरूपी सूर्यवाळा एवा वासुपूज्यने मनमां चिंतवीये ॥२॥ मू०-विमल विमलधीकरण, तरण-भवसायर-प्रवहण जिण अनंते भवअंत कर्यो, जाणे सुरनर जण धर्मजिणेसर सोमवयण, तप तेजे दिनमणि कृपाकरण श्रीशांतिनाथ, त्रिसथावर अणूदिणि कुंथुनाथ चक्रीजगह, छट्ठो सत्तरमो धर्म अर जिनवर पय ओलगे लब्भे शिवपदशर्म ॥३॥ भावार्थ:--तेरमा विमलबुद्धिना करनारा एवा विमलजिन भव. समुद्र तरवामां वहाण समान छे, चौदमा श्री अनंतनाथ जिनेश्वरे भवनो अंत को ते वातने देवलोक तथा मनुष्य. लोक निवासी भव्यो जाणे छे. पंदरमा सौम्य मुखवाळा एवा धर्म जिनेश्वर तप तेजे करीने सूर्य समान छे, त्रस अने थावर प्राणीओ उपर हमेशा कृपा करनार एवा श्री सोळमा शांतिनाथ भगवान छे. सत्तरमा श्री Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंथुनाथ भगवान आ जगतमां छद्रा चक्रवर्ती छे अने सत्तरमा धर्म चक्रवर्ती छे. अढारमा श्री अरजिनवरना चरणनी आगल सेवा करवाथी शिवपदना सुखो मळे छे. ॥ ३ ॥ मू०-मल्लिनाथ दुय मल्ल दुज्जय, अंतरना जीत्या मुनिसुव्रत व्रत सुष्टु धरी, लोकाग्रे पहुता नमी नामी रतिपतिय मान, रिपु सर्व खपाव्या नेमि जिणेसर ब्रह्मकवच, पहेरि गिरि आव्या श्रीपार्श्वनाथ त्रेवीसमो, त्रिभुवन सकल सरूप श्रीमहावीर तीर्थेसरु, नमिये विविध सरूप ॥४॥ भावार्थ:-आत्मानी साथे लागेला दुर्जय एवा राग अने द्वेष रूप बे मल्लोने ओगणीशमा तीर्थंकर श्री मल्लिनाथ भगवाने सहजमां जीती लीघा छे, उच्चमा उच्च व्रत धारण करी वीशमा मुनिसुव्रतस्वामी लोकना अग्रभागने विषे पहोच्या-मोक्षपद पाम्या छे. एकवीपमा श्री नमीनाथे अजेय एवा कामदेवना मानने नमावी अंतर्गत सर्व शत्रुओने खपाच्या छे. बावीसमा श्री नेमिजिनेश्वर ब्रह्मचर्यरूप बख्तरने पहेरीने गिरनार पर्वत उपर बीराज्या-आब्या छे. त्रेवीसमा श्री पार्श्वनाथस्वामी त्रिभुवनना समग्र स्वरूपने जाणनारा छे. चोवीशमा विविध स्वरूपवाळा तीर्थना स्वामी श्री महावीरस्वामीने नमस्कार करीए ॥ ५ ॥ मू-एणीपरे जिण चोवीस थव्या, पुरुषोत्तम सिद्धा सेव करी एक चित्त जेणे, ते साथे लीधा यद्यपि जिणवर रागरहित, पण सेवकने तारे द्वेष तज्यो पण अवर लोगमुं संग निवारे Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९३ तिण कारण मगते भणिय, बंदु देव त्रिकाल प्रभु तुठे वंछित फले, जाणे बाल गोपाल ॥५॥ भावार्थ:- एवी रीते पुरुषोत्तम - पुरुषोमां उत्तम तथा सिद्ध थयेला चोवीस जिनो में स्तत्र्या, तथा एकचित्ते जेमणे सेवा करी तेओने पोतानी साथे लीधा, जो के जिनेश्वर भगवंतो राग-द्वेष आदि दूषणोथी रहित छे छतां पण पोताना सेवकने तारे छे. द्वेषने छोडीने पण बीजा लोकोनी साथे जेणे संग निवार्यो छे - अर्थात् संगरहित छे. ते कारणथी हुं भक्तिपूर्वक आ स्तुति करवापूर्वक देवताने त्रणे काळ स्तनुं बुं-वांदु छं. कारण प्रसन्न थयेला सामान्य देवताओ पण आ फलने आपनारा छे, ज्यारे जिनेश्वर परमात्मा तो देवना पण देव छे तो पछी तेवा अलौकिक देवने भवाथी निष्फल केम थवाय अर्थात् अवश्य फळ मळेज छे.. आ वात प्रसिद्ध छे अर्थात् बाळकथी लइ पुरुष पर्यन्त जाणे छे ॥ ५ ॥ LOREE CALA ॥ १३ अथ जं किंचिं सूत्र ॥ हवे सामान्य ते सर्व जिनबिंबोने वांदे छे— मू० - जं किंचि नामतित्थं, सग्गे पायालि - तिरिय- लोयमि । जाई जिबिंबाई, ताई सव्वाई वंदामि ||१|| शब्दार्थ. जं - जे किंचि - कोइ नाम तित्थं नाम मात्रथी पण प्रसिद्ध ऐवं तीर्थ अने ते 4 विषे सग्गे स्वर्गमां Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाई-जे 'पायालि-पाताळमां जिणबिंबाइं-जिनबिंबो छ तिरिय-तीछा ताई-ते लोयम्मि-लोकमां सवाई-सर्वेने वंदामि-हुं वांदं जं किंचि नामतित्थं-जे कोइ नाम मात्रथी पण प्रसिद्ध एवं तीर्थ छे अने तेने विषे. सग्गे पायालितिरियलोयम्मि-स्वर्गमां, पाताळमां अने तीर्छा लोकमां. जाइं जिणबिंबाइं—जे कोइ जिनबिंबो छे. ताई सव्वाइं वदामि ते सर्वेने हुं वांदुं छं. भावार्थ-स्वर्ग, पाताळ अने तियेच लोकमां जे कोइ नाम* मात्रथी पण तीर्थ छे अने तेमां जे जिनप्रतिमाओ छे. ते सर्वने हुँ बांदुं छु. ॥१॥ ___गाथा १, पद ४, संपदा ४, गुरु ३, लघु २९, सर्ववर्ण ३२. * वर्तमानकाळे वर्तता केटलांक तीर्थोनां नाम-श्रीशत्रुजय, गिरिनार, तारंगा, शंखेश्वर, कुंभारीआ, आबू, (देलवाडा, अवचळगढ) राणकपुर, केसरियाजी, बामणवाडा, मांडवगढ, अंतरिक्ष, मक्षी, हस्तिनापुर, अल्हाबाद, बनारस, अयोध्या, संमेतशिखर, राजगृह, काकंदी, क्षत्रियकुंड, पावापुरी, चंपापुरी, सेरिसा, कुलपाक, फलोधि, स्तंभन पार्श्वनाथ, अजाहरा पार्श्वनाथ, तलाजा, वरकाणा, भोयणी, पानसर, शेरीसा, वामज, मातर, जीराउला पार्श्वनाथ, कापरडाजी विगेरे. Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१४ अथ नमुत्थुणं वा *शकस्तव ॥ मू०-नमुत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं ॥१॥ आइगराणं तित्थयराणं सयंसंबुद्धाणं ॥ २॥ शब्दार्थःनमुत्थुणं-नमस्कार हो । नारने अरिहंताणं-अरिहंतने तित्थयराणं-तीर्थकरने भगवंताणं-भगवंतने सयंसंबुद्धाणं--पोतानी मेळे बोध आइगराणं-तीर्थनी आदि कर- । पामेलाने * शक्र एटले इंद्र तेनी करेल स्तुति ते शक्रस्तव. - अरिहंत भगवानने चोत्रीश अतिशय होय छे, ते आ प्रमाणे १. शरीर अनंतरूपमय, सुगंधमय, रोगरहित, परसेवा रहित, अने मलरहित होय. २. रुधिर तथा मांस, गायना दूधसमान धोळां अने दुर्गंध वगरना होय. ३. आहार तथा निहार, चर्मचक्षुथी अदृश्य होय, ४. श्वासोश्वासमां कमळ जेवी सुगंध होय. आ (१-४) चार अतिशय जन्मथीज होय माटे स्वाभाविकसहजातिशय अथवा मूलातिशय कहेवाय छे. ५. योजन प्रमाण समवसरणमां मनुष्य, देव, अने तिर्यंचनो कोडाकोड समाय ने तेमने बाधा थाय नहि. Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमुत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं-अरिहंत भगवानोने नमस्कार हो. ते अरिहंत भगवान केवा छे ? तेमना विशेषणो आपे छे. आइगराणं तित्थयराणं सयंसंबुद्धाणं-एटले धर्मनी आदिने करनारा, तीर्थनी स्थापना करनारा, पोतानी मेळेज बोध पामेला छे, (तीर्थकरोने अन्यना उपदेशनी अपेक्षा होती नथी.) मू०-पुरिमुत्तमाणं पुरिससीहाणं पुरिसवर-पुंडरीयाणं । पुरि- . सवर-गंधहत्थीणं ॥ ३ ॥ लोगुत्तमाणं लोग-नाहाणं लोग-हियाणं लोग-पइवाणं लोग-पज्जोअगराणं ॥४॥ ६. पचीश योजन एटले बसें गाउ सुधी पूर्वोत्पन्न रोग उपशमें अने नवा रोग थाय नहि. ७. वैरभाव जाय. ८. मरकी थाय नही. ९. अतिवृष्टि एटले हद उपरांत वरसाद थाय नहि. १०. अनावृष्टि एटले वरसादनो अभाव थाय नहि. ११. दुर्भिक्ष एटले दुकाळ न पडे. १२. स्वचक्र अने परचक्रनो भय न होय. १३. भगवंतनी भाषा मनुष्य, तिर्यंच, अने देवता सर्व पोतपोतानी भाषामां समजे. (वाणी पांत्रीश गुणवाळी होय छे ते गुण नक्कारनी नोटमाथी जोवा.) Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान शब्दार्थ:पुरिमुत्तमाणं-पुरुषोनी मध्ये । लोगुत्तमाणं-लोकने विषे उत्तम उत्तम लोगनाहाणं-लोकना नाथ पुरिससीहाणं-पुरुषोमां सिंह । लोगहियाणं. लोकना हित कारक पुरिसवर-पुंडरीयाणं-पुरुषोमां। लोगपईवाणं-लोकना दीवा श्रेष्ठ कमल समान समान पुरिसवरगंधहत्थीणं-पुरुषोने लोगपज्जोअगराणं-लोकना अ_ विषे श्रेष्ठ गंध हस्ती समान तिशे प्रकाश करनारा १४. एक योजन सुधी सरखी रीते भगवंतनी वाणी संभळाय. १५. सूर्यथी बारगणुं तेजवाळु भामंडळ होय. आ अगीयार (५-१५ ) अतिशयो केवळज्ञान थाय त्यारे थाय तेथी ते कर्मक्षयजातिशय कहेवाय छे. ६-१२ मां जगावेला रोगादिक सात उपद्रवो ते भगवंत विहार करे त्यारे पण चारे दिशाए फरता पचीश योजन सुधी न होय. १६. आकाशमां धर्मचक्र होय. १७. बारजोडी (चोवीश) चामर अणवीज्या वीजाय. १८. पादपीठ सहित स्फटिक रत्न- उज्ज्वल सिंहासन होय. १९. त्रण छत्र दरेक दिशाए होय. २०. रत्नमय धर्मध्वज होय ( तेने इन्द्रध्वज पण कहे छे.) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-पुरुषोनी मध्ये उत्तम, पुरुषोमां सिंह समान, पुरुषोमां श्रेष्ठ कमल समान, पुरुषोने विषे श्रेष्ठ गंध हस्ती समान, लोकने विषे उत्तम, त्रण लोकना नाथ, लोकना हित करनारा, लोकना दीवा समान, लोकना अतिशे प्रकाश करनारा, पोताना संपूर्ण ज्ञाने करीने त्रण लोकने विषे सूर्यनी जेम. मू०-अभयदयाणं चक्खुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयाणं जीव दयाणं बोहिदयाणं ॥ ५॥ धम्मदयाणं धम्मदेसियाणं धम्मनायगाणं धम्मसारहीणं धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टीणं ॥६॥ २१. नव सुवर्ण कमळ उपर चाले (बे उपर पग मुके अने सात पाछळ रहे. तेमांथी वारा फरती बेबे आगळ आवे.) २२. मणि, सुवर्ण अने रुपाना ए रीते त्रण गढ होय. २३. चार मुखे करी धर्मदेशना दे, (बाकीना त्रण प्रतिबिंब देव करे.) २४. स्वशरीरथी बारगणुं उंचं अशोकवृक्ष छत्र, घंट, पताका आदिथी युक्त होय. २५. कांटा अधोमुख एटले अवळा थइ जाय. २६. चालती वखते सर्व वृक्ष नमी प्रणाम करे. २७. आकाशमां दुंदुभि चालती वखते वागे, २८. योजन प्रमाण अनुकूळ वायु होय. २९. मोर वगेरे शुभ पक्षीओ प्रदक्षिणा करतां फरे. ३०. सुगंधी जळनी वृष्टि थाय. Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... शब्दार्थ:अमयदयाणं-अभयदान आप- 1 बोहिदयाणं-बोधिबीजने आपनारने __नाराने धम्मदयाणं-धर्मना आपनारा चक्खुदयाणं-अंतर चक्षुना उ धम्मदेसियाणं-धर्मनो उपदेश घाडनाराने __ करनाराने मग्गदयाणं-मोक्षमार्गने आप धम्मनायगाणं-धर्मना नायकने नाराने धम्मसारहीणं-धर्मना सारथीने धम्मवर-धर्मरूपी श्रेष्ठ सरणदयाणं--शरण आपनाराने चाउरंत-चार गतिनो अंत कजीवदयाण-संयमरुपी जीवित रनार व्यने देवावाळां चकवट्टीणं-चक्रवर्तीने ३१. जळ स्थळमां उपजेल पांच वर्णवाळा फूलनी ढोंचण सुधी वृष्टि थाय. ३२. केश, दाढी-मूंछ, नख, वधे नहि, ( संयम लीधा पछी.) ३३. जघन्यपणे चार निकायना क्रोड देवता पासे रहे. ३४. सर्व ऋतुओ अनुकूल रहे. आ छेल्ला १६-३४ एटले अंगणीश अतिशयो देवता करे. तेथी ते देवकृतातिशय कहेवाय छे. आ चौत्रीश अतिशयनो जे चार अतिशयमा समावेश थाय छे ते अरिहंतना गुणतुं वर्णन कावामा अगाउ जणावी गया छीए ते समजवा. Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० भावार्थ-संसारना सर्व जीवोने अभयदान आपनारा छे, ज्ञानरूपी चक्षुने आपनारा छे, मोक्षमार्गने देखाडनारा छे, निराधार प्राणीओने शरण आपनारा छे, संयमरूपी जीवितव्यने देववाळाने धर्मने आपनारा छे,, धर्मना उपदेश आपनारा छे, धर्मना नायक छे, धर्मरूपी रथने चलाववामां सारथि समान छे,धर्मचक्र वडे चार गतिनो अंत करवामां चक्रवर्ती समान छे, मु०-दीवो ताणं सरणगइपइट्ठा, अप्पडिहयवरनाणदंसण धराणं, वियदृछउमाणं ॥७॥ जिणाणं जावयाणं तिन्नाणं तारयाणं, बुद्धाणं बोहयाणं, मुत्ताणं मोअगाणं ॥८॥ शब्दार्थ:दीवो-द्वीप समान छउमाणं-छद्यस्थावस्थामांथी ताणं-रक्षण करनार सरण-शरणरूप जिणाणं-रागादि शत्रुओने जीतगइ-गतिरूप नारने पइट्ठा-आकाररूप जावयाणं-जीताडनारने अप्पडिहय-कोइथी हणाय नहि । तिन्नाणं-तरनारने तेवा तारयाणं-तारनारने वर-श्रेष्ठ-उत्तम बुद्धाणं-तत्व जाणनारने नाण-केवळ ज्ञान बोहयाणं-बोध आपनारने दसण -केवळ दर्शन मुत्ताणं-पोते कर्मथी मूकायेलाने धराणं-धारण करनारने मोअगाणं--बीजाने कर्मथी मूवियट्ट-निवर्त्या छे ". कावनारने तेमने Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीवो ताणं सरणगइपइट्टा-द्वीप समान रक्षण करनार, शरणरूप, गतिरूप, आधाररूप अप्पडिहयवरनाणदंसणधराणं वियदृछउमाणं-अस्खलित श्रेष्ठ ज्ञान दर्शन धारण करनारने. घातीकर्म रहितने. जिणाणं जावयाणं तिनाणं तारयाणं-जिनोने, जय करावनारने, तरेलाने, तारनारने. - बुद्धाणं बोहयाणं मुत्ताणं मोअगाणं-बोध पामेलाने, बोध पमाडनाराने मुक्ति, पामेलाने, मुक्ति करावनारने. भावार्थ:-संसार समुद्रमां डूबता जीवोने द्वीपनी जेम आश्रय आपी रक्षण करनारा, अनर्थना नाश करनारा, एथीज कर्मना उपद्रवोथी भय वाळाने शरणरूप, सुखने माटे दुःखियाने आश्रयरूप, भवकुवामां पडता प्राणिने आलंबनरूप एवा परमात्मा, कोइथी हणाय नहीं एवा श्रेष्ठ ज्ञान अने दर्शनने धारण करनारा छे, छद्मस्थ अवस्था तेमनी दूर थइ छे एटले घातिकर्मोनो नाश थयो छे. पोते कर्मशत्रुने जीतनारा छे. अने बोजानी पासे कर्मशत्रने जीतावनारा छे, पोते संसारसमुद्रने तरी गया छे अने बीजाने तारे छे, पोते बोध पामेला छे अने बीजाने बोध पमाडनारा छे, पोते कर्मथी मूक्त थया छे अने बीजाने तेथी मुक्त करनारा छे. मू०-सबन्नूणं, सबदरिसीणं, सिव-मयल-मरुअ-मणंत मक्खय-मव्वाबाह-मपुणरावित्ति-सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं, नमो जिणाणं जिअभयाण ॥९॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ . एवाने जे अ अईआ सिद्धा, जे अ भविस्संति पागए काले । संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि ॥१॥ शब्दार्थ:सव्वन्नूणं-सर्वज्ञोने नमो-नमस्कार हो सव्वदरिसीणं-सर्वदर्शीने जिणाणं-जिनेश्वरोने सिवं-उपद्रवरहितने जिअभयाणं-जीत्या छे इह अयलं-अचळने लोकादि. सातः भय जेमणे अरुअं-रोगरहितने. अगंत-अनंतने जेअ-जेओ अख्खयं-अक्षयने अईआ-अतीत (गयेला) काळमां अव्वाबाहं-बाधारहितने सिद्धा-सिद्ध थया छे अपुणरावित्ति-ज्यांथी फरी अ- भविरसंति-(आवताः) भविष्य वतार लेवो नथी एवं काळमां थशे सिद्धिगइनामधेयं-सिद्धिगति णागए काले-अनागत (आववा नामर्नु वाळां) काळमां ठाणं-स्थानने संपइ अ-वर्तमान ( हाल ) संपत्ताणं-पामेलाने काळमां नमुत्थुणंनी नव संपदाओ-१ स्तोतव्य संपत् २ ओघसंपत् ३ इतर हेतु संपत् ४ विशेष हेतु संपत् ५ तद्रेतु संपत् ६ विशेषोपयोग संपत् ७ स्वरूपयोगसंपत् ८ निजसमफल संपत् ९ मोक्ष संपत्. Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१०३ वट्टमाणा-विद्यमान छे करी सव्वे-ते सर्वे (व्यजिन) ने वंदामि-हुं वंदना करूं छु तिविहेण-मन, वचन, कायाए सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं-सर्वज्ञने, सर्वदर्शीने, सिव-मयल-मरुअ-मणंत- मख्खय-मव्वाबाह-मपुणरावित्ति-निरुपद्रव, निश्चल, रोगरहित, अनंत, अक्षय, अव्याबाध, ज्यांथी फरी पार्छ आवq नथी एवा. सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं-सिद्धिगति नामनास्थान. ने पामेलाने. नमो जिणाणं-नमस्कार हो जिनोने. जिअभयाणं-भय जेओए जीत्या छे तेओने. जे अ अईआ सिद्धा, जे अ भविस्संति णागए कालेवली जे भूतकालमां थइ गयेला सिद्धो. वळी जे भविष्यमां थनारा, (आवता काळमां.) संपइ अ वट्टमाणा, सव्वे तिविहेण वंदामि-वर्तमानमा छे तेओने, सर्वने त्रिविधे वांदुं छं. भावार्थ-सर्व पदार्थने सर्व प्रकारे जाणनारा छे, सर्व पदार्थने जोनारा छे, उपद्रव रहित, निश्चळ, रोगरहित, अंतरहित, क्षयरहित, बाधापीडारहित अने ज्यांथी पार्छ कोइ वखत आववानुं नथी एवा सिद्धिगति नामना स्थानने पामेला छे, सर्व भयने जीतनारा छे एवा जिनेश्वरोने नमस्कार हो. Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ वळी जेओ अतीत (गया) काळे मोक्ष पाम्या छे, भविष्य (आवतां ) काळे मोक्षे जशे, तथा जेओ वर्तमान ( चाली रहेला) काळे विद्यमान छे. ते सवे (द्रव्य जिनेश्वरो ) ने हुं शुद्ध मन, वचन अने कायाए करीने नमस्कार करुं छु. १ इच्छामि खमासमणो वन्दिउ जावणिज्जाए निसीहिआए मत्थएण वंदामि ॥ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् श्रीआचार्य वांदुजी॥ २ इच्छामि खमासमणो वन्दिउं जावणिजाए निसीहिआए मत्थएण वन्दामि ॥ इच्छाकारेण संदिसह भगवन्श्रीउपाध्याय वांदुजी ॥ ३ इच्छामि खमासमणो वन्दिउँ जावणिज्जाए निसीहिआए मत्थएण वन्दामि ॥ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् सर्वसाधुजीने त्रिकाल वन्दना होज्यो। ४ इच्छकार भगवन् मुहराइ सुहदेवसि सुख तप शरीरनिराबाध सुख संजम जात्रा निर्वहो छो जी॥ इच्छामि खमासमणो वन्दिउं जावणिज्जाए निसीहिआए मत्थएण वन्दामि ॥ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसियं पोडकमणं ठाएमि? . - (गुरु कहे “ ठाएह ") इच्छं, भगवन् तहत्ति ( पछी “ नमो अरिहंताणं " तथा " करेमि भंते" कही) Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ ॥ १५ अथ इच्छामि ठामि सूत्रम् ॥ मू० - इच्छामि, ठामि काउस्सग्गं ॥ शब्दार्थ: इच्छामि -- इच्छं धुं ठामि - करूं धुं इच्छामि ठामि काउस्सग्गं- हुं इच्छं छं. काउस्सग्ग करूं कुं. भावार्थ - हुं कायोत्सर्ग करवा इच्छं छं. कायोत्सर्गने करूं कुं. मू० - जो मे देवसिओ अइआरो कओ काइओ वाइओ माणसिओ, जो - जे अइआरो-अतिचार कओ - कर्यो होय काउस्सग्गं - काउस्सग्ग शब्दार्थ: FETY काइओ - काया संबंधी वाइओ - वचन संबंधी माणसिओ-मन शंबंधी जो मे देवसिओ अइयारो - जे में दिवस संबंधी अतिचार कओ काइओ वाइओ माणसिओ - काया संबंधी वचन संबंधी, मन संबंधी कर्यो होय. मू० –उस्तुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अकरणिज्जो, दुज्झाओ, दुव्विचितिओ, अणायारो, अणिच्छिअव्वो, असावगपाउग्गो, नाणे तह दंसणे चरित्ताचरिते सुए सामाइए । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्सुतो - सूत्र - जिनागम विरुद्ध बोलवाथी उम्मग्गो - मार्गविरुद्ध चालवाथी अकप्पो - आचार विरुद्ध अकरणिज्जो नहीं करवा लायक दुज्झाओ - आर्त्त रौद्ररूप दुर्ध्यान दुव्विचितिओ-दुष्ट चितवन करवाथी १०६ शब्दार्थ: करवाथी. योग्य नथी तेथी असावगपाउग्गो - श्रावकने नहीं करवा योग्य एवो नाणे- ज्ञानने विषे अणायारो - आचरवाने अयोग्य अणिच्छिअव्वो- जे इच्छवा सुए - शास्त्र विषे सामाइए - सामायकने विषे उस्तो उम्मग्गो अकप्पो अकरणिज्जो - सूत्र - जिनागम विरुद्ध बोलवाथी, मार्ग विरुद्ध चालवाथी, आचार विरुद्ध करवाथी तथा नहीं करवा लायक करवाथी. तह - तथा दंसणे - दर्शनने विषे चरित्ताचरिते - देशविरतिरूप श्रावक धर्मने विषे दुज्झाओ, दुव्विचिंतिओ, अणायारो, अणिच्छिअव्वोआर्त्त रौद्ररूप दुर्ध्यान ध्यावाथी, दुष्ट चितवन करबाथी, आचरवा नहीं योग्य आचरण करवाथी, जे इच्छवा योग्य नथी तेथी . असावगपाउग्गो — श्रावकने अनुचित नहीं करवा योग्य Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ नाणे दंसणे चरित्ताचरित्ते सुए सामाइए-जानने विषे, दर्शनने विषे, देश विरतिरुप श्रावक धर्मने विषे, शास्त्रने विषे सामायकने विषे भावार्थः-प्रथम उपर कह्यु के हुं इच्छु छु के हुं कायोत्सर्ग करूं ते पहेलां प्रथम आ प्रमाणे दोषनी आलोचना करुं छ--ज्ञान, दर्शन, देशविरतिरूप चारित्र, श्रुत धर्म अने सामायिक, आटला विषयमा में आखो दिवस जे कायिक, वाचिक के मानसिक अतिचार सेवन कर्यों होय ते संबंधी तथा सूत्र जिनागम विरुद्ध. मार्ग विरुद्ध, आचार विरुद्ध, नही करवा लायक, दुर्ध्यान कयु होय, दुष्ट चितवन कर्यु होय, नहीं इन्छवा योग्य अने श्रावकने नहीं करवा योग्य, ए सर्व संबंधी जे काइ अतिचार सेव्यो होय. मू०-तिण्हं गुत्तीणं, चउण्हं कसायाणं, पंचण्हमणुव्बयाणं, तिण्हं गुणव्वयाणं, चउण्हं सिक्खावयाणं, बारसविहस्स सावगधम्मस्स, जं:खंडिअं, जं विराहिअं, तस्स मिच्छामि दुकडं ॥ शब्दार्थ:तिह-त्रण अणुव्बयाणं-अणुव्रत गुत्तीणं-गुप्तिने विषे गुणव्वयाणं-गुणव्रत मध्येथी चउण्हं-चार सिक्खावयाणं-शिक्षाबत मकषायाणं-कषाये करी बारसविहस्स-बार प्रकारना पंचण्हं-पांच व्रतरूप દથી Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सावगधम्मस्स - श्रावकधर्म | खंडिअं-देशथकी भांग्यु होय मांहेथी विराहिअं-सर्व थकी विराध्यु जं-जे ___ होय, तिण्हं मुत्तीणं-त्रण गुप्तिनां चउण्हं कसायाणं पंचण्हमणुव्ययाणं-चार कषायोना पांच अणुव्रतोना. तिण्हं गुणव्वयाणं चउण्हं सिक्खावयाणं-त्रण गुणवतोनां चार शिक्षाबतोनां बारसविहस्स सावगधम्मस्स जं खंडिअं-(सर्व मळी) बार प्रकारना श्रावक धमनुं जे देशथको खंडित. जं विराहिअं तस्स मिच्छामि दुक्कडं-जे सर्व थको भाग्यु होय ते मारुं दुष्कृत मिथ्या करुं छं. भावार्थ:--तथा चार कषाय द्वारा त्रण गुप्ति संबंधी, पांच अणुव्रत, त्रण गुणवत अने चार शिक्षाव्रतरूप बार प्रकारना श्रावक धर्म संबंधी जे कांइ व्रत खंडित थयु होय, अथवा तेने विषे जे कांइ विराधना थइ होय ते संबंधी पण मारुं पाप मिथ्या थाओ ___ गुरु ३२, लघु १२०, सर्ववर्ण १५२. इति इच्छामि ठामि देवसि आलोउ सूत्र १५* * आ सूत्र बडे दिवस संबंधी मन, वचन अने कायाथी श्रावक Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९ (पछी " तस्स उत्तरी " तथा "अन्नत्थ ऊससिएणं" कही अतिचारनी आठ गाथा अथवा आठ नवकारनो काउस्सग्ग करवो. ( अतिचारनी आठ गाथा आ प्रमाणे छे. > १६ अथ अतिचारनी आठ गाथा || मू० - नाणम्मि दंसणम्मि अ, चरणम्मि तवम्मि तह य विरियम | आयरणं आयारो, इअ एसो पंचहा भणिओ ॥ १ ॥ शब्दार्थ: नाम - ज्ञानने विषे दंसणंमि-दर्शनने विषे चरणम्मि चारित्रने विषे तवंमि - तपने विषे तह य - तेमज विरियमि-वीर्यने विषे आयरणं-जे आचरण आयारो - ते आचार कहेवाय छे इअ - एवी रीते एसो - ए आचार पंचहा - पांच प्रकारनो भणिओ-कहेलो छे धर्ममां करेला पापनी आलोचना थाय छे, तेथी आ सूत्र बोलती वखत उपयोग राखीने पोते आखा दिवसमां जे जे पाप सेव्यां होय ते सर्व याद करीने शुद्ध अंतःकरणथी तेनो पश्चात्ताप करवानो छे. Xआ सूत्रमां ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, पाच वीर्याचार ए पांच आचारना आचरणाना भेद जणान्या छे. ते आचरणामां जे स्खलनाप्रमाद ते अतिचार जाणवा. तेथी, आ आचारनी गाथाओने ज अतिचारनी गाथा रूपे कही छे. अर्थात् तेमां कहेला आचारथी जे Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषे ११० भावार्थ-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप अने वीर्यने विषे तेनी 'प्राप्तिने निमित्ते जे आचरण कराय ते आचार कहेवाय छे. आ प्रमाणे ते आचार पांच प्रकारनो कहेलो छे. तेमां प्रथम ज्ञानाचारना आठ भेद बतावे छेमू-काले विणए बहुमाणे, उवहाणे तह अनिन्हवणे । वंजणअत्थतदुभए, अट्टविहो नाण*-मायारो ॥२॥ शब्दार्थःकाले-काळने विषे अत्थ-अर्थने विषे तथा विणए-विनयने विषे तदुभए-व्यंजन अने अर्थ बन्नेने बहुमाणे-बहुमानने विषे "उवहाणे-उपधान तपने विषे अट्टविहो-(आ प्रमाणे) आठ तह-तथा नाणं-ज्ञानने विषे अनिन्हवणे-नहीं ओळववाने विषे आयारो-(एटले) ज्ञाननो वंजण-व्यंजन अक्षरने विषे । आचार. भावार्थ-नवू ज्ञान प्राप्त करवा माटे तथा प्राप्त थयेला ज्ञाननी रक्षा करवा माटे जे अवश्य आचरवा योग्य होय ते ज्ञानाचार कहेवाय छे. तेना आठ प्रकार आ प्रमाणे छे.-शास्त्रमा जे काळे जे सूत्र भणवानी आज्ञा आपी होय, ते काळे सूत्र भणq, ते काळाचार कहेवाय विपरीत आचरणा ते अतिचार कहेवाय छे, ते अतिचारो आ सूत्र वडे आलोचाय छे. * सप्तमीस्थाने द्वितीया । Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ छे. १ ज्ञानीओ तथा ज्ञानना साधनरूप पुस्तकादिकनो विनय करवो ते विनयाचार कहेवाय छे. २, ज्ञानीनो तथा ज्ञानना उपकरणोनो अंतरंगथी आदर करवो ते बहुमान कद्देवाय छे. ३, आगम भणवाने माटे जे शास्त्रमां का प्रमाणे तपक्रिया करवामां आवे छे ते उपधान कहेवाय छे. ४, भणावनार गुरुने ओळववो नहीं एटले जेनी पासे भण्या तेनुं नाम नहीं देतां बीजा पासे भण्यानुं कहेवुं, आवुं मिथ्या कथन न करवुं, ते अनिन्हवन कहेवाय छे. ५, सूत्रना अक्षरोनो शुद्ध उच्चार करवो ते व्यंजनाचार कहेवाय छे. ६, सूत्रनो अर्थ साचो करवो ते अर्थाचार कहेवाय छे. ७ तथा सूत्र अने अर्थ बन्ने शुद्ध बोलवा ते तदुभयाचार कहेवाय छे. ८, आ आठ प्रकारना ज्ञानाचारथी जे विपरीत आचरणा करवी ते अतिचार कहेवाय छे तेना पण काळातिचार, विनयातिचार इत्यादि तेना ते ज भेदो जाणवा एम सर्वत्र जाणी लेवू. . · हवे दर्शनाचारना आठ भेदो बतावे छेमू० - निस्संकिअ निक्कंखिअ, निव्वितिगिच्छा अमूढदिट्ठीअ । उबवूहथिरीकरणे, वच्छल पभावणे अट्ठ ॥ ३ ॥ निस्संकिअ - शंका रहितपर्णु हनी वृद्धि थिरीकरणे - स्थिर करवापणुं निक्कंखिअ - आकांक्षारहितप निव्वितिमिच्छा - फलप्रत्ये सं देह रहितपणं अमूढदिट्ठी - मोहदृष्टि रहित उबवूह - गुणप्रशंसावडे, उत्सा वच्छल - वात्सल्य अने पभावणे - प्रभावना अट्ठ- (आ) आठ आचार (दर्शनना छे). Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे दर्शनाचारना आठ भेदो बतावे छेमू०-निस्संकिअनिक्कंखिअ, निधितिगिच्छा अमूढदिट्ठी। ___ उववूहथिरीकरणे, वच्छल्ल पभावणे अट्ठ ॥३॥ शब्दार्थःनिस्संकिअ-शंकारहितपणुं नी वृद्धि निक्कंखिअ-आकांक्षारहितपगं थिरीकरणे-स्थिर करवापj निवितिगिच्छा-फल प्रत्ये वच्छल्ल-वात्सल्य अने . संदेह रहितपणुं पभावणे-प्रभावना अमूढदिट्ठीअ-मोहरहित दृष्टि अट्ठ-(आ) आठ आचार उववृह-गुणप्रशंसावडे, उत्साह- ( दर्शनना छे ) भावार्थ-वीतरागना वचनमा देशथी के सर्वथी शंका न करवी ते निःशंकित १, जिनमत विना अन्य अन्य मतनी इच्छा न करवी ते निष्कांक्षित २, धर्मना फळमां संदेह न करवो ते, अथवा साधु-साध्वी ओनां शरीर, वस्त्र विगेरे मलिन देखी दुगंछा न करवी ते निर्विचिकित्सा अथवा निर्विजुमुप्सा ३, मिथ्यात्वीना अज्ञान कष्ट, मंत्र के चमत्कार देखी तेना पर मोह न पामवा ते अमूढदृष्टि ४, * समकितधारीना अल्पगुणनी पण शुद्ध मनथी प्रशंसा करी तेने धर्ममार्गमां उत्साहवाळो ते उपबंहणा पू. * आ चार आचार आभ्यंतर छे, बाकीना चार बाह्य छे. Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेने धर्मनी प्राप्ति थइ न होय तेने धर्म पमाडवो अने जे धर्म पामेलो होय तेनी धर्ममां स्खलना थाय तो तेने धर्ममां पाछो दृढ करवो ते . स्थिरीकरण ६, साधर्मी बंधुनुं अनेक प्रकारे हित करवू ते वात्सल्य ७, तथा अन्यधर्मीओ पण जैनशासननी अनुमोदना करे तेवा कार्य करवां ते प्रभावना ८, आ आठ प्रकार दर्शनाचारनाxछे. ॥ ३ ॥ हवे आठ प्रकारनो चारित्राचार कहे छमू०–पणिहाणजोगजुत्तो, पंचहिं समिईहिं तीहिं गुत्तीहि । एस चरिचायारो, अट्ठविहो होइ नायव्वो ॥४॥ शब्दार्थ:पणिहाणजोग-प्रणिधान योग गुत्तीहिं-गुप्तिवडे एटले मन, वचन अने एस-ए कायानुं जे एकाग्रपणुं . चरित्तायारो-चारित्राचार जुत्तो-युक्त एवो पंचहि-पांच अट्ठविहो-आठ प्रकारनो समिईहिं-समिति होइ-छे तीहि-त्रण | नायव्यो-जाणवा योग्य पणिहाणजोगजुत्तो-प्रणिधान योग एटले मन, वचन अने कायानु जे एकाग्रपणुं, तेणे करीने युक्त एवो. x आ आठथी समकित प्राप्त थाय छे अथवा प्राप्त थयु होय तेने दृढ करे छे तेथी आ दर्शनाचार कहेवाय छे. Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ पंचहिं समिईहिं तीहिं गुत्तीहिं पांच समितिए करीने तथा त्रण गुप्तिए करीने. एस चरित्तायारो - आ चारित्राचार. C अविहो होइ नायव्वो-आठ प्रकारनो छे, एम जाणवुं. भावार्थ - आ चारित्राचार मनोयोग, वचनयोग अने काययोगनी एकाग्रताए करीने युक्त छे, ते पांच समिति अने त्रण गुप्तिवडे करीने आठ प्रकारनो छे ॥ ४ ॥ ----- हवे तपाचार कहे छे मू० - बारस विहम्मिय तवे, सब्भिंतरबाहिरे कुसल दिट्ठे । अगिलाइ अणाजीवी, नायव्त्रो सो तवायारो ॥५॥ बारसविहम्मिय - चार प्रका रना पण तवे - तपने विषे सब्मिंतर -छ प्रकारे आभ्यंतर बाहिरे - छ प्रकारे बाह्य कुसलदिट्ठे-कुशळ पुरुष - तीर्थकरोए उपदेशेला मेला आभ्यंतर अने बाह्यसहित. सो-ते तवायारो - तप आचार बारसविहम्मिय तवे—बार प्रकारना तपने विषे. सब्भिंतरबाहिरे कुसल दिट्ठे – तीर्थकरे जाणेला एटले प्ररू अगिलाइ - ग्लानि - खेदरहित अणाजीवी - आजीविका रहित पणे नायव्वो-जाणवो Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... अगिलाइ अणाजीवी-लानिरहितपणे तथा आजीविकारहित पणे. जाम ॥ ५ ॥ नायब्बो सो तवायारो-ते तपाचार जाणवो. . भावार्थ--तीर्थकरोए छ आभ्यंतर अने छ बाह्य एम तपना बार भेद कहेला छे. तेमांथी हरकोइ तप करतां खेद थवो न जोइए, तथा ते तप आजीविकाने माटे थवो न जोइए, एवी रोते मूर्छा रहितपणे करेलो तप ते तपाचार कहेवाय छे ॥ ५ ॥ तेमा प्रथम छ प्रकारनो बाह्य तप कहे छेमू०-अणसणमणोअरिआ, वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ। कायकिलेसो संली णया य बज्झो तवो होइ ॥६॥ शब्दार्थ. अणसणं-चार प्रकारना आहा- रसत्याग . रनो त्याग अने अनशन कायकिलेसो-कायाने कष्ट आऊणोअरिआ-पांच सात को- पq-लोच कराववो ते ळिया ओछा खावा अथवा कायक्लेश ओछा वस्त्र-पात्र राखवा संलीणया-विषयादिकनी उदीते ऊणोदरी रणा करवी नहि तेमज वित्तीसंखेवणं-द्रव्य वगेरेनो अंगोपांग संकोची राखवां संक्षेप करवो ते वृत्तिसंक्षेप ते संलीनता रसच्चाओ-विगय प्रमुख रसनो बज्झो-बाह्य थोडो वा अधिक त्याग ते | तवो तप Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ अणसणमूणोअरिआ-चारे प्रकारना आहारनो थोडा अथवा घणा समय सुधी त्याग ते अनशन, वस्त्रपात्र ओछां ओठां राखवां वा पांच सात कोळीआ ओछा जमवा ते ऊणोदरि. वित्तीसंखेवणं रसच्चाओ-द्रव्यादिनो संक्षेप ते वृत्तिसंक्षेप, विगय प्रमुख रसनो थोडो वा अधिक त्याग ते रसत्याग. कायकिलेसो संलीणया-कायाने कष्ट प्रमुख आपवां-लोच कराक्वा इत्यादि ते कायक्लेश, विषयादि उदीरवा नहीं तेमज अंगोपांग संकोची राखवा ते संलीनता. य बज्झो तवो होइ-ते (छ प्रकारे ) बाह्य छे. भावार्थ-छ प्रकारनो बाह्य तप आ प्रमाणे छे-थोडा काळ सुधी के घणा काळ सुधी चारे प्रकारना आहारनो त्याग करवो ते अनशन कहेवाय छे. १, पोताना नियमित भोजनथकी पांच सात कवळ ओछा खावा, वस्त्र पात्रादिक ओछा राखवा ते ऊळोदरी कहेवाय छे. २, खावा-पीवानी के भोग-उपभोगनी वस्तुओ ओछी करवी ते वृत्तिसंक्षेप कहेवाय छे. ३, घी, दूध विगेरे विगयनो थोडो अथवा अधिक त्याग करवो अथवा तेना परनी लोलुपतानो त्याग करवो ते रसत्याग कहेवाय छे. ४, केशनो लोच विगेरेनुं कष्ट सहन करवू ते कायक्लेश कहेवाय छे. ५, विषयादिकनी उदीरणा करवी नही तथा अंगोपांग संकोची राखवां ते संलीनता कहेवाय छे. ६, आमांनो कोइ पण तप करनार मनुष्य बाह्यदृष्टिथी तपस्वी कहेवाय छे, तेथी आ छ प्रकारो बाह्य तपमा गणाय छे ॥ ६ ॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे छ प्रकारनो आभ्यंतर तप कहे छेमू०-पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्च तहेव सज्झाओ। झाणं उस्सग्गोऽवि अ, अम्भिंतरओ तवो होइ ॥७॥ शब्दार्थःपायच्छित्तं-लागेल दोषनो गुरु | सज्झाओ-वांचना पृच्छना प्रमुख पासे प्रकाश करी तेना | पांच प्रकारथी अभ्यास कनिवारणने अर्थ गुरु जे रखो ते स्वाध्याय तप आलोयण आपे ते क ते । झाणं-आर्त तथा रौद्र ध्यान प्रायश्चित्त तप, निवारी धर्म तथा शुक्ल विणओ-ज्ञान तथा ज्ञानीनो ध्यानमा प्रवर्तव॑ ते ध्यान विनय करवो ते विनय तप | उस्सग्गो-कर्मक्षय अर्थ कायाने वोसराववी ते कायोत्सर्ग बेयावच्च-गुरु प्रमुखनी आहार तप वगेरेथी भक्ति करवी ते वि अ-निश्चय वैयावच्च तप अम्भिंतरओ-अभ्यंतर तहेव-तेवीज रीते तेमज । तवो-तप पायच्छित्तं विणओ-प्रायश्चित्त अने अविनय, वेयावच्च तहेव सज्झाओ-वैयावच्च तथा स्वाध्याय, झाणं उस्सग्गोवि अ-ध्यान, तथा उत्सर्ग-कायोत्सर्ग पण अम्भितरो तवो होई-आभ्यंतर तप छे. Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-आभ्यंतर तपना छ प्रकार आ प्रमाणे छे-लागेलो दोष गुरुपासे प्रगट करी तेना निवारण माटे गुरुए जे आलोयण आपी होय ते प्रमाणे करवू ते प्रायश्चित्त १, ज्ञान तथा ज्ञानीनों विनय करवो ते विनय तप कहेवाय छे. २, गुरु, ग्लान, बाळ विगेरे साधुओनी आहार, पाणी, औषध विगेरे वडे भक्ति करवी ते वैयावच्च तप कहेवाय छे. ३, वाचना, पृच्छना, तप परावर्त्तना, अनुप्रेक्षा अने धर्मकथा ए पांच प्रकारे शास्त्रनो अभ्यास करवो ते स्वाध्याय कहेवाय छे ४, आर्त अने रौद्रनो त्याग करी धर्म अने शुक्ल ध्यानमां प्रवर्तवं ते ध्यान कहवाय छे ५, तथा कर्मना क्षयने माटे कायानो त्याग करवो एटले शरीर परनी मूर्छानो त्याग करवो ते उत्सर्ग-कायोत्सर्ग कहेवाय छे ६, आमांनो कोइ पण तप करनार मनुष्य सामान्य दृष्टि वडे तपस्वी कहेवातो नथी, परंतु शास्त्रदृष्टिए जोतां अवश्य तपस्वी छे, तेथी आ आभ्यंतर तप कहेवाय छे. ॥ ७ ॥ हवे छेल्लो वीर्याचार कहे छेमू-अणिगूहिअबलवीरिओ, परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो। जुजइ अ जहाथाम, नायव्यो वीरिआयारो ॥८॥ ___ शब्दार्थःअणिगृहिअ-गोपव्या वगरनु छे । जो-जे बलवीरिओ-बलवीर्य जेनुं जहुत्तम्-तीर्थंकर देवे जेम कह्यु : परकमइ-पराक्रम करे छ छे तेम । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आउत्तो-सावधान थइने जहाथाम-पोतानी शक्तिने अ नुसारे झुंजइ-प्रवत्र्ते वीरिआयारो-वीर्याचार अणिगृहिअबलवीरिओ-नथी गोपव्यु बलवीर्य जेणे एवो . परक्कमइ जो जहुत्तमाउत्तो-शास्त्रमा कह्या प्रमाणे जे मनुष्य सावधान अथवा उद्यमवंत थयो छतां पराक्रम करे जुंजइ अ जहाथाम-तथा शक्ति प्रमाणे प्रवृत्ति करे नायव्यो वीरिआयारो-ते वीर्याचार जाणवो. भावार्थ-बळ वीर्यने गोपव्या विना तथा सावधानपणे उद्यमवंत थइने जे मनुष्य शास्त्रमा कह्या प्रमाणे पराक्रम करे अने शक्ति प्रमाणे ते ते धर्म क्रियादिकमां प्रवृत्ति करे, ते वीर्याचार कहेवाय छे. ॥ ८॥ ॥इति अतिचार गाथा १६ ॥ (पछी काउस्सग्ग पारी "लोगस्स" कही, त्रीजा आवश्यकनी मुहपत्ति पडिलेही बे " वांदणा" दइ बोलवू ) इच्छाकारेण संदिसह भगवन् देवसियं आलोएमि, जो मे देवसिओ विगेरे पाने १०५ मेंथी कहेवो पछी, ॥१७ अथ सातलाख ॥ सात लाख पृथ्वीकाय, सात लाख अप्काय, सात लाख तेउकाय, सात लाख वाउकाय, दश लाख प्रत्येक वनस्पतिकाय, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउद लाख अनन्तकाय,बे लाख बेइन्द्री, बे लाख तेइन्द्री, बे लाख चउरिन्द्री, चार लाख नारकी, चार लाख देवता, चार लाख तियंच, पंचेन्द्रि चउद लाख मनुष्यपंचेन्द्री एवंकारे चोराशी लाख जीवा x जोनिने विषे जे कोई माहरे जीवे, पाप कयु होय, कराव्यु होय, करतां प्रत्ये भलं जाण्यु होय, ते सवि हुं मन, वचन, कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं । x योनि एटले जीवने उपजवाना स्थानक. ते बधा जीवोनां मळीने ८४ लाख उत्पत्ति स्थान छे. जो के स्थानक तो ते करतां पण वधारे छे पण वर्ण, गंध, रस, स्पर्श अने संस्थानवडे करी जेटलां स्थानक सरखां होय ते सर्व मळी एक स्थानक गणाय, तेनी गणतरी आ प्रमाणे छे-पृथ्वीकायना मूळभेद ३५० तेने पांच वर्णे गुणतां १७५०) थया, तेने बे गंधे गुणतां ३५००) थया, तेने पांच रसे गुणतां १७५००) थया, तेने आठ स्पर्श गुणतां १४०००० थाय, तेने पांच संस्थाने गुणतां सात लाख भेद पृथ्वीकायना थाय; एम बधानी गणतरी करवी. उपरोक्त ८४ लाख जीवयोनि मांहे उत्पन्न थयेल हरकोइ जीवने हण्यो होय, हणाव्यो होय, अगर हणताने अनुमति आपी होय ते संबंधी मन, वचन अने कायावडे मिथ्या दुष्कृत आ सूत्रवडे देवानुं छे. अर्थः-सुगम छे ॥ इति सातलाख १७ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ ॥। १८ अथ अढार पापस्थानक ॥ पहेले प्राणातिपात, बीजे मृषावाद, त्रीजे अदत्तादान, चोथे मैथुन, पांचमे परिग्रह, छट्ठे क्रोध, सातमे मान, आठमे माया, नवमे लोभ, दशमे राग, अग्यारमे द्वेष, बारमे कलह, तेरमे अभ्याख्यान, चौदमे पैशुन्य, पन्दर मे रति - अरति, सोलमे परपरिवाद, सत्तरमे मायामोस, अढारमे मिथ्यात्वशल्य, ए अढारे पापस्थानकमांही जे कोइ पापस्थानक में सेव्यं होय, सेवाव्यं होय, सेवतां मते भलुं जाण्य होय ते सवि हुं मन वचन काया करी मिच्छामि दुक्कडं ॥ अर्थ :- परजीवना प्राणनो नाश चिंतववो ते प्राणातिपात १, असत्य बोलवाना परिणाम ते मृषावाद २, पारकी वस्तु धणीनी संमति विना लइ लेवानी वृत्ति ते अदत्तादान ३, विषयभोगनी वांच्छा रूप परिणाम ते मैथुन ४, नव प्रकारे बाह्य अने चौद प्रकारे अभ्यंतर वस्तु आदिनी वांच्छा अथवा मूर्च्छा ते परिग्रह ५, परनी उपर तीत्र परिणामे मुखादि अवयवने तपाववां ते क्रोध ६, प्राप्त वा अप्राप्त वस्तुनो अहंकार ते मान ७, गुप्तपणे स्वार्थवृत्ति सिद्ध करवानी वांच्छा ते माया ८, धनादिक संपत्तिने एकठी करी संग्रही राखवानी मनोवृत्ति ते लोभ ९, पौद्गलिक वस्तु उपर प्रीति ते राग १०, अणगमता जीवादिक पदार्थो उपर अरुचि ते द्वेष ११, परनी साथे विखवाद करवानी वृत्ति ते कलह १२, परजीवने नहीं दीठेलु, नही सांभळेलं खोटुं आळ देवं ते * मिथ्यात्व, त्रणवेद, हास्यादि षट्क अने चार कषाय. , Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १२२ अभ्याख्यान १३, पर जीवना दोषनी बीजा पासे चाडी खावी ते पैशून्य १४, सुख अनुभवी हर्ष करवो ते रति अने शोक करवो ते अरति १५, गुणी वा निर्गुणी जीवनी निंदा करवी ते परपरिवाद १६, कपटवृत्तिथी असत्यबोली छळ करीने लोकोने ठगवाना परिणाम ते मायामृषावाद १७, व्यवहारथी कुदेव, कुगुरु अने कुधर्म सेववानी अभिलाषा अने निश्चयथी आत्मस्वरूपना अनुभवने विध्न करवा रूप आत्माना परिणाम ते मिथ्यात्व शल्य १८, ए अढार प्रकारे जीवने चित्तमा जे पापरूप भाव उत्पन्न थाय ते 'भावपाप' अने ते भावनी चीकाशथी जीवने सत्ताए कर्मनां दळीयां लागे ते 'द्रव्यपाप' कहेवाय छे. ॥ इति प्राणातिपात सूत्र १८॥ ॥ १९ अथ चार विकथा ॥ राजकथा, देशकथा, भक्तकथा, स्वीकथा, ए चार विकथामांही जे कोइ विकथा करी होय, करावी होय, करतां प्रते भली जाणी होय, ते सवि हुँ मन, वचन, कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं ॥ ॥ २० अथ सव्वस्सवि ॥ मू-सव्वस्स वि देवसिय दुचिंतिअ दुब्भासिअ दुचिट्ठि इच्छाकारेण संदिसह इच्छं। तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ . इति Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ शब्दार्थ: सव्वस्सवि-सर्वे पण संदिसह-आज्ञा आपो देवसिय-दिवससंबंधीनुं इच्छं-आज्ञा प्रमाण छे. दुञ्चितिय-दुष्ट चितवन तस्स-तेनुं दुभासिय-दुष्ट भाषण दुच्चिहिय-दुष्ट चेष्टानुं मिच्छा -फोगट करूं छं. इच्छाकारेण-इच्छाथी मि दुक्कडं-मारा दुष्कृतने अर्थ:-सर्वे . दिवससंबंधीनुं दुष्ट चितवन करवाथी, दुष्ट भाषण करवाथी, दुष्ट चेष्टा करवाथी दुष्कृत (अतिचार ) लाग्युं होय, इच्छाथी आज्ञा आपो, हुं इच्छु छु, ते मारुं पाप मिथ्या थाओ! ( एम कही विषमासने जमणो ढींचण उभो राखी बेसी पछी), " नमो अरिहंताणं" " करेमि भंते सामाइयं " (कहीने ). ॥ २१ अथ चत्तारि मंगलं॥ चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगल, साहू मंगल, केवलिपन्नत्तो धम्मो मंगलं ॥ चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपन्नत्तो धम्मो लोगुत्तमा ॥ चत्तारि सरणं पवज्जामि, अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्ध सरणं पवजामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपन्न धम्म सरणं पवजामि ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ भावार्थ-मंगळ चार प्रकारना छे, अरिहंत, सिद्ध, साधु अने केवली भगवाने बतावेलो धर्म, लोकोमा उत्तम पण चार छ; अरिहंत, सिद्ध, साधु अने केवळीए बतावेलो धर्म, शरणा पण चार छे. अरिहंत, सिद्ध, साधु, अने केवळी भगवाने बतावेलो धर्म. (इच्छामि पडिक्कमिडं, जो मे देवसिओ अइयारो कओ, ए पाठ कहीने इच्छामि पडिकमिउं इरियावहियाए विराहणाए (इत्यादिक पाठ कही पछे “अढार लाख चोवीस हजार एकसो ने वीश इरियावहीने विषे जे कोइ दूषण लाग्यु होयते सवि हुं मन वचन कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं" आ प्रमाणे बोलीने पछे नीचे प्रमाणे “ वंदित्तु सूत्र' भणq. - २२ वंदिनु-श्रावक, प्रतिक्रमण सूत्र.* * श्रावकने दिवससंबंधी लागेला अतिचारने आलोववा माटे आ सूत्र सांजे अर्ध सूर्य अस्त पामेलो होय ते वखते कहेवानुं छे. श्रावकना बारवत विगेरेमा लागेला १२४ अतिचार आ सूत्रवडे आलोववामां आवे छे. प्रगट थयेला गुणने जे मलिन करे ते अतिचार कहेवाय छे, अने प्रगट थयेला गुणनो जे सर्वथा नाश करे ते भंग कहेवाय छे. अमुक अपेक्षाए वतनो भंग अने अमुक अपेक्षाए तेनो अभंग थाय ते अतिचार छे. जेमके कोइने प्राणातिपोत विरमण व्रत छे. तेणे चौरादिकने खूब मार्यो. तेमां तेणे तेना प्राणनो वियोग कयों नहीं तेथी तेना व्रतनो Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ मू-वंदित्तु सव्वसिद्धे, धम्मायरिए अ सव्वसाहू अ। इच्छामि पडिकमिउं, सावगधम्माइआरस्स* ॥१॥ शब्दार्थ:वंदित्तु-वांदीने सव्वसाहू अ-तथा सर्व साधुओने सव्वसिद्धे-सर्वने हितकारक इच्छामि-हुं इन्छु छु. ___एवा सिद्धोने पडिक्कमिउं-पाछ। फरवाने धम्मायरिए अ-तथा धर्माचा- सावगधम्माइआरस्स-श्रावक योने धर्मसंबंधी अतिचार थकी भावार्थ:-सर्व एटले सर्वने हितकारक एवा सिद्धोने एटले अरिहंत तथा सिद्धने अथवा सर्व एटले तीर्थंकर, अतीर्थंकर विगेरे पंदर भेदे जे सिद्ध थया तेमने, धर्माचार्योने एटले सम्यग्धर्म आपनार गुरु महाराजने तथा सर्व साधुओने एटले आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर विगेरे सर्व मुनिओने वांदीने श्रावक धर्मने विषे लागेला अतिचारोनुं प्रतिक्रमण करवा हुं इच्छु छु.४ १. प्रथम सामान्य रोते बार व्रतना तथा ज्ञानादिकना अतिचारोने आलोवे छे.भंग थयो नथी, परंतु निद्धंस परिणाम थवाथी दयानो नाश थयो तथा मारवाथी कदाच मरण पण थाय, तेथी ते प्राणी वियोगर्नु कारण होवाथी कांइक भंग पण थयो, तेथी ते अतिचार कहे वाय छे. * पंचमीना अर्थमां षष्टी विभक्ति करी छे, अथवा कर्ममां षष्ठी छे. x जीव प्रमादने लीधे पोताना स्थानथी बीजे स्थाने गयो होय, Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१२६ मू०-जो मे वयाइयारो, नाणे तह दंसणे चरित्ते अ। . सुहुमो अ बायरो वा, तं निंदे तं च गरिहामि ॥२॥ शब्दार्थ:जो-जे । अ-'च' शब्दथी संलेखना, तप मे-मने अने वीर्यने विषे जे अतिवयाइआरो-बार व्रतने विषे चार लाग्यो होय ___ अतिचार लाग्यो होय सुहुमो अ-सूक्ष्म अथवा नाणे-ज्ञानने विषे बायरो वा-बादर एवो तं-तेने तह-तथा निंदे-हुं निंदुं छु -दसणे-दर्शनने विषे तं च-तथा तेने चरित्ते-चारत्रने विषे गरिहामि-हुं गहुँ छु. भावार्थ-बार व्रतोना कुल अतिचारो ७५ छे, तेमां सातमा व्रतना वीश छे अने बाकीना अग्यार व्रतना पांच पांच होवाथी ५५ छे बन्ने मली ७५ थाव छे तथा ज्ञानना आठ, दर्शनना आठ अने तेमां -समकितना शंकादिक पांच मळवाथी २१ अतिचारो छे, तथा चारित्रना आठ छे, 'च' शब्दथी संलेखनाना पांच, तपना बार अने वीर्याचारना त्रण अतिचार छ सर्व मळी १२४ अतिचार छे तेमांनो सूक्ष्म के बादर त्यांथी पार्छ करी पोताने स्थाने आवq ते प्रतिक्रमण कहेवाय छे, जीवने 'पोतानुं स्थान धर्म अने पर स्थान अधर्म छे. Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोइ अतिचार माराथी थयो होय, तेने हुं आत्म साक्षीए निंदुं छु. अने गुरु साक्षीए गर्दा करं छु? २. हवे परिग्रह अने आरंभना सामान्यरीते अतिचारने आलोवे छेमू०-दुविहे परिग्गहम्मि. सावजे बहुविहे अ आरंभे । ___ कारावणे अ करणे, पडिकमे देसि सव्वं ॥३॥ शब्दार्थ:दुषिहे-बे प्रकारना परिग्गहम्मि-परिग्रहने विषे । करणे-पोते करवाने विष तथा ___ 'च' शब्द छे तेथी अनुमोसावज्जे-पापवाळा दनाने विषे बहुविहे अ-अने बहु प्रकारना पडिक्कमे-हुं पडिकमुं छं. आरंभ-आरंभने विषे देसिअं-दिवससंबंधी कारावणे अ - कोइ पासे कराववाने विषे सव्वं-सर्व अतिचारने तथा x अहीं सर्वत्र अतिचार आलोवतां अतिक्रमादिक पण आलोव्या एम जाणवू, तेमनु स्वरूप आ प्रमाणे छे.-व्रतभंगने माटे कोइ प्रेरणा करे तेने जो पोते निषेध न करे तो आतक्रम लागे छे १, व्रतभंग वाटे गमन विगेरे व्यापार करतां व्यतिक्रम थाय छ २, क्रोधथी वध बंधादिक करतां अतिचार थाय छे ३, अने जीवहिंसादिक करतां अतिचार थाय छे ४. Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ भावार्थ-घणुं करीने सर्व व्रतोना अतिचारो परिग्रह अने आरंभथी ज उत्पन्न थाय छे, तेथी सामान्यपणे तेना ज अतिचारोने आलोवे छे-तेमां परिग्रहना बे भेद छे-सचित्त अने अचित्त, अथवा बाह्य अने आभ्यंतर. तेमां धन धान्यादिक बाह्य परिग्रह कहेवाय छे अने मिथ्यात्व, अविरति विगेरे आभ्यंतर परिग्रह कहेवाय छे. तथा कृषि, वाणिज्य विगेरे आरंभ कहेवाय छे. ते परिग्रह अने आरंभने करवामां, कराववामां के अनुमोदना करवामां जे कांइ दिवस संबंधी सूक्ष्म अथवा बादर अतिचार लाग्यो होय ते सर्वने हुं पडिकमुं छे. अहीं जिनप्रतिमा, तीर्थयात्रा, रथयात्रा विगेरेने निमित्त शासननी प्रभावना माटे परिग्रह राखवो पडे अने चैत्य करावq संघवात्सल्य करवू विगेरे कार्यमां आरंभ करवो पडे ते धर्मनिमित्ते होवाथी ते संबंधी प्रतिक्रमण करवानुं नथी, एम जणाबवा माटे सावद्य एटले पाप सहित ए विशेषण आप्युं छे, तथा सावद्य एवा पण केटलाक परिग्रह अने केटलाक आरंभ विना गृहस्थीओनो निर्वाह थइ शकतो नथी, तेथी 'बहुविषे' एटले निःशूकपणाए करीने अनेक प्रकारना ए विशेषण आप्युं छे. अर्थात् सावध अने अनेक प्रकारना ए बन्ने विशेषणवाला परिग्रह अने आरंभने निमित्ते आ प्रतिक्रमण छे. ३. - हवे प्रत्येकनुं प्रतिक्रमण करवानी इच्छाथी प्रथम ज्ञानातिचारने प्रतिक्रमे छे मू०-जं बद्धमिदिएहिं चउहिं कसाएहिं अप्पसत्थेहिं । रागेण व दोसेण व तं निंदे तं च गरिहामि॥४॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं - जे ज्ञानातिचाररूप अशुभ कर्म बद्धं - में बांध्युं होय इंदिएहिं - इंद्रियोवंडे अने चउहिं- चार कसाएहिं - कषायोवडे शब्दार्थ: अप्पसत्थेहिं अप्रशस्त - अशुभ एवा रागेण व- रागथी के तं तेने निंदे - हुं आत्मसाक्षीए निदुं कुं भावार्थ — अप्रशस्त एवा श्रोत्रादिक पांच इंद्रियोवडे, क्रोधादिक चार कषायवडे भने उपलक्षणथी मन, वचन, कायाना योगवडे राग के द्वेषने लीधे जे कांइ ज्ञानना अतिचाररूप अशुभ कर्म में बांध्युं होय, तेनी हुं आत्मसाक्षीए निंदा अने गुरु साक्षीए गर्दा करूं कुं. अहीं इंद्रियो प्रशस्त अने अप्रशस्त आ रीते कहीं शकाय छे. -देवादिकना गुणादिक सांभळवामां श्रोत्र, तेमनुं दर्शन करवाथी चक्षु, देवादिकनी पूजा निमित्ते केसर, कर्पूर विगेरेनी गंध परीक्षा करवामां नासिका, स्वाध्याय अने देवादिकनी स्तुति करवामां जिह्वा तथा जिनेश्वरनी स्नात्रादिक पूजा करवामां स्पर्श इंद्रिय प्रशस्त छे तथा इष्ट अनिष्ट शब्द सांभळवाथी राग द्वेष थाय, तेथी श्रोत्र इन्द्रिय अप्रशस्त छे १, स्त्रीना सुंदर अंगोपांग जोवाथी राग थाय अने अनिष्ट वस्तु जोवाथी द्वेष थाय ते चक्षु इन्द्रिय अप्रशस्त छे २, सुगंधि अथवा दुर्गंधि वस्तु सुंघवाथी राग द्वेष थाय ते घ्राणेंद्रिय अप्रशस्त छे ३, विकथादिकमां प्रवर्तेली जिहा राग द्वेषनो हेतु होवाथी तथा इष्ट अनिष्ट आहार करवाथी राग द्वेष Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थाय ते जिह्वा इन्द्रिय अप्रशस्त छे ४, अने स्त्री आदिक इष्ट वस्तुना स्पर्शथी राग थाय तथा कंटकादिकना स्पर्शथी द्वेष थाय ते स्पर्श इन्द्रिय भप्रशस्त छे. ५. कषाय पण प्रशस्त अने अप्रशस्त आ प्रमाणे छे.-अविनीत शिष्यादिक परिवारने शिक्षा आपवा माटे क्रोध थाय ते प्रशस्त छे अने कोइ साथे कलहादिक करतां क्रोध थाय ते अप्रशस्त छे १, सुदेवादिकने नमवू अने कुदेवादिकने न नमवू इत्यादिक सारी प्रतिज्ञानो निर्वाह करवा माटे मान राखq ते प्रशस्त छे अने नमन करवा योग्य देवादिकने न नमवू ए अप्रशस्त मान छे २, व्याधनी पासे मृगादिकनो अपलाप करवामां, व्याधिवाळाने कटु औषध पावामां तथा दीक्षामां विघ्न करनारा माता पितादिकने समजाववामां जे माया करवी पडे ते स्वपरने हितकारक होवाथी प्रशस्त छे, अने द्रव्यादिकनी इच्छाथी परवंचनादिक करवामां जे माया करवी ते अप्रशस्त छे ३, तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, वैयावच्च, शिष्य विगेरेनो संग्रह करवामां जे लोभ राखवो ते प्रशस्त छे अने धनादिकना संग्रहमा लोभ करवो ते अप्रशस्त छे. ४. . त्रण योग. पण प्रशस्त अप्रशस्त आ प्रमाणे छे.-धर्म शुक्लध्यानमा मनने प्रवर्तावबुं ते प्रशस्त अने आर्त रौद्र ध्यानमा प्रवर्तावq ते अप्रशस्त मनयोग छे १, देव गुर्वादिकना वर्णनमा प्रवर्तती वाणी प्रशस्त छे अने चौरादिकनों आक्षेप करवामां प्रवर्तती वाणी अप्रशस्त छे २, सामायिक, प्रतिक्रमणादिक धर्मकृत्यमा प्रवर्तती काया प्रशस्त छे अने विषय घ्तादिकमां प्रवर्तती काया अप्रशस्त छे. ३.. Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ हवे दर्शनना अतिचार आलोवे छेमू० – आगमणे निग्गमणे, ठाणे चंकमणे अणाभोगे । अभिओगे अ निओगे पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥ ५ ॥ शब्दार्थः आगमणे - मिध्यादृष्टिना रथयात्रादिक उत्सवो जोवाने माटे आववामां 'निग्गमणे- तेज माटे गृहादिक थकी नीकलवामां ठाणे - मिध्यादृष्टिना देवगृहादिक विषे उभा रहेवामां अने चकमणे- यांज आम तेम फर अभिओगे - राजाभियोगादिकने कारणे अ-तथा निओगे - नोकरी विगेरेना नियोगने कारणे देसिअं - दिवस संबंधी जे कांइ अतिचार लाग्यो होय वामां अणाभोगे - उपयोग रहितपणे अणजाणती भावार्थ:- अनाभोगने लीधे एटले अजाणपणाथी, X राजादिकना सव्वं - ते सर्वनुं हुं पडिक्कमे - प्रतिक्रमण करूं कुं x राजा १, गण एटले स्वजनादिक समूह २, बळ एटले ते सिवाय कोई बळवान ३, देव एटले दुष्ट देवता ४, गुरु एटले माता पितादिक ५, तेमना आग्रहथी एटले बलात्कारथी तथा वृत्तिकांतार एटले दुकाळमां के अरण्यादिकमां निर्वाह नहीं थवाथी. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभियोगथी एटले बलात्कारथी अथवा मंत्री श्रेष्ठी आदिक अधिकारनी परतंत्रताने लीधै मिथ्यादृष्टिना रथयात्रादिक उत्सवो जोवा माटे आवq थयु होय, घरमांथी बहार नीकळवू पडयु होय, मिथ्यादृष्टिना चैत्यादिका उभा रहे, पडद्यु होय अथवा त्यां चोतरफ फरवु पड्युं होय, तेम करवामां दर्शनसंबंधी मने जे कांइ दिवसे दोष लाग्यो होय ते सर्वने हुं प्रतिकमुं छु. ५. ___ हवे समकितना पांच अतिचारने आलोवे छेमू-संका १, कंख २, विगिच्छा ३, पसँस ४, तह संथवो ५कुलिंगीसु। सम्मत्तस्सइआरे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥ ६॥ शब्दार्थ:संका-शंका सम्मत्तस्स-समकितना कंख-कांक्षा अइआरे-अतिचारोने आश्रीने विगिच्छा-फळ संबंधी संदेह जे में पापकर्म बांध्यु पसंस-प्रशंसा होय ते... देसि-दिवस संबंधी कुलिंगिसु-कुलिंगीयानो सव्वं-सर्व पापने संथवो-परिचय पडिकमे-हु प्रतिक्र# छु भावार्थ-वीतरागना वचन पर देशथी अथवा सर्वथा शंका करवी ते शंका नामनो अतिचार १, अन्यः मतनी वांछा करवी ते कांक्षा वह-तथा Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिचार २, धर्मक्रिया करी पछी तेना फळने विषे संदेह करवो के मने आ धर्मनुं फळ मळशे के नहीं ? ते विचिकित्सातिचार. अथवा साधु साध्वीना मलिन शरीर अने वस्त्रादिक देखी तेनी निंदा करवी ते जुगुप्सातिचार ३, मिथ्यात्वीओनी तथा तेनी धर्मक्रिया विगैरेनी श्लाघा करवी ते प्रशंसातिचार ४, अने मिथ्यादर्शनीओनो परिचय करवो ते कुलिंगीसंस्तवातिचार ५. आ पांच अतिचारोने आश्री में जे अशुभकर्म बांध्यु होय तेनुं प्रतिक्रमण करुं छं. ६. हवे चारित्राचारमा प्रथम सामान्यथी आरंभना दोषने आलोवे छेमू०-छक्कायसमारंभे, पयणे अ पयावणे अ जे दोसा। अत्तट्ठा य परट्ठा, उभयहा चेव तं निंदे ॥ ७॥ शब्दार्थ:छकाय-पृथ्वीआदिक छ कायना | अत्तहा-पोताने माटे समारंभे-समारंभने विषे परट्ठा-बीजाने माटे पयणे-पोते रांधतां उभयट्ठा-स्वपर बन्नेने माटे पयावणे-बीजापासे रंधावतां अ-अने चेव-निरर्थक ज जे-जे तं-तेने दोसा-दोष मने लाग्या होय । निंदे-निदै छु भावार्थ:--पोताने माटे, परने माटे, स्वपर बन्नेने माटे अथवा निरर्थक द्वेषादिकने लीधे पोते पचन करता, वीजा पासे पचावतां अथवा Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचननी अनुमोदना आपतां पृथ्वीआदिक छकायना समारंभने विष मने जे दोष* लाग्या होय तेने हुं निंदु छु, ( अहीं समारंभ एकज लख्यो छे तो पण संरंभ अने समारंभ अने आरंभ ए त्रणे जाणवा. तेमां प्राणीना वधादिकमो जे संकल्प करवो ते संरंभ १, तेमने परिताप उपजाववो ते समारंभ २ अने तेमना प्राणोनो वियोग करवो ते आरंभ ३ कहेवाय छे.)७. हवे सामान्य रीते चारित्र (बारव्रत) ना अतिचारने प्रतिक्रमे छेमू०-पंचण्हमणुवयाणं गुणव्वयाणं च तिण्हमइआरे । सिक्खाणं च चउण्हं, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥८॥ - शब्दार्थ:पंचण्हं-पांच च-तथा अणुवयाणं-अणुव्रतोना तिण्ह-त्रण च-अने गुणव्वयाण-गुणवतोना, मुणव्वयाणं-गुणवतोना चउण्ह-चार ___* अहीं दोषनी निंदा करी छे, पण अतिचारनी निंदा करी नथी. कारण के श्रावकने छकायना आरंभनो त्याग होतो नथी. तेथी तेने अतिचार कहेवाय नही. तेथी करीनेज अहीं निंदा मात्र ज़ करी छे. पण तेनुं प्रतिक्रमण. कयु नथी. वळी 'दुविहे परिग्गहम्मि' ए त्रीजी गाथामां सावध अने घणा प्रकारना आरंभर्नु प्रतिक्रमण कयु छे तेथी त्यां अतिचार आलोव्या छे एम जाणवू. . Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जकाई सिक्खाणं-शिक्षातोना लाग्यो होय ते अइआरे-अतिचारोने आश्रीने सव्वं-सर्वने - जे काइ देसिअं-दिवस संबंधी दोष । पडिकमे-हुं प्रतिक्रमु छु __ भावार्थ:-समकितनी प्राप्ति थया पछी आ व्रतो प्राप्त थाय छे माटे ते अनुव्रत कहेवाय छे अथवा महाव्रतनी अपेक्षाए आ व्रतो नानां छे तेथी ते अणुव्रत पण कहेवाय छे, ते पांच छे, तथा आ पांच व्रतोने जे गुणकारक होय ते गुणव्रत कहेवाय छे, ते त्रण छे, तथा शिष्यने विद्याग्रहगनी जेम वारंवार जे सेवन करवा योग्य होय ते शिक्षाव्रत कहेवाय छे, ते चार छे. तेमां अणुव्रत अने गुणव्रत ए आठ प्राये यावत्कथिक एटले यावज्जीवनां छे अने चार शिक्षावतो इत्वरकाळनां एटले अमुक अमुक काळे ज आचरवानां छे. परंतु ते वारंवार अभ्यास करवा योग्य छे. आ बार व्रतोना अतिचारने आश्री दिवस संबंधी जे काइ अशुभ कर्म में बांध्यु होय ते सर्वने हुं प्रतिक्रमु छु. ८ । हवे पहेला अणुव्रतना अतिचार प्रतिक्रमे छे। मू०--पढमे अणुब्धयम्मि, थूलगपाणाइवायविरईओ। . ___ आयरिअमप्पसत्थे, इत्य, पमायप्पसंगेणं ॥९॥ शब्दार्थःपढमे-पहेला. .. . थूलगपाणाइवायविरईओ-स्थूल अणुव्वयम्मि-अणुव्रतने विषे प्राणातिपातनी विरतिने आश्री Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयरिअं - जे कांइ अतिचार कर्यो होय * इत्थ-अहीं २३६ ★ अप्पसत्ये - कोधादिकअप्रशस्त पमाय पसंगेणं - प्रमादना प्रसंगे करीने भावार्थ - अह ज पहेला अणुव्रतने विषे प्रमादने लीघे क्रोधादिक अप्रशस्त भावमां वर्तता थका में स्थूळ प्राणातिपात विरतिने आश्रीने जे कांइ अतिचार कर्यो होय एटले वध बंधादिकविरुद्ध आचरण कर्तुं होय. ९ शुं विरुद्ध आचरण कर्यु होय ? ते देखाडे छे. मू० – वह बंध छविच्छेए, अइमारे मत्तपाणवुच्छेए । पढमवयस्सइआरे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥ १० ॥ * मृषावादादिकने लीघे पण आ पहेला व्रतना अतिचार संभवे छे. जेमके स्नेहनी परीक्षा करवाना इरादाथी कोइ देवे राम मरी गया एम लक्ष्मणने कां के तरत ज लक्ष्मण पण मरी गया. कुमारपाल राजाए कौतुकथी नाणु लइ लेतां ज उंदरनुं मरण थयुं. तो आवा मृषावादना अतिचार छतां पण तेने पहेला व्रतमां ज आलोववाना छे. एम जणाववा माटे ' इत्थ' शब्द मूक्यो छे. x भूतादिक दोष अने मांदगी विगेरेने दूर करवा माटे वध, बंधादिकनुं आचरण थाय अथवा देशविरतिमांथी सर्वविरतिमां जवं ए पण - अतिचार थयो, पण ते सर्व प्रशस्त होवाथी तेनुं प्रतिक्रमण होतुं नथी एवं जणाववा माटे 'अप्पसत्थे ' शब्द लख्यो छे. Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थःवह-वध पढमवयस्स-पहेला अणुव्रतना बंध-बंध अइआरे-अतिचारोने आश्री जे छविच्छेए-अवयवनो छेद काइ अशुभ बंध थयो होय ते अइमारे-अत्यंत भार तथा | पडिक्कमे-हुं प्रतिक्रमु छ भत्तपाणवुच्छेए-खावा पीवानो | देसिअं-दिवससंबंधी विच्छेद, ए पांच सव्वं-सर्व दोषने भावार्थ:-वध एटले चतुष्पदादिकने निर्दयताथी ताडन करवू ते १, बंध एटले दोरडा आदिथी दृढ बांधवू ते २, छवि एटले शरीर अथवा चामडी तेनो छेद अर्थात् कान नाक, पुच्छ, गलकंबल विगेरे कापवा, वींधवा ते ३, अतिभार एटले शक्ति उपरांत भार भरवो ते ४, अने भक्तपानविच्छेद एटले समय प्रमाणे खावा पोवा न आपq ते ५, आ सर्व प्रबळ क्रोधादिकथी कर्या होय तो ते अतिचार थाय छे, अन्यथा अतिचार थता नथी. आ अतिचारोने आश्री में जे कांइ अशुभ कर्म वांध्यु होय तेनुं हुं प्रतिक्रमण करुं छु, एम पूर्ववत् जाणवू. मही कोइ शंका करे के-बधबंधादिक उपर लखेला पांचे करवाथी प्राणीनी हिंसा थती नथी अने श्रावके तो प्राणीनी हिंसानु प्रत्याख्यान कयु छे, तो ते वधबंधादिक अतिचार शी रीते कही शकाय ? तेनो जवाब ए के जे-प्राणालिपातनुं प्रत्याख्यान करनार श्रावके वास्त Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक रीते जोइए तो अपेक्षारहित (निरर्थक) एवा वध बंधादिकनुं पण प्रत्याख्यान करेलु ज छे, केमके ते वधबंधादिक प्राणातिपातनुं कारण छे. .: प्रश्न--जो एम छे तो वधान्दिक करवाथी व्रतनो भंग ज थयो कहेवो जोइए, तेने अतिचार शी रीते कहेवा ? केमके व्रतनुं पालन थयु नथी. उत्तर-दरेक व्रत बे प्रकारनां होय छे-आभ्यंतर १ अने बाह्य २. तेमां व्रतनी अपेक्षा राख्या विना क्रोधादिकथी वधबंधादिक करवा कोइ प्रवयो. ते वखते ते जीव मरण नथी पाम्यो, तेथी बाह्यवृत्तिए तेनुं व्रत रह्यु छे, परंतु दयारहित क्रोधथी प्रवो माटे आभ्यंतरवृत्तिए तेनुं व्रत भाग्यु छे. तेथी एक देशनो भंग अने एक देश- पालन ए ज अतिचार कहेवाय छे. अथवा तो अनाभोगादिके करीने अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार अने अनाचारे करीने सर्वत्र अतिचारपणुं जाणवू. एटले के आभ्यंतरवृत्तिए भंग न थाय अने बाह्य वृत्तिए भंग थाय तो ते पण अतिचार कहेवाय छे. ___ अहीं प्रसंगने लीधे साधुनी वीश वसा दया अने श्रावकनी सवा वसा दया केवी रीते थाय छे ! ते कहेवाय छे.--सूक्ष्म अने स्थूळ ए बे प्रकारना जीवो होय छे, तेमनी नीचे कहेला सर्व प्रकारे हिंसानी निवृत्ति साधुने होय छे तेथी तेने वीश वसा जीवदया होय छे. श्रावकने पोताना धंधामां सूक्ष्म जीवोनी हिंसा थाय छे तेथी ते मात्र स्थूळप्राणा Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९ तिपातनी ज विरति करे छे. तेथी श्रावकने दश वसा दया रही. स्थूळ जीवोमां पण चोरादिक अपराधी जीवोनी हिंसानो त्याग करी शकतो नथी, तेथी तेने निरपराधी त्रस जीवोनी हिंसानो निषेध होय छे, माटेपांच वसा दया रही. निरपराधी जीवोनी हिंसा पण संकल्पथी अने आरंभी एम वे प्रकारनी होय छे, तेमां आरंभथी हिंसा तो खेती आदिक धंधामां थइ जाय छे, माटे अमुक कार्यने माटे हुं आ जीवनी हिंसा करूं छं एवा संकल्पथी तेने हिंसानी विरति होय छे, तेथी अढी वसा दया रही. संकल्पथी हिंसा पण सापेक्ष अने निरपेक्ष एम बे प्रकारनी होय छे, तेमां पुत्र, भृत्य, बळद, अश्व विगेरेने शीखववानी खातर अपेक्षाथी कांइक हिंसा करवी पडे छे, माटे तेने निरपेक्षथी हिंसानी विरति होय छे, तेथी सवा वसा दया श्रावकने होइ शके छे.. अर्थात् निरपेक्षपणे संकल्पथी निरपराधी त्रस जीवोनी हुं हिंसा नहीं करूं एवं व्रत श्रावकने होय छे. हवे बीजा व्रतना अतिचार आलोवे छेमू० – बीए अणुव्वयम्मि, परिधूलगअलियवयणविरईओ । आयरिअमप्पसत्थे, इत्थ पमायप्प संगेणं ॥ ११ ॥ शब्दार्थः बीए-बीजा अणुव्वयम्मि - अणुव्रतमां परि-अतिशय | धूलग- मोटा अलिय-जुट्ठा वयण-वचन Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० भावार्थ - अहीं बीजुं अणुव्रत स्थूळ मृषावाद विरमण नामनुं छे. ते स्थूळ मृषावाद पांच प्रकारे छे. तेमां द्वेषादिकवडे अविषकन्याने विषकन्या कहेवी के विष कन्याने अविषकन्या कहेवी, सुशीलने दुःशील अने दुःशीलने सुशील कहेवी ते कन्यालीक कहेवाय छे. १. थोडा दूधवाळी गायविगेरेने घणा दूधवाळी कहेवी अने घणा दूधवाळीने थोडा दूधवाळी इत्यादिक कहेवुं ते गवालीक. २. पोतानी भूमिने परनी कहेवी, के परनी भूमिने पोतानी कहेवी तथा उखर भूमिने सारी कहेवी के सारीने उखर कहेवी इत्यादिक भूम्यलीक. ३. धनादिक कोहनी थापणने -असत्य बोली ओळववी ते न्यासापहार. ४. तथा कोइनी खोटी साक्षी पूरवी ते कूटसाक्षित्व कहेवाय छे. ५. आ पांच प्रकारना अलीकविरमण तने विषे प्रमादी अप्रशस्तभावमां वर्तना थका में जे कांइ विरुद्धआचरण कर्य होय. ११. मू० - सहसारहस्सदारे, मोसुवएसे अ कूडले हे अ । बीयवयस्सइआरे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥ १२ ॥ शब्दार्थ: - सहसा - नगर विचार्ये रहस्स- एकांतमां दारे - बीए कहेली मोस - जुठो उवएसे - उपदेश करवो कूडले अ - जुठा दस्तावेज लखवा Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मावार्थ-आ गाथावडे बीजा व्रतना पांच अतिचारोनु प्रतिकमण कयु छे. ते पांच अतिचारो आ प्रमाणे छे.-विचार कर्या विना साहसपणे कोइने चोर के पारदारिक विगेरेनो आरोप आपको ते सहसाभ्याख्यान कहेवाय छे. १. एकांतमां बेसोने केटलाक माणसो काइ विचार करता होय, तेमना आकार, इंगित ( चेष्टा ) विगेरे उपरथी अनुमान करीने आ लोको अमुक अमुक राजविरुद्धादिकनो विचार करे छे इत्यादिक आळ देवू ते रहोभ्याख्यान कहेवाय छ; अथवा तो कोई प्रीतिवाळा मित्रादिकने एकबीजाना दोष कही बन्ने वच्चेनी प्रीतिनो नाश करे के चाडी खाय ते पण रहोभ्याख्यान कहेवाय छे.२. पोतानी स्त्रीए विश्वासथी कांइ गुप्त वात करी होय ते बीजा पासे प्रगट करवी, अथवा उपलक्षणथी पुरुषनी वात स्त्रीए प्रगट करवी अथवा मित्रनी वात प्रगट करवी ते स्वदारमंत्रभेद नामनो त्रीजो अतिचार छे.- ३. कोइ बे जणना विवादमा एक जणने वंचननो उपाय शीखववो, अथवा पोते बराबर जाण्या विना ज मंत्र, औषध विगेरेनो उपदेश आपवो, अथवा मायावी शास्त्रो भणाववा ए विगेरे मृषोपदेश कहेवाय छे. ४. तथा -- अन्य माणसनी मुद्रा करीने के तेनी जेवा अक्षर लखीने खोटो लेख * अहीं रहोभ्याख्यान अने स्वदारमंत्रभेद ए बन्ने ठेकाणे सत्य वचन ज बोलवा- होय छे, तो तेमां अतिचार शी रीते लागे ? एवो प्रश्न सहज उठी शके छे. तेनो उत्तर ए छे जे-गुप्त विचार प्रगट करवाथी लजादिक उत्पन्न थवाने लीधे कदाच तेनुं मरण पण उत्पन्न थाय छे, तेथी वास्तविक रीते पने असत्य ज कही शकाय.. .. ..... Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ ___ लखवो ते कूटलेख नामनो पांचमो अतिचार कहेवाय छे.+५. १२. . हवे त्रीजुं व्रत कहे छेमू०-तइए अणुव्वयम्मि, थूलगपरदबहरणविरईओ। आयरिअमप्पसत्थे, इत्थ पमायप्पसंगणं ॥१३॥ शब्दार्थतइए-त्रीजा परदच-पारका धननी अणुव्वयंमि-अणुव्रतने विषे । हरण-हरणनी थूलग-मोटा विरइओ-विरतिथी भावार्थ-त्रीजें व्रत अदत्तादान नामनु छे. तेमां स्वामी अदत्त १, जीव अदत्त २, तीर्थकर अदत्त ३ अने गुरु अदत्त ४ एम चार प्रकारे अदत्त कहेवाय छे. तेमां जे सुवर्णादिक वस्तु तेना स्वा. मीए आपी न होय ते स्वामी अदत्त कहेवाय छे १, जे पोतानी मालीकीनी फळ विगेरे सचित्त वस्तु भांगवी के खावी ते जोव अदत्त कहेवाय छे + अहीं कोई शंका करे के-कूटलेख तो स्थूळ-मोटुं असत्य छे, माटे ते करवाथी तो भंग न थवो जोइए. अतिचार न होवो जोइए. आनो उत्तर ए छे जे-आ शंका सत्य छे, अमुक अपेक्षाए भंग करी शकाय छे. परंतु कोइ व्रती एम धारे के में तो असत्य वचन बोलवान प्रत्याख्यान कयु छ, अने आ तो बोलवान नथी, लखवानुं छे, आवी अपेक्षाथी ते मुग्ध बुद्धिवाळाने अतिचार लागे छे......... Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१४३ केमके ते फलादिकना जीवे पोताना प्राण तेने अर्पण कर्या नथी २, गृहस्थे आपेली आधाकर्मादिक दोषवाळी वस्तुने जो साधु ग्रहण करे तो ते तीर्थकरनी आज्ञा नहीं होवाथी तीर्थंकर अदत्त कहेवाय छे ३, तथा सर्व दोष रहित पण ग्रहण करेली वस्तु गुरुनी आज्ञा विना वापरे तो ते गुरु अदत्त कहेवाय छे. ४. तेमां अहीं स्वामी अदत्तनो अधिकार छे. ते अदत्त स्थूळ अने सूक्ष्म एम बे प्रकारचं छे. तेमां क्षेत्र, खळादिकमां रहेलं धान्यादिक तेना स्वामिनी रजा विना जरा पण लेवू ते स्थूळ अदत्त कहेवाय छे, एटले के जे कांइ वस्तु लेवाथी लोकमां चोरनो व्यपदेश थतो होय ते स्थूळ अदत्त कहेवाय छे, स्वामीनी अनुज्ञा विना पण तृण, कांकरा जेवी निःसार वस्तु लेवाथी तेने कोइ चोर कहेतुं नथी, एवी वस्तु सूक्ष्म अदत्त कहेवाय छे. आमां श्रावकने स्थूळ अदत्तनी विरति होय छे. सूक्ष्म अदत्तनो त्याग श्रावकथी बनी शकतो नथी. आवा अदत्तनुं आदान एटले ग्रहण ते अदत्तादान कहेवाय छे, तेनी विरतिने आश्री जे में विरुद्ध आचर्यु होय. १३ श्रीजा व्रतना पांच अतिचारमू०--तेनाहडप्पओगे, तप्पडिरूवे विरुद्धगमणे अ । कूडतुलकूडमाने, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥१४॥ ........... शब्दार्थ:तेन-चोरवडे | प्पओगे-उत्तेजन आपq आइड-चोरेली ......... | तप्पडिरूवे-खोटी वस्तुने खरी Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेवी करी बेचवी विरुद्ध - राज्य विरुद्ध गमणे अ-आचरण करवुं ન कूडतुल- खोटा तोल राखवा कूडमाणे - खोटा माप राखवा • भावार्थ-जा वतना पांच अतिचारोनुं आ गाथामां प्रतिकमग कयुं छे. ते पांच अतिचार आ प्रमाणे छे. - स्तेनाहृत एटले चोरे कोइ ठेकाणेथी चोरीने कांई केसर विगेरे महामूल्यवाळी वस्तु आणी होय, ते वस्तु थोडा मूल्यथी लइ लेवी ते १. स्तेनप्रयोग एटले "आज काल तमे केम कांइ काम करता नथी ? तमारी लावेली वस्तु कोइ खरीद करनार नहीं होय तो हुं खरीदी लइश. " इत्यादिक वचनोथी चोरने उत्साहित करवो, तथा तेने कोश विगेरे चोरीना उपकरणो आपवा ते २. तत्प्रतिरूप एटले घी विगेरेमां तेल के चरबी विगेरे मिश्र करी घी विगेरे जेवी ज वस्तु बनावी वेचवी, अथवा केसर विगेरे बनावटी वस्तु करी तेने वेचवी, अथवा चोरे आणेला बळद विगेरे पशुना र्शीगडा विगेरे अवयवोने होय तेथी विपरीत करी तेनो स्वामी ओळखी न शके तेवा करी वेचवा ते. ३. विरुद्ध गमन एटले पोताना राजानी आज्ञा विना तेना वैरीना देशमां व्यापारादिकने माटे जवुं, अथवा उपलक्षणथी राजाए निषेध करेला दांत, विष, लोह विगेर वस्तु ग्रहण करवी ते. ४. कूटतुलाकूटमान एटले लेतां देतां मोटा नाना शेर विगेरे तोला करवा अने पाली, पळी के गज विगेरे मानने पण मोटा नाना करी ग्राहकने ठगवुं ते. आ पांचे अतिचारो सेवती वखते श्रावक पोताना मनमां एवो विचार करे के— “आतो हुं वेपारनी कळावडे ज लाभ उपार्जन करूं कुं; Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. आ अतिचारो सेवतां मने जे दोष लाग्यो होय तेनुं हुं प्रतिक्रमण करुं छं. १४.. ___ चोथा व्रतना अतिचारमू-चउत्थे अणुव्वयम्मि, निच्चं परदारगमणविरईओ । आयरिअमप्पसत्थे, इत्थ पमायप्पसंगणं ॥१५॥ शब्दार्थःचउत्थे-चोथा परदार-पारकी स्त्री साथे अणुव्वयंमि-अणुव्रतने विषे गमण-गमन करवानी निच्च-हमेश | विरईओ-विरतिने विषे भावार्थ:-मैथुन बे प्रकारनुं छे-सूक्ष्म अने स्थूळ. तेमां कामना उदयथी इन्द्रियोनो कांइक विकार थाय ते सूक्ष्म अने मन, वचन, कायाए करीने औदारिक के वैक्रिय स्त्रीनी साथे जे मैथुन सेवq ते पण कोइने घरे खातर विगेरे पाडीने लावतो नथी. तेमज लोकमां पण हुं चोर कहेवातो नथी." आ प्रमाणे अपेक्षाए आवा दोषो सेवे छे तेथी ते अतिचार कहेवाय छे. अथवा तो ते पांचे दोषो सेवनार माणस राजानो गुन्हेगार थाय छे, अने तेने माथे स्पष्ट रीते चोरीनों जे गुन्हो मूकवामां आवे छे. तेथी तेने अनाचारमा ज गणवा; परंतु मात्र अनाभोगादिकथी तेनु सेवन कर षड्युं होय तो ज ते अतिचार गणाय छे; एम जाणवू. Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूळ कहेवाय छे. अथवा मैथुननी विरतिरूप ने ब्रह्मचर्य व्रत, ते वे प्रकारनुं छे-सर्वथी अने देशथी. तेमां सर्वथा प्रकारे मन, वचन, कायाए करीने सर्व स्त्रीओना संगनो जे त्याग ते सर्वथी ब्रह्मचर्य कहेवाय छे, तथा सर्वथा सर्व स्त्रीओनो त्याग न करवो ते देशथी ब्रह्मचर्य कहेवाय छे, ते आ प्रमाणे.-श्रावक गृहस्थी सर्व प्रकारे मैथुनमो त्याग करी शकतो नथी, तेथी ते देशथी व्रतो ग्रहण करे छे, ते व्रत 'परदारगमनविरति' कहेवाय छे. तेमां ' परनी' एटले पोताथी रहित एवा मनुष्य, देव अने तिर्यचनी जे ' दारा ' एटले परणेली अथवा संगृहीत-स्वीकार करेली स्त्रीओ, तेमना सेवननी विरति,x ए नामना चोथा अणुव्रतने विषे प्रमादना प्रसंगथी अप्रशस्त भावमा वर्तता में जे काइ अतिचार को होय एटले विरुद्ध आचरण कयु होय. १५. मू०-अपरिग्गहिआ इत्तर, अणंगवीवाहतिव्वअणुरागे । चउत्यवयस्सइआरे, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥ १६ ॥ x जो के केटलीक अपरिगृहीत देवीओ अने तिर्यचीओने कोई स्वीकार करनार के परणनार नहीं होवाथी तेओ वेश्या जेवी ज छे. तो पण प्राये परजातिने भोगववा लायक होवाथी तेओ परदारा ज कहेवाय छे. माटे ते वर्जवा लायक ज छे. वळी स्वदारसंतोष व्रतवाळाने तो पोतानी परणेली स्त्री सिवाय बीजी सर्व सीओ परदारा ज छे. तेथी वर्ण्य ज छे. नहीं दार शब्दना उपलक्षणथी बीए पोताना पति सिवाय सर्व पुरुषोने वर्जवाना छे एम जाणवू. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपरिग्गहिआ - कुंवारी इत्तर - बीजी अणंग - अनंग क्रीडा १४७ शब्दार्थः— तिव्व - तोत्र ( घणीज़ ) अणुरागे - अभिलाषा चउत्थ- चोथा वीवाह - लग्न संबंध वयस्स - व्रतना भावार्थ: आ चोथा व्रतना पांच अतिचारोने आश्री जे कांइ अशुभ कर्मनो बंध थयो होय तेने हुं प्रतिक्रमुं लुं. ते पांच अतिचार आ प्रमाणे छेः - विधवा के कन्या विगेरेने आ कोइनी स्त्री नथी एम घारी तेना प्रत्ये गमन करवुं ते अपरिगृहीतागमन नामनो पहेलो अतिचार छे. १. कोइ पुरुषे थोड़ा काळने माटे कोइ वेश्याने धन आपी पोतानी करी होय, तेने सर्व साधारण स्त्री जाणी तेना प्रत्ये गमन करवुं, ते इत्वरपरिगृहीतागमन नामनो बीजो अतिचार छे. २. परस्त्रीनी साधे चुंबन, आलिंगन, कुचमर्दन विगेरे मैथुन सिवाय बीजी कोइ पण कामचेष्टा करवी, अथवा पोतानी स्त्री साधे पण कामशास्त्रमां कहेला चोराशी आसन विगेरेनुं सेवन करी कामने अधिक जागृत करवो, अथवा अतृप्त - पणे पुरुष, नपुंसक विगेरेनुं सेवन के हस्तक्रियादिकनुं करवुं, अथवा काष्ठ, फळ, माटी, चर्म विगेरेनां करेलां कामनां उपगरणो साथे क्रीडा करवी, ते सर्व अनंगक्रीडा नामनो श्रीजो अतिचार छे. ३. पोताना पुत्र पुत्री सिवाय बीजाना पुत्र पुत्रीना विवाह करवा, * अथवा पोतानी स्त्री * आ चोथुं अणुव्रत स्वदार संतोष नामे लीधुं होय तो पोतानी स्त्री सिवाय बीजी सर्व स्त्रीओ वर्जवानी छे, अने परदारविरति नामे व्रत Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ सारी छतां असंतोषने लोधे पोते बीजी स्त्री परणवी, ते परविवाहकरण नामनो चौथो अतिचार छे. ४. तथा शब्दादिक कामभोगने विषे तीत्र अव्यवसाय करतो ते तीत्रानुराग नामनो पांचमो अतिचार छे. ५. अहीं परदार विरतिवाळाने आ पांचे अतिचारो छे, परंतु स्वदारसंतोषीने तो हेल्ला त्रण ज अतिचार छे, अने पहेला बे तो भंग ज छे. केमके अपरिगृहीता अने इत्वर परिगृहीता ए बन्ने जातनी स्त्रीओ स्स्त्री नथी. तथा स्त्री स्वपति संतोष व्रत लोधेलुं होय छे, तेथी तेने पण ए ज रीते छेल्ला त्रण अतिचारो छे अने पहेला बे भंग ज छे. अथवा व्रतवाळी स्त्रीने पांचे अतिचार थइ शके छे. तेमां अनाभोगादिकथी परपुरुष पासे गमन करतां अथवा ते वखते ब्रह्मचर्य व्रतवाळा पोताना पति पासे पण गमन करता पहेलो अतिचार लागे छे, तथा पोताना पतिने वाराना क्रमथी जो सपत्नीए ग्रहण कर्यो होय तो सपत्नीना वारानो लोप करी लोधुं होय तो पोतानी सिवाय बोजी स्त्रीओ वर्जवानी छे. तेथी करीने स्वदार सिवाय अन्यत्र हुं मैथुन करूँ नहीं, ते साथे करावं नहीं एवी रीते जो व्रत ग्रहण कर्यु होय तो अन्यना विवाह करवामां अर्थातथी मैथुन कराव्युं कहेवाय तेथी व्रतनो भंग थयो गणाय, परंतु हुं तो मात्र विवाह ज करूं लुं मैथुन करावतो नथी एवी अपेक्षाथी अन्यविवाह करे तो ते अपेक्षाए भंग नथी. तेथी भंग अने अभंगरूप अतिचार गणाय छे. पोताना पुत्र पुत्रीने विषे पण बीजो कोई चिंता करनार होय तो विवाहनो नियम करवो अथवा तेनी संख्यानो नियम करवो, ते श्रावकने उचित छे. Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९ पोते ते पति साथे. भोग भोगवे त्यारे बीजो अतिचार लागे छे, एज रीते स्वदार संतोषी व्रतवाळा पुरुषने अनाभोगादिकवडे अपरिगृहीता स्त्री प्रत्ये गमन करवाथी पहेलो अतिचार लागे छे, अने इवर परिगृहीता वेश्या प्रत्ये पोतानी स्त्री धारी गमन करतां बीजो पग अतिचार लागे छे. ए रोते सर्वने पांच पांच अतिचार पण संभवे छे. इत्यादि जाणवू. १६. पांचमा व्रतना अतिचार. मू०--इत्तो अणुव्धए पं-चमम्मि आयरिअमप्पसत्थम्मि । परिमाणपरिच्छेए, इत्थ पमायप्पसंगणं ॥ १७॥ _ शब्दार्थइत्तो-ए पछी अप्पसत्थंमि-माठा भाव वडे । अणुव्वए-अगुव्रतने विषे परिमाण-परिग्रहना नियमन पंचमंमि-पांचमामां आयरि-आचर्य होय । परिच्छेए-उल्लंघन करवाथी .. भावार्थ-परिग्रह बे प्रकारनो छे-बाह्य अने आभ्यंतर तेमां धन धान्यादिकनो संग्रह ए बाह्य परिग्रह छे अने रागद्वेषादिक आभ्यंतर परिग्रह छे. आ बन्नेनो सर्वथा त्याग साधुओने होय छे गृहस्थी श्रावक आभ्यंतर परिग्रहनो त्याग करी शकतो नथी. तेम ज बाह्य परिग्रहनो पण सर्वथा त्याग करी शकतो नथी. तेथी पोतानी इच्छानुसार अमुक प्रमाणमां धन धान्यादिक संग्रह करवानो जे नियम ग्रहण करवो ते आ व्रतनो हेतु छे. माटे तेमां प्रमादथी लोभादिकने वश थइ कांइ विरुद्ध Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० आचरण थयु होय एटले अतिचार लाग्या होय तेनुं अहीं प्रतिक्रमण करवानुं छे. १७. ___ ते अतिचारो आ प्रमाणे. मू-धणधन खित्तवत्यू, रूप्पमुवन्ने अ कुविअपरिमाणे । दुपए चउप्पयम्मि य, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥१८॥ शब्दार्थघण-धन सुवने-सोनुं धन-धान्य कुविअ-हलकी धातुओ खित्त-खेतर परिमाणे-नियमने विषे वत्थु-वास्तु दुप्पए-बे पगवाळा रूप-रुपुं चउप्पयंमि-चार पगवाळा भावार्थ- धन अने धान्यना परिग्रहनुं जेटलुं प्रमाण राख्यु होय तेनो अतिक्रम करवो एटले आगळ पर मोंधु थशे एम धारी कोईनी साथे साटुं करी राखg, अथवा पोतानी पासे रहेलानुं वेचाण थइ जाय त्यां सुधी कोइना कबजामा पोताथकी रखाबवू अश्वा नाना मूंढाने मोटा xधन चार प्रकारनुं छे-सोपारी, नाळीयेर विगेरे गणी शकाय ते गणिम १, केसर, गोळ विगेरे तोळाय ते धरिम २, घी, लवण विगेरे मापावडे अपाय ते मेय ३, अने रत्न, वस्त्र विगेरे गजवडे भरीने अथवा परीक्षाक्डे अपाय ते परिच्छेध ४. Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करवा ते धनधान्य प्रमाणातिक्रम नामनो पहेलो अतिचार छे. १. क्षेत्र एटले धान्य पाकवानुं खेतर तथा वास्तु एटले घर, हाट घिगरे, तेवी जेटली संख्यानो स्वीकार को होय, तेथी वधारे थाय तो संख्यानो नियम भंग न था देवा माटे वचमांथी वाड काढी नांखी बे क्षेत्रनुं एक क्षेत्र कर अने वचमांथी भीत विगेरे काढी नांखी बे घर एक घर करवू ते *क्षेत्रवास्तु प्रमाणातिक्रम नामनो बोजो अतिचार छे. २. रूप्य एटले रूपुं अने सुवर्ण एटले सोनु, तेनुं प्रमाणथी अधिकपणुं थाय त्यारे स्त्री के पुत्रने आपी देवं, ते रूप्यसुवर्ण प्रमागातिक्रम नामनो त्रीजो अतिचार छे. ३. कुप्य एटले सोना रूपा सिवायनी बीजी कांस्य, लोह, तांबु, पीतळ, सीसुं विगेरे धातु, तेना प्रमाणथी अधिकनो संभव थाय त्यारे नानां वासणीनां मोटां वासणो करी संख्या- प्रमाण वधवा न देवू, ते कुप्य प्रमाणातिकम नामनो चोथो अतिचार छे. ४. तथा द्विपद एटले पत्नी, चाकर, दासी विगेरे, तथा हंस, मयूर, कुकडा, पोपट बिगेरे अने चतुष्पद एटले गाय, भेंश विगेरे, तेनी संख्याना प्रमाणमां गर्भने बहार देखातो न होवाथी गणतरीमां न लेवो ते द्विपदचतुष्पदप्रमाणा - * सेतु, केतु अने उभय एम त्रण प्रकारचें क्षेत्र छे. तेमां कूवा विगेरेना जळथी अनाज पाके ते सेतु १, वरसादना जळथी पाके ते केतु २, अने बन्ने प्रकारे पाके ते उभय ३, कहेवाय छे. तथा खात १, उच्छित २, अने खातोच्छित ३ ए त्रण प्रकारे गृह कहेवाय छे. तेमां भोंपरा विगेरे खात १, उपरा उपरी माळ करवा ते उच्छ्रित २; अने जेमा बन्ने होय ते खातोच्छित ३. Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ तिक्रम नामनो पांचमो अतिचार छे. ५. अथवा धन धान्यनी जेम क्षेत्र वास्तु विगेरे सर्व पदार्थो नियमनो काळ समाप्त थया पछी लेवानी शते अन्यनी पासे रहेवा देवाथी पण अतिचार लागे छे. १८. छट्ठा व्रतना अतिचारनी निंदा. मू० -गमणस्स उ परिमाणे, दिसासु उड्ढं अहे अ तिरिअं च । बुड्ढी सइअंतरद्धा, पढमम्मि गुणव्वए निंदे ॥ १९ ॥ शब्दार्थ गमणस्स -- जवाना परिमाणे - नियमने विषे दिसासु- दिशाओमां उड्ढ -उंचे अहे अ-नीचे तिरिअं - तिरछी दिशामां बुढि - वधारो करवाथी सइअंतरद्धा-यादी जती रहेवाथी पढमंमि - पहेला गुणव्वए-गुणत्रतने विषे भावार्थ-साधुओ केवळ निर्जराने माटे विचरता होवाथी हरकोइ जग्याए संयमना लाभने निमित्ते लब्धि आदिकनो उपयोग करीने पण जइ शके छे तेवी ज रोते तीर्थयात्रादिक धर्मने निमित्ते श्रावक पण दिग्विरति व्रत लोधुं होय तो पण प्रमाणनुं उल्लंघन करी शके छे. तेमां तेने कांइ पण दोष लागतो नथी. परंतु लोभादिकथी व्यापारादिक आ लोक संबंधी कार्यने माटे गमन करतां आरंभादिकमां प्रवर्ततां जीवहिंसा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . १५३ दिक अनेक दोषो लागे छे, तेथी छूटा राखेला क्षेत्र सिवाय बाकीना चौद राजलोकमां रहेला सर्व जीवोनी रक्षारूप गुणने माटे आ दिग्विरतिरूप व्रत लेवामां आवे छे तेथी ते गुणवत कहेवाय छे. तेमां सर्व दिशाओमां गमन करवानो अमुक योजन सुधीनो नियम करवो तेनुं नाम दिगविरति कहेवाय छे. तेना पांच अतिचारो आ प्रमाणे छेऊर्ध्व दिशाए बे आदि अमुक योजन सुधी जवानो नियम को होय, तेनाथी वधारे उंचे वृक्ष के पर्वतना शिखर पर कोइ वानर के पक्षी वस्त्र, अलंकार विगेरे लइने चडी जाय, तो त्यां ते वस्तु लेवा माटे जाते जवू नहीं, अने 'न कारयामि ' एवो नियम पण लीधो होय तो ते लेवा माटे बीजाने मोकलयो पण नहीं. परंतु जो ते वस्तु त्यांथी नीचे पड़ी गइ होय अथवा बीजो प्रेरणा कर्या विना लावी आपे तो ते लेवामां दोष नथी. परंतु अनाभोगादिकने लीधे पोते प्रमाणथी अधिक गमन करे अथवा बीजाने मोकले तो उर्ध्वदिक् प्रमाणातिक्रम नामनो पहलो अतिचार लागे छे. एज रीते भोंयरु, रसकूप विगेरे अधोदिशामां उल्लंघन करवाथी अधोदिक् प्रमाणातिक्रम नामनो बीजो २ अने चारे दिशा तथा चारे विदिशामा उल्लंघन करवाथी तिर्यक दिक् प्रमाणातिक्रम नामनो त्रीजो अतिचार पण कहे वो. ३. सर्व दिशाओमां सो सो आदिक योजन सुधी जवानो नियम को होय, तेमा एकदा पूर्वादिक कोइ एक दिशामां कांइ कार्यने लीधे प्रमाण करला योजनथी पांच, दश योजन वधारे जवानो वखत आव्यो, ते वखते बीजी सामेनी पश्चिमादिक दिशामां तेटला न्यून योजननो नियम राखी इच्छित दिशामां तेटला Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योजन वधारी तेटल गमन करे तो क्षेत्रवृद्धि नामनो चौथो *अतिचार लागे छे. १. पूर्वादिक दिशामा सो आदिक योजन सुधी जवानो नियम राख्यो होय, तेने एकदा कार्यनी व्याकुळताने लीधे के प्रमादने लीधे के बुद्धि गुम थवाने लौधे के एवा कोइ कारणने लीधे जतां विचार थयो के 'मारे पचास योजननो नियम छे ? के सो योजननो नियम छे ?' आ रीते संदेह थाय तो पचास योजनथी वधारे गमन कर नहीं, करे तो अतिचार लागे अने सो योजनथी अधिक गमन करे तो व्रतनो भंग ज थाय. आ xस्मृत्यतर्धा नामनो पांचमो अतिचार छे. ५. आ अतिचारोनुं अहीं प्रतिक्रमण छे: १९. सातमा व्रतना अतिचार मू-मजम्मि अ मंसम्मि अ, पुप्फे अ फले अ गंधमल्ले । उवमोगपरीभोगे, बीअम्मि गुणव्वए निंदे ॥२०॥ शब्दार्थ:मज्जंमि अ-मदिरा पुप्फे अ-फूल मंसंमि अ-मांस . फले अ-फळ * इच्छित दिशामां प्रमाण करेला योजनथी वधारे गमन थयु माटे भंग थयो अने सामसामी बन्ने दिशाना योजनने आश्री संख्यामां वधारो न थवाथी भंग थयो नहीं तेथी आ अतिचार कहेवाय छे. x आ अतिचार सर्व व्रतोमां संभवे छे. परंतु अहीं पांचनी संख्याने पूर्ण करवा माटे अहीं लख्यो छे. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंध-सुगंधी पदार्थ | परिभोगे-परिभोगने विषे मल्ले अ-फूलनी माळा बीमि-बीजा उवभोगे-उपभोगने विषे । गुणव्वए-गुणवतने विषे भावार्थ-आ बीजं गुणवत एटले सातमुं व्रत भोगोपभोग नामर्नु छे, तेने उपभोगपरिभोग नामे पण कहेवामां आवे छे. आ व्रत भोगथी अने कर्मथी एम बे प्रकारे छे. तेमां पण भोगना बे भेद छेउपभोग अने परिभोग. तेमां आहारादिक के जे वारंवार भोगवाय छे, अथवा पुष्पादिक के जे एकज वार भोगवाय छे ते *उपभोग कहेवाय छे. १. तथा वारंवार अथवा बहारथी जे घर, स्त्री विगेरे भोगवाय छे, ते + परिभोग कहेवाय छे. २. प्रथम तो श्रावके उत्सर्ग मार्गे प्रासुक अने एषणीय आहार ज ग्रहण करवो योग्य छे, तेम न बनी शके तो. सचित्त वस्तुनो त्याग करवो, ते पण न बनी शके तो अति सावध पापवाळा मध, मांस, अनंतकाय विगैरेनो अवश्य त्याग करी प्रत्येक,. मिश्र अने सचित्तादिकनुं प्रमाण-परिमाण कर. तेम ज उत्सवादिक विशेष कारण विना कीमती वस्त्रो, नू पुरादिक शब्द करता. अलंकारो, छोगावाळी पाघडी फेंटो विगेरे चित्तनी गृद्धि अने उन्माद उत्पन्न करनार तथा लोकमां पण अपवादादिक उत्पन्न करनार उद्भट वेषनो श्रावके त्याग करवो जोइए. * अहीं 'उप'नो अर्थ अंदर अथवा एकवार थाय छे. + अहीं 'परि 'नो अर्थ वारंवार अथवा बहार एवो थाय छे. Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ कर्मश्री पण श्रावके मुख्यत्वे करीने निरवद्य कर्ममां ज प्रवृत्ति करवी योग्य छे. तेम न बनी शके तो अत्यंत सावध अने विवेकी जनो निंदा करे तेवां मद्य वेच विगेरे कार्यो अवश्य वर्जवां, अने बीजां कर्मोनुं पण परिमाण करवुं. आ रीते वे प्रकारनुं भोगोपभोग अथवा उपभोगपरिभोग नामनुं बीजुं गुणत्रत छे. तेमां अनाभोगादिकथी जे कांइ दोष - लाग्यो होय, तेथी आ गाथामां निंदा करवानी छे. २०. आ सातमा व्रतमां वीश अतिचार छे. तेमां भोगथी पांच अतिचार छे अने कर्मथी पंदर अतिचार छे. तेमां प्रथम भोगने आश्री पांच अतिचारो बतावी तेनुं प्रतिक्रमण करे छे.. मू० – सच्चिते पडिबद्धे, अपोलि टुप्पोलिअं (ए)च आहारे । तुच्छोसहिभक्खणया, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥ २१ ॥ शब्दार्थः सच्चित्त-सचित्त - पडिबद्धे - सचितने वळ गेली अपोलि- तद्दन काची दुप्पोलिअं - अडधी काची - पाकी आहारे - वापरवाथी तुच्छोसहि- तुच्छ वनस्पति भकूखणया-खावाथी भावार्थ- सचित्तना त्यागवाळो श्रावक जो अनाभोगादिकवडे सचित्त वस्तुने मुखमां नाखे अथवा जेणे सचित्त वस्तुनुं परिमाण कर्यु होय ते जो अनाभोगादिकवडे परिमाणथी अधिक सचित्त वस्तुने मुखमां नाखे तो तेने सचित्ताहार नामनो पहेलो अतिचार लागे छे. १. सचित्तथी - Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ मिश्रित थयेली वस्तु जेवो के वृक्ष परथी गुंदर लइने तरत ज मुखमा नांखवो अथवा अंदर सचित्त बीजवाळा रायग विगेरे पाका फळने “ आ पाको छे, तेनी छाल अने गर्भ अचित्त होवाथी हुँ खाइश अने बीज-ढळीयो सचित्त होवाथी तजी दइश" एम विचारी ठळीया सहित मुखमां नांखे तो तेरे सचित्तप्रतिबद्धाहार नामनो बीजो अतिचार लागे छे. २. परिणाम नहीं पामेला आटाने अग्निथी संस्कार कर्या दिना ज ' आ तो Xअचित्त छे' एम धारीने खाय अथवा सचित्त एवा तलथी मिश्रित एवो आहार अने यव धानादिक सचित्तमिश्र एवो आहार करे, तो तेने अपकौषध्याहार नामनो त्रीजो अतिचार लागे छे. ३. अर्धा पाकेला वाल, चोळा, चणा, चोखा, जाडी रोटली, रोटला विगेरे जो खावामां आवे, तो तेने दुष्पकौषध्याहार नामनो चोथो अतिचार लागे छे. आवा आहारथी आ भवमां पण अजीर्णादिक दोष थाय छे, अने जेटला अंशे ते वस्तु सचित्त रही होय तेटले अंशे परलोक संबंधी पण दोष लागे छे. ४. लीली अने कुणी मगफळी, चोळाफळी विगेरे खावाथी तथाप्रकारनी तृप्ति थइ शकती नथी, तेथी तेवो तुच्छ औषधि खावाथी तुच्छौषधिभक्षणता नामनो पांचमो अतिचार लागे छे. ५. xआटो चाळ्या पछी बे घडीए अचित्त थाय छे, चाळ्या विनानो मिश्र छे. केमके तेमां धान्यना नखीया विगेरे होय छे ते अचित्त थता नथी. * अहीं कोई प्रश्न करे के-आ तुच्छौषधि जो सचित्त होय तो ते पहेला अतिचारमा आवी जाय छे, अने अचित्त होय तो ते खावाथी Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ पांचे अतिचारो सचित्त परिहारवाळाने आश्री कह्या छे. ले ज रीते रात्रिभोजनपरिहार, मद्यमांसादिपरिहार अने वस्त्रादिक उपभोगना परिमाणना नियमने आश्रीने पण अनाभोग अने अतिक्रमादिकवडे आ अतिचारो लागे छे, ते पोतानी मेळे जाणी लेवा. २१. ___ आ व्रतमां कर्मथी भोगोपभोगने उत्पन्न करनारां घणां पापवाळां अंगार कर्म विगेरे पंदर कर्मादानो तोत्र कर्मबंधननां कारण छे ते श्रावके वर्जवानां छे, तेमां अनाभोगादिकवडे काइ आचरण थयुं होय तेना प्रतिक्रमणने माटे बे गाथा कहे छे. मू-इंगालीवणसाडी-माडीफोडी सुवज्जए कम्मं । वाणिज्जं चेव य दंत-लक्खरसकेसविसविसयं ॥२२॥ 'मू-एवं खु जतपिल्लण-कम्मं निल्लंछणं च दवदाणं । सरदहतलायसोस, असईपोसं च वज्जिज्जा ॥२३॥ अतिचार ज नथी. आनो उत्तर ए छे जे-आ प्रश्न सत्य छे, परंतु जे श्रावक अत्यंत भीरुपणाए करीने सचित्तनुं प्रत्याख्यान करे छे, तेणे आ ओषधि अचित्त होय तो पण लोलुपतानुं कारण होवाथी खावा योग्य नथी. कारण के ते घणी खावाथी पण तथाप्रकारनी तृप्ति थती नथी, अने विराधना मोटी थाय छे. तेथी करीने ज बावीश अभक्ष्यमां पण आनो समावेश कयों छे. Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५९ शब्दार्थ: इंगाली-अंगार कर्म वण-वनकर्म साडी-शकट कर्म माडी-भाटक कर्म फोडी-स्फोटक कर्म -सुवज्जए-सारी रीते छोडी देवा कम्म-कर्म । वाणिज्ज-वेपार चेव-वळी निश्चे दंत-दांतनो वेपार लक्ख-लाखनो वेपार रस-घी-तेल विगेरेनो वेपार केस-वाळनो वेपार विस-झेरी पदार्थानो वेपार विसयं-शस्त्रादिकनो वेपार शब्दार्थ: एवं-ए प्रमाणे खु-निश्चये जंतपिल्लण-यंत्र पिलगा कम्म-कर्म निलंछणं-निलाछन कर्म दवदाणं-दवदान कर्म सर-सरोवर दह-द्रह, धरो (अरगुं) तलाय-तलाव सोसं-सूकावी नाखवां असई-असती स्त्री- (दुराचारी) पोसं-पोषण कर, वज्जिज्जा-छोडी देवा भावार्थ-आ बे गाथामां पंदर कर्मादान बतान्या छे, ते वर्जवाना छे. ते आ प्रमाणे-अंगार कर्म-लाकडा बाळोने नवा भंगारा-- Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० कोलसा पाडवा ते, अथवा इंटो विगेरे पकाववानी भट्टीचं काम करवू तथा लुहार- अने सोनी विगेरेनुं काम करवू ते. १. वनकर्म-कापेला के नहीं कापेला वनवृक्ष, पत्र, पुष्प, कंद मूळ, घास विगेरे लेवा तथा वेचवा ते. २. शकटकर्म-गाडां, गाडी, तेनां पैडां विगेरे अवयवो घडवा, वेचवा, हांकवा विगेरे. ३. भाटककर्म-गाडां, गाडी, वृषभ, उंट, खच्चर विगेरे वडे भार वहन करी भाडं लेबु, तथा भार वहेवा माटे बीजाने भाडे आपया ते. ४. स्फोटककर्म-जव, चगा, घउं विगरे भरडवा, दळवा, दाळ करवी ते, तथा खाण सरोवर, कूवा विगेरे खोदवा, खोदाववा विगेरे, तथा पृथ्वी खोदवी, हळ खेडवू, पथ्थर घडवा विगेरे. अहीं धान्य दळवा विगेरनुं कर्म वनकर्म कहेवाय छे एम योगशास्त्रमा कयुं छे. ५. दंतवाणिज्य-हाथीदांत, हंस मयूरादिकना पीछां, घुबड विगेरेना नख, कस्तूरि, शंख, छीप, कोडी विगेरे त्रस जीवना अंगोपांग ग्रहण करवा तथा तेनो व्यापार करवो ते. ६. लाक्षावाणिज्य-लाख, धातकी, मणशीळ, हडताळ, टंकणखार, साबुखार विगेरेनो वेपार करवो ते. ७. रसवाणिज्य-मध, मदिरा, माखण, मांस, दूध, घी, तेल, विगेरेनो वेपार. ८. केशवाणिज्य-दास, दासी, गाय भेंस विगेरेनो वेपार. ९. विषवाणिज्य-विष, शस्त्र, कोश, कोदाळो विगेरे तथा लोढार्नु हळ विगेरे वस्तुनो वेपार. १०. यंत्र पीडन-शिला, खारणीयो, घंटी, रेंट, विगेरेनो *वेपार अथवा उपयोग करवो, तथा तल, शेरडी, सरसव, एरंडी विगैरे-पीलवा, तथा कोश, रेट विगेरे जळयंत्रो *घंटी विगेरेनो वेपार विषवाणिज्यमां गणाय छे एम योगशास्त्रमा कां छे. | Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हांकवा ए विगैरे. ११. निलो छन कर्म गाय विगेरे पशुओना गलकंबल, शोगडा, पुच्छ विगेरे छेदवा तथा नाक वींधवू, आंक काढवो, खांसी करवी, उंटनी पीठ गाळवी; ए विगेरे. १२. दवदान-बनादिक झांडी बाळवाथी भिल्लादिक सुखे करीने चाली फरी शके, अथवा जूनुं घास बाळवाथी नवं घास सारं उगे अने तेथी गायोने चारो सारो थाय, अथवा क्षेत्र बाळवाथी तेमां धान्य सारं पाके, इत्यादिकं *पुण्यनी बुद्धिथी अथवा कौतुकथी वनादिक बाळवां ते. शोषकर्मधान्यादिक नीपजाववा माटे नीक करीने जळाशयोमांथी पाणी लइ ते जळाशयो सुकवी देवा ते. १४. तथा असतीपोषण-धनादिकने माटे कुशीळवाळी दासी के नपुंसक विगेरेनु खान पानथी पोषण कर अथवा पोपट, मेना, मयूर, कूकडा, कूतरा, वानर विगेरेनो वेपार करवा माटे तेमने पाळवा पोषवा ते. १५. आ पंदर कर्मादान अत्यंत पापर्नु कारण होवाथी तजवा योग्य छे. २२-२३. आठमा व्रत विषेमू-सत्यग्गिमुसलजंतग-तणकटे मंतमूलभेसज्जे । दिने दवाविए वा, पडिक्कमे देसि सव्वं ॥ २४ ॥ *मरण समये भिल्लादिक पोताना स्वजनोने पोतानी पाछळ पुण्यने माटे केटलाक दावानळ सळगाववायूँ कहे छे. एवी ते लोकोमां रूढि छे. Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ:सत्थ-शस्त्र मंत-मंत्र अग्गि-अग्नि मूल-जडी-बुट्टी मुसल-सांबेलु मेसज्जे-औषध जंतग-यंत्र दिन्ने-आपवाथी तण-घास दवाविए-अपाववाथी कट्टे-काष्ट वा-अथवा भावार्थ:-त्रीजु गुणव्रत अनर्थदंड नामर्नु छे. तेमां अनर्थ एटले क्षेत्र, घर, धन धान्य, शरीर अने स्वजन परिजन विगेरेना प्रयोजन विना पोताना आत्माने जे दंड लागे एटले विना प्रयोजने पोतानो आत्मा पापकर्मथी लेपाय ते अनर्थदंड कहेवाय छे. ते चार प्रकारे थइ शके छे.-अपध्यान १, पापोपदेश २, हिंस्रप्रदान ३, अने प्रमादाचरित ४. तेमा आर्त अने रौद्रध्यान अपध्यान कहेवाय छे. १. खेतर खेड, बळदने दम, अश्वने खांसी कर, शत्रुने हण, रेंट यंत्रने चलाव, शस्त्रने सज्ज कर विगेरे पापोपदेश कहेवाय छे, तेमज वर्षाऋतु नजीक आवी छे माटे हळ विगेरे तैयार कर, वावणीनो वखत वीती जाय छे, शीघ्र वावणी करो, क्यारा पाणीथी भरो, तमारी कन्या मोटी थइ छ माटे शीघ्र विवाह करो, वहाण चालवाना दिवसो नजीक आव्या छे माटे वहाण तैयार करो, इत्यादि सर्व पापोपदेश कहेवाय छे. २. हवे हिंस्रप्रदान अने प्रमादाचरित ए बे भेदने माटे मूळमां ज बे गाथा आपी छे, तेमां पहेली गाथामां हिंस्रप्रदान Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ * क ुनुं छे. ते आ प्रमाणे. शस्त्र, अग्नि, मुशळ, गाडा - घंटी विगेरे यंत्र, दोरडुं करवा माटे घास, भारवट विगेरे माटे काष्ठ, वशीकरणादिक मंत्र, ज्वरादिकनी शांति माटे मूळीयां अथवा गर्भपातादिक मूलकर्म अने उच्चाटन विगेरे करनारुं औषध, आ सर्व वस्तु अनेक प्राणीओना धन हेतु होवाथी दाक्षिण्यतादिक बिना बीजाने आपवा के अपाववामां ने दोष लाग्यो होय, तेने हुं प्रतिक्रमुं हुं २४. हवे प्रमादाचरण माटे बीजी गाथा कहे छे मू० - हाणुवट्टणवन्नग - विलेवणे सद्दरूवरसगंधे । वत्थासण आभरणे, पडिक्कमे देसिअं सव्वं ॥ २५ ॥ शब्दार्थः हाण - न्हावुं उवट्टण - पीठी चोळवी वृन्नग-रंग करबो विलेवणे - विलेपन करवुं सब्द - शब्द रूव-रूप रस-रस- स्वाद गंधे-गंध वत्थ - च आसण - आसन आभरणे - घरेणां भावार्थ - अयतनाए स्नान करवामां एटले सजीववाळी भूमिपर अथवा संपातिम एटले उडी उडीने आवी पडता जीवोवाळी भूमिपर अथवा जळने सारी रीते वस्त्रथी गळ्या विना जे अभ्यंग पूर्वक स्नान करायुं होय, Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ तथा उद्वर्तन एटले त्रसजीवसहित चूर्णादिक चोळी मेल उतार्यों होय अथवा उतारेला मेल अने चोळेला चूर्णादिकने राखमां *परठल्या न होय, तथा वर्णक एटले कस्तूरी विगेरेवडे कपोल आदिक अवयवो यतनाविना शोभावतां संपातिम प्राणीओनी विराधना थइ होय, तथा विलेपन एटले ए ज रीते यतना विना चंदन, केसर विगेरेनुं विलेपन करतां संपातिम प्राणीओनी विराधना थइ होय, तथा शब्द-कौतुकथी वेणु वीणादिकनो शब्द सांभळ्यो होय अथवा रात्रिने समये मोटो शब्द करवाथी दुष्ट जीवो जागृत थइ आरंभादिकमां प्रवृत्ति करे, तेथी जीवोनी विराधना थाय छे, तथा स्त्री विगेरेनां रूप नाटकादिकमां जोइ बीजा पासे वर्णन करवा, मिष्टान्नादिक संबंधी रसनुं बीजा पासे वर्णन करवू, तथा गंध, वस्त्र, आसन, अने आभूषणर्नु अन्य पासे वर्णन करवू. आ रूपादिकना वर्णन करवाथी सांभळनारनी बुद्धि वधे छे. आटलं कहेवाथी सर्व प्रकारना प्रमादनो त्याग करवो एम कडं तथा आलस्यादिकथी तेल, जळ विगेरेनां पात्रो खुल्ला राखवां, सारो मार्ग छतां हरित काय उपर चालवू अथवा वस्त्रादिक मूक, कंथवादिकवाळी भूमिमां जळादिक परठवq, यतना विना कमाड ढांकवा के उघाडवा, प्रयोजन विना पत्र पुष्पादिक तोडवां, विगेरे घणी घणी बाबतोनो आ प्रमादाचरणमा समावेश थाय छे. ते सर्वनुं अहीं प्रतिक्रमण करवा छे. २५. *परठव्या न होय तो तेमां जीवनी उत्पत्ति थाय छे अने तेने कूतरा विगेरे भक्षण करे अथवा पगवडे मर्दन करे तेथी विराधना थाय छे.. । • . Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे आत्रीजा गुणत्रतना पांच अतिचारो आलोवे छेमू-कंदप्पे कुक्कुइए, मोहरि अहिगरण भोगअइरित्ते ॥ दंडम्मि अणट्ठाए, तइअम्मि गुणवए निंदे ॥ २६ ॥ शब्दार्थ:कंदप्पे-काम भोगनी कथा करवी | अइरित्त-वधारे राखी कुक्कुइए-चाळा करवा दंडम्मि अणट्टाए-अनर्थ दंड मोहरि-नका, बबडवू विरमण नामना अहिगरण-शस्त्र तैयार करवां तइअंमि-त्रीजा मोग-भोगवयानी वस्तुओ गुणवए-गुणवतने विषे भावार्थ-अनर्थदंड नामना त्रीजा गुणवतने विषे पांच अतिचार आ प्रमाणे छे. कामादिक विकारने उत्पन्न करनारा हास्यादिक वचन बोलवा के तेवी कथा करवी ते कंदर्प नामनो पहेलो अतिचार छे. १. भृकुटि, नेत्र, हाथ, पग विगेरेवडे विट पुरुषनी जेवी हास्य जनक के कामोद्दीपक चेष्टा करवी ते कौकुच्य नामनो बीजो अतिचार छे. आ बे प्रमादाचरित रूप अनर्थदंडना अतिचार छे. २. असभ्य अने संबंध रहित घणुं बोलq ते मौखर्य नामनो त्रीजो अतिचार छे. वाचाळपणाथी कदाच पापोपदेश पण संभवे छे तेथी ते अतिचार कहेवाय छे. ३. शस्त्रादिक सज्ज करीने राखवा, अथवा खांडणीयो अने सांबेलु, हळ अने फळं, धनुष अने बाण, गाडु भने धुंसरी विगेरे अधिकरणनी चीजो साथे साथे राखवी, ते अधिकरणता नामनो चोथो अतिचार छे. चीजो तैयार राखवाथी अन्य जन तेनो तरत उपयोग करे छे अने तैयार न होय तो कोई Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૬ उपयोग करी शके नहीं. एज रोते बोजा गृहोमां अग्नि सळगावेलो होय त्यार पछी पोते सळगाववो तथा गायने चरखा मोकलवी, गाडां विगेरे जोडवां-हांकवां, दुकाने के परगाम जवुं ए विगेर क्रियाओ पण श्रावके प्रथम करवी नहीं, प्रथम करवाथी अधिकरण प्रवर्तन विगेरेनो दोष लागे छे. ४. भोगोपभोगनी वस्तु जेटली पोताने जरूरीयात होय तेथी वधारे राखवी ते भोगातिरिक्तता नामनो पांचमो अतिचार छे. स्नान, भोजन, पखं विगेरे कार्यमा वधारे चीजो राखवाथी ते दोषनो हेतुरूप थाय छे. जेमके तेल, आंवळां विगेरे स्नाननी वस्तु अधिक लइने जळाशये स्नान करता जोइने अन्य जन पण तेनी याचना करी उपयोग करे. तेम करवाथी अनर्थदंड लागे छे. ५. आ पांच अतिचार संबंधी कांइ दोष लाग्यो होय तेने हुं निंदु कुं. २६. हवे नवमा व्रतना अतिचारो निंदे छे. मू० -- तिविहे दुप्पणिहाणे, अणवट्टाणे तहा सहविहूणे । सामाइय वितहकए, पढमे सिक्खावए निंदे ॥ २७ ॥ शब्दार्थ: तिविहे - त्रण प्रकारना दुप्पणिहाणे - दुष्प्रणिधान अणवट्ठाणे- अविनयपणे तहा - तथा सहविहूणे - यादि न रहेवाथी सामाइय-सामाइक वितहकए - खोटी रीते करतां पढमे - पहेला P सिक्खावए - शिक्षा व्रतने व Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૭ भावार्थ-सावध व्यापारनो तथा दुनिनो त्याग करी रागद्वेषनुं निमित्त होय तो पण समभाव राखी मन, वचन, कायानी एकाग्रता राखवी ए सामायिक नामर्नु पहेलं शिक्षाव्रत एटले नवमुं व्रत छे. तेना पांच अतिचार आ प्रमाणे छे.-मनमां घर, दुकान विगेरेना कार्य संबंधी सावध व्यापारनुं चितवन करवू ते मनोदुष्प्रणिधान नामनो पहेलो अतिचार छे. १. कर्कश आदि सावध वचन बोलq ते वाम् दुष्प्रणिधान नामनो बीजो अतिचार छे. २. प्रमार्जन अने पडिलेहण नहीं करेली भूमिपर बेस, अथवा पादादिक अवयवो लांबा, टुंका विगेरे करवा ते कायदुष्प्रणिधान नामनो त्रीजो अतिचार छे. ३. बे घडीनो समय पूर्ण थया पहेलां सामायिक पारवं, अथवा जेम तेम (वेठनी जेम) सामायिक करवू, अथवा अवकाश छतां सामायिक न करवू ते अनवस्थान नामनो चोथो अतिचार छे. ४. तथा निद्रादिकनी प्रबळताने लीधे अथवा गृहादिकना व्यापारनी चिंताने लीधे शून्य मन थवाथी "में सामायिक कर्यु के नहीं ! आ सामायिकनो समय छे के नहीं ? " इत्यादि स्मरणमां न आवे तो ते स्मृतिविहीन नामनो पांचमो अतिचार छे. ५. आ पांचे अतिचारो जीवोने प्रमादनी बहोळताने लीधे अनाभोगादिकथी थाय छे. आ पांचमांथी कोइ पण अतिचार लाग्यो होय तेनी अहीं निंदा करेली छे. __ अहों कोइ शंका करे के-द्विविध त्रिविध सामायिकर्नु प्रत्याख्यान करवामां आवे छे एटले ग्रहण करवामां आवे छे. तेमां मन रोकी शकातुं नथी, तेथी मनवडे दुष्प्रणिधाननो एटले मनना अशुभव्यापारनो संभव होवाथी सामायिक व्रतनो अभाव ज थाय छे. अने व्रतभंग Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ थवाथी तेनुं प्रायश्चित्त प्राप्त थाय छे. माटे सामायिक करवा करतां न करवुं एज श्रेष्ठ छे. आ शंकानो उत्तर आ प्रमाणे छे. - सामायिकमां छ नियम होय छे. - मनवडे सावध व्यापार न करुं १, न करावं २, वाणीवडे न करूं ३, न करावुं ४, कायावडे न करूं ५, न करावुं ६, आ छमांथी अनाभोगादिकने लीधे कोइ एकनो भंग थाय तो पण बाकीना बीजानो भंग थतो नथी तेथी सर्वथा प्रकारे सामायिकनो अभाव थतो नथी. वळी मननो अशुभ व्यापार थयो होय तो तेनी मिथ्यादुष्कृत देवाथी ज शुद्धि कहेली छे, तेथी 'सामायिक न कखुं सारुं छे' एम कहेवुं ते मोटुं अज्ञान छे. अन्यथा सर्वविरति पण ग्रहण न करवी एवं प्राप्त थशे. २७. दशमा व्रतना अतिचारोने निंदे छे. मू० -- आणवणे पेसवणे, सदे रूवे अ पुग्गलक्खेवे । देसावगासिअम्म, बीए सिक्खावए निंदे ॥ २८ ॥ शब्दार्थः आणवणे - मंगाववामां पेसवणे - मोकलवामां सद्दे - शब्द करवो रूवे - रूप देखाडवुं अ -अने पुग्गल - पदार्थ नाखी जणाववुं देसावगा सिअम - देशावगा - सिकने विषे बीए - बीजा सिक्खावए - शिक्षा व्रतने विषे भावार्थ - छहुं दिग्विरति व्रत जावजीव पर्यंत सो आदिक योजन Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण ग्रहण कयु होय, ते व्रतनो अमुक दिवसे के अमुक वखते संक्षेप करी घर, शय्या के अमुक स्थानथी आगळ जवानो निषेध करवो अथवा सर्व व्रतोनो मुहूर्त आदि अमुक मुदत सुधी संक्षेप करवो ते xदेशावकाशिक व्रत कहेवाय छे. दिग्विरति व्रत जावजीवन होय छे, अथवा वरस के चातुर्मासर्नु होय छे, परंतु आ देशावकाशिक व्रत तो दिवस, प्रहर के मुहूर्त आदिकना परिमाणवाळु होय छे.* आटलो आ व्रतमां तथा छठा व्रतमां तफावत छे. एज रीते सर्व व्रतनो संक्षेप पण अमुक काळ सुधी करवामां आवे छे. आ व्रतना पांच अतिचारो आ प्रमाणे छे.-नियम करेली हदनी बहारथी कांई वस्तु जोइती होय ते व्रतभंगना भयने लीधे पोते न जतां कोइ पासे मंगाववी ते आनयन नामनो पहेलो अतिचार छे. १. ए ज रीते नियमित हदनी बहार कोइ द्वारा कांइ वस्तु मोकलवी ते प्रेषण नामनो बीजो अतिचार छे. २. नियमित हदनी बहार रहेला *देशमां एटले आरंभना एक भागमा अवकाश-रहे, ते देशावकाश कहेवाय छे, ते देशावकाशथी बनेलं जे व्रत ते देशावकाशिक कहे वाय छे. जेम कोइ मांत्रिक आखा शरीरमां व्यापेला विषने मंत्रशक्तिथी डंखमां लावे छे, तेम धर्मिष्ठ पुरुष बहु सावध व्यापारनो संक्षेप करे छे, तेना संक्षेपथी कर्मनो संक्षेप थाय छे, अने तेना संक्षेपथी अनुक्रमे मोक्ष प्राप्त थाय छे. हालनी प्रवृत्ति प्रमाणे उपवास के एकाशनादिक करी आठ . सामायिक अने बे प्रतिक्रमण करवानो रीवाज छे. Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० कोइ माणसने पोताना कार्य माटे साक्षात् बोलावी न शकाय तेथी खांसी आदिक मोटो शब्द करी तेने पोतानुं स्वरूप-कार्य जणाववुं ते शब्दानुपात नामनो त्रीजो अतिचार छे. ३. ए ज रीते पोतानुं रूप देखाडवुं अथवा नीसरणी विगेर उपर चडी बीजानां रूप जोवां ते रूपानुपात नामनो चोथो अतिचार छे. ४. नियमित हदनी बहार कांकरो, काष्ठ, ढेकुं विगेरे फेंकी पोतानुं कार्य जणाववुं ते पुद्गलक्षेप नामनो पांचमो अतिचार छे. ५. आ देशाकाशिक व्रत गमनादिक व्यापारथी उत्पन्न थता प्राणीवधादिक न थवा देवा माटे ग्रहण करवामां आवे छे, ते तो पोते करवाथी के बीजा पासे कराववाथी तुल्य ज छे. उलटं पोते गमनादिक करवाथी ईर्यापथनी शुद्धि विगेरे गुणोनो संभव छे. बीजा भृत्यादिक पासे कराववाथी ईयसमिति विगेरेना असंभवने लीधे अधिक दोष संभवे छे. माटे आवा आनयनादिक अतिचारो करवा योग्य नथी परंतु ' हुं पोते गमनादिक करीश तो व्रतभंग थशे' एम व्रतनी अपेक्षाए अथवा अनाभोगादिकवडे प्रवृत्ति करवाथी अतिचार लागे छे. अहीं कोने शंका थाय के— सर्व व्रतोनो संक्षेप करवो ते पण देशावकाशिक कहेवाय छे, एम कयुं. परंतु अतिचारो तो दिग्विरतिव्रतना संक्षेपने लागु पडे तेवा ज कह्या छे. बीजा व्रतना संक्षेपने लागु पडे तेवा कह्या नथी, तो ते पण कहेवा जोइए. तेनो जवाब ए छे जे - प्राणातिपातविरमण आदिक सर्व व्रतना संक्षेप करवामां जे वधबंधादिक अतिचारो कह्या छे तेज लेवाना छे, अने दिगनतना संक्षेप करवामां तो क्षेत्रनो संक्षेप होवाथी आनयनप्रयोगादिक जूदा पण संभवी शके छे, तेथी ते जूदा लख्या छे. २८. Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ अग्यारमा व्रतना अतिचार मू० - संथारुच्चारविही - पमाय तह चेव भोअणाभोए । पोसहविहिविवरीए, तइए सिक्खावए निंदे || २९ ॥ संथार - संथारा संबंधी उच्चारविही-लघुनीति तथा वडीनीति संबंधी पमाय - प्रमाद (आळस ) तह - तेम चेव-चळी भोयण - भोजन संबंधी आभोए - चिंता करवी पोसह विहि- पौषध विधि विवरी - विपरीत करवाथी तइए - त्रीजा सिक्खावए - शिक्षात्रतने विषे भावार्थः – श्रावकनुं अग्यारमुं व्रत पोषधोपवास नामनुं त्रीजुं शिक्षात्रत छे. तेमां पोषं - धर्मनी पुष्टिने धत्ते-जे धारण करे ते पोषध कहे-वाय छे एटले अष्टमी अने चतुर्दशी आदि पर्वति थिए अवश्य करवा लायक व्रत विशेष, तेणे करीने उपवसनं - रहेवुं, ते पोषधोपवास कहेवाय छे. अथवा पौषध एटले अष्टमी आदिक पर्व तिथि, तेने विषे जे उपवास करवो ते पण पौषधोपवास कहेवाय छे. आ प्रमाणे शब्दार्थ छे, तो पण प्रवृत्ति एवीछे के आ व्रतमां आहार, शरीरसत्कार, मैथुन अने सावद्यव्यापार ए चार वर्जवाना छे. तेमां पण चालती आचार्य परंपराए करीने अने विशेष सामाचारीए करीने हालमां आहार पौषध सर्वथी अने देशथी थइ शके छे एटले के उपवास के एकास आदिक करी शकाय * भोइ णाभोए - ( भवत्यनाभोगः ) इति पाठान्तरम्. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१७२ छे, परंतु शरीरसत्कार, मैथुन अने व्यापारनो तो सर्वथा त्याग करवामां आवे छे. तेना पांच अतिचारो आ प्रमाणे छे. संथारो अने वसति आदिक चक्षुथी नहीं जोये छते अथवा बराबर सारी रीते नहीं जोये सते अप्रतिलेखितदुष्प्रतिलेखितशय्यासंस्तारक नामनो पहेलो अतिचार थाय छे. १. ए ज रीते संथारो, वसति आदिकने रजोहरणादिके करीने प्रमार्जन नहीं करे छते अथवा बराबर प्रमार्जन नही करे सते अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जितशय्यासंस्तारक नामनो बीजो अतिचार थाय छे. २. एज रोते उच्चार प्रस्रवण-वडीनीति लधुनीति 'परठवधानी भूमिने चक्षुथी नहीं जोये छते अथवा बराबर नहीं जोये छते अप्रतिलेखितदुष्प्रतिलेखितउच्चारप्रश्रवणभूमिक नामनो त्रीजो अतिचार थाय छे. ३. ए ज रोते ते भूमिने रजोहरणादिकबडे प्रमार्जन नहीं करे सते अथवा बराबर प्रमार्जन नहीं करे छते अप्रमार्जितदुष्प्रमार्जितउच्चारप्रस्रवणभूमिक नामनो चोथो अतिचार थाय छे. ४. तथा भोजनने विषे अने उपलक्षणथी शरीरसत्कार विगेरे विषे चिंता थाय के क्यारे पौषध पूर्ण थाय अने क्यारे स्वेच्छाथी भोजनादिक करुं इत्यादिक विचार करवाथी पौषधोपवासनुं सम्यक्अननुपालन नामनो पांचमो अतिचार थाय छे. ५. अहीं 'भोअणाभोए' ने बदले ‘भोइऽगाभोए' एवं पाठांतर पण छे, ते लइए तो उपरना पहेला चार अतिचारो ' अनाभोग एटले अनुपयोगपणुं सते थाय छे' एवो अर्थ करवो अने तेने बदले पौषधविधिनुं विपरीतपणुं एटले पौषध व्रत लीधा पछी क्षुधा, ताप विगेरेना दुःखथी ' हुं पौषध पूर्ण थये स्वेच्छाथी आहारादिक करीश.' इत्यादिक विचारी सम्यक् प्रकारे पौषध विधिनु पालन करे नहीं ए पांचमो अतिचार Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ जाणवो. एने अतिचार न लइए तो आवो अर्थ करवो.-आ रीते पौषध विधिनुं विपरीतपणुं सते त्रीजा शिक्षावतने विषे जे दोष लाग्यो होय तेने हुं निंदु छु. २९. बारमा व्रतना अतिचारमू-सचित्ते निक्खिवणे, पिहिणे ववएस मच्छरे चेव । कालाइक्कमदाणे, चउत्थ(थे) सिक्खावए निंदे ॥३०॥ शब्दार्थ:सच्चित्ते-सचित्त वस्तु । चेव-निश्चये निक्खिवणे-मूकवाथी कालाइक्कमदाणे-वखत ओळंपिहिणे-ढांकवाथी गीने तेडवा जबाथी ववएस-फारफेर बोलवाथी । चउत्थे-चोथा मच्छरे-गर्व सिक्खावए-शिक्षा व्रतने विषे भावार्थ-श्रावकने बारमुं व्रत एटले चो) शिक्षाव्रत अतिथिसंविभाग नामर्नु छे. तेमां तिथि, पर्व विगेरे सर्व लौकिक व्यवहारनो त्याग करी भोजन समये भिक्षाने माटे जे आवे ते अतिथि कहेवाय छे, ते श्रावकने साधु ज अतिथिरूपे होय छे. ते अतिथिने सं-संगत एटले आधाकर्मादिक बेंतालीश दोष रहित, वि-विशेष प्रकारनो एटले पश्चात्कदिक दोषने दूर करवा माटे सावशेष अन्नदानरूप भाग-भाग आपवो, ते अतिथिसंविभाग कहेवाय छे. अर्थात् न्यायोपार्जित, प्रासुक, एषणीय Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अने कल्पनीय, अन्न, पान, अने वस्त्रादिकनुं देश, काळ, श्रद्धा, सत्कार अने क्रम पूर्वक उत्कृष्ट भक्तिवडे पोताना आत्माना अनुग्रहनी बुद्धिथी साधुने दान आपq. तेनो नियम लेवो ते अतिथिसंविभाग व्रत कहेवाय छे. आ व्रत पौषधने पारणे अवश्य लेवानुं छे एटले के ते दिवसे साधुने दान आप्या पछी ज पोते भोजन करवानुं छे. जो कदाच साधुनो योग न होय तो भोजन समये द्वार सामु जोइ शुद्ध भावथी विचार के“जो साधु महाराज होत तो मने आज घगो लाभ थात. मारो निस्तार थात.” इत्यादि विचारी भोजन करवू. पौषधना पारणा सिवायमा दिवसोमां साधुने दान आपोने जमवू अथवा जमीने पछी दान आपq ? तेनो काइ नियम नथी. आ व्रतना पांच अतिचार आ प्रमाणे छे.साधुने आपवा लायक अन्न पानादिक वस्तुने नहीं आपवानी बुद्धिथी अथवा अनाभोग के सहसाकारादिकथो माटी विगेरे सचित्त पदार्थ उपर मूकवी ते सचित्तनिक्षेपणता नामनो पहेलो अतिचार छे. १. ए ज प्रमाणे सचित्त पदार्थवडे देय वस्तुने ढांकवी ते सचित्त पिधानता नामनो बोजो अतिचार छे. २. ए ज रीते अदान बुद्ध्यादिकथी पोतानी वस्तुने पारकी कहेवी अथवा देवानी बुद्धिथी पारकी वस्तुने पोतानी कहेवी ते, अथवा साधुए मागेली वस्तु पोताने घेर होय छतां “ आ वस्तु अमुक माणसनी छे, तेनी पासे जइने मागो.” एम कहे, ते, अथवा अवज्ञाथी बीजा पासे दान अपावे ते अथवा मरेला के जीवता पोताना पितादिकने आ दान- पुण्य थाओ एम परना उपदेशथी आपे ते सर्व परव्यपदेश नामनो त्रीजो अतिचार छे. ३. साधु कांइक वस्तु मागे त्यारे पोते कोप करे, अथवा छती वस्तु माग्या छतां आपे नहीं, ते . Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मत्सर कहेवाय छे. अथवा कोइ निर्धने आपेलुं दान जोइ 'शुं तेनाथी 'पण हुं हीन छु ?' एम मत्सर भावथी दान आपq ते मत्सरता नामनो चोथो अतिचार छे. ४. भिक्षानो समय वीत्या पछी 'हवे आ मुनि दान लेशे नहीं, तेने खप हशे नहीं.' एम विचारी साधुने निमंत्रण करवं, ते कालातिकम कहेवाय छे, तेने विषे जे दान आपq ते कालातिक्रमदान नामनो पांचमो अतिचार छे. ५. आमांथी कोइ पण दोष लाग्यो होय तेने हुं निंदु छु, ३०. आ बारमा व्रतमां संभवता बीजा अतिचारोनी पण निंदा करे छे.मू०-मुहिएम अ दुहिएसु अ, जा मे अस्संजएसु अणुकंपा। रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि ॥३१॥ शब्दार्थ: मुहिएम-सुखीया उपर । रागेण- रागे करी 'दुहिएसु-दुःखीया उपर व-अथवा अस्संजएसु-गुरुनी आज्ञा प्रमाणे दोसेण-द्वेषे करी विचरनारने विषे तं निंदे-तेने हुं निंदं छु अणुकंपा-दया गरिहामि- गहुँ छु भावार्थ-जेने ज्ञान, दर्शन अने चारित्र ए त्रण सारी रीते हितकार छे एटले जेओ ज्ञानादिकमां रक्त छे अथवा जे वस्त्र पात्रादिक उपाधिवाळा छे ते सुहित-सुखी कहेवाय छे, तेवा साधुओने विषे, तथा जेओ रोग के तपवडे ग्लानि पामेला होय के वस्त्र पात्रादिक उपधिने Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ अभावे दुःखी होय तेवा साधुने विषे, तथा जेओ पोतानी स्वेच्छाए विचरता न होय एटले गुरुनी निश्राए विचरता होय एवा साधुने विषे अथवा पासादिक के अन्य मतना कुलिंगी एवा असंयत साधुने विषे में राग के द्वेषवडे जे अनुकंपा करी होय एटले के चारित्रना गुणनी बुद्धि विना ज मात्र स्वजन अने मित्रादिकना प्रेमवडे के साधुनी निंदारूप द्वेषवडे एटले " आ साधु धन धान्यादिक रहित छे, ज्ञातिजनोए त्याग करेला छे, क्षुधाधी पीडित छे, तेमने कांई पण निर्वाहनुं साधन नथी. तेथी तेमने कांइक आप योग्य छे." इत्यादिक निंदा पूर्वक जे अन्न, पाणी, वस्त्र, पात्र विगेरे आपवारूप अनुकंपा करी होय तेनी निंदा अने गर्हा अहीं करवानी छे. ३१. हवे साधुने आश्री जे करबा लायक कर्यु न होय तेनुं प्रतिक्रमण करे छे. - साहूसु संविभागो, न कओ तवचरणकरणजुत्तेसु । संते फासुअदाणे, तं निंदे तं च गरिहामि ॥ ३२ ॥ शब्दार्थः मू साहूसु - साधुओने संविभागो - बहोराव ते न ओ-नक ते तव - तप चरण - चरण सित्तरी करण-करण सित्तरी जुत्सु-सहित एवा संते-होवा छतां फासु - निर्दोष ( पवित्र ) अदाणे - दान न आप्युं होय Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ भावार्थ-निर्दोष अन्न पाणी विगेरे छतां पण तथा बार प्रकारनो 'तप, सीतेर प्रकारचें चरण अने सीतेर प्रकारचें करण ए सर्ववडे युक्त एवा साधुनो योग छतां पण में प्रमादादिकना वशथी तेमने दान आप्यु न होय, तेनी निंदा अने गर्दा अाँ करी छे. ३२. . आ रीते बारे व्रतना अतिचारो कह्या. हवे संलेखनाना अतिचारो कहे छे.मू-इहलोए परलोए, जीविअ मरणे अ आसंसपओगे। . पंचविहो अइआरो, मा मज्झं हुज मरणंते ॥ ३३ ॥ शब्दार्थ:इहलोए-आ लोकने विषे । पंचविहो-पांच प्रकारनो परलोए-परलोकने विषे अइआरो-अतिचार जीविअ-जीववानी मा-न मरणे-मरवानी मज्झं-मने अ-कामभोगनी आसंस-इच्छा हुज्ज-होजो पओगे-प्रयोग मरणंते-मरणांत सुधी मावार्थ-प्रतिक्रमण करनारनी अपेक्षाए आ लोक एटले मनुष्य लोक, तेने विषे अभिलाषनो प्रयोग एटले " हुं अहींथी मरीने राजा के. Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेठ विगैरे थाउं" इत्यादि सुखनी पांछा करवी ते इहलोकाशंसाप्रयोग नामनो पहेलो अतिचार छे. १. एज 'प्रमाणे परलोकमां " हु देव के इंद थाउं" इत्यादि सुखनी वांछा करवी ते परलोकाशंसाप्रयोग नामनो बीजो अतिचार छे. २. अनशन कर्या पछी भक्त जनोए करेला महोत्सवो जोबाथी, मनोहर गीत नृत्यादिक जोबाथी, चीमा, चेपुना मनोहर धनि सांभळवाथी, अत्यंत वन माल्यादिकनो सत्कार, सन्मान अने वंदनादिक जोवाथी, गीतार्थ मुनिओ पण पासे बेसी सिद्धांतवाचनादिक करे ए विगैरे जोवाथी तथा धार्मिक जनाए करेला पोताना गुणोनी प्रशंसा श्रवण करवाथी वधारे वखंत जीववार्नु इच्छQ ते जीविताशंसाप्रयोग नामनो त्रीजो अतिचार छे. ३. कठिन स्थळे अनशन करवाथी, उपर प्रमाणे बहुमान सत्कारादिक न थवाथी अथवा क्षुधादिकनी पीडाथी जे जलदी मरवानी इच्छा करवी ते मरणाशंसाप्रयोग नामनो चोथो अतिचार छे. ४. सथा काम एटले शब्द अने रूप, तथा भोग एटले गंध, रस अने स्पर्श, ए पांचे विषयोनो अभिलाष करवो एटले के "हुँ अहींथी मरीने आ तपना प्रभावथी रूप-सौभाग्यादिकवाळो थाउं" इत्यादिक इच्छ, ते कामभोगाशंसाप्रयोग नामनो पांचमो अतिचार छे. ५. आ पांच प्रकारना अतिचार मारे मरणांते एटले छेल्ला श्वासोश्वास सुधी न थाओ. एवी भी प्रार्थना करवानी छे. आ उपलक्षणथी सर्व प्रकारना धर्मानुष्ठानमा आलोक अने परलोक संबंधी सर्व प्रकारनी आशंसा वर्जवानी छे. केमके आशंसा करवाथी उत्कृष्टने बदले हीम फलने पामे छ. ३३. . Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७९ सर्वे अतिचारो मन, बचन अने कायावडे थाय छे, तेथी तेमने ले बडे ज प्रतिक्रमण करवानुं कहे छे. मू० – कारण काइअस्स, पडिक्मे वाइअस्स वायाए । माणसा माणसअस्स, सव्वस्स वयाइआरस्स ॥ ३४ ॥ शब्दार्थ: कारण- काययोगथी काइअस्स - काया वडे कराये - लाने वाइअस्स - वचनवडे बोलायेलाने वायाए - वचन योगथी भावार्थ: मणसा - मन योगथी माणसिअस्स - मनवडे लागेला सव्वस्स - सर्व वय - व्रतना अइआरस्स- अतिचार वैधादिक अशुभ काययोगथी थयेला अतिचारने गुरु आपेला तप अने कायोत्सर्गादिरूप शुभ काययोगवडे प्रतिकर्मु कुं. सहसा अभ्याख्यान विगेरे देवारूप अशुभ वचनयोगथी थयेला अतिचारने मिध्यादुष्कृतादि आपवारूप शुभ वचनयोगवडे x प्रतिक्रमुं छं, तथा शंकादिकथी थयेला मानसिक अतिचारने 'में आ खोढुं चिंतन्युं ' एम विचारी आत्मनिंदा करवारूप शुभ मनवडे + प्रतिक्रमुं कुं. ए रीते सर्व व्रतोना अतिचारनुं प्रतिक्रमण कर. ३४. * छमास सुधी कायोत्सर्गे रहेला दृढप्रहारीनी जैम. x आनंद श्रावकने श्री गौतम स्वामीए मिध्यादुष्कृत आप्युं हतुं तेम. + मनवडे ज युद्ध करी सातमी नरकने योग्य कर्म बधिता अने Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्यपणे णे योगनुं प्रतिक्रमण कह्यु. हवे विशेषथी ते ज कहे छे.. मू-वंदणवयसिक्खागा-रवेसु सभाकसायदंडेसु । गुत्तीसु अ समिईसु अ, जो अइयारोअतं निंदे ॥३५॥ शब्दार्थ:बंदण-बे प्रकारना वंदन दंडेसु-त्रण दंडने विषे वय-बार प्रकारना व्रत गुत्तीसु-त्रण गुप्तिने विधे सिक्खा-बे प्रकारनी शिक्षा समिईसु अ-पांच समितिने गारवेसु-त्रण गारव सन्ना-चार संज्ञा जो अइयारो-जे अतिचार कसाय-चार कषाय तं निंदे-तेने निहुँ छं विषे भावार्थ-आ गाथामां वंदनादिक करतां जे अतिचार लाग्या होय तेनुं निंदापूर्वक प्रतिक्रमण कयुं छे. तेमां वंदन एटले चैत्यवंदन अने गुरुवंदन व्रत एटले अणुव्रतादिक श्रावकनां बार व्रत, शिक्षा एटले ग्रहणा अने आसेवना ए बे प्रकारनी शिक्षा तेमां ग्रहणाशिक्षा एटले श्रावक जघन्यथी अष्टप्रवचन माता अने उत्कृष्टथी दशवैकालिकना 'छज्जीवणीय' अध्ययन सुधी अर्थ सहित भणे ते, तथा आसेवना शिक्षा भने पछी तरत आत्मनिंदादिक करी केवळ ज्ञान उपार्जन करनार प्रसन्नचंद्र राजर्षिनी जेम. Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एटले नमस्कारवडे जाणवू विगेरे दिनकृत्यमां का छे ते प्रमाणे करवू ते. गौरव एटले ऋद्धिगौरव, रसगौरव अने सातागौरव, अथवा जात्यादिक आठ मैद. संज्ञा एटले चार, देश के पंदैर प्रकारनी कही छे ते. कषाय एटले क्रोध, मान, माया अने लोभ, ए चार प्रकारे कया छे ते. दंड १ जाति, कुळ, रूप, बळ, श्रुत, तप, लाभ, अने ऐश्चर्यनो मद करवो ते. २ आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा. - ३ आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, लोक अने ओघसंज्ञा. ४ आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, ओघ, सुख, दुःख, मोह, विचिकित्सा, शोक अने धर्म. आमां लोकसंज्ञा मेळवीए तो सोळपण थाय छे. ५ आ क्रोधादिक दरेक चार चार प्रकारना छे.-अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण अने संचलन. तेथी तेना सोळ भेद थाय छे. ए दरेकना चार चार प्रतिभेदो होवाथी कुल चोसठ प्रकार थाय छे. जेम अनंतानुबंधी क्रोध अनंतानुबंधी क्रोध सदृश अतितोत्र होय छे. अनंतानुबंधी क्रोध अप्रत्याख्यानावरण क्रोध सदृश कांइक मंद होय छे, अनंतानुबंधी क्रोध प्रत्याख्यानावरण क्रोध सदृश कांइक वधारे मंद होय छे अने अनंतानुबंधी क्रोध संचलन क्रोध सदृश अत्यंत मंद होय छे. एज प्रमाणे अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरग क्रोध अने संज्वलन क्रोधना चार चार प्रकार करवा. एज रीते मान, माया अने लोभना पण सोळ सोळ प्रकार करवा. Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ● श्रेण प्रकारे का छे ते ममगुप्ति, वचनगुप्ति अने कायगुप्ति ए त्रण गुप्ति तथा इर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदान निक्षेप समिति, अने पारिष्ठापनिका समिति ए पांच प्रकारनी समिति, आ सर्वना अतिचारनी अहीं निंदा करवानी छे. ३५. समकितनुं महात्म्य मू० - सम्मदिट्ठी जीवो, जइ वि हु पावं समायरे किंचि । अप्पो सि होइ बंधो, जेणं न निद्धंघसं कुणइ ||३६|| शब्दार्थ: सम्मदिट्ठी-सम्यग्दृष्टि जीवो जीव जइवि -जो के हु-पण पात्रं - पाप समायरे - करे किंचि-थोड़े अप्पो-थोडो सि-तेने होइ - होय बंधो-बंध ननहिं जेणं-कारण के निद्धंघसं- निर्दयपणे कुणइ - करे गृहस्थ श्रावक पोतानो निर्वाह भावार्थ:- जो के सम्यग्दृष्टि १ मनदंड, वचनदंड अने कायदंड अथवा मायाशल्य, निदानशल्य अने मिथ्यादर्शनशल्य ए. पण दंड कहेवाय छे. प्राणी जे कडे धर्मरूपी धननो नाश - अपहार करी दंडाय ते दंड कहेवाय छे. Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीजी रीते नहीं चालवाथी खेती किोरे काइक पापकारी आरंभ करे छेतेने तेवो आरंभ करवो पडे छे, तो पण तेने प्रथमना त्रण गुणस्थानकनी अपेक्षाए ज्ञानावरणीयादिक कर्मोनो अल्प बंध थाय छे. कारण के ते श्रावक तेवो आरंभ पण अति निष्ठुरपणे करतो नथी. ३६. . मू-तंपि हु सपडिकमणं, सप्परिआवं सउत्तरगुणं च । खिप्पं उवसामेई, वाहि व्ब मुसिक्खिओ विजो॥३७॥ शब्दार्थवंपि-तेने पण खिप्पं-जल्दी हु-निश्चये उवसायेई-शांत करे सप्पडिक्कमणं-प्रतिक्रमण वड़े । वाहि-व्याधिने सप्परिआवं-पश्चाताप क्डे व्व-जेम सउत्तरगुणं-गुरुए आपेला . मुसिक्खिओ-सारो शीखेलो ... प्रायश्चित वडे । विज्जो-क्य भावार्थ-जेम सारो अनुभवी विद्वान वैद्य व्याधिने शीघ्रपणे दूर करे छे, तेम समकितधारी सुश्रावक पण ते अल्प कर्मबंधने पण प्रतिक्रमण द्वारा, पश्चात्ताप द्वास अने प्रायश्चित्तरूप उत्तरगुण द्वारा दूर करे छे. ३७. ए जवाक्तमा बीजुं दृष्टांत आपे छमू-जहा विसं कुछगवं, मंतमूलविसारमा। विजा हपति तेहिं, तो तं हवइ निविसं ॥२०॥ . . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्दार्थ. जहा-जेम हणंति-हणे छे विसं-झेर मंतेहि-मंत्रो बडे कुट्टगयं-शरीरमां व्यापलं तो-तेथी मंतमूल-मंत्र अने जडीबूटीना हवइ-थाय छे विसारया-जाणनारा विज्जा-वैद्यो निविसं-झेर रहित भावार्थ-जेम गारुडिक मंत्र अने जडीबुट्टी विगेरे मूळने जाणनारा हुंशियार वैयो शरीरमां व्यापेला स्थावर के जंगम विषने मंत्रादिक वडे दूर करे छे, अने ते वखते तेनुं शरीर विष रहित थाय छे. ३८. दार्टीतिक कहे छेमू०-एवं अहविहं कम्म, रागदोससमजि। ___ आलोअंतो अ निंदतो, खिप्पं हणइ सुसावओ ॥३९॥ शब्दार्थःएवं-एवी रीते आलोअंतो-आलोक्तो अट्टविहं-आठ प्रकारना निंदंतो-निंदतो कम्म-कर्मने खिप्पं-जल्दीथी रागदोष-राग अने द्वेषथी समजिअ-बांधेला । मुसावओ-सारो श्रावक हणइ-हणे छे Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-एज प्रमाणे राग द्वेषथी बांधेला ज्ञानावरणीयादिक आठ प्रकारना कर्मने सुश्रावक गुरुनी पासे आलोचना करतो अने आत्म साक्षीए तेनी निंदा करतो छतो शीघ्रपणे खपावे छे-नाश करे छे. ३९. एज अर्थने विशेषथी कहे छेमू-कयपावो वि मणुस्सो, आलोइय निदिअ गुरुसगासे। - होइ अइरेगलहुओ, ओहरिअभरुव्व भारवहो ॥४०॥ कयपावो वि-पापनो करनार पण अइरेग-धणो मणुस्सो-मनुष्य लहुओ-हळवो आलोइय-आलोबीने ओहरिअ-उतारीने निदिअ-निंदीने गुरुसगासे-गुरुनी पासे भरुव्व-भारने (जेम) होइ-थाय छे भारवहो-भार उपाडनार भावार्थ:-जेनो भार उतार्यो होय एवो भार वहन करनार मजुर हळवो थाय छे, तेम पाप करनारो-पापना भारवाळो मनुष्य पण गुरु पासे आलोचना लइ तथा आत्म साक्षीए ते पापनी निंदा करी कर्मनो भार ओछो थवाथी हळवो थाय छे. ४०. प्रतिक्रमण करवानुं फळमू०-आवस्सएण एएण, सावओ जइ वि बहुरओ होइ । दुक्खाणमंतकिरिअं, काही अचिरेण कालेण ॥४१॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवरसरण- आवश्यक क्रिया क्डे एएण-आ सावओ -- श्रावक जइबि जो के होइ -- होय १४६ शब्दार्थ: अंतकिरिअं - नाश काही-करशे अचिरेण--थोडा काले-- काळमां भावार्थ - जोके श्रावक घणी बंधाती कर्मरूपी रजवाळो होय छे अथवा बहुरत - सावधं आरंभमां बहु रक्त- आसक होय छे, तो पण आ सामायिक १ चतुर्विंशतिस्तव २, वंदनक ३, प्रतिक्रमण ४, कायोत्सर्ग ५, अने प्रत्याख्यान ६ ए छ आवश्यक करवाथी थोडा वखतमां ज दुःखनो अंत करशे - मोक्ष पामशे. ४१. " आलोअगा-आलोचना बहुविधा प्रकारवी बहु रओ-घणां पापोवालो दुक खाणं- दुःखोनो इंद्रियोनी चपळताने लीधे अने जीवो अत्यंत प्रमादी होवाने लीधे थोडाएकज अपराध स्मरणमां आवी शके छे, अने आलोचना तो सर्वनी करवी जोइए. माटे विस्मरण थयेला अतिचारोनुं सामान्य रीते प्रतिक्रमण कहे छे.मू० - आलोअणा बहुविहा, न य संमरिआ पडिकमणकाले । मूलगुणउत्तरगुणे, तं निंदे तं च गरिहामि ||४२ ॥ शब्दार्थ - न य संभरि-न संभारी होय पविकमय-प्रतिक्रमण Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काले-वखते उत्तरगुणे-उत्तर गुण मूलगुण-मूळगुण गरिहामि-गहुँ छु भावार्थ-आलोचना एटले गुरुनी पासे पोताना दुश्चरित्र-अपराधो कहेवा ते, अने उपचारथी तेना कारणभूत प्रमादवाळी क्रिया पण आलोचना कहेवाय छे एटले के क्रियामां जे जे प्रमाद थया होय ते पण आलोचना कहेवाय छे, ते आलोचनाओ पांच अणुव्रतरूप मूळगुण अने सात गुणवतरूप उत्सरगुणने विवे क्षणां प्रकारनी होय छे, तेथी ते आलोचनानी निंदा गर्दा करवाने अवसरे जे आलोचना विस्मरण थइ होय तेनी आ गाथाथी निंदा गर्दा करवामां आवी छे. ४२. भावजिननी बंदना.--- मू-तस्स धम्मस्स केलिपनत्तस्स, अन्भुटिओमि आराहणाए, घिरओमि विराहणाए। तिबिहेण पडिकतो, वंदामि जिणे चउव्वीसं ॥४३॥ शब्दार्थः विरोमि-अटकयो छु धम्मस्स-श्रावक धर्मनी विराहणाए-विराधनाथी केवलि-केवळी भगवते तिविहेण-त्रण प्रकारे पक्सस्स-कहेल्या पडिको-प्रतिक्रमण करतो अब हिशोषि-हुँ उठ्यो छु मिणे-जिनेश्वरने भाराहणार-अराधनाने माटे . चम्बीसं-- चोवीशे तस्स-ते Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-केवळीए प्ररूपेलो श्रावकधर्म के जे में गुरुनी पासे अंगोकार को छे, तेनी आराधना करवा माटे हुं सावधान थयो छु, अने तेनी विराधनाथी निवृत्त थयो छु, तथा मन, बचन अने काया एत्रण प्रकारे अतिचार थकी निवृत्त थइने हुं ऋषभादिक चोवीश तीर्थंकरोने भने उपलक्षणथी पांच भरत, पांच ऐरवत अने पांच महाविदेह क्षेत्रना सर्व भाव तीर्थकरोने हुं वांदुं छु. ४३. ॥ इति वंदित्ता सूत्र २२॥ ( पछी बे वांदणा दइने गुरुजीने खामणा देवा ) ॥ २३ अथ अब्भुडिओ (गुरुखामणा) सूत्र. ॥ मू०-इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! अब्भुटिओ मि अभितरदेवसिअंखामेउं ॥ शब्दार्थ:इच्छाकारेण-इच्छाए करी अभिंतर-अंदर संदिसह-आज्ञा आपो देवसिअं-दिवसना अपराधने भगवन-हे भगवंत अब्भुट्टिओ-उठ्यो छ खामेउ-खमाववाने भावार्थ-हे भगवान् ! हुं दिवसमां उत्पन्न थयेला अतिचारने खमाववा तत्पर थयो छु, तेथी आप इच्छा प्रमाणे मने आज्ञा. आपो. -त्यारे गुरु 'खामेह'-खमावो एम कहे. पछी शिष्य आ प्रमाणे बोले. Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू-इच्छं, खामेमि देवसि । इच्छं-इच्छु छु देवसि-दिवस संबंधी अति-- खामेमि-खमा छु चारने भावार्थ-हुं आपनी आज्ञा प्रमाणे करवा इच्छु छु, तेथी आपनी आज्ञानुसार दिवस संबंधी अतिचारने खमार्बु छ. (पछी पंचांग प्रणाम करी मुखवस्त्रिकावडे मुख ढांकी आ प्रमाणे बोले.) मू-जं किंचि अपत्तिअं, परपत्तिअं, भत्ते, पाणे, विणए, वेआवच्चे, आलावे, संलावे, उच्चासणे, समासणे, अंतरभासाए, उवरिभासाए, जं किंचि मज्झ विणयपरिहीण मुहुमं वा, बायरं वा, तुब्भे जाणह, अहं न याणामि, तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ .. शब्दार्थ:जं किंचि-जे काइ आलावे-एकवार बोलवामा अपत्तिअं-अप्रीतिभाव संलावे वारंवार बोलवामां परपत्ति-विशेष अप्रीतिभाव उच्चासणे-उंचे आसने बेसवाथी भत्ते-भोजनने विषे समासणे--सरखा आसने पाणे-पाणीने विषे अंतरभासाए--बच्चे बोल्वाथी विणए-विनयने विषे उवरिभासाए--गुरुए कह्या पछी वेआवच्चे-वैयावच्चने विषे ते वातने विशेषपणे कहेतां. Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं किंचि-जे काइ तुम्मे जाणह-तमे जाणो से मझ-मारे अहं-हुं विणय-विनय न याणामि--हुं जाणतो नथी परिहीणं-रहितपणुं 1 तस्स-ते मुहुमं-सूक्ष्म मिच्छामि--दुक्कडे-मारुं पाप बायरं-बादर नाश थाओ भावार्थ:-हे गुरु महाराज ! माराथी जे काइ आपनी सामान्य के विशेष अप्रीति उत्पन्न थई होय, कया कया विषयमां ? ते कहे है.आहारमां, पागीमां, आपनो अभ्युत्थानादिक विनय करवामां, औषध अने पथ्यादिक वैयावच्च करवामां, एकवार बोलवामां, परस्पर कथा फरवारूप वारंवार बोलवामां, आपनाथी उंचा के समान आसनपर बेसवामां, आप बोलता हो तेनी वञ्चे बोलवामां तथा आफ्ना बोली रह्या पछी तरत ज ते विषय उपर विस्तारथी बोलवामा में जे कांइ विनयरहितपणे सूक्ष्म एटले अल्प प्रायश्चित्तथी शुद्ध थाय तेवो के बादर एटले मोटा प्रायश्चितथी शुद्ध थाय तेवो अपराध को होय, के जे अपराध ज्ञानने लीधे आप जाणता हो, अने हुं अज्ञानने लोधे जाणतो न होउं, ते सर्व अतिचारनुं मारे मिथ्यादुष्कृत हो. ते पापर्नु हुं मिथ्यादुकृप्त आपुंछु. ___ गुरु १५, लघु १११, सर्व वर्ण १२६. (आ रीते खामणा दइने, "आवस्सई" कहीने अवग्रहनी बहार आचीने " आयरिस उवझार" करें) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २४ अथ आयरिय उवज्झाए सूत्र ।।* मू०-आयरिय अवज्जाए, सीसे साहम्मिए कुलगणे अ। जे मे केइ कसाया, सव्वे तिविहेण खामेमि ॥१॥ शब्दार्थ:आयरिय-आचार्य जे मे-जे मारे जीये उवज्झाए-उपाध्यायने केह-कोइ पण प्रकारको सीसे-शिष्योने कसाया-कषाय साहम्मिए-साधर्मिकने सव्वे-सर्वने कुल एक आचार्यनो परिवार तिविहेण-प्रण प्रकारे करी गणे अ-घणां आचार्यनो परिवार. खामेमि--खमावु छु भावार्थ-आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुळ अने गण एमांथी कोइना उपर में कांइपण कषाय कर्या होय, तो ते सर्वनी पासे हुं मन, वचन अने कायाए करीने क्षमा मागु छु. अहीं एक आचार्यनी आज्ञामा रहेनार साधुओनो समूह गच्छ कहेवाय छे, एवा घणा गच्छो भेळा गणीए तो एक कुळ थाय छे, अने घणा कुळ मळीने एक गण थाय छे. मु०-सबस्स समणसंघस्स, भगवओ अंजलिं करिअ सीसे । सव्वं खमावइत्ता, खमामि सव्वस्स अहयं पि ॥२॥ *आ सूत्रमा आचार्य, उपाध्याय, शिष्य, साधर्मिक, कुळ, गण, श्रमणसंघ, सर्वजीवो विगैरेनी एकी साथे क्षमा मागी छे, माटे सूत्र बोलती वखते बराबर उपयोग राखवामां आवे तो धणी कर्मनिर्जरा धाय छे. | Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ .. शब्दार्थःसव्वस्स-सर्वना सव्वं-सर्व अपराधने समणसंघस्स-श्रमण संघरूप खमावइत्ता-खमावेने भगवओ-भगवंतना खमामि-खमुं छु अंजलिं करिअ-बे हाथ जोडीने सव्वस्स-सर्वना सीसे-मस्तक उपर । अहयं पि-हुं पण मावार्थ-मस्तकपर वे हाथ जोडीने पूज्य एवा सर्व साधुसमुदायनो में जे काइ अपराध को होय, ते सर्व अपराधनी क्षमा मागीने हुं पण तेमणे करेला सर्व अपराधने माफ करुं छं. २. . मू-सव्वस्स जीवरासिस्स, भावओधम्मनिहिअनिअचित्तो। सव्वं खमावइत्ता, खमामि सबस्स अहयपि ॥ ३ ॥ शब्दार्थ:सव्वस्स-सर्व नियचित्तो-पोतानुं चित्त जीवरासिस्स-जीवसमूहना सव्वं-सर्व अपराधने भावओ-भावथी खमावइत्ता-खमावीने धम्म-धर्मने विधे खमामि-खमुं छु निहिअ-स्थाप्यु छे अहयंपि-हुं पण भावार्थ-सर्व जीवराशिमांथी कोइनो में कांइ पण अपराध को होय, ते सर्व प्रत्ये मारा सर्व अपराधने हुं खमायूँछु, अने भावथी धर्मने विषे चित्त राखीने हुं पण तेमणे करेला सर्व अपराधने माफ करुं छु. ३. - गाथा ३, पद १२, गुरु १९, लघु ९१, सर्व वर्ण ११०, (पछी नवकार, करेमिभंते, इच्छामिठामि काउस्सग्गं, तस्सउत्तरी, अन्नथ्थ ऊससिएण, कहीने चारित्राचारनी विशुद्धि माटे बे लोगस्स या चार नवकार नो काउस्सग्ग चंदेसु निम्मलयरा सुधी करवो पछी प्रगट लोगस्स बोलवो. पछा) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ २५ अथ सव्वलोए अरिहंत चेइयाणं॥x मू०-सव्वलोए अरिहंतचेइयाणं, करेमि काउस्सग्गं, ॥१॥ वंदणवत्तियाए, पूअणवत्तियाए, सकारवत्तियाए, सम्मागवत्तियाए, बोहिलाभवत्तियाए, निरुवसग्गवत्तियाए, ॥२॥ सद्धाए, मेहाए, घिइए, धारणाए, अणुप्पेहाए, वड्ढमाणीए, ठामि काउस्सग्गं. ॥३॥ शब्दार्थअरिहंत-अरिहंतनी बोहिलाम-बोधी बीजनो लाभ चेइयाणं-प्रतिमाने ... . निरुवसग्ग-मोक्ष पामवा माटे करेमि-करं छु सद्धाए-श्रद्धाथी काउस्सग्गं -काउस्सग्ग मेहाए-निर्मळ बुद्धिथी ... वंदणवत्तियाए-बांदवाने धिइए-चित्तनी स्थिरताथी निमित्ते धारणाए-धारणापूर्वक . पूअण-पूजन करवाथ अणुप्पेहाए-वारंवार विचारीने सकार-सत्कार करवाथी वड्ढमाणीए-वधती वृद्धि सम्माण-सन्मान करवाथी पामती .. भावार्थ-अरिहंतनी प्रतिमाने वंदना करवा माटे हुँ कायोत्सर्ग करं छु. एटले के प्रभुने वंदना करवाथी जे फल प्राप्त थाय, ते मने कायोत्सर्ग करवाथी थाय. तथा जिनेश्वर भगवाननी पूजा करवाथी जे फळ थाय तेने माटे, तथा जिनप्रतिमाने आभूषणादिकवडे सत्कार करवाथी ___x आ सूत्रमा स्थापना जिननी स्तुति छे. Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जे फळ थाय तेने माटे, तथा प्रभु पासे भक्तिपूर्वक गीत, मान, स्तुति विगेरे रूप सन्मान करवाथी जे फळ थाय तेने माटे, तथा बोधिनी प्राप्तिने माटे एटले परभवमां जिनधर्मनी प्राप्ति थवा माटे, तथा उपसर्गरहित एवा मोक्षस्थानने मेळववा माटे हुं कायोत्सर्ग करूं कुं. वळी हुं वृद्धि पामती शुद्ध श्रद्धावडे, निर्मळ बुद्धिवडे, धीरजवडे एटले शांत चित्तवडे, धारगावडे एटले जिनेश्वरना गुणोने हृदयमा धारण करवावडे, तथा तेमना गुणोनो वारंवार विचार करवावडे, हुं कायोत्सर्ग करूं हुँ. संपदा ३. पद १५. गुरु १७ लघु ७६. सर्ववर्ण ९४. ( अन्नथ्य ऊससिएणं कहीने, दर्शनाचार विशुद्धि माटे एक लोगरस अथवा चार नवकारनो काउस्सग्ग चंदेसु निम्मलयरा सुधी करी. पारी " पुख्खरखरदीवड्ढे " कहेवुं) ॥। २६ अथ पुक्खरवरदीवढे वा श्रुतस्तव * सूत्रम् ॥ (आर्यागीति) मू० – पुक्खरवरदीवड्ढे, धायइसंडे अ जंबुदीवे अ । भररवयविदेहे, धम्मा गरे नम॑सामि ॥ १ ॥ शब्दार्थ पुक्खरवर - पुष्करवर नामना दीवढे - अडधा द्वीपमां धायइसंडे - धातकी खंडमां जंबुदीवे - जंबुद्वीपमां भरह-भरत एरवय - ऐरवत विदेहे - महाविदेह क्षेत्रमां धम्मा गरे - धर्मनी शरुआत करनारने नम॑सामि- नमस्कार करूं छं. * आमां श्रुतिनी स्तुति होवाथी आ श्रुतस्तव कद्देवाय छे. Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५ भावार्थ - अर्ध पुष्करवर द्वीपमां, धातकीखंडमां अने जंबुद्वीपमां कुल पांच भरत, पांच ऐरवत अने पांच महाविदेह क्षेत्र छे, तेमां रहेला सर्व तीर्थकरोने हुं नमस्कार करूं छं. १. आ ते प्रथम अरिहंतनी स्तुति करी, हवे त्रण गाथावडे श्रुतनी स्तुति करे छे. मू० - तमतिमिरपडलविद्धं - सणस्स सुरगणनरिंदमहियस्स । सीमाधरस्स वंदे, पप्फोडिअमोहजालस्स ॥ २ ॥ शब्दार्थः तम - अज्ञानरूपी तिमिर - अंधकारना पडल-समूहनो विद्धंसणस्स - नाश करनारने सुरगण - देवताओनो समूह नरिंद - चक्रवर्तिवडे महियस्स - पूजायेल सीमा-मर्यादामां धरस्स - राखनार वंदे - वांदुं लुं पप्फोडिअ - तोडी नांखी छे मोह-मोहरूपी जालस्स-जाळने भावार्थ - अज्ञानरूपी अंधकारना समूहनो नाश करनार, देवेंद्रो अने नरेंद्र पूजेला, सर्वने मर्यादामां राखनार अने मोहरूप जाळने तोडो नांखनार एवा श्रुतने हुं वादु छु. २. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (वसन्ततिलकावृत्तम् ।) ५०-जाईजरामरणसोगपणासणस्स, कल्लाणपुक्खलविसालमुहावहस्स । को देवदाणवनरिंदगणच्चिअस्स, धम्मस्स सारमुवलब्भ करे पमायं ॥३॥ शब्दार्थः जाइ-जन्म जरा-घडपण भरण-मरण सोग-शोकनो पणासणस्स-नाश करनार कल्लाण-कल्याणकारी पुक्खल-संपूर्ण विसाल-विशाळ सुह-मोक्ष सुखने आवहस्स-आपनार को-कोण देव-देवता दाणव-दानव नरिंद-चक्रवर्तिना गण-समूह अच्चिअस्स-पूजायेल धम्मस्स-श्रुत धर्मना सारं-तत्वने ... उपलब्भ-पामीने करे पमाय-प्रमाद करे ? भावार्थ-जन्म, जरा-बृद्धावस्था, मृत्यु अने शोकने नाश करनार, कल्याणकारक अने अत्यंत विशाळ सुख, जे मोक्ष, तेने आपनार तथा देवेंद्रो, असुरेंद्रो अने नरेंद्रोए पूजेला एवा श्रुतधर्मना सारने Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९७.. रहस्यने पामीने. कोण बुद्धिमान प्राणी प्रमाद करे ? कोइ पण प्रमाद न करे. ३. (शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् । ) मू-सिद्ध भो पयओ णमो जिणमए, नंदी सया संजमे, देवनागसुवनकिन्नरगणस्सब्भूअभावच्चिए । लोगो जत्थ पइडिओ जगमिणं, तेलुकमच्चासुरं, धम्मो बड्ढउ सासओ विनयओ, धम्मुत्तरं वड्ढउ॥४॥ ho. . शब्दार्थ:सिद्ध-सिद्ध एवा सुवन्न-ज्योतिषी देव . भो-हे ज्ञानवंत लोको किन्नर-व्यंतर देवना षयओ-आदर सहित गण-समूहथी णमो-हुं नमस्कार करुं छं सब्भूअभाव-सत्य भाव वडे जिणमए-जिनमतने *अच्चिए-पूजाएला . नंदी-वृद्धि थाओ लोगो-त्रण काळनुं ज्ञान । सया-हमेशां जत्थ-जेमां संजमे-चारित्रधर्मने विषे ।। पइडिओ-रहेल छे देव-वैमानिक देव जगमिणं-आ जगतनुं नाग-भवनपति देव तेलुक्क-त्रण लोकरूप *चतुर्थी विभक्ति लइए तो जिनमत विशेषण पग थइ शके छे. Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मच्च - मनुष्य लोक असुरं - देव लोक धम्मो - श्रुत धर्म विजयओ - विजयवंत धम्म- धर्म उत्तरं - विशेष भने विशेष वड्ढउ-वृद्धि पामो भावार्थ- हे ज्ञानवंत भव्यजनो ! हुं आदरवाळो थइने एटले आदर पूर्वक सर्व नय प्रमाणथी सिद्ध एवा जिनमतने-जिन सिद्धांतने नमस्कार करूं छं. कारण के जिनमतथी ज देवो, नागकुमारो, सुवर्णकुमारो अने किन्नरो विगेरे सर्व देवोए पण शुद्ध भावथी पूजेला एवा चारित्रधर्मनी पण निरंतर वृद्धि थाय छे. वळी जे जिनमतने विषे त्रणकाळनुं ज्ञान तथा मनुष्य, असुर अने उपलक्षणथी सर्व देवो तिर्यंचो अने नारकीओए ऋण लोकरूप आ समग्र जगत प्रतिष्ठित छे एटले के ते सर्वनुं ज्ञान जिनागमने विषे ज रहेलुं छे. आवो शाश्वत जनमत विजय पामवाधी वृद्धि पामो अने तेनी वृद्धिवडे चारित्रधर्म पण वृद्धि पामो. ४. वड्ढउ - वृद्धि पामो सासओ - शाश्वतो १९८ मू० – सुअस्स भगवओ करेमि काउस्सग्गं वंदणवत्तिआए० ॥ शब्दार्थ: सुअस्स - श्रुत धर्म भगवओ - पवित्र करेमि - करुं लुं काउस्सग्गं- काउस्सग्गं भावार्थ - श्रीजिनभाषित श्रुत-आगम सर्वथा प्रकारे पवित्र अने पूज्य छे, तेनां वंदनादिक ने निमित्ते हुं कायोत्सर्ग करूं कुं. Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद १६. संपदा १६. गाथा ४. गुरु ३४. लवु १८२. सर्ववर्ण २१६. ___वंदणवत्तियाए, पूअणवत्तियाए, कहीने (अन्नथ्य ऊससिएणं कहेवू, ज्ञानाचारनी विशुद्धि माटे ) एक लोगस्स (अथवा चार नवकार)नो चंदेसु निम्मलयरा सुधी काउत्सग्ग करवो, पछी काउत्सम्म पारवो, पछी सिद्धाणं बुद्धाणं कहे. २७ xसिद्धाणं, बुद्धाणं वा सिद्धस्तव सूत्र.. मू०-सिदाणं बुद्धाणं, पारगयाणं परंपरागयाणं । लोअग्गमुवगयाणं, नमो सया सव्वसिद्धाणं ॥१॥ शब्दार्थ:सिद्धाणं-सिद्धोने लोअग्गं-लोकना अग्र भागने बुद्धाणं-बुद्धोने उवगयाणं-पामेलाने पारगयाणं-संसार समुद्रना नमो-नमस्कार थाओ पार पामेलाने सया-हमेशा परंपरगयाणं-अनुक्रमे मोक्षे सच-बधां पहोंचेलाने सिद्धाणं-सिद्धोने xआ सूत्र वडे सिद्धोनी स्तुति करी छे तेथो ते सिद्धस्तव कहेवाय छे. आमांनी पहेली गाथा वडे समग्र सिद्धोनी स्तुति करी छे. बीजी अने त्रीजी गाथामां वर्तमान तीर्थना अधिपति श्रीवर्धमानस्वामीनी स्तुति करी • छे, चोथी गाथामा गिरनारपर रहेला श्रीनेमिनाथनी स्तुति करी छे. अने पांचमी गाथामां अष्टापद पर्वतपर रहेला चोवोशे तीर्थकरीनी स्तुति करी Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ:-जेणे सर्व कार्य सिद्ध कर्या छे, जेणे सर्व भावो जाण्या छे, जे संसारसमुद्रना पारने पामेला छे, जे गुणस्थानना क्रमे मोक्ष सुधी चडेला छे अने जे लोकना अग्रभागमां जइ रहेला छे, ते सर्व सिद्धना जीवोने मारो निरंतर नमस्कार छे. १. मू०-जो देवाण वि देवो, जं देवा पंजली नमसति । तं देवदेवमहिअं, सिरसा वंदे महावीरं ॥२॥ ... शब्दार्थ: जो-जे नमसंति-नमस्कार करे छे तं-ते देवाण वि-देवोना पण देवो-देव छे जं-जेमने देवा-देवताओ पंजली-बे हाथ जोडीने देवदेव-देवना देव (इंद्र) वडे महिअं-पूजाएला सिरसा-मस्तक वडे वंदे-वाद् छं भावार्थ-जे देवोना पण देव छे अने जेने देवो हाथ जोडीने नमस्कार करे छे. वळी देवोना पण देव जे इंद्रादिक तेमणे. पण जे पूजेला छे, ते श्रीमहावीरने हुं मस्तक नमावीने वादं छु. छे. तथा ए गाथा वडे जूदी जूदी वंदना पण करेली छे ते जाणवानी इच्छावाळाए चैत्यवंदन भाष्य जो. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० - इक्को वि नमुक्कारो, जिणवरवसहस्स वद्धमाणस्स । संसारसागराओ, तारेइ नरं व नारिं वा ॥ ३ ॥ शब्दार्थ इको वि-एक पण नमुकारो - नमस्कार जिणवर - जिनवरोमां बसहस्स श्रेष्ठ एवा वद्धमाणस्स - वर्धमान स्वामीने २०१ संसार-संसार रूप सागराओ - समुद्री तारे-तारे छे नरं व- पुरुषने अथवा नारिं वा - अथवा स्त्रीने भावार्थ - श्रुतज्ञानी अने अवधिज्ञानी विगेरे जिनोने मध्ये वर एटले प्रधान अर्थात् केवळज्ञानी, तेमने विषे पण वृषभ समान श्रेष्ठ एटले तीर्थंकर पदवीने पामेला एवा श्रीवर्धमानस्वामीने एक ज वार जो नमस्कार कर्यो होय, तो ते नमस्कार करनार पुरुष के स्त्रीने (तथा कृत्रिम नपुंसकने पण ) संसाररूपी समुद्रथी तारे छे. ३. * मू० - उज्जितसेलसिहरे, दिक्खा नाणं निसीहिआ जस्स । तं धम्मचकaहिं, अरिट्ठनेमिं नम॑सामि ॥ ४ ॥ - *आ ण गाथाओ श्रीगणधर रचित छे, तेथी ते अवश्य कहेवानी छे. त्यार पछीनी बे गाथाओ चूर्णिमांनी छे, ते पण गुरु परंपरागत - होवाथी कहेवानी के. Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जित - गिरनार सेल - पर्वतना सिहरे - शिखर उपर दिक्खा - दिक्षा कल्याणक नाणं - केवळज्ञान कल्याणक जस्स-जेमना तं ते धम्म- धर्मना चक्कवट्टि - चक्रवर्ति एवा अरिहनेमिं - श्री नेमनाथने निसीहिआ - मोक्ष कल्याणक नम॑सामि- नमस्कार करूं लुं भावार्थ- श्रीगिरनार पर्वत पर जे प्रभुनां दीक्षा, केवळज्ञान अने निर्वाण ए ऋण कल्याणक थयां छे, ते धर्मचक्र प्रवर्तावनार श्री अरिष्टनेमि प्रभुने हुं नमस्कार करूं कुं. ४. मू० - चत्तारि अट्ठ दस दो, अ वंदिआ जिणवरा चउव्वीसं । परमट्ठनिडिअट्ठा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ।। ५॥ शब्दार्थ चत्तारि-चार अट्ठ-आठ दस-दश दो-बे अ- अने बंदिआ - बंदायेल २०२ शब्दार्थ जिणवरा - जिनेश्वरो चउव्वीस - चोवीस परमट्ठे--परमार्थ वडे निट्टि - सिद्ध अड्डा - अर्थ जेमना सिद्धा -- सिद्ध थयेला सिद्धिं -- मोक्ष मम मने दिसंतु आपो या छे Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... २०३ भावार्थ-चार, आठ, दश अने बे ए सर्व मळीने चोवीशः तीर्थकरो अष्टापद पर्वतपर रहेला छे, तेमने में वांद्या छे, तेमने परमार्थथी काइ पण कार्य करवानुं बाकी रह्यं नथी, तथा तेओ सिद्धिपदने पामेला छे. तेओ मने मोक्ष आपनारा थाओ. ५. पद २०. संपदा २०. गाथा ५.गुरु २५. लघु १५१. सर्ववर्ण १७६ पछी छट्टा आवश्यकनी दृष्टि पडिलेहणा करी मुहपत्ति पडिलेही बे वांदणा देवा, पछी " सामायिक, चउविसथो, वांदणां, पडिकम', काउस्सग्ग, पच्चक्खाण कयु छे जी." पछी “ आवरसई" कही अवग्रहनी बहार नीकळीने बोलवू.इच्छामो अणुस४ि नमो खमासमणाणं कही.. अमे गुरु आज्ञाने इच्छीए छीए, क्षमाश्रमणोने नमस्कार थाओ. ॥पछी नमस्कार बोलवो॥ (अनुष्टुप् छंद) मू-नमो दुर्वाररागादि-वैरिवारनिवारिणे । अर्हते योगिनाथाय, महावीराय तायिने ॥१॥ शब्दार्थ:नमो-नमस्कार थाओ, अर्हते-अरिहंतने दुर-दुःखथी अटकावाय, योगिनाथाय-योगीओना स्वारागादि-राग आदि मिने वैरि-शत्रुओना महावीराय-महावीरने वार-समूहने तायिने-छ-कायना जीवने रक्षण निवारिणे-दूर करनार करनारा Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ भावार्थ:-महान् दुःखथी अटकावी शंकाय एवा राग-द्वेष-- मोह आदि महान् शत्रुओना समुदायने रोकवावाळा, तथा पृथ्वी आदि छ काय जीवोना रक्षण करवावाळा, अने योगीओना स्वामी एवा अरिहंत भगवंत परम तीर्थकर, श्री महावीर स्वामीने नमस्कार थाओ. १. (आर्या छंद) मू०-मंदिरगिरिवरधीरः, प्राप्तभवापारनीरनिधितीरः। निर्जितमन्मथवीरः, श्रियेऽस्तु स श्रीमहावीरः॥२॥ .शब्दार्थ:मंदिर-मंदराचळ पर्वत (मेरु) । तीर:-कांठो गिरि-पहाड निजित-जीत्यो छे वर-श्रेष्ठ मन्मथ-कामदेव 'धीरः-धीरजवाळा वीरः-वीर माप्त-पामेला, भव-संसार श्रिये कल्याण माटे अपार-कांठो नथी जेनो अस्तु-हो नीर-पाणी निधि-भंडार | श्रीमहावीर-बीर भगवान भावार्थ:--मेरु पर्वत जेवा धीर अने महा मुश्केलीए पण पार न पमाय तेवा संसाररूप समुद्रने तरी गयेला तथा कामदेव रूप धीरने जीतनार एवा श्री महावीर स्वामी अमने कल्याण करो २. Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ (उपजातिवृत्तम् ) मू-सर्वे जिनास्तुल्यगुणैर्नमस्याः, समत्वभावेन जगत्लशस्याः॥ तथापि वीरं निकटोपकारं, तीर्थेश्वरं नौमि सदा मुदारं ॥३॥ शब्दार्थसर्वे-वधां तथापि-छतां पण जिना:-जिनेश्वरो वीरं-वीरने तुल्य-समान निकट-नजीकना गुणैः-गुणोवडे उपकारं-उपकारीने नमस्या:-नमस्कार करवा योग्य तीर्थेश्वरं-तीर्थना स्वामिने समत्व-सरखापणाना भावेन-भाववडे नौमि-नमस्कार करुं छु जगत्-लोकमां सदा-हमेशां प्रसस्या:-वखाणवा लायक । मुदारं-हर्षथी भावार्थ-बधां जिनेश्वरो पोत-पोतानां गुणोवडे नमस्कार करवां योग्य छे अने समभावथी आखा जगत्ना मनुष्योथी वखाणवा योग्य छे, छता पण नजीकना उपकारी तथा शासनना नायक श्री महावीर स्वामीने हमेशां अत्यंत आनंदथी नमस्कार करुं छु. ३. (ए ज प्रमाणे नमस्कार करी, पछी " नमुथ्थुणं " तथा बे .. खमासमणा दइ स्तवन संदिसाएमि, स्तवन भणेमि कहीने नवकार मंत्र गणीने स्तवन कहे. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ॥ अथ श्री शांतिनाथजीनुं स्तवन ॥ १अहिपुरमंडन सोलमो, जिनवर कंचन कांति रे। निरखिये मूरति स्वामिनी, रहियडले लागी छे खांति रे॥१॥ शान्तिजिन सांभलो विनति, माहरी परमदयाल रे । तुम्ह विणु कोइ बीजो नहि, सेवकजन प्रतिपाल रे ॥शां० ॥२॥ दुल्लहो माणुस भव लह्यो, आरजक्षेत्र अवतार रे ॥ जनम श्रावक कुले मुज थयो, सांभल्यो धर्म आचार रे॥ शां० ॥ ३॥ पंचमा कालने दुषणे, बहु मत पजिनमत ठाण रे ॥ तिणे अमे भूलो ए प्राणियो, नविलहे प्रवचन वाण रे ॥शां०॥४॥७अविरति देवदेवी नमे, (मुगुरु स्कुगुरु १०समतोल रे ॥धर्म १५सावद्य १२माषे सदा, १रंजए कुगुरु १४कुबोल रे ॥ शां० ॥५॥ १५जिनमती जिनमती नवि मिले, निंदए माहोमांही रे ॥ १९छंडी समता ममता धरे, १७पाडए लोक प्रवाह रे ॥ शां० ॥६॥ मोहराजा १८परीवारस्यु, राग ने द्वेष वलि १ नागोर शहेर, २ हृदयमां, ३ लागणी, ४ हुंडा अवसर्पिणीकाल विगेरे दोषो, ५ जैनशासनमां, ६ सिद्धांतनी वाणी, ७ देशविरति अथवा सर्वविरति चारित्रथी रहित एटले त्याग नियम विनाना, ८ आरंभ परिग्रहादिकना त्यागी. ९ आरंभादिकने सेवन करनार, १० सरखा, ११ पापकारी, १२ कहे, १३ खुशी करे, १४ असत्य वाणीथीकुयुक्तिओथी, १५ जिन प्रणित सिद्धांतने स्वीकारनार पुरुषोनो विचार माहोमांहे मले नहि, १६ त्याग करी--छोडी, १७ पोते लोकप्रवाहमां पडेलो “साचं जुटुं जोया विना बहु मनुष्य जे आचरे" तेने लोकप्रवाह कहिये, ते लोकप्रवाहमां बीजाने पण नाखे छे, १८ त्याग करशं, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२०७ काम रे ॥ पूठे लागा भमे १अहनिसे, २शुद्ध छंडावर ठाम रे॥शां० ॥७॥ विषय ४कषाय ने पकाठिया, वंचए पंच प्रमाद रे ।। एहतणो भय तो टले, जो तुमे करो (प्रसाद रे॥ शां० ॥ ८॥ हवे तुम्ह शरण ले आविओ, १०वज्रपिंजर सम जाण रे ॥ आगे १पारेवडो राखिओ, १२आपणा माणने प्राण रे ॥ शां० ॥ ९॥ हुं सदा सेवक तुम तणो, तुम्हे प्रभु १उजगतआधार रे ॥ तुम्ह सम त्रिभुवन को नही, जीवने अभय दातार रे ॥ शां० ॥१०॥ (कलश ) इम नागपुरवर भवियमनहर शांतिजिनवर सामिय॥ बहु दिवस केरोहर्षे पहुतो तुम्ह दरिसण पामीय तुम्ह सरण आव्यो १४द्रव्य भावत सहु अ वैरीभय टल्या ॥ पार्श्वचंद्रमरि १५पभणे १६हर्ष विगुणे मन १७मनोरह सवि फल्या ॥११॥ अथवा परिवारथी युक्त, १ दररोज, २ सुधीना (शुद्ध ) स्थानने छोडावे छे, ३ पांच इंद्रियना विषय, विषय--प्राणी जेथी फसाय, पोतानो भान भुले, ४ कषाय सोळ छे, संसारनी वृद्धि करावे तेनु नाम कषाय, ५ काठिया धर्म करवामां अडचण करावनारा ते काठिया, ६ ठगनारा-आत्मधर्म धन लूटनारा, ७ जीवने कुंगति आपे, संसारमा रखडावे ते प्रमाद, तेना भेद ५-मद, विषय, कषाय, निन्दा, अने विकथा, ८ महेरबानो, ९ आधार, १० वज्रना पांजरा सरखो जाणीने, ११ कबूतर, १२ पोताना प्राणथी पण प्रीय गणी तेनी रक्षा करी-बचाव्यो. १३ मुख्य स्वामी जगतना एक आप छो, १४ बाह्य अभ्यंतर शत्रुओनो भय मट्यो, १५ कहे, १६ हर्षथी वृद्धि पामेल छे आत्मगुणो ते जेना, १७ मनोरथ-इच्छित, सर्व फलीभूत थया. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अथ जय वीयराय सूत्र.x आर्या छन्द. मू०-जय वीयराय ! जगगुरु! होउ मम तुह पमावओ मयवं । भवनिव्वेओ मग्गा-गुसारिआ इट्ठफलसिद्धी ॥१॥ शब्दार्थजय-जय पामो भयवं-हे भगवन् बीयराय-हे वोतराग! भव-भवन जगगुरु--हे जगतना गुरु ! निव्वेओ--उदासीनपणुं होउ-होजो . मग्गाणुसारिआ-मार्गानुमम-मने ___सारीपणुं तुह--तमारा इट्ठफल-वांछित फलनी पमावओ-प्रभावथी सिद्धी--प्राप्ति ___ भावार्थ-हे वीतराग ! एटले रागद्वेषरहित जगद्गुरु ! तमे जय पामो तथा हे भगवान! तमारा प्रभावथी मने संसारपर वैराग्य थाओ, मार्गानुसारीपणु प्राप्त थाओ अने वांछित फळ (शुद्ध आत्मधर्म ) नी सिद्धि थाओ. १. मू०-लोगविरुद्धच्चाओ, गुरुजणपूआ परस्थकरणं च । मुहगुरुजोगो तव्वयणसेवणा आभवमखंडा॥२॥ x आ सूत्र प्रार्थनास्वरूप छे. पाछळनी त्रण गाथा क्षेपक छे. Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोगविरुद्ध - लोक विरुद्धनी चचाओ-त्याग गुरुजण-वडिल जननी २०९ शब्दार्थः पूआ-पूजा परत्थकरणं- परोपकार करवो च - अने वारिज्जइ-ना पाडी छे जवि - जो के नियाण-नियाशुं १४ सुहंगुरु- सारा गुरुनो जोगो - मेळाप तव्वयण - तेमना वचननी सेवणा-सेवा भावार्थ: तथा हे प्रभु! आपना प्रभावथी मारे लोकमां जे कार्य विरुद्ध कहेवा होय तेनो त्याग होजो, माता, पिता विगेरे गुरुजननी पूजा-सेवा होजो, परोपकार करी शकुं एवी शक्ति होजो, सद्गुरुनो संयोग-समागम होजो, तथा ते सद्गुरुना वचननुं सेवन एटले पालन होजो, आ सर्व मने भवपर्यंत एटले ज्यां सुधी मारे भव करवा पडे, त्यां सुधी अर्थात् मुक्ति पासुं त्यां सुधी अखंडपणे होजो — अस्खलितपणे होजो. २. आभवं - जीवनपर्यंत सुधी अखंडा -- अखंडितपणे मू० - वारिज्जइ जइवि नियाण-बंधणं वीयराय ! तुह समए । तह वि मम हुज्ज सेवा, भवे भवे तुम्ह चलणाणं ॥ ३ ॥ शब्दार्थः ―― बंधणं - बांधवानी वीराय - हे वीतराग ! तुह-तमारा Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१.. समए-शास्त्रमा सेवा-सेवा तहवि-तो पण भवे भवे-भवोभवने विषे मम-मने तुम्ह-तमारा हुज्ज-होजो चलणाणं-चरणनी भावार्थ-हे वीतराग प्रभु ! जो के तमारा शासनमा नियाj. करवानी ना कही छे एटले के काई पण शुभ अनुष्ठान कयु होय ते बदल अमुक फळ मागवू तेनुं नाम निया' कहेवाय छे. तेनो शास्त्रमा निषेध कर्यो छे, तोपण हुं तो याचना करुं छं के मारे भवभवने विषे .. एटले दरेक जन्ममा तमारा चरणनी सेवा होजो, ३. , - वळी बीजी योजनाओ आ प्रमाणे करे छेमू-दुक्खखओ कम्मखओ, समाहिमरणं च बोहिलाभोय। संपजउ मह एअं, तुह नाह! पणामकरणेणं ॥४॥ शब्दार्थःदुक्खखओ-दुःखनो मह-मने कम्मखओ-कर्मनो क्षय । एअं-ए समाहि-समाधि तुह-तमने मरणं-मरण बोहि-समकितनो नाह-हे नाथ ! लाभो य-लाभ पणाम-प्रणाम संपज्जउ-प्राप्त थाओ करणेणं-करवाथी Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ भावार्थ:- बळी हे नाथ ! मारा मन अने शरीरसंबंधी दुःखतो क्षय थाओ, कर्मनो क्षय थाओ, समाधिमरण एटले पंडित मरण थाओ, -अने बोधिनो एटले समकित धर्मनी प्राप्तिनो लाभ थाओ आ सर्व तमने प्रणाम करवाथी ज मने प्राप्त थाओ. ४. मू० – सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं, सर्वकल्याणकारणम् । - प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम् ॥ ५ ॥ शब्दार्थः— सर्वमंगल - सर्व मंगळिकोमां मांगल्यं - मंगळरूप सर्वकल्याण - सर्व कल्याणनुं कारणं - कारण प्रधानं - प्रधान एवं सर्वधर्माणां - सर्व धर्मोमां जैनं - जैन जयति जय पाने छे शासनं - शासन भावार्थ:- जिनेश्वरनुं शासन जयवंत वर्ते छे एटले शाश्वतुं छे केमके ते लौकिक अने लोकोत्तर, सर्व मंगळोनुं पण मंगळरूप छे, स्वर्गमोक्षादिक सर्व कल्याणोनुं मूळ कारण छे, अने दुनियाना सर्व धर्मोने मध्ये आ जिनधर्म सर्वोत्कृष्ट छे. संपदा २०. गाथा ५ पद २० गुरु १९ लघु १७२. सर्ववर्ण १९१. Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ इच्छामि० इच्छाकारेण श्रीआचार्य वांदुजी.२ इच्छामि इच्छाकारेण श्री उपाध्याय वांदुजी.३इच्छामि० इच्छाकारेण सर्व साधजीने त्रिकाल वंदना होज्योजी. ४ इच्छामि० इच्छाकारेण देवसिअ प्रायश्चित्त विशोधनार्थ काउस्सग्गं करेमि ॥ इच्छं ॥ देवसिअ प्रायश्चित्त विशोधनार्थ करेमि काउस्सग्नं ॥ . अन्नथ्थऊससिएणंनो पाठ कही, चार लोगस्स अथवा १६ नवकारनो काउस्सग्ग करवो, काउस्सग्ग पारी प्रगट लोगस्स कही. १ इच्छामि० इच्छाकारेण० बेसणे संदिसाएमि. २ इच्छामि० इच्छाकारेण० बेसणे ठाएमि. ३ इच्छामि० इ. च्छाकारेण सज्झायं संदिसाएमि. ४ इच्छामि० इच्छाकारेण० सज्झायं करेमि ॥ इच्छं ॥ (एम कहो नवकार गणी बेठा सज्झाय भणिये गुणिये.) ॥ अथ विनयनी सज्झाय । " भोलिडा हंसारे विषय न राचिये "-ए देशी. ॥ श्रीगुरु गौतम गुण हियडे धरी, कहिसुं विनय विचार॥ स्वामी सोहमगणधर दाखवे, उत्तराध्ययन मझार॥१॥ विनय करीजे रे भवियण भावमुं, जेहथी लहिए रे नाण ॥ अनुक्रमे समकित चारित्र गुण ग्रही, पामीजे रनिर्वाण ॥२॥ वि० ॥ १ ज्ञान, २ मोक्ष. - Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ गुरुनी पासे रे रहिये सर्वदा, वहिए गुरुनी रे "सीख ॥ काज करीजेरे वंछीत गुरुतणुं, तो हुवे ५सफली दीख ॥३॥ वि० कुहिए काने रे जेवी कूतरी, काढे घरथीरे, लोय ॥ तिम अविनीतने काढे गच्छथकी, जस १०सौभाग्य न होय ॥४॥ वि०॥सूअर छडीरे ११कुंडु १२कणतणुं, १3राचे १४विष्टा रे पूर॥ १५अविनय राचे रे तिम १ अविनीत जे, परिहरे संयम दूर ॥ ॥५॥ ए संभारी रे अविनय १७भावना, विनय करे गुण जाण ॥ तेहने श्रीगुरु सूत्र अरथ कहे, ए जिनवरनी वाण ॥६॥ वि०॥मूल विनय छ रे जिनधर्म १८तरुतगुं, १४ज्ञानादिक तसु २०डाल ॥ कीरति २१कुसुम अमर सुख मुगतीना, फल पामे मुविशाल ॥ वि० ७॥ २२परिमल रूडी रे सहजे मालती, शीतल सुगंध कपूर।तिम मुविनीत रे सहजे सुंदर, पामे गुण अंकूर ॥ वि० ८॥ २३सफला २४तरुवर फल भारे नमे, - ३ मस्तक उपर धरिये, अंगिकार करीये, ४ शीखामण, ५ सफल-फलवाळी, ६ दीक्षा, ७ कान जेना सडी गयां छे एवी कुतरी, ८ लोक, मनुष्यो, ९ समुदाय थको, १० यश-कीर्ति, शोभा, सुंदरपणुं जगतमां पामे नहिं अथवा जस एटले जेर्नु. ११ एक जातनो माटीनो भाजन-वासण, १२ धान्य-दाणांनो, १३ लोभी थाय, आशक्त थाय, १४ विष्टाना समूहमां, १५ उद्धताइ, १६ उद्वत, १७ विचारणा, १८ वृक्ष, १९ ज्ञान, दर्शन, चारित्र विगेरे, २० डालियो, २१ फूल, २२ मनोहर खुशबोथी स्वभाविक मालती सुंदर छे, २३ फलवाळा, २४ सारा वृक्ष. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ 3 - २५मेह नमे जलभार ॥ २९ सालिभरी जिम दीसे २७८लकती, सुपुरुष विनय विचार ॥ वि० ९ ॥ जुवो नरनारी रे जगमां देवता, २८ गज २८ वृषभ अने तुरंग ॥ पगपग दुःख सहे अविनीत जे, विनये सुख लहे चंग ।। वि० १० ॥ जेय प्रकाशेरे अवगुण गुरुतणा, छिद्रनिहाले आप || शीख देयं • तारे रीस जिको करें, तेहने बहुला रे पाप ॥ ११ ॥वि० ॥ गुण वखाणे रे गुरुस्वामि तणा, ढांके अवगुण जाण ॥ सीख देयंता रे मीत जिको करें, ते गुण पाये प्राण ॥। १२ वि० ॥ गौतम सुनखत साधुतणीपरे, पामै 'जग जसवाद || परभव सुरमुख अने मुगती लहे, जिहां नही दुःखविवाद ॥ १३ ॥ वि० ॥ विनयतणां फल जाणी अरुअडां, ते करज्यो गुणवंत ॥ तसुपय लागे रे ब्रह्मो वलिवली, मागे सुख अनंत ॥ १४ ॥ वि० इच्छामि० इच्छकार० भगवन् दुःक्खक्खय कम्मक्खय कर्मनिर्जरानिमित्तं ; काउस्सग्गं करोमि, इच्छं, दुक्खक्खय, कम्मक्रवय, कर्मनिर्जरा निमित्तं करोमि काउस्सग्गं. अन्नत्थ ऊससिएणं कही - ( चार लोगस्स के साल नवकारनो काउस्सग्ग करी पारी प्रगट लोगस्स कहेवो. ) २५ मेघ - वर्षाद, २६ साली बीजें भरेल एटले जेनी अंदर बीज आवेला छे. २७ मनोहर, नम्र, २८, हाथी, २९ बलदियो, ३० घोडो, ३१ शिखामण, ३२ प्राणी - जीव, ३३ सारा मनोहर. Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ सामाइक, चोवीसत्थो, वांदणा, पडिकमणुं, काउस्सग्ग, पच्चक्खाण, ए षडावश्यकने विषे जे कोइ जाणतां अजाणतां दूषण लागो हुवे, ते सवि हुं मन वचन कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं. ॥ इति दैवसिकपतिक्रमण विधिः॥ ॥ हवे सामायिक पारवानी विधि लखीए छीए.॥ __ इच्छामि० इच्छाकारेण सामायिक पारवा इरियावहि पडिक्कमुंजी; इच्छं. (इरियावहि-तस्स उत्तरी-अन्नत्थऊससिएणं कही एक लोगस्स अथवा चार नवकारनो काउस्सग करी पारी प्रगट लोगस्स कहेवो,) इच्छामि० इच्छाकारेण चैत्यवंदन करुंजी, इच्छं. २९ अथ चउकसाय सूत्र* मू०-चउक्कसायपडिमल्लल्लूरण,xदुज्जयमयणबाणमुसुमूरण । सरसपियंगुवन्न गयगामी, जयउ पास भुवणत्तयसामी॥१॥ *रात्रे संथारापोरसीमां आ सूत्र चैत्यवंदन तरीके बोलवामां आवे छे. दरेक श्रावक संथारा पोरसीभणावी शके नहीं तेथी देवसिप्रतिक्रमणने अंते सामायिक पारती वखते लोगस्स० कह्या पछी कहेवानी विधि श्रावकने माटे छे. xउच्छेदकः, ताडनो वा. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ शब्दार्थः... .. चउकसाय-चारकषायरूप । पियंगु-रायणना जेवा पडिमल्ल-शत्रुने वन्न-रंगवाळा उल्लूरण-नाश करनार गय-हाथीना जेवो दुज्जय-दुःखे जीताय गामी-गतिवाळा मयण-कामदेवना जयउ-जयवंता वर्ता बाण-बाणोने पास-श्री पार्श्वनाथ मुसुमूरण-भांगनार. भुवणत्तय-त्रण भुवनना सरस-रसवाळी सामी-स्वामी भावार्थ:-चार कषायरूप शत्रओनो नाश करनार, दुःखे करीने जिती शकाय एवा कामदेवना बाणोने तोडी नांखनार, नवा प्रियंगु (रायण ) वृक्षनी जेवा नील वर्णवाळा, हस्ती जेवी मंद अने मनोहर गतिवाळा तथा त्रण भुवनना स्वामी एवा श्रीपार्श्वनाथ स्वामी जय पामो. १. मू०-जसु तणुकंतिकडप्प सिणिद्धो, सोहइ फणिमणिकिर णालिद्धो । नुन्नवजलहर तडिल्लयलंछिय, सो जिण पास पयच्छउ वंछिय ॥२॥ शब्दार्थ:जसुतणु-जेना शरीरनी कडप्प-समूह कंति-कान्तिनो सिणिदो-स्निग्ध Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोहर - शोभे छे फणि-सापनी फेनुं मणि - मणिरत्न किरण-किरणो वडे आलिद्धो सहित नु-निश्व नव-नवो २१७ जलहर - मेघ तडित्-विजळीनी लय-लताए करी लंछिय-सहित सो जिण पास ते श्री पार्श्वजिन पयच्छउ - आपो वंछिय- वांछितने भावार्थ जे श्रीपार्श्वनाथना शरीरनी कांतिनो समूह स्निग्ध एटले चकचकित चोकाशवाळो छे अने तेमां सर्पना फणा मणिना किरणो व्याप्त थया छे, तेथी भगवाननुं शरीर जाणे वीजळी सहित मेघ होय तेयुं शोभे छे, ते श्रीपार्श्वनाथ प्रभु वांछित आपो. भगवाननुं शरीर मेघनी जेवुं स्निग्ध अने नीलवर्णवालुं छे. तेमां वीजळीनी जेम मणिना किरणो रहेला छे. तेथी आ उत्प्रेक्षा करी छे. २. ( पछी नमुथ्थुणं बोलवु ) ३० अथ जावंति चेइआई. हवे सर्व चेत्योने नमस्कार करे छे, - मू० - जावंति चेइआई, उड्ढे अ अहे अ तिरिअलोए अ । सव्वाई ताई वंदे, इह संतो तत्थ संताई ॥ १ ॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ शब्दार्थ: जावंति-जेटलां ताई-ते चेइआई-चैत्यो वंदे-वंदना करूं छु उड्ढे अ-स्वर्गमा इह संतो-अहिं रह्यो छतो अहे अ-पाताळमां तिरिअलोए अ-मनुष्यलोकमां तत्थ-न्यां सव्वाई-सर्वने संताई-रहेलांने भावार्थ-ऊर्बलोकने विषे एटले ज्योतिष तथा स्वर्गने विषे, अधोलोकने विषे एटले कुबडी विजय तथा भानातिनां स्थानोने विषे, अने तिजलोकने विषे एटले आ मध्य लोकने विषे, जेटलां चैत्यो एटले जिनप्रतिमाओ छे, ते सर्व त्यां रहेलां चैत्योने, हुं अहीं रह्यो थको वांदुं बुं. संपदा ४. गाथा १. पद. ४ गुरु ३. लघु ३२. सर्ववर्ण ३५. ३१ अथ जावंत केविसाहू. हवे सर्व साधुओने नमस्कार करे छे.मु०-जावंत केविसाहू, भरहेरवयमहाविदेहे अ। सव्वेसिं तेसिं पणओ, तिविहेण तिदंडविरयाणं ॥१॥ - शब्दार्थ:जावंत-जेटला साहू-साधुओ केवि-कोइ पग भरह-भरतक्षेत्रमा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एरवय-ऐरक्तक्षेत्रमा तिविहेण-त्रण करणे करीने महाविदेहे-महाविदेह क्षेत्रमा करवू, करावq ने अनुअ-अने __मोदना रूप सन्वेसिं-सर्वने तेसिं-तेओने तिदंड-त्रण दंडथी पणओ-नम्यो छु विरयाणं-विराम पामेलाने भावार्थ-पांच भरत, पांच ऐवत अने पांच महाविदेह क्षेत्रने विषे जे कोइ साधुओ रहेला छे, ते सर्वे करवू, करावq अने अनुमोदQ ए त्रण करणे करीने मन, वचन अने कायाना, ए त्रण दंडथी विराम. पामेलासाधुओने हुं नमन करूं छु. पद ४. संपदा ४. गाथा १. गुरु १. लघु ३७. सर्ववर्ण ३८. ( सर्व अनंता सिद्धने मारो नमस्कार होजो.) इच्छामि० इच्छाकारेण स्तवनं संदिसाएमि ! , भणेमि ? (इच्छं कही नीचे मुजब उवसग्गहरं, स्तवन कहेवु.) . ३२ उवसग्गहरं स्तोत्र* आर्या छन्द मू०-उवसग्गहरं पासं, पासं वंदामि कम्मघणमुकं । विसहरविसनिनासं, मंगलकल्लाणावासं ॥१॥ . * आ स्तोत्र चौद पूर्वधर श्रीभद्रबाहुस्वामीए रचेलं छे. रचवानुं Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... शब्दार्थ:उपसग्ग-विघ्नोने मुकं-मूकायेला हर-हरनार विसहर-सापना पासं-पार्श्व नामनो यक्ष छे विस-झेरनो जेमने एवा निन्नासं-नाश करनार 'पासं-पाश्वनाथने मंगल-मंगल वंदामि हुं वांदं छु कल्लाण-कल्याणना कम्मंघण-कर्मना समूहथी आवासं-घरसमान कारण आ प्रमाणे छे.--श्री भद्रबाहुस्वामीने वराहमिहर नामनो भाइ हतो. तेणे चिरकाळ सुधी चारित्र पाळी शास्त्रनो अभ्यास को हतो. त्यार पछी कोइ कारणथी चारित्रनो त्याग करी ते जैनधर्मनो द्वेषी थयो. अने ज्योतिष शास्त्रथी ते पोतानो निर्वाह करवा लाग्यो. तेमां ते घगी प्रतिष्ठा पाम्यो. ते गर्वथी जैन साधुओनी निरंतर निंदा करतो हतो. एकदा राजसभामां श्रीभद्रबाहुरवामीए तेना ज्योतिषना ज्ञानमा स्खलनाअपूर्णता बतावी. तेथी वराहमिहर वधारे धर्मद्वेषी थयो. अंते मरण पामी ते व्यतर थयो. तेणे पूर्वन वैर संभारी संवमां मरकीनो उपद्रव कों. तेनी शांतिने माटे श्री संघनी विज्ञप्तिथी श्री भद्रबाहुस्वामीए सात गाथार्नु आ उपसर्गहर स्तोत्र बनाव्युं ते भणवा, गगवा अने सांभळवाथी मरकी शांत थइ गइ. तेथी लोको निरंतर आ स्तोत्र गणवा लाग्या तेना प्रभावथी धरणेंद्रने प्रत्यक्ष आवq पडतुं हतुं. तेथी धरणेदनी विनंतिथी गुरु -महाराजे छेल्ली बे गाथा भंडारी मूकी अने हालमा जे पांच गाथा उप Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ:-उपसर्गने हरण करनार पार्श्व नामनो यक्ष जेमनो सेवक छे, जे कर्मना समूहथी मुक्त थयेला छे, जेमना स्मरणथी सर्पना विषनो नाश थाय छे, तथा जे मंगळ अने कल्याण- स्थान एटले आधार छे, ते पार्श्वनाथ स्वामीने हुं वांदुं छं. १. . . मू-विसहरफुलिंगमंतं, कंठे धारेइ जोसया मणुओ। तस्स गहरोगमारी-दुट्ठजरा जति उवसामं ॥२॥ . विसहर-विषधर फुलिंग-स्फुलिंग नामना मंतं-मंत्रनेx कंठे-कंठमां धारेइ-धारण करे जो-जे सया-हमेशां मणुओ-मनुष्य शब्दार्थ: तस्स-तेना गह-ग्रह रोग-रोग मारी-मरकी दुइ-खराब जरा-ताव जंति-पामे छे उवसामं-शांतिने लब्ध-प्रसिद्ध छे तेज राखी. आ स्तोत्रमा श्री पार्श्वनाथस्वामी तथा तेमना यक्ष पार्श्व, पद्मावती देवी अने धरणेंद्रनी द्विअर्थी स्तुति छे. ते जाणवानी इच्छावाळाए मोटी टीका जोवी. xॐ नमिऊग पास विसहर वसह जिणफुलिंग. Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ भावार्थ:-जे मनुष्य श्रीपार्श्वनाथना नामवाळा विषधरस्फुलिंग नामना मंत्रने निरंतर कं मां धारण करे छे एटले मुखपाठे करे छे, तेना दुष्ट ग्रह, रोग, मरकी अने ज्वर विगैरे सर्व उपद्रवो शांत थाय छे-- नाश पामे छे. २. मू-चिट्ठउ दूरे मंतो, तुज्झ पणामो वि बहुफलो होह । नरतिरिएसु वि जीवा, पाति न दुक्खदोगचं ॥३॥ . शब्दार्थ:चिट्ठउ-रहो नर-मनुष्य दूर-दूर तिरिएसु-तिर्यंचना मंतो-मंत्र वि-पण तुज्झ-तमने जीवा-जीवो 'पणामो वि-करेलो नमस्कार पाति-पामे छे न-नहीं बहुफलो-धणा फळवाळो दुक्ख-दुःख • होइ-थाय छे दोगच्च-दारिद्य पण ... भावार्थ:-हे भगवान ! विषधरस्फुलिंग नामनो मंत्र तो दूर रहो, परंतु जो तमने मात्र प्रणाम ज को होय तो पण ते घणा फळने आपनारो थाय छे, कारण के तमने प्रणाम करनारा जीवो. पण मनुष्य अने तिर्यंच गतिने विषे दुःख तथा दरिद्रताने पामता नथी. ३. Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રર૩ मू-तुह सम्मत्ते लदे, चिंतामणिकप्पपायवब्भहिए । पावंति अविग्घेणं, जीवा अयरामरं ठाणं ॥४॥ शब्दार्थ:-- तुह-तमारं पावंति-पामे छे सम्मते-समकित दर्शन अविग्घेणं-विघ्नविना लद्धे-पामे छते जीवा-जीवो चिंतामणि-चिंतामणि रत्न कप्पपायवब्महिए-कल्पवृक्षथी । अयरामरं-मोक्ष अधिक ठाणं-स्थानने भावार्थ:-हे भगवान ! चिंतामणि रत्न अने कल्पवृक्षथी पण अधिक महिमावाळू तमारं समकित पामवाथी जीवो काइ पण विघ्न विना ज अजरामर स्थानने एटले मोक्षपदने पामे छे. ४. मू०-इअ संथुओ महायस!, भत्तिब्भरनिब्भरेण हियएण । - ता देव! दिज्ज बोहिं, भवे भवे पास जिणचंद ! ५ शब्दार्थ:इअ-ए प्रकारे ता-ते कारग माटे संथुओ-स्तुति करी देव-देव ! महायस-मोटा यशवाळा दिज्ज-आपो भत्तिब्भर-भक्तिना समूहथी। बोहि-सम्यक्त्र निब्भरेण-पूर्ण भरेलो भवे भवे-भवोभवने विषे हिअएण-हृदये करी पास जिणचंद-हे पार्श्वजिनचंद्र Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રણ मावार्थ:-हे महायशस्वी प्रभु ! आ प्रमाणे भक्तिना समूहथी भरपूर एवा हृदयवडे में आपनी स्तुति करी छे, तेथी हे पार्श्वनाथ जिनचंद्र देव ! मने दरेक भवमां बोधि एटले समकित आफ्जो. एटलं ज हुं मागुं बुं.. गुरु २९. लघु १५६. सर्ववर्ण १८५. गाथा ५. ( पछी जयवीयराय कहेवू ) इच्छामि० इच्छाकारेण. सामायिक . पाळवा मुहपत्ति पडिले हुं ? एम कही मुहपत्ति पडीलेही. इच्छामि इच्छाकारेण० सामायिक पारु ? (गुरु कहे, पुणोवि कायव्वं) श्रावक कहे यथाशक्ति इच्छामि० इन्छाकारेण सामायक पारुं ? (गुरु कहे आयारो न मोतव्वो) श्रावक कहे तहत्ति. (पछी कटासणा उपर जमणो हाथ मूकी) एक नवकार गणवो. अने नीचे प्रमाणे बोलq.) ॥३३ अथ सामाइय वयजुत्तो॥ मू-सामाइयवयजुत्तो, जाव मणे होइ नियमसंजुत्तो। छिन्नइ असुहं कम्म, सामाइय जत्तिआ वारा ॥१॥ सामाइय-सामायिक नियम-नियम वडे वय-व्रत संजुत्तो-सहित जुत्तो-सहित छिन्नइ-छेदे जाव-ज्यां सुधी. अमुहं-अशुभ मणे-मन कम्म-कर्म होइ-होय जत्तिआवारा-जेटलीबार Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ:-कोइ पण प्राणी ज्यासुधी सामायिक व्रत ग्रहणं करी मनमां नियम सहित एटले स्थिर चित्ते रहे त्या संधी तथा जेटली बार सामायिक करे तेटली वार अशुभ कर्मनो नाश करे छे अर्थात् सामायिकथी ज अशुभ कर्मनो नाश थइ शके छे. ते विषे कह्यु छ केमू०-सामाइअम्मि उकए, समणो इव सावओ हवइ जम्हा। एएण कारणेणं, बहुसो सामाइअं कुज्जा ॥२॥ शब्दार्थ:सामाइअंमि-सामायिक जम्हा-जेथी उ-वळी एएण-ए कए-करती बखते समणो इव-साधु जेवो कारणेणं-कारणथी सावओ-श्रावक बहुसो-घणीवार हवइ-होय छे । कुज्जा --करवं जोइए ___ मावार्थ:-जेथी करीने श्रावक सामायिक व्रत करे त्यारे साधु जेवो होय छे, तेथी करीने घणीवार सामायिक करवू योग्य छे. २. सामायिक विधिए लीg, विधिए पार्यु, विधि करतां जे कोइ अविधि आशातना हुइ होय, तस्स मिच्छामि दुक्कड. दश मनना, दश वचनना, बार कायाना, एवं कारे बत्रीश दुषणमां जे कोइ दूषण लाग्यु होय तस्स मिच्छामि दुक्कडं ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२६ भावार्थ: मैं सामायिक विधिथो लीधुं छे, विधिथी पार्क छे, तोपण विधि करतां जे कोइ अविधि थइ गयो होय एटले के 'मनना दश, वचनना दश अर्ने कायना बार, ए बत्रीश दोषमाथी जें कोई दोष लाग्यो होय, ते सर्वने हुँ, मन, वचन अने कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं आपुं कुं. गाथा. २, गुरु ७, लघु ६७, सर्व वर्ण ७४. ( पछी त्रण नवकार गणवा) ॥ इति सामायक पारवानी विधि || X १ मनना दश दोष आ प्रमाणे. शत्रुने जोइ तेनापर द्वेष करवो १, अविवेक चितववो २, अर्थनो विचार न करवो ३, मननां उद्वेग धारण करे ४, यशनी इच्छा करें ५, विनय न करे ६, भय चिंतवे, व्यापार चितवे ८, फळनो संदेह करे ९ तथा निदान - नियाणुं करे एटले फळनी इच्छा राखी धर्मक्रिया करे १०. -- " २ वचनना दश दोष आ प्रमाणे -- खराब वचन बोले १, हुंकारा करे २, पापकर्मनो आदेश आपे ३, लवारो करे ४, कलह करे ५, क्षेमकुशळ पूछी आगत स्वागत करे ६, गाळ दे ७, बाळकने रमाडे ८, विकथा करे ९, तथा हांसी करे १०. " ०३ कायाना बार दोष आ प्रमाणे – आसन चपळ -- अस्थिर करे १, चोतरफ जोया करे २, सावध कर्म करे ३, आळस मरडे ४, Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ ॥ अथ राइप्रतिक्रमणनी विधि ॥ प्रथम हरियाant परिनि सामायिक लेवं पछी उभा थइ खमासमण दइ कहे . इच्छा करेग संदिसह भगवन् कुसुमिण दुसुमिण राइ प्रायश्चित्त विशोधनार्थं काउस्सग्ग करूं, गुरु कहे करेह. इच्छं करेमि काउस्सगं. अन्नात्थ कही चार लोगस्स अथवा सोळ नवकारनो काउस्सग्गा करी, खमासमण दइ कहेवुं. इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! चैत्यवंदन करूं ? इच्छं । " 46 ३४ श्री जगचिंतामणि चैत्यवंदन ( आ चैत्यवंदनमां चोवीसे तीर्थकरोनी स्तुति करे छे. - ) अविनये बेसे ५, भत विगेरेने ओटुं दइ बेसे ६, शरीर परनो मेल उतारे ७, खरज खणे ८, पग उपर पग चडावे ९, अंग उघाडां करे १०, जंतुओना उपद्रवथी डरीने चोतरफथी शरीरने ढांके ११, तथा निद्रा ले १२. * गौतमस्वामी ज्यारे अष्टापदपर्वत पर जात्रा करवा गया त्यारे तेमणे आ चैत्यवंदन कर्युं छे. 1. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ मू०-जगचिंतामणि जगनाह जगगुरु जगरक्षण । जगबंधव जगसत्यवाह जगभावविअक्खण ॥ अहावयसंठविअरूव कम्महविणासण । चउवीसं पि जिणवर जयंतु अप्पडिहयसासण ॥१॥ शब्दार्थःजग-जगतना जीवोने संठविय-स्थापन काँ छे चिंतामणि-चिंतामणि रत्न समान रूव-बिंब (प्रतिमा) नाह-नाथ कम्मल-आठ कर्मनो गुरु-गुरु रख्खण-रक्षक विणासण-नाश करनार बंधव-भाइ चउवीसं पि-चोवीशे पण सथ्थवाह-सार्थवाह जिणवर-तीर्थकरो भाव-जगतना भाव जाणवामां जयंतु-जय पामो विअक्खण-समर्थ (विचक्षण) अप्पडिहय-कोइथी हणायु नथी अहावय-अष्टापद पर्वत उपर । सासण-शासन भावार्थ-जे तीर्थंकरो जगतमां चिंतामणि समान छे एटले भव्य प्राणीओने वांछित अर्थ आपनारा छे, जे आ त्रण जगतना नाथ छे, जेओ समस्त जगतना जीवोने हितोपदेश आपवाथी तेमना गुरु छे,, जेओ जगतना सर्व प्राणीओनुं रक्षण करनारा छे, जेओ जगतना हितेच्छु Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होवाथी बंधुरूप छे, जेओ जगतना भव्य जीवोने मोक्षमां लइ जनार होवाथी सार्थवाह छे, जेओ जगतना सर्व पदार्थोने जाणवामां तथा तेनी प्ररूपणा करवामां विचक्षण एटले निपुण छे, तेमनी प्रतिमाओ *अष्टापद पर्वतपर स्थापन करेली छे, जेओ आठे कोनो नाश करनारा छे, तथा जेओनुं शासन एटले उपदेश सर्वत्र अप्रतिहत एटले कोइथी बाधा-खंडन न कराय तेवु छे एवा चोवीशे तीर्थकरो जय पामो. १. हवे तीर्थंकरोनी, केवलज्ञानोओनी अने सामान्य साधुओनी स्तुति करे छे. मू०-कम्मभूमिहिं कम्मभूमिहिं पढमसंघयणि, उकोसय xसत्तरिसय, जिणवराण विहरंत लब्भइ । नवकोडी केवलिण, कोडिसहस्स नत्र साहु गम्मइ॥ संपइ जिण. वर वीस, मुणि बिहुँ कोडी वरनाणि । समणह कोडिसहसदुअ थुणिज्जइ निच्च विहाणि ॥२॥ * अष्टापद उपर श्री ऋषभदेवना पुत्र भरतचक्रोए चोवीशे तीर्थकरनी प्रतिमा मणिमय स्थापन करेल छे, ते दरेक तीर्थकरोनी पोतपोतानी कायाना मापे प्रतिमा छे; सौनी नासिका सरखी लाइनमां छे, बेउकनी पाटली नीचा उंची छे. . x पांच भरत, पांच ऐरक्त अने पांच महाविदेहनी कुल एक सो ने साठ विजय, ते सर्वमा एक एक तीर्थकर होय त्यारे उत्कृष्टा १७० तीर्थकरो पमाय छे. ते प्रमाणे श्री अजितनाथने वारे हता. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थःकम्मभूमिहिं-ज्यां कर्म वर्ते छे । गम्मइ-जाणीए कम्मभूमिहिं-कर्मभूमिमां संपइ-वर्तमान काळे पढम-पहेला जिणवर-तीर्थकरो संघयणि-संघयणवाळा वीस-वीस उक्कोसय-उत्कृष्टपणे मुणि-मुनिओ सत्तरिसय-एकसो सीत्तर बिहुँ कोडी-बे क्रोड जिणवराण-तीर्थकरो विहरंत-विचरता वरनाणि-केवळ ज्ञानवाळा लब्भइ-पमाय छे समणह-साधु नवकोडी-नव क्रोड कोडी--कोड केवलिण-केवळज्ञानी सहसदुअ-बे हजार कोडि-क्रोड थुणिज्जइ-स्तुति करीए सहस्सनव-नव हजार निच्च-हमेशा साहु-साधुओ विहाणि-प्रभातमा भावार्थ-सर्व कर्मभूमिओमां एटले असि, मषी अने कृषिरूप कर्म जेमां वर्ते छे एवा पांच भरत, पांच ऐश्वत अने पांच महाविदेह क्षेत्रमा के ज्यां दरेकमां बत्रीश बत्रीश विजय होवाथी कुल १६० विजयो छे, तेमां पांच भरत अने पांच ऐस्वत नाखबाथी १७० कर्मभूमिओने विषे प्रथम संघयणवाळा उत्कृष्टकाळे विचरता १७० तीर्थकरो Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ पमाय छे, केवळज्ञानी नव करोड अने सामान्य साधुओ नव हजार करोड पमाय छे. तथा वर्तमान काळमां सर्वनी संख्या जघन्य छे. एटले के सीमंधर स्वामी विगेरे xवीश तीर्थंकरो विचरता छे, केवळज्ञानीओ बे करोड छे अने सामान्य साधुओ बे हजार करोड छे. तेमनी निरंतर प्रातःकाळे स्तवना करवी. २. हवे अमुक तीर्थस्थानोमा रहेलो जिनप्रतिमाओने तथा जिनेश्वरोने वंदना करे छे.-- मू०-~-जयउ सामी, जयउ सामी, रिसह सत्तुंजि ॥ उज्जिते पहु नेमिजिण, जयउ वीर सच्चउरिमंडण ॥ भरुअच्छे मुणिसुव्यय मुहरिपास । दुहदुरिअखंडण अवरविदेहे तित्थयरा । चिहुं दिसि विदिसि जिं के वि तीआणागायसंपइअ वंदू जिण सव्वे वि ॥३॥ शब्दार्थजयउ-जय पामो | रिसह-हे ऋषभदेव प्रभु ! सामी-स्वामी सत्तुंजि-शत्रुजय उपर x जघन्य काळे वीश तीर्थकरो होय, ते आ प्रमाणे.-हालमा महाविदेहनी ८-९-२४-२५ ए चार विजयमा एक एक तीर्थकर छे तेथी जंबूद्वीपमां चार छे. धातकीखंडना बे महाविदेहमां थइने आठ तथा पुष्कराधना बे महाविदेहमां थइने आठ मळी कुल वीश छे, दरेक वखते तीर्थकरोना विचरवानी अपेक्षाए विजयो बदलाय छे. : . Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उजिते-गिरनार उपर नेमिजिण-हे नेमिनाथ ! वीर-महावीर भगवान ! सच्चउरि-सत्यपुरी (साचोर) मंडण-शोभावनार मरुअच्छे-भरुच नगरमां मुणिसुव्वय-मुनिसुव्रत मुहरि-मुहरि (टीटोई) माममां पास-पार्श्वनाथ खंडण-नाश करनार .. अवर-बीजा विदेहे-महाविदेहमा रहेला तित्थयरा-तीर्थकरो . चिंहुं दिसि-चार दिशाओमां विदिसि-विदिशाओमां जिं केवि-जे कोइ तीध-भूतकाळ अणागय-भविष्यकाळ संपइअ-वर्तमान काळ वंदू-वांदु छु जिण-जिनेश्वर सव्वे वि-सर्व पण दुह-दुःख दुरिअ-पाप . . भावार्थ-शत्रुजय पर्वतपर रहेला हे ऋषभदेव प्रभु ! तमे जय पामो. श्री गिरनार पर्वतपर रहेला हे श्रीनेमिनाथ प्रभु ! तमे जय पामो. सत्यपुरी नसरी एटले साचोरनगरना आभूषणरूप हे श्रीमहावीर स्वामी ! तमे जय पामो, भरुचमा रहेला हे श्रीमुनिसुव्रत स्वामी ! तमे जय पामो. Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा टीटोई गाममा रहेला है श्री *मुहरिपार्श्वनाथ ! तमे जय पामो. आ पांचे जिनेश्वरो दुःख अने पापनो नाश करनार छे. तथा. पांचे महाविदेहने विषे रहेला जे तीर्थकरो छे, तथा चार दिशा अने चार विदिशामां जे कोइ अतीतकाळ, अनागतकाळ, अने वर्तमानकाळ संबंधी तीर्थंकरो छे, ते सर्वने पण हुं वंदना करूं छं. ते सर्वे दुःख अने पापनो नाश करनार छे ३. हवे त्रण लोकमां रहेला चैत्योने वांदे छे.मू०-सत्ताणवइ सहस्सा, लक्खा छप्पन्न अट्ट कोडीओ। बत्तिसय बासिआइं, तिअलोए चेइए वंदे ॥४॥ शब्दार्थसत्ताणवइ-सत्ताणु बासिआइं-व्याशी सहस्सा-हजार तिअलोए-त्रण लोकने विषे लख्खा . छप्पन्न-छप्पन लाख अट्ठकोडिओ-आठ करोड चेइए-चैत्योने बत्तीसय-बत्रीस सो वंदे-वांदं छं. भावार्थ:-स्वर्गलोक, तिरछो लोक अने पाताळलोक, ए त्रणे लोकमां कुल आठ करोड़ छप्पन लाख सताणुं हज़ार बत्रीश सो अने व्याशी. ( ८५७०९२८२ ) चैत्यो छे, तेमने हुं वांदं छु. ४. .. ते गामन्त्रो राजा एक मुहरि एटले एक महोर लइने दर्शन करवा देतो तेनुं नाम मुहरिपार्थनाथ कहेवाय छे. .. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हवे शाश्वती प्रतिमाओने वांदे छे... मू-पनरस कोडिसयाई, कोडी बायाल लक्ख अडवन्ना। .. छत्तीस सहस असि, सासयबिंबाई पणमामि ॥५॥ शब्दार्थपरनस-पंदर छत्तीस-छत्रीस कोडि-करोड सहस-हजार सयाई-सो असिइं-एसी बायाल-बेतालीस सासय-शाश्वती लख्ख-लाख बिंबाई-प्रतिमाओने अडवन्ना-अठ्ठावन पणमामि-हुं प्रणाम करूं छु. भावार्थ-( उपर कहेला सर्व चैत्योमा थइने ) कुल पंदर सो करोड, बेंताळीश करोड, अहावन लाख, छत्रीश हजार ने एंशी (१५४२५८३६०८०) एटली शाश्वती प्रतिमाओं छे तेमने हुं प्रणाम करूं छु-वांदुं छं. ५. -- - । पछी जंकिंचि० नमुथ्थुणं० जावंति चेइआई० जावंत के वि साहू कही, अनन्ता सिद्धोने मारो नमस्कार होजो. खमासमण बे पूर्वक "स्तवनं संदिसाएमि, स्तवनं भणेमि" पछी नवकार, उपसग्गहरं, जयवीराय० कहे. त्यार पछी खमासमण देइ “इच्छाकारेण संदिसह भगवन् बेसणे संदिसाएमि" Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीजे खमासमणे "बेसणे ठाएमि" बीजे खमासमणे "सज्झायं संदिसाएमि" चोथे खमासमणे सज्झायं भणेमि" पछी नवकार एक गणी भरहेसरवाहुबलिनी सज्झाय कहेवी. ... ३६ अथ भरहेसरनी सज्झाय.x मू-भरहेसर बाहुबली, अभयकुमारो अ ढंढणकुमारो। .. सिरिओ अणिआपुत्तो, अइमुत्तो नागदत्तो अ॥१॥ अर्थ--* भरतेश्वर-भरतचक्री, बाहुबळी,अभयकुमार, ढंढणकुमार, श्रीयक, अर्णिकापुत्र अतिमुक्त अने नागदत्त. १. मू०-मेअन्ज थूलिभद्दो, वयररिसी नंदिसेण सिंहगिरी। कयवन्नो अ सुकोसल, पुंडरिओ केसि करकंडू ॥२॥ अर्थ-मेतार्य मुनि, स्थूलभद्र, वज्रऋषि, नंदिषेग, सिंहगिरि (श्रीवत्र स्वामीना गुरु ) कृतपुण्य कुमार, सुकोशल. मुनि, पुंडरीक. (कंडरिकना भाइ) राजर्षि, केशी कुमार, करकंडू प्रत्येक बुद्ध. २. मू०-हल्ल विहल्ल सुदंसण, साल महासाल सालिभद्दो अ। भद्दो दसण्णमद्दो, पसण्णचंदो अ जसभदो॥३॥ अर्थ-हल्ल अने विहल्ल श्रेणिकना पुत्रो, सुदर्शन शेठ, साल xआ सज्झायमां शीलवतने दृढ रीते पाळनारा उत्तम नरो अने सतीओनुं नामोचार पूर्वक स्मरण करेलुं छे.. ... * आ सर्व गाथाओ सरळ होवाथी मात्र अर्थज लख्यो छे.. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ अने महासाल मुनि, शालिभद्र, भद्रबाहु स्वामी, दशार्णभद्र, प्रसन्नचंद्र राजर्षि अने यशोभद्रसूरि ३५ मू० - जंबुपहु वंकचूलो, गयसुकुमालो अवंतिसुकुमालो । धन्नो इलाइपुतो, चिलाइपुतो सुबाहुमुणी ॥ ४ ॥ अर्थ – जंबूस्वामी, बँकचूळ राजकुमार, गजसुकुमाळ, अवंति - सुकुमाळ, धन्ना शेठ, इलाचीपुत्र, चिलातिपुत्र अने सुबाहु मुनि. ४. मू० - अज्जगिरि अज्जर क्खि, अजसुहत्थी उदायगी मणगो । कालियरी संबो, पज्जुण्णो मूलदेवो अ ॥ ५ ॥ - अर्थ — आर्यमहागिरि, आर्यरक्षित सूरि, आर्यसुहस्ती सूरि, उदायी राजा, मनक पुत्र कालकाचार्य, सांब कुमार, प्रद्युम्न कुमार अने मूळदेवराजा. ५. मू० - पभवो विण्डुकुमारो, अद्दकुमारो दढप्पहारी य । सियंस क्रूरगड ओ, सिज्जंभव मेहकुमारो य ॥ ६ ॥ अर्थ — प्रभव स्वामी, विष्णुकुमार, आर्द्रकुमार, दृढप्रहारी चोर, श्रेयांस कुमार, कूरगडु, साधु, सय्यंभव स्वामी अने मेचकुमार, ६. मू० - एमाइ महासत्ता, दिंतु सुहं गुणगणेहिं संजुत्ता । जेसिं नामग्गहणे पावपबंधा विलिज्जति ॥ ७ ॥ शब्दार्थः एमाइ - ए आदिक महासत्ता-मोटा सच्ववाळा गुणगणेहिं - गुणना समूहवडे संजुत्ता-युक्त एवा सर्वे सुहं - अमने सुख दिंतु आपो, Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३७ जेसिं-जेमनां नामग्गहणे - नाम ग्रहण कर वाथी ज पावपबंधा- पापना बंधो विलिज्जंति - विलयने पामे छे-नाश पामे छे भावार्थ-ए आदिक मोटा सत्यवाळा अने गुणना समूहवडे युक्त: एवा सर्वे अमने सुख आपो, के जेमनां नाम ग्रहण करवाथी ज पापना बंधो विलयने पामे छे-नाश पामे छे. ७. मू० - मुलसा चंदनबाला, मणोरमा मयणरेहा दमयंती | नमयासुंदरी सीया, नंदा भद्दा सुभद्दा य ॥ ८ ॥ अर्थ- सुलसा, चंदनबाळा, मनोरमा, मदनरेखा, दमयंती, नर्मदा सुंदरी, सीता, नंदा, भद्रा शेठाणी अने सुभद्रा. ८. मू० - राइ (य) मई रिसिदत्ता, पउमावर अंजणा सिरीदेवी । जिट्ट सुट्ठि मिगाव, पभावई चिल्लणादेवी ॥ ९ ॥ अर्थ - राजीमती, ऋषिदत्ता, पद्मावती, अंजनासुन्दरी, श्रीदेवी, ज्येष्ठा, सुज्येष्ठा, मृगावती, प्रभावती अने चेलणा राणी. ९. मू० – बंभि सुंदरि रुप्पिणी, रेवइ कुंती सिवा य जयवंती । देव दोव धारणी, कलावर पुप्फचूला य ॥ १० ॥ अर्थ – बाह्मी, सुन्दरी, रुक्मिणी, रेवती, कुंती, शिवा, जयंती, देवकी, द्रौपदी, धारणी, कळावली अने पुष्पचूला. १०. मू० - - पउमावई य गोरी, गंधारी लक्खमणा सुसीमा य । जंबूवर सच्चभामा, रुप्पिणि कण्हरू महिसीओ ॥११॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अर्थ-पद्मावती, गौरी, गांधारी, लक्ष्मणा, सुसीमा, जंबूवती, सत्यभामा अने रुक्मिणी ए आठ श्री कृष्णनी पट्टराणीओ. ११. : मू०--जक्खा य जक्खदिन्ना भूआ तह चेव भूअदिना अ। २. सेणा वेणा रेणा, भइणीओ थूलिभदस्स ॥ १२ ॥ अर्थ-यक्षा, यक्षदत्ता, भूता तथा वळी भूतदत्ता, सेणा, वेणा अने रेणा ए सात स्थूलभद्रनी बहेनो छे. १२. मू-इच्चाइ महासइओ, जयंति अकलंकसीलकलिआओ। अज्ज वि वज्जइ जासिं, जसपडहो तिहुअणे सयले ॥१३॥ .. शब्दार्थ: इच्चाइ-ए विगैरे जासिं-जेमनों अकलंक-निर्मळ जसपडहो-यशरूपी पडह सील-शियळथी सयले-समग्र कलिआओ-सहित तिहुअणे-त्रण भुवनने विषे महासइओ-महासतीओ अज्जवि-आज सुधी जयंति-जय पामे छे वज्जइ-वाग्या करे छे. भावार्थ-इत्यादिक एटले ए विगैरे अकलंकित-निर्मळ एवा शीळव्रते करोने सहित एवी महा सतीओ जय पामे छे, के जेमनो यश-रूपी पडह समग्र त्रणे भुवनने विषे आज सुधी वाग्या करे छे. १३. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ पछी खमासमण दइ इच्छाकारेण संदिसह भगवन आचार्यवांदुजी, एक खमासमण देइ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् उपाध्यायवादुजी, एक खमासमण देव इच्छाकारेण संदिसह भगवन् साधु वांदुजी, इच्छकारसुहरा० उथो खमासमण देइ कहेवुं "इच्छाकारेण संदिसह भगवन् राइपडिकमणं ठामि . " ( गुरु कहे ठारह ) पछी नमो अरिहंताणं करोमिभते ० इच्छामिठामि काउरसग्गं तस्स उत्तरी अन्नत्थ • कही एक लोग्गस्सनों O काउस्सग करी पारी प्रगट लोगस्स कही, पछी " सव्वलोए अरिहंत चेइआणं०" दर्शनाचारविशुद्धि माटे एक लोगस्सनो काउस्सग्ग करी पारी "पुक्खरवरदीवड्ढे ० " कही "सुयस्स भगवओ०" कहीने काउरसग्ग करवो तेमां अतिचारनी आठ गाथा चितववी काउस्सग्ग पारी "सिद्धाणं बुद्धाणं०" कही मुहपत्ति पडिलहिने बे वांदणा देवा. ( वांदणाना पाठमा ज्यां " दिवसो वइकंतो " एवो पाठ छे त्यां " राइ वइकता " एम कहेतुं "देवसिअं" ने ठेकाणे "राइअं” ने "देवसिआए" ने ठेकाणे "राइआए" एम कहेवुं. ) $1 -3 पछी " आवस्सइ" अवग्रह बाहेर नोकळी कहेवुं "इच्छाकारेण संदिसह भगवन्, राइयं आलोएमि. " ( गुरु कहे आलोएह " इच्छं आलोएमि, जो मे राइओ अइआरो कओ ०" सात लाख ० अढार पापस्थान चार विकथा० आलोवी सव्वसविराइय० कही वीरासने बेसी नमो अरिहंताणं० करेमि भंते ० चत्तारिमंगलं कही इच्छामि पडिकमिउं जो मे राहओ अइआरो० कही, इरियावही पडिकमि० " वंदित्त " कहेतुं ( वंदित्तासूत्रमां " पडिक्कमे देसिअं सव्वं " ने बदले "पडिक्कमे राइअं सव्वं " एम बोलवु ) Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पछी चौदणा देइ "इच्छाकारेण संदिसह भगवन्, अम्मुहि- . ओमि अमितर राइयं खामेडं. इच्छं खामेमि"॥ए रीते खामणा करी आवस्सही भणी अवग्रह बाहेर नोकळी ॥ "आयरिय उवज्झाए" कही नवकार, करेमि भंते,इच्छामि ठामि काउस्सग्ग० तस्स उत्तरी करणेणं० अन्नन्ध ऊससिएणं० कही काउस्सग्म करवो. ए काउस्सग्गमां नीचे लखेली " छम्मासी तप चिंतवणा करवी. ते न आवडे तो चार लोग्गस्स के सोल नवकार गणवा. पछी आंबिल, नीवी, एकासगुं, बिआसणुं, पुरिमढ, साढपोरसि, पोरसि, जे पच्चक्खाण करवा वांच्छे त्यांलगी चिंतबी काउस्सग्ग पारे । पछी लोगस्स कही दृष्टिपडिलेहणा करी वांदणा दइ उभा थइ - तीर्थमाला कहेवी. ॥३६ छमासी तप चिंतवणा॥ ॥श्रमणभगवंत श्रीमहावीरदेवे छम्मासी तप कीधो ॥ अरे जीव तुं छम्मासी तप करी शके ? न शकुं॥ एक दिवस ऊणो करी शके ? न शकुं । बिहु दिवस उणो करी शके ? न शकुं॥ त्रिहुं दिवसे ऊणो करी शके ? न शकुं ॥ चिहु दिवसे ऊणो करी शके ? न शकुं ॥ पांच दिवसे ऊणो करी शके १ न शकुं॥६-७-८-९-१० दिवसे ऊणो करी शके १ न शकुं ॥११-१२-१३-१४-१५ दिवसे ऊणो करी शके १ न शकुं॥१६-१७-१८-१९-२० दिवसे ऊणो० ? न शकुं॥ २१-२२-२३-२४-२५ दिवसे० १ न शकुं ॥ २६ दिवसे० ? न० २७ दिव० ? न० ॥ २८ दि० १ न० २९ दिवसे ऊणो छम्मासी तप करी शके १ न शकुं ॥ इणिपरे पंचमासी, Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ वउमासी, त्रिमासी, बिमासी चीतववो ॥ पछे अरे जीव एकमासी तप करी शके १ न शकुं । एक दिन ऊणो करी शके ? न शकुं ॥ बे दिवसे ऊणो करी शके ? न शकुं॥ 'त्रण दिवसे ऊणो ? न शकुं ॥ चार दि० १ न शकुं॥ पांच दिवसे० ? न शकुं॥ एवं ६-७-८-९-१० दिवसे उणो० ? न शकुं ॥११-१२-१३ दिवसे ऊणो० १ न शकुं॥चोत्रीसम करी शके ? न शकुं । एवं बत्रीसम, त्रीसम, अठावीसं, छवीसम, चऊवीसम, बावीसम, वीसम, अठारसम, सोलसम, चउदसम, दुवालसम, दसम, अठम, छठ, चउत्थ, करी शके ? न शकुं । इम जु जुआ कहेवा. जेटलो तप कीधो होय विहां इम न कहिये; करी न शकुं ।। किंतु, हिवडां न थाय इम कहिये. ॥३७ अथ तीर्थमाला ॥ ॥ श्री सकलतीर्थाय नमः ॥ श्री शत्रुजयाय नमः॥ अर्थ-श्री सकल तीर्थोप्रत्ये नमस्कार हो, अने श्रीमान् शत्रंजय नामे तीर्थने नमस्कार हो. आबु, अष्टापद, समेतशिखर, विपुलगिरि, वैभारगिरि, स्वर्णगिरि, रत्नगिरि, अर्थ-आबु नामे तीर्थ, अष्टापद नामे तीर्थ, अने समेतशिखर अने विपुलगिरि अने स्वर्णगिरि अने त्नगिरि ए सर्व तीर्थों छे. जाई जिणबिंबाई, ताई सव्वाइं वंदामि ॥ १६ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ अर्थ जे जे ठेकाणे जिन बिंबो छे ते ते ठेकाणे ते जिन बिंबोने हुं वंदना करूं छु. . पछी चोवीस तीर्थकरोना नाम लइ नीचेनोपाठ कहेवो. अनंत चउवीसी जिन नमुं, सिद्ध अनंती कोड । केवलज्ञानी थविर सवि, वंदुं बे कर जोड ॥१॥ अर्थ-अनंत एवी जे चोविशी तेना जिनेश्वरोने नमुं छु, अने सिद्धना अनंत क्रोडोने, अने केवलज्ञानीओने, अने सर्व स्थविरोने बे हाथ जोडी नमुं बुं ॥ १ ॥ . दो कोडी केवल धरा, विहरमाण जिणवीस ॥ सहस जुगल कोटी नमु, साधु सर्व निसदीस ॥ २ ॥ __अर्थ-वे क्रोड केवलज्ञानने धारण करनारा केवलीओने अने वर्तमानकाळमां विचरता एवा वीश विहरमानने अने बे हजार क्रोड सर्व साधुओने रात्रि दिवस नमुं छं. ॥ २ ॥ प्रतिमा पनरह कोडिसय, वलि बेतालीस कोड ॥ लाख अठावन तीस छह, सहस असि अधिक जोड ॥३॥ अर्थ-पनरशें क्रोड अने वळी बैंतालीसक्रोड अने अठावनलाख अने छत्रीस हजार एंशी एटली जिनप्रतिमा जाणवी ॥ ३ ॥ ए छे प्रतिमा जिनतणी, उड्ढ अहो तिरि लोय ॥ अरिहंत भाव जुहारतां, जिणसरिसो फल होय ॥४॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ अर्थ-ए सर्व जिननी प्रतिमाओ उपर-उवलोकमां विमानोनी अंदर अने नीचे अधोलोकमां भवनपतिना भवनमां अने ति लोकमां छे अरिहंतना भावे जुहारतां (वांदता ) थका, जिनेश्वर समान कळ थाय छे. ॥ ४ ॥ ऋषभ चंद्रानन जाणिये, वारिषेण वर्द्धमान ।। चार नाम ए सासतां, प्रणमुं मन धरी ध्यान ॥५॥ अर्थ-१ ऋषभानन, २ चंद्रानन, ३ वारिषेण, ४ वर्द्धमान ए चार नाम हमेशां शाश्वतां छे. मननी अंदर तेमनुं ध्यान करीने प्रणाम -नमस्कार करूं छु. ॥ ५ ॥ इणे नामे नहु को हुवा, न हुवे न हुस्ये कोइ। जइ एहनी प्रतिमा भगुं, ते सासती न होइ ॥६॥ अर्थ-आ नामवाला एटले ऋषभानन, चंद्रानन वारीषेग, अने चर्द्धमान, आ चार तीर्थंकरो भूतकाल एटले गया कालमां थया नथी, वर्तमान कालमां थाय नहिं अने भविध-आवता कालमां थवाना नथी, तेमनी प्रतिमाओ जे छे ते शास्वती छे, एम जागचं, पण ते नामे कोह तीर्थंकर थवा होय अने तेननी प्रतिमा भराववामां आवेल होय, तो ते प्रतिमा अशास्वती जागवी, शास्त्वती प्रतिमाओ तो अनादिकालथी छे छे ने छे, अने अनंतकाल सुवी रहेवानी छे माटे तेओने शास्वती कहेवामां आवे छे. आदि अंत जेहनो नहि, ते सासती कहाय ॥ तास पटंतर जिणपडिमा, मणुअलोक इह थाय ॥७॥ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ अर्थ-जेनो आदि नथी अने अंत नथी ते शाश्वती प्रतिमा गणाय अने ते प्रतिमाओना आधारथी आ मनुष्यलोक-अढी द्वीपनी अंदर प्रतिमाओ थाय छे. ॥ ७ ॥ नर नरपति जे कारवी, असासती ते जाण ॥ जे हुवा जे हुवे जे हुस्ये, जिणवर गुणमणि खाण ॥ ८॥ अर्थ-अने जे मनुष्योए अथवा मनुष्योना राजाओए, जे प्रतिमाओने अहीं करावी छे, ते अशाश्वती प्रतिमाओ छे. जे आगळ थइ गया ने वर्तमानमा छ; अने भविष्यमां थशे तेओनी ते प्रतिमाओ, गुणरूप रत्नना खाणरूप, एवा तीर्थकरोनी छे. ॥ ८ ॥ अष्टापद समेतशिखर, शत्रुजय गिरिनार ॥ अर्बुद गामागर नगर, जिह जिह जिनह विहार ॥९॥ अर्थ-हवे अशाश्वती प्रतिमा क्यां छे तेना तीर्थोना स्थळो बतावे छे. १. अष्टापद, २. समेतशिखर, ३. शत्रुजय, ४. गिरिनार, ५. आबुजी, ए पर्वतो उपर अने गामने विषे अने आकर (खाण) ने विषे अने नगरने विषे वळी ज्या ज्यां जिनेश्वर महाराजाना मंदिरो-देरासरो छे तेमने मारो नमस्कार हो. ॥ ९ ॥ जिह मुनिवर अणसण करी, मुक्ति गया जिणठाम ॥ सिद्धक्षेत्र तमु दसणे, शुभफल शुभपरिणाम ॥ १० ॥ ___अर्थ-अने मुनीश्वरोए ज्यां अणसण करीने मुक्तिमां गया ते स्थानको पण सिद्धक्षेत्र गणाय अने तेओना दर्शनथी ते भूमि स्पर्शथी शुभ फळ थाय अने शुभ परिणाम वधे ॥ १० ॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ भरतेसर नरवर पमुह, करावी मनभाव || ते जिन प्रतिमा वदतां दुरे दुरित पलाय ॥ ११ ॥ अर्थ - - भरत महाराजा विगेरेओए मनना भावे जे जिन प्रतिमाओ करावी छे, ते प्रतिमाओने वंदन करता था दूर थकी पापो नाश पामे छे. ॥ ११ ॥ मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमप्रभुः ॥ मंगलं स्थूलभद्राद्या- जनो धर्मोऽस्तु मंगलम् ॥ १ ॥ अर्थ - वीर भगवान मंगलकारी छे अने गौतमस्वामी ( गणधर ) पण मंगलकारी छे, अने स्थुलिभद्र बिगेरे महात्माओ थइ गया, ते पण मंगलकारी छे अने जैनधर्म छे, ते पण मंगलकारी छे, ते सर्व मने मंगल करनारा थाओ. ॥ १ ॥ सर्वारिष्टणासाय, सर्वाभिष्टार्थदायिने ॥ सर्वलब्धि निधानाय, गौतमस्वामिने नमः ॥ २ ॥ अर्थ- सर्व पापने नाश करनार एवा अने सर्व इच्छित अर्थने आपनारा अने सर्व लब्धि (सिद्धि) ना भंडार एवा गौतमस्वामीने नमस्कार हो ॥ २ ॥ अंगुठे अमृत वसे, लब्धितणो भंडार ॥ जो गुरु गौतम समरिये, मनवंछित दातार ॥ ३ ॥ अर्थ - - जेना अंगुठाने विषे अमृत वसे छे अने जे लब्धिओना भंडाररूप छे; अने मनोवांछितने आपनार एवा गौतमस्वामीने जो समरीये, तो मनवांछित पूरण थाय छे. ॥ ३ ॥ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ गामतणे पइसारणे, गुरु गौतम समरंत ॥ इच्छाभोजन घर कुशल, लच्छी लील करंत ॥ ४ ॥ अर्थ - - अने गामनी अंदर पेसती बखते जो गौतमस्वामी (गुरु) नुं नाम संभारीये तो इच्छा प्रमाणे भोजननी प्राप्ति थाय, वळी घरनी अंदर क्षेमकुशलता वाधे अने लक्ष्मी तेना घरने विषे लीला करे. ॥ ४ ॥ पुंडरिक गौतम पमुह, गणधर गुण संपन्न || ग्रह उठी नित प्रणमिये, चउदहसय बावन्न ॥ ५ ॥ अर्थ -- प्रथम पुंडरिक नामना गणधर अने छेल्ला गौतम गणधर ए आदि चउदसें बाचन गणधरो छे. ते गुण संपन्न छे. तेमने प्रभातम उठीने नित्य समरीये ॥ ५ ॥ सुरगो-तरू - मणि संपजे, जेहने लीधे नाम ॥ एहीज अक्षर समरतां, सीझे वंछीत काम ॥ ६॥ अर्थ - - जेमनुं नाम लेवाथी कामधेनु अने कल्पवृक्ष अने मणि तेमनी प्राप्ति थाय, एज अक्षरने संभारतां थका तमाम मनवांछित कार्य सिद्ध थाय ॥ ६ ॥ पछी उभा थह पञ्चख्खाण करवुं ( सामाइक, चोवीसत्थो, वांदणां, पडिक्कमणुं, काउस्सग्ग, पच्चखाण कयुँ छेजी. ) पछी बेसी "इच्छामोऽणुसट्ठि नमो खमासमणाणं" कहीने चैत्यवंदन कर ॥ ॥ ३८ अथ विशाललोचनदलं चैत्यवंदनX | X प्रभात समये राइप्रतिक्रमणना छ आवश्यक पछी आ स्तुति बोलाय छे, माटे प्राभातिक वीरस्तुति पण कहेवाय छे. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू० –विशाललोचनदलं, प्रोद्यद्दन्तांशुकेसरम् । प्रातर्वीर जिनेन्द्रस्य, मुखपद्मं पुनातु वः ॥ १ ॥ शब्दार्थः विशाल-विशाळ लोचन - नेत्ररूपी दलं - पत्र प्रोद्यद् - प्रकाशमान दंत - दांतना अंशु - किरणो रूपी केसर - केसरा २४७ भावार्थ - श्री महावीर स्वामीनुं मुख कमळ जेवुं छे, तेमां विशाळ नेत्ररूपी पांडदां छे अने देदीप्यमान दांतना किरणोरूपी केसरा रहेला छे, एवं ते मुखकमळ तमोने पवित्र करो. १. येषां जे जिनेश्वरोनुं अभिषेककर्म - स्नानकर्म कृत्वा - करीने मत्ता :- उन्मत्त थयेला हर्षभरात्-हर्षना समूहथी प्रातः - प्रभात समये वीर - महावीर जिनेंद्रस्य - जिनेश्वरनुं मुखपद्मं - मुखरूपी कमळ पुनातु - पवित्र करो वः - तमोने मू० – येषामभिषेककर्म कृत्वा, मत्ता हर्षभरात्सुखं सुरेन्द्राः । तृणमपि गणयन्ति नैव नाकं, प्रातः सन्तु शिवाय ते जिनेन्द्राः शब्दार्थः सुखं - सुखने सुरेंद्रा :- देवताना इन्द्रो तृणमपि - तरणा तुल्य पण गणयंति - गणता नैव नथी - Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ नाकं-स्वर्गने शिवाय-मोक्षने माटे मातः-प्रभात समये ते-ते संतु-थाओ जिनेन्द्रा:-जिनेंद्रो __भावार्थ-जे जिनेश्वरोना जन्माभिषेकादिक कार्य करवाथी अत्यंत हर्षने लीवे मदोन्मत्त थयेला इन्द्रो पोताना स्वर्गना सुखने तृगसमान पण मानता नथी, ते जिनेश्वरो प्रातःकाळे कन्यागने माटे हो. २. मू-कलङ्कनिर्मुक्तममुक्तपूर्णतं, कुतर्कराहुग्रसनं सदोदयम् । अपूर्वचन्द्रं जिनचन्द्रभाषितं, दिनागमे नौमि बुधैर्नमस्कृतम् ॥ ३ ॥ शब्दार्थ:कलंक-कलंकथी सदा-हमेशा निर्मुक्तं-रहित अपूर्वचन्द्र-अपूर्व चन्द्ररूप अमुक्त-नथी मूकाणी जिनचन्द्र-जिनचन्द्रना पूर्णतं-पूर्णता भाषितं-आगमने कुतर्क-कुतर्कवाद दिनागमे-प्रभात समये राहु-राहुने नौमि-हुं नमस्कार करूं छु आसनं-भक्षण करनार बुधैः-पंडितो वडे उदयं-उदय पामेला नमस्कृतं-नमस्कार करायेला भावार्थ-पंडितोए नमस्कार करेल, जिनचंद्र प्ररूपेलं, आगम अपूर्व एटले अलौकिक चंद्र समान छे, केमके लौकिक चंद्र के जे Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४९ ; आकाशमा देखाय छे ते कलंकसहित छे अने आ आगमरूपी चंद्र तेथी रहित छे, लौकिक चंद्र पूर्णतारहित छे अने आ आगमरूपी चंद्र पूर्णतासहित छे, लौकिक चन्द्रनो राहु ग्रास करे छे पण आ आगमरूपी चन्द्रने कुतर्करूपी राहु ग्रास करी शकतो नथी, तथा लौकिक चन्द्र हमेशां उदय पामतो नथी अने आ आगमरूपी चन्द्र तो निरंतर उदय पामेलोज छे, आबा अलौकिक आगमचन्दनी हुं प्रातःकाळे स्तुति करूं छं. ३. पछी उभा थइ वर्तमानजिन स्तुति करवी. ॥ श्री वर्त्तमान जिनस्तुति ॥ स्वामी वंदु विहरमाण, जिनवर सीमंधर, सीमनाम मर्याद, धर्मनी तास धुरंधर; युगमंधर आधार, त्रिजगे नमुं भवसिंधुर, बाहु सुबाहु जिणिंद, नमुं महिमागुणसुंदर ॥ १ ॥ अर्थ- विचरता एवा श्री सीमंधरस्वामी जिनवर ते प्रते हुं वंदन करूं कुं. धर्मनी जे मर्यादा- हद तेमां धुरंधर अग्रेसर एवा सार्थक नामचाला युगमंधर नामे भगवान, संसाररूप जे समुद्र तेमां पडता त्रणे जगतना (प्राणीयोने) आधार रूप तेने नमुं लुं. महिमा अने गुणो ए करी सुंदर एवा बाहु ने सुबाहुनामना जिनेन्द्रने हुं नमुं कुं. १. जंबुदीवि चत्तारि जिण, विजयवंत विहरंत; क्षेत्रविदेहे तमतिमिर, दिनयर जेम हरंत ॥ २॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० अर्थ-जंबुनामनां द्वीपमा ए चारे जिनो विजयवंत विद्यमान थया थका विचरे छे. महा विदेह नामना क्षेत्रने विधे रहेला जे जीवो तेओना (जेम अंधाराने सूर्य नाश करे छे तेम ) अज्ञान रूप अंधकारने नाश करवामां सूर्य समान छे. २. धायइषंडे अठजाणि, सुजात स्वयंप्रभ; रुषभानन जिन अनंतवीर्य, प्रणमुं सूरप्रम; श्री विशाल गुणगणविशाल टाले भवफेरा, वज्रधर धर ऊद्धरि करे आनंद घणेरा. ॥३॥ अर्थ-घातको खंडनाम द्वीपने विषे आठ जिनेश्वरी जाणवा.. प्रथम सुजात नामा स्वामी, बीजा स्वयं प्रभनामा स्वामी, त्रीजा ऋषभानन जिन अने चोथा अनंतवीर्य जिन अने पांचमा सूरप्रभनामा जिनने हुं प्रणाम करुं छं. गुणना (गणे करीने) समूहथी विशाल विस्तार पामेला एवा छटा श्री विशाल जिन ते विस्तारवाला जे भवना फेरा तेमने टालनारा छे, सातमा वज्रधरनामा जिन पृथ्वीनो उद्धार करीने घणा आनंदनो वधारो करे छे. ३ चंद्रानन जिन अठमो, दुठकठ नीवार; अठकम्म निठविध पे ठवस्ये भवनो पार. ॥ ४ ॥ अर्थ-आठमा चंद्रानन जिन ते दुष्ट एवा जे कष्टो तेने अटका-- वनारा छे, आठ कोने नाश करी भवना पारने पामशे. पुक्खरिद्धि जिण चंद्रबाहु, जिनराज विराजे, चतुरिमचंग भुजंग, वाणिगुण गण जिम गाजे Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईश्वर जगदीश्वर नमेवि, गुणगावे सुर नर, नेमिप्रभ प्रभु वीरसेन, महाभद्र सुहंकर ॥५॥ अर्थ-पुष्करार्द्ध द्वीपने विष नवमा जिन राजा एवा चंद्रबाहु निन बिराजे छे. चतुर पुरुषोमां उत्तम एवा दशमा भुजंग नामा जिन-. राज ते वाणिना गुणे करीने मेघनी परे गाजे छे. जगतना इश्वर एवा श्री इश्वर जिनने नमीने देवो अने नरो सदागुण गाइ रह्या छे. नेमिप्रभजिन अने वीरसेन नामाजिन अने महाभद्रनामा जिन प्रभु सुखने करनारा छे. ५. नमिये ते श्रीदेवयश, जगि जस पसरे जास; अजितवीर्य अष्टम करे, दिन दिन ज्ञानप्रकाश ॥ ६॥ अर्थ-जगतमा जेमनुं यश पसरी रहेल छे एवा ते श्री देवयश नामा जिनने नमिये छीए. अजितवीर्य ( अष्टम ) नामा आठमां जिनराज दिवस दिवसने विषे ज्ञान गुणनो प्रकाश छे. ६. मणुयखित्त पणयाल लक्ख जोयण जाणीजे, तिहछे पंच विदेह, गुरु ओपम तसु दीजे; उसप्पिणी अवसप्पिणिकाल तिह, नहिय निरंतर, स्वामी रिसहनिर्णिद कालसरिसो नहु अंतर ।। ७ ॥ अर्थ—मनुष्य क्षेत्र पीस्तालीश लाख योजननो जाणवो. मनुष्या क्षेत्रमा पांच महाविदेह नामे मोटां क्षेत्रो छे, ने ते मोटी उपमावाला छे (तेने मोटी उपमा आपवी जोइए केमके ज्यां तीर्थकर जाते विचरे छे). Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीकाल ते महाविदेह क्षेत्रने विषे क्यारे पण थतो नथी. स्वामी ऋषभदेव जिनेन्द्रना समयना सरखो समय छे तेमां क्यारे पग आंत पडतो नथी. सत्तरिसय उक्कोसपदि, जघनपदे जिन वीस; विहरमान संपइ पयड, त्रिजगि नमुं निसदीस ॥८॥ अर्थ-उत्कृष्ट पदने विषे एकसो सित्तर जिन ए क्षेत्रोमां होय, अने जघन्य पदने विषे तो वोश जिन होय; प्रकट रीते त्रण जगत्ने विषे हाल विचरतां एवा जिनोने दररोज हुं नमुं छं. चउरासीलख पुन्वआयु, ए वीस जिणेसर, पणसय धणुअ पमाणदेह, दाने अलवेसर; प्रभु अतिशय चौत्रीस, सहस अठोत्तर लक्षण, वाणी गुणतीसभणी, रंजीय विचक्षण ॥९॥ अर्थ--चोराशी लाख पूर्वनो आउखो एवीश जिनेश्वरोनो छे. बवाए 'पांचसो धनुष्यना प्रमाणना शरीरबाला छे अने दानमां अतिशय मोटा अग्रेसरो छे. ए सर्व जिनो चोत्रीस अतिशयवाला छे अने एक हजारने आठ उत्तम लक्षगो छ जेमां एवा छे. वागीना जे पांत्रीश गुणोते जेमनामां विद्यमान होवाथी राजी कर्या छे विचक्षण डाह्या पंडितोने जेमणे एवा छे. पालिराज महबयधरी, पामी केवलनाण पार्श्वचंद्रसूरि नित प्रहसमे, प्रणमे सुखनो ठाण ॥१०॥ अर्थ-पोत पोताना राज्यने पाली अने महानतोने धारण करीने केत्र ठ ज्ञानने जेओ पाम्या छे. श्री पार्श्व चंद सूर हमेशां सपारमां Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ जिनेश्वरोने प्रणाम करे छे. सुखना एकज स्थानरूप एवा स्वामियोने नमस्कार थाओ. ॥पछी जंकिंचि० नमो थुणं. कही खमासमण आपी इच्छाकारेण संदिसह भगवन् स्तवनं संदिसाएमि, बीजे खमासमणे स्तवनं मणेमि, नवकार गणी स्तवन कहेवु ॥ ॥श्री समेतशिखरजिनुं स्तवन ॥ सिखरि समेत जुहारयारे, धन आज २दिहारा; उसंतमनोरथनीपरेउंचा, ४देखत पमोहनगारा ॥ सत्तरमकुंथुजिणेसर भेटया, सत्तर असंजम वारारे ॥ ध०॥१॥ ते पासे श्रीपनरम जिनवर, धर्म धर्मना दारा॥ पंच सुमतिना दायक पंचम, सुमति नाम सारारे ॥ ध० २ ॥ सोलकषाय १०निवारक सोलमा, शांति शांतिदातारा ॥साते १२भयनाजीपक सत्तम, नाथसुपारस सारारे ॥ ध० ३ ॥ तेरम जिणवर किरिया १३चायक, विमल १४विमलमतिकारा ॥ बंधनदोय निवारक तारक, अजितजिनंदअतिसारारे ॥ ध० ॥४॥ तिहांथी चलत चलत बहु १५तुंगा, तेवीसमजिन १ धारा ॥ पारस १७पारसथी अधिकेरा ॥ जीवनकुं सुखकारारे॥ध० ॥ १ वांद्या. २ दिवस. ३ सज्जन पुरुषनी वांच्छानी माफक मोटा उच्चा. ४ जोतां. ५ मनोहर छे आकार जेमनु. ६ दूर करनारा, ७ दरवाजा-बारणा. ८ आपनारा. ९ आत्माने गमता. १० दूर नरनारा. ११ आपनारा. १२ जीतनार-भयने दूर करनार. १३ त्याग करनारा.. १४ निर्मल बुद्धिने कर नार. १५ उंचा.१६ निश्चय कर्या. १७ पारस Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ॥ ५॥ पछिमदिसिमे आठ शिखरवर, वंद्या ऊच्छवकारा ॥ त्यांथी फरिने यात्राकरीने, पूर्वदिसे चित्तधारारे ।। ध० ॥६॥ "एकवीसे १८सवलनिवारक, नमिनामे चित्तधारा; १४ नवदुकुशील निवारक जिनपति, अर जगजीवउधारारे२० ॥ध० ॥७॥ उगगीसम मल्लिप्रभु भेटया, त्रिभुवन २१रुपउदारा ॥ २२एकादशमतिमानामरूपक, श्री श्रेयांस २३निहारारे ॥ध० ॥८॥ २४नवविध ब्रह्मगुप्तिना पालक, सुविधि देव २५दयारा ।। छलेश्याने छडि अलेसी, पद्मप्रभ २ निरहंकारारे ॥ध० ॥ ॥९॥ मुनिसुत्रत वीसम जिन २७छेदी, २८असमाधि जंजीरा ।। त्यांथीनीचा अतिबहुउंचा, अष्टमटुंकसंभारारे ॥१०॥१०॥ -२८मद जीपीने चरण धरीने, करमकर्या सबदुरा ॥ चंद्रप्रभ जिणवर त्यां सिद्धा, अक्षय सुख लद्या पुरारे। ध० ॥ ११ ॥ मगिथी मोहोटी महीमावाला. १८ आम गुणने मलीन करनार दोषो तेना त्याग करनारा. १९ अढार प्रकारना अब्रह्मचर्य दोषने दूर करनार. २० जगत् जीवना उद्धार करनारा तारनारा. २१ त्रण जगत्मां सर्वथो अधिक रूप गुणवाला. २२ अगिआर अभिग्रह विशेष जे प्रतिमा तेना उपदेश करनारा. २३ दर्शन कर्या. २४ नव प्रकारे ब्रह्मचर्य रक्षण करवानी वाडने आदग्नाग, २५ दयावाळा, २६ अहंकार विनाना. २७ छेदन करनारा २८ असमाधिस्थान रूप बेडीने. २९ आठ मदना त्याग पूर्वक दीक्षा स्वीकारी-अथवा सम्मेत शिखरगिरिने पोताना चरण-पादथी फरसी मतलब के त्यां आवि आठे कर्मने अत्यंत दूर कर्या नाश कर्या. Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ उदह जीवरासना पालक, अनंतनाथ जिनसुरा || 30 श्रमणधरम दस विधना धारक, सीतल सहज सनूरारे ॥ध० १२ ॥ २ दंडगुप्सित्रिय वारी पारी, संभव भवकुं निवारा || अमेघाडंबर चिहुंगत छेदक, अभिनंदन लह्या पारारे ॥ ध० १३ ॥ वीस जिणेसर वीसे ट्रंके, कर्म कर्यां सह चूरा, ए जिनचरण जे भावे वंदे, सुख लहे ते जग भूरारे ॥ ध० १४ ॥ ३४ वरस अहार तेणवे पोसे, उज्जल सातम झारा ॥ तलहटिमंदिर ते सवि वंगा, हर्षचंद्रसूरि सारारे ॥ घ० १५ ॥ पछी जयवीयराय कही खमासमण देइ कहिये श्री आचार्य ० बीजे उपाध्याय ० अने त्रीजे सर्व साधु वांदीए, पछी खमासमण देव श्रावक सामायक पारे || ॥ इति राइप्रतिक्रमण विधि ॥ ३० मुनियोना दश प्रकारना धर्मने धारण करनारा, ३१ स्वाभाविक तेज प्रताप धारण करनारा होवाथी बहु कांतिवाला, ३२ ऋण दंडने निवारण करनारा अने ऋण गुप्तियोने पालन करनारा एवा शंभवनाथ स्वामिये संसारना भय जे जन्म, मरण तेने दूर कर्या. ३३ मेघाडंबर नामना छत्रने धारण करनारा संसारना त्रिविध तापथी तपेला प्राणियोने पोतानी वाणी रूप अमृत गुणोथी शीतलता करनारा वली चार गतियोने नाश करनारा अभिनंदननाथ पांचमी गति मोक्षने पाम्या ३४ संवत् १८९३ ना पोष शुद्ध ७ में दर्शन करी बांद्या. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ॥ अथ साधुजीने चौद प्रकारना दाननी निमंत्रणा ॥ पच्चक्खाण कर्या पछी बे ढीचण अने मस्तक भूमिये लगाडी डावा हाथे मुखे उत्तरासण देइ जमणो हाथ गुरुने पगे लगाडी आवी रीते कहे, ॥इच्छाकारी भगवन् पसाय करी. फासुअं एसणिज्जेणं, असणं पाणं खाइमेणं साइमेणं वच्छ, पडिग्गह, कंवल पायपुच्छणेणं, पडिहारिअ, पीढ, फलग, सिज्जा संथारएणं ओसह भेसज्जेणं भयवं अणुग्गहो कायव्यो ॥ इति निमंत्रणा ॥ श्री सरस्वती-श्रुतदेवी स्तुतिः 0|||0|0|||00|0|||0700 श्वेतपद्मासना देवी, श्वेतपद्मोपशोभिता। श्वेताम्बरधरा देवी, श्वेतगन्धानुलेपना। अचिंता मुनिभिः सर्वै-ऋषिभिस्स्तूयते सदा । एवं ध्यात्वा सदा देवीं वांच्छितं लभते नरः॥ 国区区区区区四区区区区区区区区区区区区回 १ हुं इच्छु छु हे भगवन् कृपा करी आपने जे कांइ फासु निर्दोष आहार, पाणी, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र, कांबलो, रजोहरण, पाट, पाटियो बाजोट, शय्या, संथारो-आशनिउं, औषध-भेषज विगेर जे कांइ वस्तुनी इच्छा होय तो हे भगवन् ! मारा उपर अनुग्रह-महेरबानी करी लाभ आपसोजी. 回凶凶图凶凶凶园 Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ श्री पाक्षिकादि-प्रतिक्रमण-प्रारम्भः । अनितं-अरिहत डिझतं-दोष १० ॥ चतुर्विशति-जिन-स्तवनम् ॥ मू-अर्हन्तं जगदीश्वरं गुणनिधि, वस्विन्दुदोषोज्झितं, जन्तूनां हितकारकं प्रणमतां, भावेन भव्यात्मनाम् । कल्याणावलि-कन्द-कन्दलनतापावृट्पयोदोपमं, वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, श्रीआदिनाथ मुदा ॥१॥ शब्दार्थ:अर्हन्तं-अरिहंत जगदीश्वरं-जगतना इश्वर गुणनिधि-गुणना भंडार वस्विन्दु-वसु, दोषोज्झितं-दोष १८ रहित जन्तूनां-जीवोना चंद्र, हितकारकं-हित करनार प्रणमतां नमनारना भावेन-भावथी भव्यात्मनाम्-मोक्षयोग्य, कल्याण-कल्याणनी आवलि-पंक्ति कन्द-कन्दने कन्दलनता-अंकुरित __ रूप प्रावृद्-वर्षाऋतुना करवामां पयोदोपम-मेघ वन्दे-बांदं छु अहं-हुं समान सततं-निरंतर सुर-देव असुर-दानव . नतं-नमाएलां श्रीआदिनाथं- ऋषमुदा-हर्षथी भदेवने टी. अर्हन्तमिति-जगताम् ईश्वरः-स्वामी-जगदीश्वरः,तं,गुणानां-ज्ञान- दर्शनादीनां निधिः-सागरः-गुणनिधिः, तं, वसवश्च अष्टौ इन्दुश्च एकः प्रणमतांना Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ : स्विन्दवः, अष्टादश ते च ते दोषाश्च वस्विन्दुदोषाः तैः उज्झितस्त्यक्तः वस्विन्दुदोषोज्झितः तम् अष्टादशदोषरहितं, (अज्ञानं १, क्रोधः २, मदः (अष्टौ मदाः ) ३, अहंकार :- मानः ४, लोभः ५, माया ६, रतिः ७, अरतिः ८, निद्रा ९, शोकः १०, अलीकवचनं ११, चौर्य १२, मत्सरः १३, भयं १४, प्राणिवधः १५, प्रेमक्रीडा १६, प्रसङ्गः १७, हास्यम् १८, ) इत्येतेऽष्टादश दोषाः ॥ जातिमदः १, कुलमदः २, बलमदः ३, ऐश्वर्यमदः ४, लाभमदः ५, रूपमदः ६, तपोमदः ७, श्रुतमदः ८, इत्यष्टौ मदाः । जन्तूनां प्राणिनां करोतीति कारकः, हितस्य कारक : - हितकारकः, तं भावेन - उपयोगेन, प्रकर्षेण नमन्तीति प्रणमन्तः, तेषां भव्यो- मोक्षार्ह आत्मा येषां ते भव्यात्मानः, तेषां कल्याणानां—–सत्कार्यांणाम् आवलि:- पङ्किः कल्याणावलिः, सैव कन्दः, तस्य कन्दलनस्य भावः कन्दलनता, कल्याणावलिकन्दकन्दलनता तस्यां प्रावृषः पयो ददातीति पयोदो-मेघः उपमा यस्य सः कल्याणावलिकन्दकन्दलनताप्रावृट्पयोदोपमः, तं सुराश्च देवा:-असुराश्च दानवाः- सुरासुराः, तैर्नतम्, अर्हतीति अर्हन्, तं, श्रीश्चतुस्त्रिंशदतिशयाः, तया युक्तः श्रीयुक्तः, स चासौ आदिनाथश्च - श्री आदिनाथः तं प्रथमम् ऋषभं जिनेश्वरं सततं - निरन्तरं मुदा हर्षेणाहं श्रीपार्श्व चन्द्रसूरि : वन्दे - वन्दनं करोमीत्यर्थः ॥ १ ॥ भावार्थ —ण जगतना ईश्वर, गुणना भंडार, अढार दोष रहित, भावथी नमस्कार करनार भव्य जीवोनुं हित करनार, भव्य जीवोना कल्यागनी पंक्तिरूप कंदने अंकुरित करवामां वर्षाऋतुना मेघ समान अने देव-दानवोए जेने नमस्कार करेल छे; एवा प्रथम जिनेश्वर श्री आदिनाथने हुं (पार्श्व चन्द्रसूरि ) वांढुं कुं-स्तनुं लुं. १ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ मू०-मोहाचैररिभिः कषायगुरुभिर्गाढं च सन्तापितः, तिर्यङ्-नारक-देव-मानव-कुगत्योपासुखं मापितः। तज्जेतारममुष्य वारणकृते, कृत्वोयम साम्प्रतं, वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, श्रीवीतरागाजितम् ॥२॥ . शब्दार्थःमोहाद्यैः-मोह विगेरे, अरिभिः-शत्रुओथी, कषायगुरुभिः-कषागाढं-अत्यन्त च-अने ___ यवडे पुष्ट सन्तापितः-सन्ताप तिर्यङ्-तिय व नारक-नारकी पामेल देव-देव मानव-मनुष्य कुगति-कुगतिनो ओघ-समूह असुख-दुःख प्रापितः-पमाडेल तज्जेतारं-तेने जीतनार अमुष्य-माने वारणकृते- दूर कृत्वा-करीने उद्यमं-उद्यम ... ____करवा माटे, . साम्प्रतं-हमणां वन्दे-वांदं छु अहं-हुं . श्रीवीतराग-अतिश- अजितं-अजितनाथने ... यवान वीतराग टी.मोहाचैरिति-कषाया:-क्रोधादयश्चत्वारः, ते च अनन्तानुबन्ध्यप्रन्या ख्यानिप्रत्याख्यानिसंज्वलनभेदैः षोडश ( अनन्तानुबन्धिनः क्रोध-मानमाया-लोभाः १, अप्रत्याख्यानिनः क्रोध-मान-माया लोभाः २, प्रत्या ख्यानिनः क्रोध-मान-माया-लोभाः ३, संज्वलनाः क्रोध-मान-माया -लोभाः ४), तैः गुरवः-पुष्टाः-कषायगुरवः, तैः, भादा भवः आधः, मोह आयो-मुख्यो येषां ते मोहाद्याः, तैः अरिभिः-शत्रुभिः अन्तरङ्ग Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० वैरिभिरित्यर्थः, माढम् अतिशयेन सम्यक्तापितः सन्तापितः, तिर्यश्चश्च नारकांश्च देवाश्च मानवाश्च तिर्यङ-नारक-देव-मानवाः तेषां कुत्सिताः गतयः तिर्य-नारक-देव-मानव-कुगतयः,तासाम् ओघाः-समूहाः तिर्यङ्नारक-देव-मानव-कुगत्योधाः, तेषाम् असुख-दुःखं प्रापितः-नीता तिर्यङ्-नारक-देव-मानव-कुगत्योधासुखप्रापितः, एतादृशोऽहं साम्प्रतम् अधुना उद्यम-प्रयत्नं कृत्वा अमुष्य दुःखस्य वारणकृते-निवारणाय, तेषां -मोहादिरिपूणां जेता तज्जेता-तज्जयकारकः, तं सुरासुरनतं, श्रिया युक्तः श्रीयुक्तः, स चासौ विशेषेण इतः-गतः रागो यस्मात् स श्रीवीतरागः स चासौ अजितश्च श्रीवीतरागाजितः, तं द्वितीयम् अजितं जिनं सततं वन्दे-वन्दनं करोमि ॥ २॥ भावार्थ-क्रोधादि कषायोथी पुष्ट थयेल, मोहादि शत्रुथी अत्यंत संताप पामेल, तिर्यंच-नारकी-देव तथा मनुष्योनी कुगतिओना समूहथी दुःख पामेल, एवो हुं हमणां उद्यम करीने, ए दुःखने निवारण करवा माटे, ते मोहादि तथा रागादि शत्रुओने तथा तियेचादि गतिओने जीतनार, अने देव-दानवोए जेने नमस्कार करेल छे, एवा श्री वीतराग अजितनाथस्वामिने हुं निरंतर वन्दना करूं छु. २ .. . मू०-सावित्रीयुवतीरतः कमलभूर्विष्णू रमासंगतः कण्ठेकाल उमायुतस्त्रय इमे, देवाः सरागा भुवि । नोत्तीर्णाः, स्वयमन्यतारणविधी, नालं विदित्वा ततो, वन्दे संभवमुत्तमं सुरनतं, श्रीवीतरागं मुदा ॥३॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावित्री-सावित्री, विष्णु: - कृष्ण उमायुतः - पार्वती सहित २६१ शब्दार्थः युवतीरतः - स्त्रीमां रागी रमासंगतः - लक्ष्मी सहित इमें आ भुवि - पृथ्वीमां अन्य चीजाने सरागाः - रागी स्वयम् - पोते न - अलं - समर्थ नथी विदित्वा - जाणीने कमलभूः - ब्रह्मा कण्ठेकाल:- महादेव त्रयः-त्रण देवा:-देवो नोत्तीर्णाः - तर्या नथी तारणविधौ - तारवामां ततो- तेथी टी. सावित्रीति - कमलाद् भवतीति कमलभूः -ब्रह्मा, सावित्री एव युवती-सावित्रीयुवती तस्यां रतः - सक्तः, सावित्रीयुवतीरतः, सावित्रीनाम्न्यां स्त्रियां राग्यस्ति, वेवेष्टि-व्याप्नोतीति विष्णुः, रमया - लक्ष्म्या सङ्गतः - संयुक्तः रमासङ्गतः, रमासंयुक्तोऽस्ति, कण्ठे कालो यस्य सः कण्ठे कालः - महादेवः, उमया - पार्वत्या युतः सहितः उमायुतः- उमासहितोऽस्ति, भुवि-याम् इमे त्रयो देवाः सरागाः, रागेण सह वर्तन्ते इति सरागाः - रागवन्तः सन्ति, ततः सरागत्वात् स्वयं न उत्तीर्गाः-न पारंगताः, अन्येषां तारणस्य विधिः तारण - विधिः, तस्मिन् तारणविघौ नालं-न समर्थाः, इति विदित्वा - ज्ञात्वा सुरैः - देवैः नतः सुरनतः, तं श्रीवीतरागम् उत्तमं संभवनामानं तृतीयं जिनं मुदा हर्षेण वन्दे - वन्दनं करोमि ॥ ३ ॥ भावार्थ - ब्रह्मा सावित्रीमां रागी छे, विष्णु रमा (लक्ष्मी) साथे नोडायेल छे, अने महादेव पार्वती युक्त छे. पृथ्वी उपर आ त्रण देवों Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सरागी छे, तेथीज पोते तरेला नथी अने बीजाने तारवा समर्थ नथी, एम जाणीने देवोए नमेला एवा वीतराग-उत्तम श्री संभवनाथने हुं हर्षी वन्दना करूं. छ. ३ मूल-ख्यातो यः किल सर्वतीथिंकगणैस्तथ्योपदेशोत्तम श्वञ्चत-केवलकेवलैकनिलयो, योऽनन्तभानूपमः। .. सन्तं तं कृतमस्तकाञ्जलिपुटो, भक्तिप्रशस्ताशयो, . वन्देऽहं सतताभिनन्दनजिनं, श्रीवीतरागं मुदा॥४॥ शब्दार्थ:ख्यातः-कहेल किल-निश्चय सर्व-सर्व तीर्थिक-दर्शनना- गणैः-समूहोए तथ्य-सत्य ___ आचार्य उपदेशः-उपदेश देवामां उत्तमः-उत्तम चञ्चत्-देदीप्यमान केवल केवळ केवलैक-ज्ञान मात्र निलयो-स्थान अनन्त-अनन्त उपम:-समान सन्तं-विद्यमान कृत-करेली मस्तक-माथे अञ्जलि-हाथ जोडी पुट-जोड भक्ति-सेवाथी प्रशस्त-शुभ आशय:-भाववाळो अमिनन्दन-अभिनंदन टी. ख्यातइति-तीर्थम् अस्ति एषामिति तोर्थिकाः, सर्वे च ते तीथिकाश्च सर्वतीर्थकाः, तेषां गणाः-समूहाः, तैः, यो जिनः, तथ्य:-सत्यः, स चासौ उपदेशश्च तथ्योपदेशः, तस्मिन् उत्तम:-श्रेष्ठः, तथ्योपदे भानु-सूर्य Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ शोत्तमः, ख्यातः-कथितोऽस्ति, किल-निश्चयेन, यः प्रभुः, चञ्चत् च' तत् केवलं च चञ्चत्केवलं, केवलनाम केवलज्ञानं तस्य, केवलश्चासौ एकनिलयश्च चञ्चत्केवलकेवलैकनिलयः, केवलज्ञानमात्राश्रयी इत्यर्थः, न विद्यते अन्तो येषां तेऽजन्ताः,ते च ते भानवश्व अनन्तभानवः,तेषाम् उपमा यस्य सोऽनन्तभानूपमः, यो जिनोऽस्ति तं पूर्वोक्तं सन्तं त्रिकालाबाधितं भूतभविष्य-वर्तमान-कालत्रये विद्यमानमित्यर्थः, श्रीवीतरागम् अभिनन्दयति भव्यगणानिति अभिनन्दनः स चासौ जिनश्च अभिनन्दनजिनः, तं चतुर्थ जिनं, कृतः मस्तके-शिरसि अञ्जलिपुटो येन सः कृतमस्तकाञ्जलिपुटः भक्तया प्रशस्तः-शुद्ध आशयो यस्य स भक्तिप्रशस्ताशयः, एतादृशोऽहं सततं निरन्तर मुदा-हर्षेण वन्दे-वन्दनं करोमि ॥ ४ ॥ भावार्थ:-सर्व दर्शनना आचार्योए जे प्रभुने सत्य उपदेश आपवामां उत्तम कहेल छे अने जे प्रभु देदीप्यमान अनन्त सूर्य समान केवळज्ञान- स्थान छ, एवा भूत-भविष्य अने वर्तमान त्रणे काळमां विद्यमान वीतराग श्रीअभिनंदन जिनेश्वरने, भक्तिथी उत्तम भाववाळो थइ मस्तके हाथ जोडीने हुँ निरन्तर हर्षथी वादं छं. ४ मू०-यं जन्मावसरे सुरेन्द्रनिवहाः स्वर्णाद्रिशृङ्गोत्तमे, तुङ्गे स्म स्नपयन्ति निर्मलजलै, स्तुत्वा स्म चोपासते; जिग्युनों परतीर्थिकाः श्रुतबलैर्य, मोघवाचो हि तं, वन्देऽहं सुमतिं मुरासुरनतं, श्रीवीतरागं मुदा ॥५॥ शब्दार्थ:यं-जेने जन्मावसरे-जन्म समये सुरेन्द्र-इन्द्रोना . Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ स्वर्णाद्रि - मेरु पर्वतना शृङ्गोत्तमे - उत्तम शिखर स्म स्नपयति-स्नान- निर्मल-निर्मळ निवहा:- समूह तुङ्गे उंचा, जलैः - पाणिथी उपासते - उपासनाकरी मोघवाचो - निष्फळ वाणीवाळा तं - तेने सुमतिं - सुमतिनाथने " टी. यम् इति - जन्मनः अवसरः - समय:- जन्मावसरः, तस्मिन् सुराणां - देवानाम् इन्द्राः चतुःषष्ठिः तेषां निवहाः - समूहा:- सुरेन्द्रनिवहाः, तुने - उन्नते, स्वर्णस्य अद्रिः - पर्वतः - स्वर्णाद्रिः - मेरुः तस्य शृङ्गाणि -शिखराणि स्वर्णाद्रिशृङ्गाणि तेषु उत्तमं तस्मिन्, निर्गतो मलो येभ्यस्तानि निर्मलानि तानि च तानि जलानि च निर्मलजलानि तैः यं प्रभुं स्नपयन्ति स्म स्नानं कारयामासुः च स्तुत्वोपासते सेवां कुर्बते, मोघाः - निष्फला वाचो येषां ते मोघवाचः, एतादृशः परे च ते तीर्थिकाच परतीर्थिकाः, श्रुतानां शास्त्राणां बलानि श्रुतबलानि तैर्यं प्रभुं नो जिग्युः -न जितवन्तः तं पूर्वोक्तं सुरासुरनतं श्रीवीतरागं सुष्ठु मतिर्यस्य स सुमतिः, तं सुमतिनामधेयं पञ्चमं जिनम् अहं मुदा हर्षेण वन्दे-वन्दनं करोमि ॥ ५ ॥ " भावार्थ - जन्म समये (चोसठ ) इंद्रोना समूहे, उन्नत मेरुपर्वतना उत्तम शिखर उपर, निर्मळ जळ वडे, जे प्रभुने स्नान कराव्यं अने स्तुति करीने सेवा करी, वळी निष्फळ वाणवाळा अन्य दर्शनीओ, शास्त्रना बळथी, जे प्रभुने खरेखर न जीती शक्या, ते देव-दानवोए नमेल एवा श्रीवीतराग सुमतिनाथने हुं आनन्दथी वन्दन करूं कुं. ५ करात्र्युं, जिग्युः - जील्या परतीर्थिकाः - अन्य दर्शनीओ स्तुत्वा - स्तुति करीने न नहीं श्रुतबलैः - श्रुतबळथी हि-निश्रय Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भू-येनाजेयवलः स्मरत्रिभुवने, युद्धे जितो लीलया, येनाज्ञानतमो विनेयहृदयस्थानस्थितं हेलया। दूरोत्सारितमेव सत्यवचनैराकृष्य तं बोधिदं, वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, रक्ताभपद्मप्रभम् ॥ ६॥ शब्दार्थ:- येन-जेथी अजेयबल:-नहि जीताय स्मर:-कामदेव त्रिभुवने-त्रिभुवनमां एवा बळवाळा युद्ध-युद्धने विषे जित:-जीत्या लीलया-लीला मात्रथीन अज्ञानतम:-अज्ञाविनेय-शिष्यन। हृदयस्थान-हृदयरूप- नरूप अन्धकार स्थितं-रहेला स्थानमा हेलया-लीलावडे दोत्सारित-दूर- एव-जरूर सत्यवचनैः-सत्य. फेंकी दीधुं आकृष्य-खेंचीने वचनोथी तं-तेने बोधिदं-समकित आपनार रक्ताम-राती कान्तिपद्मप्रभम्-पद्मप्रभुने __ बाळा टी. येनाजेयल:--इति-येन प्रभुमा त्रयाणां भुवनानां समहारस्त्रिभुवनं तस्मिन् , जेतुं योग्यं जेयं, न जेयम् अजेयम्, बलं यस्य सोऽजेयबलः, स्मर:-कामः, युद्धे लीलया-क्रीडामात्रेण जितोऽस्ति, येन स्वामिना, विनेयानां-शिष्यागां हृदयानि बिनमहृदयानि, तान्येव स्थानानि विनेयहृदयस्थानानि, तेषु स्थितम् अज्ञानम् एव तमोऽन्धकारः, सत्यानि च तानि वचनानि च सत्यवचनानि,तैः,हेलयाक्रीडया आकृष्य दूरमुत्सारितं दूरोत्सारितं-दूरीकृतं तं पूर्वक्तिं बोधि-सम्य Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ क्वरत्नं ददातीति बोधिद: तं, सुरासुरनतं, रक्ता आमा यस्य स रक्ताभः, स चासौ पद्मप्रभश्च रक्ताभपद्मप्रभः, तं षष्ठं जिनम् अहं सततं वन्दे-वन्दनं करोमि. ६ भावार्थ-जेणे त्रण जगतमा कोइथी न जीताय, एवा बळवाळा कामदेवने, युद्धने विषे लीलामात्रथीज जीती लीधो अने जेणे शिष्योना हृदयोरूप स्थानमा रहेल, अज्ञानरूप अन्धकारने सत्यवचनोबडे लीला मात्रथीज खेंचीने दूर फेंकी दोधुं, ते समकित आपनार अने देवदानवोए नमेला एवा रक्त कान्तिवाळा श्रीपद्मप्रभु स्वामीने हुं निरंतर वन्दन करुं छं. ६ मू०–यस्मै सत्तपसे विशालयशसे, दत्त्वा विशुद्धं त्रिधाss हारं पारणके चतुर्विधमिह, पापुमनोवाञ्छितम् । भव्याः प्रेत्यमुजन्म तुच्छभवतां, चेत्यद्भुतार्थ हि तं, वन्देऽहं सततं मुरासुरनतं, श्रीमत्सुपाश्चै मुदा ॥७॥ शब्दार्थ: यस्मै-जेने सत्तपसे-श्रेष्ठ तपस्वी विशालयशसे-विशाळदत्त्वा-आपी विशुद्ध-शुद्ध यशवाळा त्रिधा-त्रण प्रकारे आहार-आहार पारणके-पारणामां .. चतुर्विध-चार- इह-आ लोकमां मापुः-पाम्या .... प्रकारनो मनोवाञ्छितं-मनइ- भव्याः -हे भव्यो प्रेत्य-परतोकमा च्छित . सुजन्म-सारो जन्म Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ तुच्छभवतां अल्प- इति-ए प्रमाणे संसार श्रीमत्सुपार्श्व-श्रीमान्- . सुपार्श्वनाथने अदभुतार्थ-अद्भूत अर्थवाळा टी. यस्मा इति विशालं यशो यस्य सो विशालयशास्तस्मै विशालयशसे--- भूरिकोर्तये, सत्तपो यस्य सः सत्तपाः, तस्मै सत्तपसे, यस्मै स्वामिने पारणके व्रतान्तभोजने त्रिभिः-मनोवचनकायैः प्रकारैः त्रिधा, विशेषेण शुद्धः विशुद्धः, तं सर्वदोषरहितमित्यर्थः,चतस्रः विधा:-प्रकाराः अशन-पान-खादिम-स्वादिमाः यस्य स चतुर्विधः तम् आहारं दत्त्वा भव्याः इहास्मिल्लोके मनस: वाञ्छितं मनोवाञ्चितं, तत् प्रापुः प्राप्नुवन्तः, च प्रेत्य-परलोके, शोभनं जन्म सुजन्म, तत् सुगतिमित्यर्थः प्रापुः, तथा तुच्छ:-अल्पः स चासौ भवंश्च तुच्छभवः, तस्य भावः तुच्छभवता, ताम् अल्पसंसारित्वं स्तोकभवैक्षिगामित्वमित्यर्थः, प्रापुर्हि निश्चयेन तम् अद्भुतः-आश्चर्यकारकोऽर्थो यस्य सोऽमृतार्थः, तं ज्ञानादिगुणयुक्तं,मुरासुरनतं, श्रीः अस्ति अस्येति श्रीमान् स चासौ सुपार्श्वश्च श्रीमत्सुपार्श्वः, तं सप्तमं जिनं मुदा हर्षेणाहं वन्दे. ७ भावार्थ-विशाल यशवाळा अने श्रेष्ठ तपस्वी, एवा जे प्रभुने, भव्य प्राणिओए पारणामां मन, वचन अने कायाथी शुद्ध (नवकोटिथी शुद्ध) चार प्रकारनो आहार आपीने तेओ आ लोकमां मनोवांछित फळ पाम्या अने परलोकमां सद्गति पामीने अल्प संसार को, ए माटे निश्चे ते अद्. भूत अर्थवाळा, देवदानवोए नमेला, सातमा श्रीमान् सुपार्श्वजिनने, निरंतर आनंदधी हुं वन्दन करुं छं. ७ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मू०-यस्माज्जैनमतं मतोत्तममिदं, पावर्तत प्रीतिदं, सम्यक् प्राणिदयोपदेशपरमं, मिथ्यात्वविध्वंसनम् । निर्दोष शिवयानयानसदृशं, पापप्रणाशाय तं, वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, चन्द्रप्रभाख्यं जिनम् ॥८॥ शब्दार्थ:यस्मात्-जेनाथी जैनमतं-जिनमत मतोत्तम-सर्वमतोमां इदं-आ मावर्तत-प्रवो भीतिद-प्रीति आपनार सम्यक्-श्रेष्ठ । प्राणि-जीवोनी दयोपदेशपरम-दयानोमिथ्यात्व-मिथ्यात्वने विध्वंसनम्-नाश- उपदेश आपनार निर्दोष-दोषरहित करनार शिवयान-मोक्षमार्गमा यानसदृशं-रथ- पापमणाशाय-पापनो चन्द्रप्रभाख्य-चन्द्रप्रभु समान नाश करवाने माटे नाम 'जिनम्-जिनने टी. यस्माद् इति-प्रभोः, मतेषु उत्तमं मतोत्तमं, प्रीतिं ददातीति प्रीतिदं, जिनानामिदं जैन, तत् च तत् मतं च जैनमतं, प्रावर्तत-प्राचलत् , सम्यक्, प्राणाः सन्ति एषामितिप्राणिनः, तेषां दया प्राणिदया, तस्या उपदेशः प्राणिदयोपदेशः, तस्मिन् परमः-उत्कृष्टः प्राणिदयोपदेशपरमः, तं मिथ्यात्वम् असद्वस्तुनि सद्वस्तुकल्पनं तस्य विध्वंसनः-विनाशकः, तं, निर्गताः दोषाः रागादयो यस्मात् स निर्दोषः, तं, यानेन-रथेन सदृशः यानसदृशः, शिवस्य-मोक्षस्य यानं--मार्गः शिवयानं, तस्मिन् यानसदृशः शिवयानसदृशः, तं सुरासुरनतं तं चन्द्राद् अधिका चन्द्राधिका, सा प्रभा Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यस्य स चन्द्रप्रभाल्यः, तम् अष्टमं जिनं (मम) पापानां प्रकर्षण नाशः पापप्रणाशः, तस्मै सततम् अहं वन्दे-चन्दनं करोमि. ८ . भावार्थ:-जे प्रभुथी सर्व मतोमां श्रेष्ठ, प्रीति आपनार आ जैनमत प्रवयों अने प्राणिओनी सम्यक् दयाना उपदेशमां अति श्रेष्ठ, मिथ्यात्वनो नाश करनार, सर्वदोषरहित अने मुक्ति मार्गमां महान रथ समान एवा, देव-दानवोए नमेला, श्री चन्द्रप्रभुनामे आठमा जिनेश्वरने मारा पापोना नाश माटे, हुं निरंतर वन्दन करुं छु. ८ मू०--यस्यास्यादुपनिर्गता मधुरगीरार्याननार्यानपि । मीणातीषुगुणप्रमाणगुणवत्यायोजनं संस्थितान् ॥ . संशीतेरपनोदिनी सुरनृणामाल्हादिनी तं प्रभुं । . वन्देऽहं मुविधि सुरासुरनतं, श्रीवीतरागं मुदा ॥९॥ शब्दार्थ:यस्य-जेना आस्यात-मोढाथी उपनिर्गता-नीकळेली . मधुरगी:-मधुरवाणी आर्यान्-आर्योने अनार्यान्-अनार्योने अपि-पण मीणाति-खुशी करे छे इषु-बाण ५ गुण-गुण ३ प्रमाण-गुणतां गुणवती-गुणवाळी आयोजन-जेटला- संस्थितान्-रहेलाओ® संशीतेः-संशयने योजन सुधी अपनोदिनी-दूर- सुरनृणाम्-देव-मनुष्योने आल्हादिनी-हर्ष करनारी प्रभुं-प्रभुने करनारी मुविधि-सुविधिनाथने Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० टी. यस्येति यस्य प्रभोः आस्यात्-मुखात् उपनिर्गता, इपवश्व पञ्च गुणाश्च त्रयः इषुगुणाः, ते प्रमाग येषां ते इषुगुणप्रमाणाः, ते च ते गुणाश्च, इषुगुणप्रमागगुणाः, ते सन्ति अस्या इति इषुगुगप्रमाणगुणवती, पञ्चत्रिंशद्गुगवती, संशीते:-संशयस्य अपनोदिनो, संशयविदारिणी, सुराश्च नरश्च सुरनराः, तेषाम् आल्हादयतीति आल्हादिनी-आनन्ददायिनी, मधुरा-मनोहरा चासौ गीश्च मधुरगीः, आयोजनं योजनपर्यन्तं सम्यक् स्थिताः संस्थिताः, तान् आर्यान् उत्तमान् , न आर्याः अनार्याः, तान् अपि प्रोगाति सन्तोषं ददाति सुरासुरनतं श्रीवीतरागं तं नवमं सुविधिनामानं जिनम् अहं मुदा-हर्षेण वन्दे-वन्दनं करोमि. ९ भावार्थ-जे प्रभुना मुखथी नीकळेली पात्रोश गुणयुक्त, संशयने नाश करनारी मनोहरवाणी, एक योजन सुधी रहेला उत्तम आर्य तथा अनार्योने पण खुशी करे छे, एवा ते देव-दानवोए नमेला, वीतराग श्री सुविधिनाथने, हुं हर्षथी वन्दन करु छु. ९ म०-यस्मिञ् श्रीधृतिकीर्तिकान्तिबलधीमुख्या अनेके गुणा। - यस्मिन् दोषलवोऽपि नैव भवति, स्फीतं यशो निर्मलं ॥ तद् गृह्णाति गुणान्न दोषनिचयं, यस्तं सतामुत्तमं । वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, श्रीशीतलस्वामिनम् ॥१०॥ शब्दार्थ:यस्मिन्-जेमां श्री-शोभा धृति-धीरज कीर्ति-कीर्ति-यश कान्ति-कान्ति . बल-बळ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ धी-बुद्धि .. मुख्याः -आदि .... अनेके-घणा गुणा:-गुणो दोषलवः-दोषनो अंश स्फीतं-वृद्धि पामेल यशः-यश निर्मलं-निर्मळ तद्-ते. गृह्णाति-ग्रहण करे छे गुणान्-गुणोने दोषनिचयं-दोषोनोसतां-सत्पुरुषोमां उत्तम-उत्तम शीतलस्वामिनम्-श्री शीतलनाथ स्वामीने . समूह - टी. यस्मिन्निति यस्मिन् स्वामिनि, श्रीश्च शोभा, धृतिश्च धैर्य, कीर्तिश्च यशः, कान्तिश्च तेजः, बलं च शारीरिक,धीश्च बुद्धिः, श्रीधृतिकीर्तिकान्तिबलधियः, ता मुख्या येषां ते, न एके अनेके, अनन्ताः गुणाः सन्ति च, यस्मिन् स्वामिनि, दोषस्य-कषायादेः लबोंऽशः दोषलवः, सेऽपि नैव भवति नास्त्येव, च स्फीतं वृद्धिंगतं, निर्गतः मलो यस्मात् तत् निर्मलंनिष्कलङ्क, यशोऽस्ति तद् तस्माद्धेतोः (सर्वतः ), यः प्रभुः, गुणान् गृह्णाति, सतां-सज्जनानां मध्ये उत्तम- श्रेष्ठ, सुरासुरनतं तं, श्रिया युक्तः श्रीयुक्तः, स चासौ शीतलइति नाम्ना स्वामी श्रीशीतलस्वामी, तं दशमं जिनं, सततम् अहं वन्दे-वन्दनं करोमि ॥ १० ॥ भावार्थ-जे प्रभुमां श्री-धृति:-कीर्ति-कांति-बल-शुद्धिविगेरे अनेक गुणो छे, जेमा दोषनो अंश पण नथी, अने (चारे तरफथी) जे प्रभु गुणो ग्रहण करे छे, पण दोषोनो समूह ग्रहण करता नथी, एवा सज्जनोमां उत्तम अने वृद्धि पामेल निर्मळ यशवाळा देव दानवोए नमेला, श्री शीतलनाथस्वामीने, हुं निरंतर वन्दन करूं छु. १० Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ मू-कांस्यामत्रमिवोज्झितोदकमलं, नीरजनं शङ्खचत् , निर्लेपं च पयोजवद् गगतवन्नित्यं निरालम्बनम्। केनाऽप्यपतिहन्यमानगतिता,सञ्चारिणं जीववत् , वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, श्रेयांसनाथं मुदा॥११॥ शब्दार्थ:कांस्य-कांसाना अमत्रं-पात्रनी इव-प्रेठे उज्झित-रहित उदकमलं-जळनो मेल नीरञ्जनं-मायारहित शङ्खवत्-शंखनी जेम निर्लेप-आसक्ति रहित पयोजचद-कमळनीगगनवत्-आकाशनी- नित्यं-हमेशा पेठे : पठे : : निरालम्बनम्-आधार केन-कोइथी : अपतिहन्यमानग- रहित संचारिणं-गमन तिता-नही हणाय जीववत्-जीवनी पेठे करनार एवी गतिवाळा श्रेयांसनाथं-श्रेयांसनाथने टी. कांस्यामत्रमिति उज्ञितस्त्यक्तः उदकस्य-जलस्य मलो येन तत् उज्झितोदकंमलं,कांस्यस्य अमत्रं-पात्रं कांस्यामनं तदिव तसदृशं ( यथा कांस्यपात्रे जलस्पर्शी न लगति तथा प्रभौ जिनेश्वरेऽपि मलस्पर्शो न लगति) शड्वेन तुल्यं शङ्खवत्-शङ्खसदृशं, निर्गतम् रञ्जनं यस्मात्तं नीरञ्जन-मायिकदोषरहितं, पयसि जातं पयोज-कमल,तेन तुल्यं पयोजवत्-कमलसदृश, निर्गतः लेप आसक्तिर्यस्मात् तं निर्लेपं सङ्गदोषमुक्तं-निस्सङ्गमित्यर्थः, गगनम्-आकाशं तेन तुल्यं गगनवत्-गगनसदृशं, नित्यं-शाश्वतं, निर्गतम् आलम्बनं यस्मात् तं निरालम्बनं-निराधार, जीवेन तुल्यं जीववत्-जीव Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૭૩ सदृशं, केनाऽपि प्रतिहन्यते इतिप्रतिहन्यमाना, न प्रतिहन्यमाना अप्रतिहन्यमाना, सा चासौ गतिश्च अप्रतिहन्यमानगतिः, तस्याः भावः अप्रतिहन्यमानगतिता, तया संचरतीत्येवंशीलः अप्रतिहन्यमानगतितासंचारी, तम् अर्थात् आत्मवत् सर्वगामिनं सुरासुरनतं अतिशयेन श्रेष्ठः-श्रेयान् तं श्रेयांसनामानम् एकादशं जिनं मुदा सततम् अहं वन्दे-वन्दनं करोमि. ११ भावार्थ-कांसाना पात्रनी पेठे कर्मरूप, जळना मेलाहित शङ्खनी पेठे नोरञ्जन, कमळनी पेठे निर्लेप, आकाशनी पेठे हमेशां आलम्बन रहित अने जीवनी पेठे कोइथी पण अटकावी न शकाय एवी गतिवडे विचरनार, एवा देव-दानवोए नमेला, श्रेयांसनाथने हुं निरंतर हर्षथी वन्दन करुं छु. ११ मू०-एकं खद्भिविषाणवद्विरहितं, द्वेषेण रागेण वै, कम्पाकाप्रतिबद्धमभ्रगमिव, श्रीकुक्षिपाथेयकम् । राकाचन्द्रमिवेह सौम्यगुणतायुक्तं प्रभाभास्करं, वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, श्रीवासुपूज्यं मुदा ॥ १२॥ शब्दार्थःएक-एक विषाणवत्-शौंगडानी- विरहितं-रहित खनि-गेंडाना - जेम द्वेषेण-द्वेषवडे रागेण-रागवडे वै-निश्चय कम्पाक-वायुनी जेम अप्रतिबद्धम्-अप्र- अभ्रगम्-पक्षीनी श्रीकुक्षिपाथेयक-कु... तिबद्ध . राका-पूर्णिमाना.. क्षिपाथेय वाळा Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चन्द्र-चन्द्रनी प्रभा - कान्तिथी २७४ गुणतायुक्तं-गुणयुक्त श्रीवासुपूज्यं - श्रीवासुपूज्यने टी. एकमिति खड्गेः विषाणं शृङ्गं खड्‌गविषाणं, तेन तुल्यं खड्गिविषाणवत् वै निश्वये रागेण च द्वेषेण च विरहितम् एकं कम्पाको वायुः तद्वद् अप्रतिबद्धः - बन्धरहितः, तम् अभ्रं गच्छतीत्यन्रगः, तं पक्षिणमिव पथि साधु पाथेयं, पाथेयमेव पाथेयकं, श्रीकुक्षौ पाथेयकं यस्य स श्रीकुक्षिपाथेयकः, तम् इहास्मिँल्लोके राकाया:- पूर्णिमायाश्चन्द्रः राका चन्द्रः, तम् इव सौम्यमेव गुणः सौम्यगुणः, तस्य भावः सौम्यगुणता, तया युक्तः सहितः सौम्यगुणतायुक्तः, तं प्रभया - स्वशरीरकान्त्या भास्करः - सूर्यः तं सुरासुरनतं श्रिया युक्तः श्रीयुक्तः स चासौ वासुना विश्वेन पूज्यश्च श्रीवासुपूज्यः, तं द्वादशमं जिनं सततं मुद्रा आनन्देनाहं वन्दे . १२. > सौम्य - सौम्य भास्करं - सूर्य समान भावार्थ:- डाना शिंगडानी पेठे एक, राग-द्वेष रहित, वायुनी पेठे अस्खलित, पक्षिनी माफक कुक्षिपाथेय, आ लोकमां पूर्णिमाना चन्द्रनी पेठे शांत गुणवाळा, (पोतानी शरीरनी ) कान्तिथी सूर्य समान, एवा देव-दानवोए नमेला, श्रीवासुपूज्यस्वामिने निरंतर प्रेमथी हुं वन्दन करूं छं. १२ मू० - ध्वान्तारातिमिव प्रदीप्तमहर्स, सत्केवलज्ञानिनं, शीलाङ्गानसि धुर्यमुक्षतरवद्, गाढं दृढे दुर्द्धरे; शौण्डीरं करिराजवद् बलगतिस्थैर्यादिभिः सद्गुणैवन्देऽहं विमलं सुरासुरनतं, श्रीवीतरागं मुदा ॥ १३ ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૭૧ शब्दार्थ, ध्वान्तारार्ति-सूर्यनी प्रदीप्त-देदीप्यमान अहसं-तेजवाळा सत्केवलज्ञानिनं-उ- शीलागानसि-शीला- धुर्यम्-धोरी त्तमकेवळ ज्ञानवाला गरथमां उक्षतरवद्-बळदनी.. गाढं-अत्यन्त दृढे-मजबूत दुर्द्धरे-दुःखथी धानीशौण्डीरं-निपुर, करिराजवद्-ऐरावत- शकाय एवा बलगति-बळगति हस्तीनी पेठे स्थैर्यादिभिः-स्थिरतासद्गुणैः-सदगुणोबडे विमलं-विमलनाथने आदि टी. ध्वान्तेति ध्वान्तः-अन्धकारः तस्यारातिः-शत्रु:-ध्वान्तारातिः-सूर्यः, तमिव प्रदीप्त-देदीप्यमानं महस्तेजो यस्य स प्रदीप्तमहाः, तं कान्तिमन्तं केवलं च तद् ज्ञानं च केवलज्ञानं, सच तत् केवलज्ञानं च स केवलज्ञानं, तद्विद्यतेऽस्येति सत्केवलज्ञानी, तं गाढम् अत्यन्तं दृढे, दुःखेन 'ध्रियते इति दुर्द्धरं तस्मिन् , शोलस्याङ्गानि शीलाङ्गानि, तान्येव अनः रथः शीलाङ्गानः, तस्मिन् अष्टादशसहस्रशोलागरथेषु उक्षतरेग तुल्यम् उक्षतरवत्-महावृषभतुल्यं, धुरं वहतीति धुर्यः, तं बलं च शारीरिकं, गतिश्चगमनं, स्थैर्य च बलगतिस्थैर्याणि तानि आदिर्येषां ते बलगतिस्थैर्यादयः, तैः सन्तश्च ते गुणाश्च सद्गुणाः, तैः करः शुण्डः सोऽस्ति एपामिति करिणः, तेषां राजा करिराजः, तेन तुल्यं करिराज, ऐरावततुल्य शौण्डीरं-निपुगं, सुरासुरनतं, श्रीवीतराग, विगतो मलो यस्मात् तं. विमलं त्रयोदशमं जिनं मुदा हर्षेणाई वन्दे--चन्दनं करोमि, १३. भावार्थ-सूर्यनी माफक देदीप्यमान तेजवाला, श्रेष्ठ केवलज्ञान Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ वाला, अने अत्यन्त मजबूत, महाप्रयासथी धारण थइ शके एवा अढार हजार शीलाङ्गरथने विषे धोरी-मुख्य बळदनो माफक वहन करनार, बळ-गति-अने स्थिरता आदि सद्गुणोवड़े ऐरावत हाथीनी माफक निपुण, एवा देवदानवोए नमेला, वीतराग श्री विमलनाथ स्वामिने, हुं प्रेमथी वन्दन करुं छं. १३ मू-आटव्यैः पशुभिः कुतीथिकगणैर्दुष्यमैमारिवत् , पारावारगभीरिणं धरणिवद, सर्वसहं स्वामिनम् । स्वच्छस्वान्तमिवाम्बु शारदतमं, कालुष्यदोषोज्झितं, ... वन्देऽनन्तमहं सुरासुरनतं, श्रीवीतरागं मुदा ॥१४॥ शब्दार्थ: आटव्यैः-जंगलना पशुभिः-पशुओ वडे कुतीथिंकगणैः-अन्यदुर्घष्यं-नहीं जीताय ऐभारिवत्-सिंह जेवा दर्शनीना समूहथी लेवा पारावारगमीरिणं- धरणिवत्-पृथ्वीनी पेठे सर्वसहं-सर्व सहन- समुद्रनी पेठे गंभीर स्वामिनम्-स्वामी करतां स्वच्छस्वान्तम्-नि- अम्बु-पाण) शारदतमं-शरदऋ- . मळ हृदय पेठे कालुष्य-मलीनता दोष-दुर्गुण . . उज्झितं-रहित :अनन्तं-अनन्तनाथने टी. आटव्यैरिति अटव्यां भवाः आटव्याः तैः पशुभिः, इभाना समूह ऐम-हस्तिसमूहः, तस्यारि:-शत्रुः ऐभारिः-सिंहः, तेन तुल्यं Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ ऐभारिवत्, कुत्सितं-निन्दनीय तीर्थ-कुतीर्थ, तद्विद्यते एषामिति कुती र्थिकाः, तेषां गगाः, तैः दुःखेन धृष्यते इति दुर्घष्यः, तं दुःखेन पराभवं कर्तुमशक्यं, पारावार:-समुद्रः तद्वत् गभीरिणं गाम्भीर्यगुगयुक्तं, . . धरण्या:-पृथ्त्रयाः तुल्यं धरणिवत्, सर्वसहते इति । सर्वसहः, तं, कलुषस्य भावः कालुष्य, तदेव दोषः कालुष्यदोषः, तेन उज्झितं त्यक्तं तत् शरदि भवं शारदं, अतिशयेन शारदम् इति शारदतमं, शरत्कालोत्पन्नम् अम्बु-जलमिव स्वच्छं शुद्धंस्वातं-हृदयं यस्य तं, सुरासुरनतं, श्रीवीतरागं, नास्ति अन्तो यस्य तम् अनन्तं-अनन्तनामानं, चतुर्दशमं जिन मुदा हर्षेगाहं वन्दे-वन्दनं करोमि. १४ भावार्थ-जंगलना पशुओ बडे सिंहनी पेठे, अन्य दर्शनीना समूह वडे अजेय, समुदनी पेठे गम्भीर, पृथ्वीनी जेम सर्व सहन करनार, शरद ऋतुना जळनी जेम निर्मळ अन्तःकरणवाळा, एवा देव-दानवोथी नमाएला, वीतराग श्री अनन्तनाथ स्वामिने, हुं हर्षथी वांदु छु. १४ मू-स्वाहाभुग्नगराजधीरमनघं, मन्दारवत् प्राणिना... मिष्टप्राप्तिकरं सुधासमगिरं, सन्तापचिन्ताहरं। : .., रूपन्यत्कृतमन्मथं शिवरमाशृङ्गारहारं वरं , वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, श्रीधर्मनाथं मुदा ॥ १५॥ ......... शब्दार्थ- ... स्वाहाभुग्-देयताओ नगराजधीरं-मेरुनी- अनपं-पापरहित .. मन्दारवत-कल्पवृक्षः , जेम धीर . प्राणिनाम-प्राणिओनी Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ - नी जेम .. इष्टप्राप्तिकरं-इष्टप्राप्ति- मुधासमगिरं-अमृतसन्ताप-दुःख करनार समान वाणीवाळा चिन्ताहरं-चिन्ताने- रूपन्यत्कृत-रूपथी- मन्मथं-कामदेव ' हस्नार तिरस्कार करनार शिवरमा-मोक्षलक्ष्मी मारहारं-शृंगारना हार, वरं-श्रेष्ठ श्रीधर्मनाथं-श्रीधर्म नाथने टी.स्वाहेति स्वाहां भुञ्जन्ते इति स्वाहाभुज:-देवाः, तेषां, न गच्छन्तीति नगाः-पर्वताः,तेषां राजा नगराज:-मेरुः, स इब धीरः स्वाहानगराज. धीरः, तं, न विद्यतेऽघं दुःखं यस्य तम् अनघं-निष्पापं, मन्दारः-कल्पवृक्षः तेन तुल्यं मन्दारवत्, प्राणाः सन्ति एषामिति प्राणिनः, तेषाम, इष्टस्य मनोवाञ्छितस्य प्राप्तिः इष्टप्राप्तिः, तां कर्तुं शीलमस्येति इष्टप्राप्तिकरः, तं, मनोsभीष्टदं, सुधया-अमृतेन समा सुधासमा, सा गीर्यस्य स सुधासमगी:, तं सन्तापश्च चिन्ता च सन्तापचिन्ते,ते हर्तुं शीलमस्येति सन्तापचिन्ताहरः,तं, रूपेण स्लशरीरकान्त्या न्यत्कृतः-तिरस्कृतः रूपन्यत्कृतः मन्मथः-कामो येन तं रूपन्यत्कृतमन्मथं शिवं मुक्ति: सैव रमा लक्ष्मीः, तस्याः शृङ्गारस्य हारः शिवस्माशृङ्गारहारः, तं, सुरासुरनतं धर्मस्य नाथः, धर्मनाथः, श्रिया युक्तः, स चासौ धर्मनाथश्च श्रीधर्मनाथः, तं पञ्चदशमं जिनं सततं मुदा हर्षेणाहं वन्दे-वन्दनं करोमि.. १५ भावार्थ:-सुरगिरि समान धीर, पापरहित, कल्पवृक्षनी जेम प्राणिओने इष्ट प्राप्त करावनार, अमृत जेवी वाणीवाळा, सन्ताप अने चिन्ताने हरनार, रूपथी कामदेवनो तिरस्कार करनार अने मोक्ष लक्ष्मीना . Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७९ श्रेष्ठ श्रृङ्गार हार, एवा देव-दानवोथी नमाएलां, श्री धर्मनाथने हुं निरन्तर हर्षथी वांदं छु. १५ मू-सञ्चित्चेतरमिश्रवस्तुनिवहेऽनन्तात्मके द्रव्यतो, ग्रामादौ समयावलीप्रभृतिके, तु क्षेत्रतः कालतः मावादप्रतिभावकं तु मद-भी-हास्यक्रुधादौ समं, वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, श्रीशान्तिनाथं मुदा॥१६॥ शब्दार्थःसच्चित्तेतर-सचि- मिश्र-मिश्र वस्तु-वस्तु त्त-अचित्त निवहे-समूहमा अनन्तात्मके-अनद्रव्यतः-द्रव्यथी ग्रामादौ-प्रामादिमां न्त स्वरूप समयावली-समयआ- प्रतिके-विगेरे . तु-अने वळी क्षेत्रत:-क्षेत्रथी कालत:-काळथी मावात-भावथी अप्रतिभावकं-अप्र- मद-मद भी-बीक हास्य-हास्य क्रुधादौ-क्रोधादिमां सम-समानवृत्तिवाळा श्रीशान्तिनाथ-श्री शांतिनाथने ___टी. सञ्चित्तेति द्रव्याद् इति द्रव्यतः, अनन्तः आत्मा स्वरूपं यस्य स अनन्तात्मकः, तस्मिन् सच्चित्तं च सचेतनम् इतरं च अचेतनं मिश्रं ... च सच्चित्तेतरोभयरूपं. सच्चित्तेतरमिश्राणि तानि च तानि वस्तूनि च सच्चित्तेतरमिश्रवस्तूनि, तेषां निवहः समूहः, तस्मिन् , प्रतिभावयतीति तिबद्ध Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २८० प्रतिभावकः, न प्रतिभावकः अप्रतिभावकः, तं नाम अप्रतिबद्धं, क्षेत्राद् इति क्षेत्र तः, ग्राम: आदिर्यस्मिन् तस्मिन् ग्रामनगरादौ, अप्रतिभावकं, कालाद् इति कालतः, समयश्च आवली च समयावल्यौ, ते प्रभृतिर्यस्मिन् स समयावलीप्रभृतिकः, तस्मिन् अप्रतिभावकम्-अप्रतिबद्धं, समं रागद्वेषरहितम्-उदासीनमित्यर्थः, सुरासुरनतं, मदश्च अष्टविधः, भीश्च भयं, हास्यं च हसनं, क्रुधं च क्रोधः, मद-भी-हास्य-क्रुधः ते आदिर्यस्मिन् स मद-भी-हास्य-क्रुधादिः तस्मिन् , अप्रतिभावक-अप्रतिबद्धं समं रागद्वेष-रहितं-उदासीनमित्यर्थः, सुरासुरनतं श्रिया युक्तः श्रीयुक्तः, स चासो शान्तिनाथश्च श्रीशान्तिनाथः, तं षोडशमं जिनं सततं मुदा हर्षेणाहं वन्देवन्दनं करोमि १६ भावार्थ-द्रव्य थकी अनन्त रूपवाळा सचित्त, अचित्त अने मिश्र वस्तुना समूहने विषे प्रतिबन्ध रहित, क्षेत्र थकी ग्रामनगर आदिने विषे प्रतिबन्ध रहित; काल थकी समय आवळी मुहूर्त विषे प्रतिबन्ध रहित अने भाव थकी आठ मद, भय हास्य अने क्रोध आदिने विषे प्रतिबन्ध रहित, एवा समान वृत्तिवाळा देवदानवोए नमेला, सोळमा श्रीशान्तिनाथस्वामिने, निरन्तर प्रेमथी हुं वन्दन करूं छु. १६ मु०--आधु संहननं तनोः सुरुचिरं, संस्थानमाचं तथा, यस्याष्टाधिकसत्सहस्रगणनायुक्तं लसल्लक्षणम् : मानोन्मानमयप्रमाणमुदितं, शास्त्रे स्थितं तं सदा, वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, श्रीकुन्धुनाथं मुदा ॥१७॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आद्यं-प्रथम सुरुचिरं - सुंदर यस्य - जेना गणना- संख्या लक्षणम् - लक्षणवाळा शास्त्रे - शास्त्रमां सदा-हमेशां ૨૨ शब्दार्थ संहननं:- संघयग संस्थानम् - आकार अष्टाधिक - आठ वधारे तनोः - शरीरनुं युक्तं युक्त मानोन्मानमथ तथा-तेवी रीते सत्सहस्र - एक हजार लसत् - देदीप्यमान उदितं कर्तुं छे - प्रमाण- प्रमाणोपेत स्थितं - रहेलं श्री कुन्थुनाथं - श्री कुन्थुनाथने टी० आद्यमिति - शास्त्र आगमे यस्य प्रभोः तनोः -- कायस्य, आदौ भवमाद्यं, प्रथमं संहननं–सङ्घातः उदितं (दृढसन्धियुक्तशरीरमित्यर्थः) तथा शोभनं रुचिरं, मनोहरं सुरुचिरम्, आर्थ - प्रथमं संस्थानम् उदितं कथितं, अष्टाभिः अधिकम् अष्टाधिकं तत् च तत् सत्सहस्रं च अष्टाधिक सत्सहस्रं, तस्य गणना अष्टाधिकसत्सहस्रगणना, तया युक्तं लसति शोभते इति लसत् लसत् च तत् लक्षणं च लसल्लक्षणम् उदितं कथितं तथा यस्य प्रभोः शरीरस्य प्रमाणं मानं च उन्मानं च एतयोः समाहारः मानोन्मानं, शास्त्रे स्थितं, सुरासुरनतं तं श्रिया युक्तः श्रीयुक्तः स चासौ कुन्थुनाथश्च श्री कुन्थुनाथः तं सप्तदशमं जिनं सततं नैरन्तर्येग मुद्रा प्रेम्णाऽहं वन्देवन्दनं करोमि १७ * " भावार्थ — जेमनुं शरीर प्रथम संघयण अने सुंदर प्रथम संस्थान ( आकृति ) वाळु, तेमज देदीप्यमान एक हजार ने आठ गुणयुक्त, dung Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ मानोन्मान प्रमाणवाळु शास्त्रमा कह्यं छे, ते देव-दानवोथी नमेला, श्री कुन्थुनाथने, हुं हम्मेशां हर्षथी वन्दन करुं छं. १७ । मू-अर्थस्तावदभूदनन्तगमयुक्, सूत्रं ततो जायते, स्मानन्तार्थसुसंग्रहिण्युपचितं, नियुक्तियुक्तं वृतम् । पाश्चाङ्गं जिनतो यतः किमपरं, त्रैलोक्यसारं च तं, वन्दे श्रीअरनाथमुत्तममहं, श्रीवीतरागं मुदा ॥१८॥ ... शब्दार्थअर्थ:-अर्थ तावत्-तेटलो अभूत-थयो अनन्त-घणा आगमयुक्-आलावा- सूत्र-सूत्र ततः-ते पछी सहित जायते-थयु अनन्तार्थसुसङ्- उपचितं-युक्त नियुक्ति-नियुक्ति अहिणी-भाष्य वृत्तम्-वृत्ति पाञ्चाङ्गं-पाश्चअङ्ग जिनत:-जिनथी यतः-जेथी किम्-शु त्रैलोक्य-त्रणलोकमां सारं-सार अरनाथ-अरनाथने टी० अर्थइति-तावत् आदौ अर्थोऽभूत्-जातः, ततः तदनन्तरं न विद्यतेऽन्तो येषां तेऽनन्ताः, ते च ते गमाश्च अनन्तगमाः, तैर्युज्यते इति अनन्तगमयुक्, अनन्तश्चासौ अर्थश्च अनन्तार्थ:, अनन्तार्थश्च सुसझहिणी च भाष्यम् अनन्तार्थसुसङ्कुहिण्यौ, ताभ्याम् उपचितं युक्तं अनन्तार्थसुसंग्रहिण्युपचितं ( अर्थभाष्यसहितं), नियुक्त्या युक्तं नियुक्तियुक्तं, नियुक्ति Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ सहितं वृतं वृत्तिसहितं पञ्च अङ्गानि यस्य तत् पञ्चाङ्गम्, एतादृक् सूत्रं जिनात् इति जिनतः, जायते स्म समपद्यत यतो यस्मात् पञ्चाङ्गसूत्रात् किमपरम् अन्यत् ,त्रयोऽवयवा यस्य स त्र्यवयवः,सचासौ लोकश्च, त्रिलोकः स एव त्रैलोक्यं तस्मिन् सारं-श्रेष्ठं किमस्ति, अर्थात् किमपि नास्ति, तं श्रीवीतरागम्, उत्तमं श्रिया युक्तः श्रीयुक्तः, स चासौ अरनाथश्च श्रीअरनाथः, तम् अष्टादशमं, जिनं मुदा-हर्षेणाहं वन्दे-वन्दनं करोमि. १८ भावार्थ-प्रथम अर्थ पछी अनन्तआलावाए सहिल, अनंत अर्थ संग्राही भाष्य युक्त वृत्ति धइ. ए प्रमाणे पञ्चाङ्गी सूत्र जीनेश्वरथी थयु, जे *पश्चाङ्गी सूत्रथी अधिक त्रण लोकमां शुं छे ? अर्थात् कांइ नथी, एवा ते उत्तम वीतराग श्री अरनाथ जिनने, प्रेमथी हुं वन्दन करूं छं. १८ मू०-खाष्टैकप्रमिता विधाश्च विविधाः, सन्ति क्रियावादिना-- मज्ञानां मुनिषद्प्रमाश्च जलनिध्यष्टाक्रियावादिनाम्। द्वात्रिंशद्विनयश्रितामनुपम, दृष्ट्वैषु सम्यग्दृशं, वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, श्रीमल्लिनाथं मुदा ॥ १९ ॥ शब्दार्थ:ख-आकाश १ . अष्ट-आठ प्रमिता-माप विधा:-प्रकार विविधाः-जातजात क्रियावादिनां-क्रिसन्ति-छे अज्ञानां-अज्ञान यावादीओना ... * सूत्र, वृत्ति, भाष्य, नियुक्ति अने चूर्णि. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૩૪ मुनि-ऋषि सप्त जलनिधि - समुद्र ४ अक्रियावादिनां विनयश्रिता- विनया- क्रियाने नहीं माननारा दष्ट्वा - जोइने श्रितना श्री मल्लिनाथ - श्री मल्लिनाथने षट्-छ द्वात्रिंशत् - बत्रीश अनुपमं - अनुपम सम्यग्दृशं - सम्यग्दृष्टि वाळा , " 1 , टी० खाष्टेति - क्रियाः - कर्माणि वदन्तीति क्रियावादिनः, तेषां, खं चाकाशम् अष्टौ च एकश्च खाष्टकाः तैः प्रकर्षेण मिताः खाष्टकप्रमिताः, अङ्कानां वामतो गतिः, इति न्यायेन अशित्यधिकशतं ( १८० ), विविधाः - अनेकशः, विधा: - प्रकाराः सन्ति न जानन्तीति अज्ञा:, तेषाम् अज्ञानवादिनां मुनयश्च - सप्त, षट् च मुनिषट्, ते प्रमा- प्रमाणं यासां ताः सप्तषष्ठिः (६७ ) विधा: - प्रकाराः सन्ति न क्रियाः अक्रिया:अकर्माणि, ताः वदन्तीति अक्रियावादिनः - शून्यवादिनः, तेषां जलानां निधयः जलनिधयः जलनिधयश्व अष्टौ च जलनिध्यष्टौ चतुरशीतिः ( ८४ ) विधा: - प्रकाराः सन्ति, विनयं श्रयन्ति इति विनयश्रितः, तेषां विनयवादिनां द्वौच त्रिंशच द्वात्रिंशत् (३२), विधा प्रकाराः सन्ति, एषु प्रकारेषु, न विद्यते उपमा यस्य सोऽनुपमः, तं सम्यग् -समिचीना दृक्-दृष्टिर्यस्य तं दृष्ट्वा सुरासुरनतं श्रिया युक्तः श्रीयुक्तः स चासौ मल्लिनाथश्च श्री मल्लिनाथः, तम् एकोनविंशतितमं जिनं सततं मुदा हर्षेणाsहं वन्दे - वन्दनं करोमि, १९ भावार्थ - क्रियावादीनां जुदा जुदा एकसो चोरासी १८४ भेदो, अज्ञानवादिओनां सड़सठ (६७), अक्रियावादीओनां चोराशी Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ योग्य ८४, अने विनयवादीओनां बत्रीस ( ३२ ) मतो छ. ए सर्व मतोमा अनुपम सम्यक् दृष्टिवाळा प्रभुने जोइ देव-दानवोए नमेला, श्रीमल्लिनाथ स्वामिने, निरन्तर प्रेमथी हुं वन्दन करूं छु. १९ मू-धन्यास्ते नरजन्म तैः सफलितं, तेषां च हस्तागता, सिद्धिश्रीविपुलामला भगवतः, पादारविन्दद्वये । भक्त्या यैर्धेमरायितं तदनुमन्तात्मीयभक्तौ रतो- . वन्देऽहं मुनिसुव्रतं सुरनतं, श्रीवीतरागं मुदा ॥२०॥ शब्दार्थ:धन्या:-धन्यवाद ते-नेओ नर-मनुष्यनो जन्म-जन्म तैः-तेओथी सफलितं-सफळ- तेषां-तेमना हस्त-हाथमां आगता-आवी छे सिद्धिश्री:-मोक्षलक्ष्मी विपुला-विशाळ अमला-निर्मळ भगवतः-भगवानना पाद-चरण द्वये-बे मक्त्या-भक्तिथी यैः-जेओथी भ्रमर-भ्रमरनी आयितं-जेम अनुमन्ता-अनुसरनार आत्मीय-पोतानी भक्तो-भक्तिमां रत:-आसक्त मुनिसुव्रतं-मुनिसुव्रत स्वामीने टी०धन्याइति-यैः पुरुषैर्भक्त्या (भ्रमरायितं भ्रमरवदाचरितं,, भगमैश्वर्य विद्यतेऽरयेति भगवान् , तस्य पादौ एव अरविन्दे-कमले पादारविन्दे -चरणकमले, तयोईयं पादारविन्दद्वयं, तस्मिन् भ्रमरायित-भ्रमर थयो Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वदाचरितं, ते पुरुषा धन्याः सन्ति, तैः पुरुषः, नरस्य जन्म सफलितंसफलोकृतं च तेषां पुरुषाणां, विपुला-विशाला, अमला-निर्मला, सिद्धेःमोक्षस्य श्रीः-लक्ष्मीः, हस्तमागता हस्तागता-हस्तप्राप्ताऽस्ति, तस्य जिनस्यानुमन्ता तदनुमन्ता-तदाज्ञानुसारी, आत्मन इयम् आत्मीया सा चासौ भक्तिश्च आत्मीयभक्तिः, तस्यां रतः-सक्तः अहं सुरनतं, श्रीवीतरागं, शोभनं व्रतं यस्य स सुव्रतः, मुनिषु सुवतः-मुनिसुव्रतः तं विंशतितम जिनं मुदा हर्षेण वन्दे-वन्दनं करोमि. २० भावार्थ:-जे पुरुषोए भक्तिवडे भगवन्तना चरणकमलना युगलमां, भ्रमरनी माफक आचरण कयु छे, ते पुरुषोने धन्य छे तेज पुरुषोए मनुष्य जन्म सफल करेल छे, अने तेज पुरुषोनां हस्तमां विशाळ अने निर्मळ मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त थइ छे, एवा ते परमात्मानी आज्ञाने अनुसरनार, आत्म संबंधी भक्तिमां प्रीतिवालो हुँ, देवोए नमेला, वीतराग श्री मुनिसुव्रत स्वामिने, हर्षथी वन्दन करुं छु. २० मू०-विश्व को दरिधति लोकविदितो; मित्रं सुहृत् स्वागतं, संलापोत्तरकालमालपति किं ?, भीतः कुतश्चित् कथं । अन्तर्वेश्मसु तिष्ठतीति विनयोपेतः प्रभुं तादृशं, वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, श्रीवीतरागं नमिम् ॥२१॥ शब्दार्थविश्व-जगत् दरिधत्ति-धारण- लोक-लोक विदित-प्रसिद्ध करे छे मित्रं-मित्रने . Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहृत्-मित्र उत्तरकालं - पछीनो संलाप - वातचित भीतः -डरेलो कथं-केम वेश्मसु-घरमां तिष्ठति - रहे छे उपेतः- सहित विनय-विनय तादृशं -तेवा प्रभुं प्रभु नमिम् - नमिनाथने टी० विश्वमिति – लोकेषु विदितः - प्रसिद्धः लोकविदितः, को विश्व जगत् दरिधर्ति इति प्रश्नः (उत्तरः न ) सुष्टु-शोभनं हृदयं यस्य स सुहृत् - सखा, सुष्ठु आगतं स्वागतं, तत् मित्र संलापस्य - मिथो भाषणस्य उत्तर: संलापोत्तरः, तस्य कालः संलापोत्तरकालः, तं किमालपति इति प्रश्नः ( उत्तरः मित्रं स्वागतं, कुतश्चित् निमित्तात् कारणात् भीतः -- भयं प्राप्तः पुरुषः कथं ब्रूते इति प्रश्न: ( उत्तर: हे नाथ ) स नमिनाथः अन्तः हृदयं तदेव वेश्म अन्तर्वेश्म, तत्र तिष्टति इति हेतोः विनयेन उपेतः युक्तः - विनयोपेतोऽहं सुरासुरनतं श्री वीतरागं तादृशं नमिं नमिनामानं एकविंशतितमं जिनं सततं नैरन्तर्येण वन्दे - वन्दनं करोमि. २१ समय अन्तर्-हृदयमां इति - आ प्रमाणे ૨૮૭ स्वागतं - स्वागतः आलपति कहे छे कुतश्चित् - कोइ वखत भावार्थ:- जगत् प्रसिद्ध कोण आ लोकने वारंवार धारण करे छे ? (न. कोइ नहि. ) मित्र आवेला मित्रने वातचीत थया पछी शुं कहे छे ? ( मित्र भले आव्या ) भय पामेलो माणस शुं बोले छे ? ( नाथ ) आ प्रश्नोना उत्तरभूत नमिनाथ, हृदयरूप गृहमां रहेल छे; तेथी विनययुक्त हुं देव-दानवोए नमस्कार कराएलां, वीतराग श्री नमिनाथने, निरन्तर वन्दन करूं छं. २१ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ मू-स्यादेकाक्षरिणा पदेन धरणी, शम्भुस्तथैवाग्रतः तादृक् किं सविसर्जनीय इह नोत्तारं सतारं कथं; इत्यभ्यर्थनया फलेग्रहिवचो, विज्ञप्तिकापूर्वकं, वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं, श्रीनेमिनाथं मुदा ॥२२॥ शब्दार्थःस्यात्-होय एक-एक अक्षरिणा-अक्षरवाळा पदेन-पदवडे धरणी-पृथ्वी शम्भु-शीव तथा तेवी . एव-ज अग्रतः-आगळ तादक्-तेवू . किं-शुं सविर्सजनीय-विसर्गइह-आ लोकमां ना-मनुष्यने __ सहित उत्तार-तारनार सतारं-तारनार अत्यंत- अभ्यर्थनया-प्रार्थनाफलेग्रहि-फळ ग्रहण- श्रेष्ठ ___ करनार वचः-वचनथी विज्ञप्तिका-विनंति पूर्वकं-पूर्वक . श्रीनेमिनाथं-श्री नेमिनाथने टी० स्यादिति-एकं च तद् अक्षरं च एकाक्षरं तदस्ति अस्येति एकाक्षरि तेनासंयुक्तवर्णन, धरणी-पृथ्वी स्यात् तत्पदं किमस्ति इति प्रश्नः (उत्तरः नेमिः ), तथैव अग्रतः शम्भुः स्यात् तत् पदं किमस्ति इति प्रश्नः ( उत्तरः नाथ ! ) विसर्जनीयेन सह वर्तते इति सविसर्जनीयः तादृक् किं (नेमिनाथः), इहास्मॅिल्लोके न उत्तारयति इति नोत्तारस्तम् , नोतारं सतारं कथम् इति विरोधः, परिहारस्तु नः गणपतिः तस्य उत्तारम् नोत्तारम् अभ्यर्थनया-प्रार्थनया, फलानि गृह-तीति फलेग्रहीणि तानि च : फलाह ग्रहण- श्रष्ठ वडे Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तानि वांसि च फलेग्रहिवासि, तैः,विज्ञप्तिः एव विज्ञप्तिका-स्तुतिः फलेग्रहिवचोविज्ञप्तिका, सा पूर्व यस्मिन् कर्मणि यथास्यात् तथा, सुरासुरनत श्रिया युक्तः श्रीयुक्तः स चासौ नेमे: नाथः श्रीनेमिनाथः, तं द्वाविंशतितमं जिनं सततम्-अनारतं मुदा-आनन्देन अहं वन्दे---वन्दनं करोमि.२२ मावार्थ:-जोडाक्षर सिवायना पदथी जेनो अर्थ पृथ्वी थाय के (नेमि ) अने ते पछीना पदनो अर्थ शंभु थाय छे ( नाथ ). अहीं ते, विसर्गयुक्त शुं छे ? ( नेमिनाथः ). जे तारनार नहिं ते तारनार शी रीते ? आ विरोध आव्यो तेनो परिहार न एटले गण नायक तेने तारनार आ प्रमाणे प्रार्थना वडे सफळ वचननी विनंति पूर्वक, निरन्तर देव-दानवोथी नमेला श्रीनेमिनाथने हर्षथी हुं नमस्कार करुं छु. २२ मू-कार्येषु प्रसृता सती च न भवेद्धृत्यक्रिया कीदृशी, नृणां के जनयन्ति दुःखमतुलं ते वा विसर्गा यथा; इत्यभ्यर्थनया फलेग्रहि वचो विज्ञप्तिका पूर्वकं, वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं श्रीपार्श्वनाथं मुदा ॥ २३ ॥ __ शब्दार्थकार्येषु-कार्योमा प्रसृता-प्रसरेली सती-छती भवेत्-थाय मृत्य-नोकरोचें क्रिया काम कीदृशी-केतुं नृणां-मनुष्योने के-कोण जनयन्ति-उत्पन्न दुःख-दुःखने अतुलं-अति ते-तेओ . वा-अथवा विसर्गाः-विसर्ग यथा-जेम श्रीपार्श्वनाथं-श्रीपार्श्वनाथने Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० टी० . कार्येष्विति-कार्येषु-व्यापारेषु प्रसृता-प्रवर्तमाना सती, कीदृशी भृत्यस्य-किङ्करस्य क्रिया-कार्य भृत्यक्रिया, न भवेत् ? (पार्श्ववर्तिनी) भृत्यक्रिया न भवेत् अस्मात् (पार्श्व) इतिपदं निर्गच्छति, यथा विसर्गाः नृणाम् उच्चारणसमये, न विद्यते तुला यस्य तत् अतुलं, तत् अनुपम दुःखं जनयन्ति तथा नृणामतुलं दुखं के जनयन्ति ? ( नाथाः ) स्वामिनः, सेवकजनानामतुलमपरिमितं दुःखं जनयन्ति अस्मात् (नाथा:) इति पदं निर्गच्छति अस्य नाथा इति पदस्य पूर्वेण पार्श्वपदेन सह संयोगे कृते ( पार्श्वनाथाः ) इत्याकारकं नाम संजायते इत्यभ्यर्थनया प्रार्थनया फलेग्रहिवचो विज्ञप्तिका पूर्वकं सुरासुरनतं श्रिया युक्तः श्रीयुक्तः, स चासौ पार्श्वनाथश्च श्रीपार्श्वनाथः, तं त्रयोविंशतितमं जिनं सततं -निरन्तरं मुदा-हर्षेणाहं वन्दे-वन्दनं करोमि. २३ भावार्थ-कार्यमां गुंथाएल सेवकनी केवी क्रिया नथी थती ? ( पश्चिवर्तिनी ) मनुष्यने विसर्गनी पेठे अत्यन्त दुःख कोण उपजावे छे ? (नाथ-शेठ ) आ प्रमाणेनी प्रार्थना वडे ( पार्श्वनाथ ) एवा सफळ वचननी विनंतिपूर्वक देव-दानवोए वन्दन करेला श्रीपार्श्वनाथने हुं निरन्तर आनंदथी नमस्कार करुं छं. २३ । मू-निस्सङ्ग नितरां निरीहमतुलं निद्वैषदोषाङ्कुरं, नीरागं किल नीरिरंसरुचिरं निःपन्थिकं निर्भयम्। विज्ञः श्रीगुरुसाधुरत्नपदवीमारूढमाप्तोत्तम, वन्देऽहं सततं सुरासुरनतं श्रीवर्द्धमानं मुदा ॥ २४ ॥ शब्दार्थ:निस्सङ्ग-संगरहित नितरां-अत्यन्त निरीह-इच्छारहित Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतुलं - तुलना न थाय ते २९१. निर्देष-द्वेष वगर अङ्कुरं - अंकुरो फणगो - नीरिरंस - क्रीडारहित 4 किल - खरेश्वर निःपन्थिकं - शत्रु - रहित पदवीं - पदवी आप्त- प्रमाणिकोमा उत्तमं श्रेष्ठ निर्भयम् - भयवगर श्रीगुरु - पूज्यगुरु आरूढ - चडेला Webs दोष-दोष नीरागं-रागरहित रुचिरं - मनोहर विज्ञः - बुद्धिशाळी साधुरत्न - साधुमां रत्न श्रीवर्द्धमानं - श्री महावीर स्वामीने , टी० -- निस्सङ्गमिति - निर्गतः संगो यस्मात् स निस्संगः, तं, सर्वत्र संगरहितं, नितरां - निरन्तरं, निर्गता ईहा यस्मात् स निरीहः, तम् इच्छा रहितं, न विद्यते तुला उपमा यस्य सोऽतुलः, तं जगत्रयेऽपि यस्य कापि उपमा नास्ति, द्वेष एव दोषः द्वेषदोषः, तस्याङ्कुरः, द्वेषदोषाङ्कुरः, निर्गतः द्वेषदोषाङ्कुरो यस्मात् स निर्देषदोषाङ्कुरः, तं निर्गतो रागो यस्मात् स नीरागः, तं रागरहितं किल सध्ये, न्तुमिच्छा रिरंसा, निर्गता रिरंता यस्मात् स नीरिरंसः स चासौ रुचिरश्व-मनोहरः, तं क्रीडारहितत्वात् सुन्दरं, निर्गताः पन्थिकाः - शत्रवो यस्मात् स निःपन्थिकः, तं, मोक्षपथे शत्रुरहितं, निर्गतं भयं यस्मात् स निर्भयः, तं संसारादिसप्तभयरहितं श्रिया युक्ताः श्रीयुक्ताः ते च ते गुरबंध श्रीगुरवः, ते च ते साधवश्च श्रीगुरुसाधवः, तेषु रत्नस्य पदवी श्रीगुरुसाधुरत्नपदवी, तामारूढः, तम् आप्तेषु उत्तमः तं सुरासुरनतं सर्वैः प्रकारैः वर्धते इति वर्द्धमानः, श्रिया युक्तः श्रीयुक्तः, स चासौ वर्द्धमानश्च श्रीवर्द्धमानः, तं चतुर्विंशतितमं जिनं सततं मुदाप्रेम्णा विशेषेग जानातीति विज्ञः (अथवा अज्ञोऽहं ) वन्दे - वन्दनं करोमि ... " Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... अस्मिन् श्लोके तृतीयपादे कतां श्रीगुरुसाधुरत्न इति शब्दनिर्देशन स्वगुरोः नामधेयं दर्शितम् भावार्थ-संग रहित, अत्यन्त इच्छा विनाना निरुपम, द्वेषरूप दोषाङ्करथी रहित, राग रहित, क्रीडानी इच्छा विनाना होवाथी सुंदर, कोइथी नहि रोकनार, निर्भय, श्री गुरु, साधुमां रत्नपद पामेला, आप्तोमा श्रेष्ठ एवा देव-दानवोए नमस्कार करेला श्री वर्द्धमान स्वामिने हुं निरन्तर हर्षधी वन्दन करुं छु. २४ का पानवाची किल धातुवर्णो, विभाति भूती स किमम्बरेण । इत्यं तदाहेन जिनः स्तुतोऽयं, ददातु सिद्धि लघुसाधुभक्त्या ।। शब्दार्थ:का-कोण पानवाची-पीवावाचक धातुवर्ण:-धातुनो विभाति-शोमे छे भूती-शंकर : अक्षर स:-ते किं-शुं अम्बरेण-वस्त्रथी इत्थं आ प्रमाणे तदाह्वेन-ते नामथी जिन:-जिन स्तुत:-स्तवेल. अयं-आ ददातु-आपो. सिद्धि-मोक्षने लघु-जल्दी शीघ्र . भक्त्या -भक्तिथी टी०-क इति किल सत्ये, पीयते इति पानं, तदवक्तीति पानवाची, कः धातोर्वर्णः धातुवर्णोऽस्ति ? इति प्रश्नः, उत्तरः पा पाने इति, कुत्सितमम्बरं किमम्बरं, तेन कौपीनेन, भूती-महादेवः स कथंभूतः विभातिशोमते ? इति प्रश्नः, उत्तरः सचन्द्रः इत्थं प्रश्नद्वयोत्तरनिर्गतेन तच्च तत् आई च तदाहं तेन पासचन्द्र इति नाम्ना मया, साधुः उत्तमा सा चासौ . Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९३ . भक्तिश्च साधुभक्तिः, तैया स्तुतोऽयं जिनः, लघुशीघ्रं सिद्धि मोक्षं बदातु -यच्छतु. २५ मावार्थ:-पोवू, एवो अर्थ कहेनार धातुनो अक्षर क्यो ? ( पा) कौपीनवडे ( लंगोटवडे ) राख चोळीने शोमे छे ते कोण ? (सचन्द्र-महादेव ) एवा नामवाळो अने श्री साधुरत्न गुरुश्रीने विषे भक्तिमान हुं (पार्श्वचन्द्र ) तेने ते स्तुति करेल जिन जदीथी मोक्ष आपो. २५ ॥ इति चतुर्विंशति-जिनस्तवनम् ॥ ( एवा देवाधिदेवनी गुणस्तुति भ[; एम कहीने नीचेनी स्तुति कहे वो.) ॥ अथ श्री महावीरस्वामिनी स्तुति ॥ मू-स्वर्भूमातगर्भेऽगमदुदयमहो यः सुरैर्मेरुशैलो सिक्तस्तातालयेऽगादुपचयमनिशं छाययाक्रान्तवियः। पादोपान्तावनम्रत्रिभुवनजनता स्वीकृतोःफलद्धिः, श्रीवीरो वोऽस्तु चिन्ताधिकतरवरदः, कल्पशाखी नवीनः१ शब्दार्थःस्वर-स्वर्ग भूमेः-भूमिथी मात-माताना... गर्म-गर्भमा अगमत्-गयो उदयं-उदय अहो-अहो यः-जे मुरैः-देवोर्थी मेरुशल-मेरु पर्वत उत्सितः-अभिषेक तातालये-पिताना .. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ .."-- अगात-गयो उपचयं-वृद्धि • घरमा अनिशं-हमेशां छायया-कान्तिथी आक्रान्त-दबायेल. विश्व:-जगत् पाद-चरण उपान्त-नजोक अवनम्र-नमेल त्रिभुवन-त्रण भुवन जनता-जनसमूह स्वीकृत-स्वीकार उच्चैः-उच्च फलादि:-फळनी ऋद्धि न करी श्रीवीरः-श्रीवीर व:-तमने अस्तु-थाओ चिन्ता-चिन्तव्याथी अधिकतर-वधारे वरदः-वरदान कल्पशाखी-कल्पवृक्ष नवीन:-नवीन आपनार समान . टी०-स्वरिति-अहो इत्याश्चर्ये यो भगवान् स्वः-स्वर्गस्तस्य भूमिः, तस्याः स्वर्भूमेः, सकाशात् , मातुस्त्रिशलायाः गो मातृगर्भस्तस्मिन् मातृगर्ने, उदयं-जन्म, अगमत्-प्राप्तवान् , किं च सुरैः-देवैः मेरुरित्रि शैलः तस्मिन् उल्सिक्तः-अभिषिक्तो यः प्रभुः, छायया स्वशरीरकान्त्या आक्रान्तम्-आक्रमितं विश्व-जगत् येन स छाययाकान्तविश्वः, सन् तांतस्य-सिद्धार्थराज्ञः आलयं-गृहं तातालयं, तस्मिन्, अनिशं-सततम्, उपचयं-वृद्धिमगात्-प्राप्तवान् , पादोपान्तावनम्रत्रिभुवनजनतास्वीकृतोच्चैःफलर्द्धिः पादयोश्चरणयोः उपान्तः पादोपान्तस्तस्मिन् अवनम्रा पादोषान्तावनम्रा, त्रयाणां भुवनानां समाहारः त्रिभुवनं, जनानां समूहः जनता, त्रिभुवनस्य जनता त्रिभुवनजनता, पादोपान्तावनम्रा चासौ त्रिभुवनजनता च पादोपान्तावनम्र त्रिभुवनजनता, तया स्वीकृता, उच्चैः फलानां ऋद्धियस्मात् स, नवीनः-नूतनः, कल्पशाखी-कल्पवृक्षरूपः, श्रिया युक्तः श्रीयुक्तः, स चासौ वीरश्च श्रीवीरः, वो-युष्माकम् अतिशयेन-अधिका:-अधिः Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... २९५ कतराः, चिन्तायाश्चिन्तनात् अधिकतराः चिन्ताधिकतराः, ते च ते वराश्च . चिन्ताधिकाराः, तान् ददातोति चिन्ताधिकतरवरदोऽस्तु-भवतुं ॥ १ ॥ भावार्थ:-अहो ! जे भगवान स्वर्गभूमिथी (त्रिशला) माताना गर्भमां आव्या, देवोए मेरु पर्वत उपर जेमनो अभिषेक कर्यो, जे प्रभु (सिद्धार्थ) पिताने गृहे वृद्धि पाम्या, अने जेमणे शरीरनी कांतिथी विश्वने दवाव्युं छे, एवा प्रभुना चरणोनी समीपे, नमनार त्रण जगतना जोवोना समूहे उंचा प्रकारना फळोती समृद्धि जेमनी पासेथी मेळवी छे, एवा नवीन कल्पवृक्षरूप श्री वीरप्रभु तमने चिंतव्याधी अत्यंत अधिक वरदान आपनारा थाओ. मू०-जेतव्यं पवनं स कौशिकफणी दंशच्छलेनापिबत, तदुःखेन किल व्यलीयत मनो नाभून्मनोभूस्ततः । छामस्थ्येऽप्यमनस्कता सुरवधूसन्धानुबन्धोऽथ स, व्यर्थोऽभूत् सुखमेव यस्य स महावीरोऽस्तु नः श्रेयसेर शब्दार्थ:जेतव्य-जीतवा योग्य पवनं-हवा सः-ते कौशिक-कौशिक फणी-सर्प दंश-डंखने छलेन-व्हाने अपिबत-पीतो हतो तदुःखेन-लै दंशना व्यलीयत-दुःखी थयुं मन:-मन न-नहीं अभूत-थयुं मनोभूः-काम तत:-तेथी छामस्थ्ये-अज्ञानपणामां अपि-पण . . . अमनस्कता-ालानि मुरवधू-देवांगनाओनी सन्धा-प्रतिज्ञानो.. रहित . अनुबन्धः-आग्रह . . . व्यर्थ:-निष्फळ . . अभूत-श्रयो . Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुख-सुखने यस्य-जेने महावीर:-महावीर न:-अमारा श्रेयसे-कल्याण माटे री-जेतव्यमिति सप्रसिद्धः, फणा अस्यास्तीतिफणी, कौशिकश्चासौ फणीच कौशिकफणी, कौशिक इति नामधेयो भुजङ्गः, जेतुं योग्यः जेतव्यः. जयनीयः, तं पवनं दंशस्यच्छलं-व्याजः दंशच्छलस्तेन अपिबत्-पीतवान् तस्य दंशस्य दुःखं पीडा तदुःखं, तेन मनः किल व्यलीयत दुःखितमभूत्, ततस्तस्मात् , व्यथितत्वात् , हेतोः मनसः भवतीति मनोभूः-कामः, नाभूत्-न जातः, यस्य प्रभोः छमनि तिष्ठतीति छमस्थः, तस्य भावः छामस्थ्यम् , अज्ञानावस्था, तस्मिन्नपि अमनस्कता-अग्लानिरभूत्, अथ स प्रसिद्धः सुराणां वध्वः सुरवध्वः, तासां सन्धा-प्रतिज्ञा सुरवधूसन्धा, तस्या अनुबन्धः-आग्रहः, व्यर्थो-निष्फलोऽभूत् , यस्य प्रभोः सुखमेवासीत् , स महाश्चासौ वीरश्च महावीरः, नोऽस्माकं श्रेयसे-कल्याणायाऽस्तुभवतु ॥ २॥ भावार्थ-ते कौशिक सर्प जीतवायोग्य पवनने डंश आपवाना बहाने पीतो हतो, ते इंशना दुःखथी मन दुःखी थयु, अने तेथी कामोद्भव न थयो, छमस्थपणामां ( अज्ञान अवस्थामां) पण जेमने ग्लानि न हती अने देवांगनाओनी प्रतिज्ञानो आग्रह जेमनी पासे व्यर्थ थयो, जे हम्मेशां सुखी ज छे एवा ते महावीर देव अमारा कल्याण माटे थाओ द्यां धुत्योहयोत्य मुद्ययुसदधिपमता विद्युदुयोतजेच्या विद्यानद्यासधोधनय उपदधते सद्यमोद्यानमोदम् । दुर्भद्यावद्यमुद्ययुमणिमिव समाछाद्य वन्याभिवन्द्याः, सद्यो यत्पादकन्दा धतुस ज़िनपतिर्वाऽतिनिन्यामविद्याम् ३ " N Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्यां स्वर्गने मुद्यत्-हर्ष पाता मता:- पूजायेला जेच्या - जीतनार आद्य-प्रथम सत्-सत् मोदम् - पुष्टि उद्यत् - उदय पामता चन्द्या-वंदन करवा योग्यने पण २९७ शब्दार्थ: त्या - कान्तिथी घुसत्-देवताना विद्युत्-विजळी विद्या- ज्ञानरूप उद्योत - प्रकाशने नदी - नदीना सद्योनयः - उत्पत्तिस्थान उपदधते - करे छे यम-यम दुर्भेद्य - दुःखे भेदाय घुमणि - सूर्य अभिवन्द्या: - वंदन करवा योग्य चरण कन्दा: - मेघो यत्पाद - जेना जिनपति: - तीर्थङ्कर निन्द्यां - निन्दवा योग्य अविद्याम् - अज्ञानने वः - तमारी उद्योत्य-प्रकाशीने अधिप - स्वामीथी उद्यान - उद्यान अवधं - पापने समाच्छाद्य - ढांकी द सद्यः- एकदम द्यतु- नाश करो अति घणी टी०द्यामिति - मुबद्धुसदधिपमताः - मुदं हर्षम् एति - प्राप्नोतीति मुधन्, दिवि स्वर्गे सीदन्तीति घुसद : - देवास्तेषाम् अधिपः - स्वामी इन्द्रः, मुश्वास सदधिपश्य मुद्यदधुसदधिपः - देवेन्द्रस्तेन मता:- पूजिताः मुद्यद्सदधिषमताः, विद्या एव नदी विद्यानदी, तस्याः अद्याश्च ता सद्योनयश्च शोभनानि उत्पत्तिस्थानानि अभिवन्दितुं योग्याः अभिवन्द्याः, वन्चैः चक्रवर्तिभिः अभिवन्द्याः -- पूज्याः वन्द्याभिवन्द्याः यस्य प्रभोः पादाः यत्पादाः, यत्पादा एव कं- जलं ददातीति यत्पादकन्दाः, यत्पादमेघाः, " Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्युतः उचोतः विबुदुधोतः, तस्य जेत्री-जयनशीला विधुदुद्योतजेत्री, तया ___. धुत्या-कान्त्या, वां-दिवम् उद्योत्य-प्रकाशयित्वा, दिवः मणिः धुमणिः, उद्यश्चासौ घुमणिश्च उद्यधुमणिः, तम् उदीयमानं सूर्य, दुर्भे च तत् अवधं च पापं दुर्भेद्यावधं सद्यमोद्यानं, तस्य मोदः-पुष्टिः, तमुपदधतेकुर्वते, स पूर्वोक्तः, जिनानां-सामान्यकेवलीनां पतिः-स्वामी जिनपतिः, क-युष्माकम् , अतिनिन्दितुं योग्या अतिनिन्द्या, ताम् अविद्याम्-अज्ञानं सधः-शोधं चतु-नारोंकरोतु ॥ ३ ॥ भावार्थ:-आनंद पामेला देवेन्द्रोए पूजेला, विद्यारूप नदीना मूल उत्पत्तिस्थान, चक्रवर्तिओने पण वांदवा योग्य, एवा प्रभुना चरण कमळरूप मेघो, विजळीना प्रकाशने जीतनार, पोतानी कांतिथी स्वर्गने प्रकाश करीने उगता सूर्यनी पेठे दुःखथी भेदी शकाय एवा अज्ञानरूप अंधकारने ढांकी दइने सारा यमरूप उद्यानने पुष्टि करे छे, ते जिनपति तमारी अति निन्दवा लायक अविद्यानो नाश करो. ३. मू-कृत्वा हाटककोटिभिर्जगदसद्दारिद्यमुद्राकथं, हत्वा गर्भशयानपि स्फुरदरीन् मोहादिवशोद्भवान्। तप्त्वा दुस्तपमस्पृहेण मनसा कैवल्यहेतुं तपखेधा वीरयशो दधद्विजयतां वीरस्त्रिलोकीगुरुः ॥४॥ शब्दार्थ:कृत्वा-करीने हाटक-सुवर्ण कोटिभि:-क्रोडोवडे जगत्-जगत् असत्-नथी . दारिब-दारिद्र मुद्रा-छाप-गुदा कथं-कथा-वार्ता . हत्वा-हणीने Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ गर्भ-मर्ममा शयान्-रहेलाने अपि-पण स्फुरत-स्फुरायमान अरीन्-शत्रुओने मोहादि- मोहादिना वंश-वंशमां उद्भवान्-थयेलाने तप्त्वा-तपाने दुस्तपं-दुष्करतप अस्पृहेण-स्पृहाविना मनसा-मनथी कैवल्य-केवळज्ञानना हेतुं-हेतुभूत तपः-तपने त्रेधा-त्रण प्रकारे वीर-वीरनो यशः-यश गुरु:-गुरु दधत्-धारणकरता विजयतां-विजयपामु त्रिलोकी-त्रम लोकना टी. कृत्वेति-हाटकानां-सुवर्णानां कोटयः हाटककोट्यः, ताभिः जगत्, न सती असती, दरिद्रस्य भावः दारिवू, तस्य मुद्रा दारिद्यमुद्रा,. तस्याः कथा दारि मुद्राकथा, असती-अविधमाना दारिमुद्रा कथा यस्मिन् तत् असदारियूमुद्राकथं, कृत्वा-विधाय च मोह आदिर्येषां ते मोहादयः, तेषां वंशः मोहादिवंशः, तस्मिन्नुद्भवः- उत्पत्तिर्येषां ते मोहादिवंशोद्भवाः, तान्, गर्भे शेरते इति गर्भशयाः, तान् अपि गर्भशयानपि स्फुरन्तोति स्फुरन्तः, ते च ते अरयश्च स्फुरदरयः, तान् प्रबलशत्रून् हत्वा च, न विद्यते स्पृहा यस्मिन् तत् अस्पृहं, तेन मनसा, दुःखेन तप्यते इति दुस्तपं, तत् , कैवल्यस्य-मोक्षस्य हेतुं कारणं तत्, तपस्तप्त्वा, त्रेधा-त्रिभिः प्रकारैः, . वीरस्य यश:-कीर्तिः वीरयशः, तत् दधातीति दधत् , त्रयाणां लोकानां समाहारः त्रिलोको, तस्याः गुरुः त्रिलोकीगुरुः, वीरः-महावीरप्रभुः,. विजयताम् सर्वोत्कर्षेण वर्तताम् ॥ ४ ॥ भावार्थ-क्रोडो सुवर्णश्री जगतने दारिद्र रहित करीने, मोहा-. दिना वंशमां उत्पन्न थयेला ( काम-क्रोधादि ) शत्रुओने हणीने, दुःखे Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -तपी शकाय एवा मोक्षनां कारणभूत तप तपी, (ए) त्रण प्रकारे शूरवीरना यशने धारण करनार ऋण लोकना गुरु श्रीमहावीरदेव जय पामो. ॥४॥ (ए स्तुति कह्या फ्छी जंकिंचि० नमुथ्थुणं० कही आचार्य० उपा'ध्याय वांदी. देवसि प्रतिक्रमणठाइ नवकार० करेमिभंते. इच्छामिठामि० तस्स उत्तरी. अन्नत्थ. कही अतिचारनी ८ गाथानो काउस्सग्ग करी.लोगस्स बोली मुहपत्तिपडीलेही. देवसिय वांदगा दइ. देवसियं आलोउं इच्छं आलोएमि. जो मे देवसिय अइआरो कही सातलाख, अढारपा. चार विकथा० सव्वसवि. कही नीचे बेसी नवकार, करेमिभंते. चत्तारि मंगलं, इच्छामि पडिक्कमिउं०जो मे देवसिओ० इच्छामि पडिक्कमिउं. इर्यावहीआए कही अढार लाख चोवीस हजार एकसो वीस भेदे जे कोइ दोष इर्यावहीमां लाग्यो होय तेनो मिच्छामि दुक्कडं दइ. देवसिवंदित्तु संपूर्ण कही. पछी इच्छामिख० इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् , देवसियं आलोइत्ता पडिकमित्ता पस्कियं पडिक्क्रमणं ठाएमि ? एम गुरु पासे आदेशमागी, इच्छं कही, नवकार० करमिभंते० इच्छामि ठामि काउसग्गं जोमे पक्खिओ० तस्सउत्तरी० अन्नाथ० कही आठ अतिचारनी गाथा- चितवन काऊ सग्गमां करी, पारतां नमो अरिहंताणं कहे. पछी प्रगट लोगस्स कहेवो, 'पछी मुहपत्तिनो पडिलेहण करी, वांदणा दह, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् पस्कियं आलोएमि ? एम आदेश मागी, इच्छं आलोएमि, कही, जोमे पक्खिओ संपूर्ण कही, पक्खि अतिचार आलोउ, एम कही, मुखे- मुहपत्ति राखी अतिचार आलोववा.) Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ ॥ अथ श्रावक पाक्षिकादि अतिचार ॥ ( चपई ) नाणे दंसण चरणे जाण, समकितसुं व्रत बार वखाण; संलेहण तव विरियायार, तिहना आलोइशुं अतिचार ॥ १ ॥ नाणे दंसण चरण प्रत्येक, आठ आठ अतिचार विवेक; समकितमूल बार व्रततणा, अतिचार अस्सी तिह भण्या ॥२॥ संलेहण तव विरियायार, तेहना जाणी वीस अतिचार, सर्व मली एकसो चउवीस, गुरुसाखे गरहुं निशदीस ॥ ३ ॥ ज्ञानाचारना अतिचार ज्ञान, दर्शन, चारित्र, अने सम्यकूत्वमूळ बार अतिचार तथा तप तथा संलेखना तथा वीर्या चार विगेरेना अतिचार आलोवीश. ज्ञान, दर्शन अने चारित्रना आठ आठ मळी चोवीस तथा समकितमूळ बार व्रतना एंसी अतिचार तथा संलेखनाना पांच, तपाचारना छ बाह्य अने छ अभ्यंतरना मळी बार अने वीर्याचारना त्रण अतिचार मळी कूल २० पूर्वना १०४ साथे मेळवतां १२४ अतिचार थया, आ १२४ अतिचारोने हुं गुरु साक्षीए हंमेशां निंदा करीश. १-३. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ नाणतणा आठे आचार, विपरीताचरणे अतिचार; ते प्रमाद वलि आणाभोग, ते आलो, गुरुसंजोग ॥ ४ ॥ काले न भण्यो गण्यो अकाल, विनयहीन बहुमान निटाल; न वह्या आवश्यक उपधान, पूछया गुरु ओलव्या प्रधान ॥५॥ अक्षर काने मात्र अशुद्ध, सूत्र अर्थ पण कह्यो विरुद्ध; सूत्र अर्थ जिनभाषित बेय, भण्या कूड विस्तर संखेव ॥ ६॥ ज्ञानाचारना आठ आचार छे ते उलटा आचरवाथी अतिचार थाय छे. ते प्रमादथी अने अजाणता थइ जाय तो तेनी गुरुनी समीपे आलोचना करुं . ४ भणावाना समये न भण्यो, अकाळमां भण्यो, विनय रहितपणे भण्यो, बहुमान करीने न भण्यो, योग-उपधान जे जे सूत्रोना योग वहेवा जोइए ते न वह्यां, जे गुरुपासे भण्यो तेनी पासे भण्यो नथी एम कपु.५ ... तथा काना-मात्राथो अशुद्ध अक्षर बोल्या, सूत्र खोटां बोल्यां, अर्थ. खोटां कया, सूत्र अने अर्थ बन्ने खोटों को, विस्तारथी या संक्षेपथी बोल्या. ६ . Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाणे ए आठ अतिचार, वलिय अनेरा घणा प्रकार; निवणा-सायण अंतराय, विसंवादने को कसाय ॥ ७ ॥ ____ अक्षर चाप्या चरणह हेठ, मुद्रागालण दोधी द्रेठ; नाणोपगरण आशातना, जे मे कीधी तसु भावना ॥८॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामीये, आ भव परभव ते खामीये ॥९॥ ___ आ आठ अतिचार ज्ञानना जे अने बीजा पण घणा भेद थई शके ते, ओळववा-छुपाववां ने आशातन करवी, विशेष संवाद करवो, विवाद करवो विगेरे. ७ तथा पगनी नीचे अक्षर दबाववा, छाप आपवा भाटे दबाण कीg ज्ञान संबंधी उपकरणोनी जे आशातना थइ होय तेनी भावना. ८ झीणी रीते अथवा मोटी रीते जे कोइ दोष लाग्यो होय, तेनी हुँ बे हाथ जोडवा साथे मस्तक नमावी, आभव तथा परभवने विषे पण दोष खमार्बु छु. ९ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अहनिसि पक्खि चउमासी फुडं, संवच्छरि मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणज्यो, गुरुसाखे ते मुजने हज्यो ॥ १० ॥ हंमेशां पंदर दिवसे, चार महीनाना चोमासि प्रतिक्रमणमां, तथा संवत्सर प्रतिक्रमणमां प्रगट रीते हूं मारुं थयेलं पाप फोगट थाओ.. अरिहंत तथा सिद्धभगवान आदि बधां जाणज्यो. हुं गुरुं समीपे तेनी माफी चाहुं कुं. १० ज्ञानाचारना आठ अतिचार, तेहने विषे जे कोइ पख्खी, चमासी, संवच्छरी दीवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुं मन, वचन, कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं. वळी ते ज्ञानाचारना अतिचारने विषे जे पक्खि, च उमासी, के सांवत्सरीक अतिक्रम - जे मनमां प्रतिज्ञा करी होय, नियम कर्यो होय तेने तोडवाने माटे जे विचार करवो ते अतिक्रम दोष गणाय. व्यतिक्रम - तेना माटे जे पग उपाडवो लेवा जवं पण लीधुं नथी, त्यां सुधी व्यतिक्रम दोष थयो, तेज चीजने लइने ज्यांसुधी भोगवटो कर्यो नी त्यांसुधी अतिचार छे, पण ज्यारे मुखमां नाखे त्यारे अनाचार दोष गणाय. जेम के काचा पाणीनो नियम छे छतां पीवानी भावना थइ ते अतिक्रम, लेवा चाल्यो ते व्यतिक्रम, लीधुं ते अतिचार, अने पीधुं तो अनाचार दोष लाग्यो तो अतिचार सुधी आलोयणा, अतिचार आलोवाय पण अनाचारना शुं अतिचार आलोवे ? अर्थात् न आलोवे १० Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दंसण भण्या आठ आचार, विपरीताचरणे अतिचार; ते प्रमाद वली आणाभोग, ते आलोवू गुरु संजोग ॥११॥ संका देसत सर्वत करी, निरती आण हीये नहु धरी; लेखव्या धर्म सवे सारिखा, सत्य न लीधो करी पारिखा ॥ १२ ॥ धर्मतणा फलनो संदेह, अहवा निरखी मुनिवर देह; मलि मइला दुर्गध विशेष, तसु हीला कीधी विद्वेष ॥१३॥ श्रुतसागर गाढो गंभीर, रह्यो मूंझ नवि पाम्यो तीर; साधु साहम्मी जाणी गुणी, उप दर्शनाचारना अतिचार-दर्शनाचारना आठ आचार छे, पण ते विपरीतपणे थाय त्यारे अतिचार थाय छे, ते प्रमादथी अथवा अजाणता थइ जाय तो, तेनी गुरु समीपे आलोयणा करुं छं. ११. .. देशथी अथवा सर्वथी शंका करी, चोखी रीते जिनआज्ञा हृदयमां धारण न करी, बधां धर्मो सरखां मान्या, परन्तु परीक्षा करी सत्यसाचो धर्म न कर्यो. १२. धर्मतणा फळमां संदेह कर्यो, अथवा मुनिवरना मेलवाळा शरीरने जोइ, दुर्गध विशेष जोइने तेनी निंदा कीधी-द्वेष कर्यों. १३. घणो गंभीर शास्त्ररूप. समुद्र जाणी मुंशाणो, पण पार पाम्यो नहीं, साधु-स्वामीभाइ आदिना गुणने जाणी तेनी बहु भक्ति, आदर-सत्कार न कों. १४ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ गृहणा नहु कीधी घणी ॥ १४ ॥ शुद्ध धर्मथी पडतो जाण, उठंभादिक नहु मन आण; ते थिर न कर्यो जिम श्रीवीर, मेघकुमार पहुचाव्यो तीर ॥ १५ ॥ महाशतक संताप्यो नार, संधारे वडियो अवधार; रीसाणो गौतम पाठवी, रोष खमावी दृढमति ठवी ॥ १६॥ एहवो थिरीकरण नहु कर्यो, जिनशासन वच्छल गुण भर्यो; भले भाव ते कीधो नहि, अंतरभगति चित्त नहु वही ॥ १७ ॥ धन धन अथवा शुद्ध धर्मथी पडता जाणीने तेने टेको - मदद - आश्वासन न आप्युं. जेम श्री वीर परमात्माए मेघकुमारने चारित्रथी पडवा न देतां, तेने टेको आपी स्थिर कर्यो तेम में न कर्यु. १५ महाशतक नामना श्रावकने जेम तेनी स्त्रीए घणो ज हेरान कर्यो. पोताना संथारामां हतो त्यारे तेना मनमां द्वेषभाव उत्पन्न थयो ए जाणीने श्री महावीर परमात्माए गौतमस्वामीने मोकली, रोष खमावीने, पाछो धर्ममां स्थिर कर्यो, १६ आवी रीते आपणे पण धर्मथी पतित थतां जीवोने धर्ममां स्थिर करवा प्रयत्न करवो जोइए. जिनेश्वरना शासन प्रत्ये भक्तिभाव राखी, धर्मथी पतित थतांओने स्थिर करवा, भली भक्ति अंतरमां राखवी विगेरे न करे. - १७ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०७ जिनशासन इम कहे, मिथ्याती सुधी मती लहे; जे देखी भावे भावना, ते नहु कीधी सुप्रभावना १८ __ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; करजोडी मस्तक नामीये, आ भव परभव ते खामिये॥१९॥अहनिसि पक्खि चउमासि फुडं, संवच्छरी मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥ २० ॥ दर्शनाचारना आठ अतिचार, तेहने विषे जे कोइ पक्खि, चउमासी, संवच्छरी दीवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुं मन, वचन, कायाए करी तस्त मिच्छामि दुकडं. जिनशासननी आ प्रमाणे आज्ञा छे के एवां धर्म प्रभावनाना कार्यों करवा के जेथी मिथ्यावीओ पण जिनशा सननी प्रशंसा करे, धन्यवाद आपे, शुभ भावना भावे, जो आवी प्रभावना न करे तो दोष लागे छे. १८ सूक्षम अथवा बादर जे कोइ अतिचार मने लाग्यो होय, तेनी हुंबे हाथ जोडी मस्तक नमावी आ भवमां, परभवनां, हमेशां, पक्खि, चउमासि, संवत्सरी ए बधां दिवसोमां मारा पापनी प्रगटपणे गुरुसमीपे क्षमा चाहुं छं, ते अरिहंत, सिद्ध सर्वे जाणजो. १९-२०. दर्शनाचारना आठ अतिचारमां पाखी, चउमासी के संवत्सरी संबंधी जे कोइ अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार के अनाचार दोष लाग्यो होय तेने हुं मन, वचन, कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं चाहुं छु Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ चरणे भण्या आठ आचार, विपरीताचरणे अतिचार;ते प्रमाद वली आणाभोग, ते आलोवू गुरु संजोग ॥ २१ ॥ मारग समितिसहित चालिये, सावद्यरहित वचन बोलिये; दोषरहित लिजे आहार, करिवो मुकण ग्रहण विचार ॥ २२ ॥ दृष्टिये जोइ पमज्जण करी, लेवं मूके चित्त धरि; चोथी समिति एह जाणवी, हवे पंचमी हीयडे आणवी ॥ २३॥ रूडे दसगुण ठंडिल जोय, जीवविराहण जिहां नवि होय; उच्चारादिक तिहां . चारित्राचारना अतिचार-चारित्राचारना आठ आचारो छे. तेज उल्टी रीते आचरवाथी अतिचारो कहेवाय छे, ते प्रमादथी के अजाणता थयां होय, तो तेनी गुरु समीपे आलोयणा लडं छु. २१ मार्गमां चालता इर्या समिति साचववी अने पाप रहीत वचन बोलवू, दोषरहित आहार लेवो अने विचार करीने लेवू मुकQ. २२ । * बराबर देखी शकाय तेवा समये प्रमार्जन करवू, अथवा कंइ चीज. वस्तु चित्त राखीने लेवी-मूकवी, आ चोथी आदान-भंड-मत्त-निख्खेवणा समिति छे. हवे पांचमी पारिष्ठापनिका समिति हृदयमा लाववी. २३ ठंडील भूमिना दशगुण जोवा, के ज्यां जीवनो विराधना=नाश न. | Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०९ परिठवे, पंचमिसमिति एणिपरे हुवे ॥ २४ ॥ आतरौद्रचिंतन परिहरे, सर्व जीवनी समता धरे; एणिपरे चित्त सदा राखिये, मनोगुप्ति प्रवचन भाखिये ॥ २५ ॥ मौनी साने नहु ववहरे, हुंकारादिक सवि संवरे; वचनगुप्ति ते कहिये सहि, सुगुरुतणे वचने में लही ॥२६॥ ___ दुस्सह चउविह उवसग्ग सहे, मेरुतणी परे निश्चल रहे; तनु वोसिरावी काउस्सग करे, कायगुप्ति जिन इम उच्चरे ॥ २७ ॥इणिपरेआठे थाय, मळ मूत्र श्लेषमादिक तेवि जग्यामां परठववा, ए प्रमाणे पांचमी समिति सचवाय. ॥२४॥ - मनमा आर्त्त-रौद्रध्यान त्याग करवां, सर्व जीवो उपर समता राखवी, आवी रीते हमेशां चित्त राखे, तेने मनोगुप्ति कहे छे. २५ मौन करीने इसाराथी व्यवहार न करवो, हुंकार विगेरे पग न करे, आने गुरु महाराज स्वमुखे वचनगुप्ति कहे छे. २६ दुःखथी सहन थाय तेवा चार प्रकारना उपसर्गने, मेरु पर्वतनी जेम स्थिरपणे सहे अने शरीरने वोसरावी काउस्सग्ग करे, तेने जिनेश्वर भगवाने कायगुप्ति कही छे. २७ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० प्रवचन माय, सघलुं प्रवचन जिहां समाय; जावजीव साधे पालीये, असमितिमति दूरेटालिये ॥ २८ ॥ पोसह सामायिक अवसरे, श्रावक एहतणी खप करे; नाणादिक पंचे आचार, साधु श्रावकने सरिस विचार ॥ २९ ॥ सूक्षम बादर उभयप्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; करजोडी मस्तक नामिये, आ भव परभव ते खामिये ३० . अहनिसि पक्खि चउमासि फुडं, संवच्छरि मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥३१॥ चारित्रचारना आठ अतिचार, तेहने विषे जे कोइ पक्खी, बउमासि, संवच्छरी दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय, ते सवि हुँ मन, वचन, कायाये करी तस्स मिच्छामि दुकडं. आ रीते आठ प्रवचन माता कही छे, जेमां बधा प्रवचन समाया छे, तेने साधु आखा जीवन सुधी पाळे अने असमिति बुद्धिने दूर करे. २८ ___आ आठे प्रवचन माताने श्रावक पण पोसह, सामायिक विगेरे समये पाळे अने ज्ञानाचार, दर्शनाचार अने चारित्राचार तपाचार, विर्याचारना पांचे आचार साधु तथा श्रावकने सरखाज होय छे. २९ ___ आ अतिचारो सूक्षम अथवा बादर जे रीते मने लाग्या होय, ते बे हाथ जोडी, मस्तक नमावी, आभव परभवने विष हुँ खमावु छु. ३० Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ हवे विशेष श्रावकनो धर्म, समकित तत्त्व लहे लघुकर्म, समकित लाधे सर्व प्रमाण, जप तप संयम नाण विनाण ॥ ३२॥ समकित रतन जतन करि ग्रहो, जासु प्रसादे शिवसुख लहो; समकित पाखे शिवपद दूर, चउगई जीव भमे भव भूर॥३३॥ चारित्र पाले ____ हमेशां, पाखी, चउमासो, संवत्सरी दिवसोमां प्रगट रीते मने मिच्छामि दुक्कडं हजो. अरिहंत-सिद्ध सर्वे जाणजो, गुरु साक्षीए मारं पाप मिथ्या थाओ. ३१ चारित्राचारना आठ अतिचार छे ते संबंधी अने पाक्षिक, चौमासिक के सांवत्सरिक जे कोइ अतिक्रम, व्यतिक्रम के अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सर्वे हुं जाते मन, वचन कायाए मिथ्या करुं छं. __ हवे पछी विशेषे करी श्रावकना धर्ममा रहेला आचार अने अति. चारोने कहे छे. कारण के ज्ञानादिक अतिचार साधु अने श्रावकना सरखाज छे. तेथी जूदा नथी पाड्या. लघुकर्मी जीवो समकित मेळवी शके छे. समकित मेळव्या पछी जप-तप-संयम-ज्ञान-विज्ञान विगेरे मेळवे. ३२ समकितरूप रत्न मेळवीने बहु सारी रोते तेनुं रक्षण करे, कारण के तेनी महेरबानीथीज मोक्षनुं सुख प्राप्त थाय छे. कारण के समकित विना मोक्ष मेळवQ मुश्केल-दूर छे. अने प्रागी चारे गतिमां घणा लांबा काळसुधी भव भ्रमण कर्या करे छे. ३३ . | Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार अनंत, तो पण नहु पामे भव अंत; इम जाणी समकितआदरो,समकित आदर किरिया करो॥३४॥ समकित किरिया बे जो मिले, तो भव भमवाना भय टले; समकित सूधा दंसण नाण, देवगुरु धर्म विषे ते प्रमाण ॥ ३५ ॥ देव एक अरिहंत विदित, रागद्वेष वेरी जिण जीत; दोष अढार रहित हितकार, त्रिभुवन जनने तारणहार ॥३६॥ नाम ठवण द्रव्य भाव विचार, - अनन्तीवार घणा लांबा वखत सुधी चारित्र पाळवा छतां आ संसारनो पार पमातो नथी, एम जाणी समकित ग्रहण कर जोइए अने समकित प्राप्त करवा माटे योग्य-क्रियाओ करवी जोइए. ३४ । समकित भने क्रिया ए बन्नेवाना जो मळे तो भवभ्रमणानो भय दूर थाय छे, अने समकित सहित दर्शन, ज्ञान, होय तो देव-गुरु अने धर्मने विषे प्रमाणभूत गणाय छे. ३५ राग अने द्वेष रूप बे शत्रु जेओए जीत्या छे, अने अढार दोषो रहित छे अने त्रण भुवननु हित करनारा तथा रक्षण करनारा छे, एवा अरिहंत देवने ज एक देव तरीके जाणवा. ३६ नाम, स्थापना, द्रव्य अने भाव आ चार निक्षेपा विचारवा जोइए, तेनुं Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१३ निक्षेपा अनुयोग दुवार; चिहुं प्रकार इणिपरे अरिहंत, चउथे भेद नमुं जयवंत ॥३७॥ चउवीसत्थो भणतां नाम, जिन नामे तसुकरुं प्रणाम; ठवणा श्री जिनप्रतिमा कही, जिनभावे ते बंदु सही ॥ ३८ ॥ पंचमझयण आवश्यकतणे, अधिकारे यति श्रावक भणे; पढम उवंगे दसमे अंग, प्रगट साखी जाणो मनरंग ॥ ३९ ॥ ___ आवंती चउवीसी हुस्ये, लहि केवल अनुयोगद्वारमा वर्णन कयु छे. अरिहंत भगवान चार प्रकारना छे अने चोथा भेदमां भाव तीर्थकर वर्णव्या छे, जे जयवंत छे, ए प्रमाणे तेमने हुँ नमस्कार करुं छु. ३७ लोगस्स-जेमां चोवीशे तीर्थकरनी स्तुति करी छे-ते नाम प्रमाणे चोवीशे तीर्थकरोने हुं प्रणाम-वंदन करूं अने श्री जिनप्रतिमानी स्थापनानेज भाव तीर्थकर मानी वंदना करुं छं. ३८ आवश्यक सूत्रनां पांचमां अध्ययनना अधिकारमा श्रावकने माटे कीधेल छे अने प्रथम उपांग-उववाइ सूत्रमा अने दशमे अंग प्रश्न व्याकरणमां प्रगट साक्षीए मनना उच्छरंगथी जाणो. ३९. आवती चोवीसीमां जीनेश्वर भगवान थशे, तेओ केवलज्ञान पामीने Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ जिनधर्म भाखस्ये; आगम भाख्या द्रव्य जिणंद, ते प्रणमुं मन धरि आणंद ॥ ४० ॥ इम चउवीसी जे जिन यदा, एहीज चउवीसत्थो तदा; वंदनीक इम द्रव्य जिनेश, गुरु पूछी जाणो सुविशेष ॥ ४१ ॥ एणिपरे देवतत्त्व अरिहंत, गुरु सुसाधुजे जग गुणवंत; सूधो निरवद्य दे उपदेश, टाले सावद्यनो लवलेश ॥४२॥ परिग्रहने आरंभ निवार, वरते निरते पंचाचार; आणधर्मनो फेलावो करशे एमने आगममां द्रव्य जीनेश्वर कीयां छे, तेमने हुं मनना आनंदथी प्रणमु छु.॥४०॥ ____ए रीते जे चोवीशी अने जिनेश्वरो ज्यारे हशे, त्यारे एज चउविसत्थो चोवीश जिनवरनी स्तुति हशे, ए रीते द्रव्य जिनेश्वरो पण वंदन करवा योग्य छे. वधारे जाणवानी इच्छा होय तो गुरु महाराजने पूछो. ४१ ए रोते देवतत्त्व श्री अरिहंत अने जगतमां गुणे करी सुशोभित पवित्र साधु गुरु कयां छे. जेओ पाप व्यापार रहित शुद्ध उपदेश आपे छे अने लेश-जरापण सावध-पाप करता नथी-पापथी दूर रहे छे. ४२ ____ परिग्रह धन, धान्य विगेरे नव प्रकारना आरंभथी-दूर रहे छे अने पांच आचार पाळवामां हमेशा सावध-चतुर-निपुण, शुद्ध रहे छे अने जेओ आज्ञा अने क्रिया शुद्ध रीते पाळे छे तथा बेंताळीश दोष रहितः Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१५ क्रिया जे पाले खरी,दोषरहित वहोरे गोचरी॥४३॥ इस्या सुगुरु गुरुतत्त्व सद्दहुं, तेनी आणा मस्तक वहु, जिनभाषित ते साचो धर्म, पालंतां आपे शिवशर्म ॥४४॥ सर्व जीव वलि हणवा नहि, इण उपदेशे धर्म हुवे सही; एक करि थापे आरंभ धर्म, ते जिनमतनुं न लहे मर्म ॥ ४५ ॥ धर्मारथ आरंभ मिथ्यात, एहवि वात करे विख्यात; बहुजन मांहे जे इम कहे, ते पण जैन धर्म नवि लहे ॥ ४६ ।। बेबे भाव जिहां ए (उन्नु दोषथी) मुक्त आहार ले छे. (जो इच्छा थाय तो एषणाशतकमां छे. त्यां जोइ लेवू ४३. . __ एवां सुगुरुथी गुरुतत्त्व जाणुं अने तेमनी आज्ञा मस्तकथी वहुं. जिनेश्वरदेवे कहेलोज धर्म साचो छे. जे पाळवाथी मोक्षसुख मळे छे.४४ जिनेश्वर प्ररूपित धर्मनी आज्ञा छे के सूक्षम या बादर कोइपण जीवने हणवो नहीं. एकांतथी जे कोइ धर्म आरंभने मानतो होय, ते जिनेश्वरना मतनो मर्म ( रहस्य ) नहीं जाणे. ४५ ___धर्म अने अर्थ माटे जे जे आरंभो करवा पडे अथवा तेवी वात करवी ते पण मिथ्यात्व छे. अने घणा लोकोनी सभामां आवी वात करे,. ते पण जैनधर्मने प्राप्त नहीं करी शके. ४६ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नही, तेहिज धर्म साचो सद्दही; एणिपरे पालुं त्रिणे तत्त, साचुं सद्दहतां समकित ॥ ४७ ॥ समकित मूल भण्या व्रत बार, तेहना पंच पंच अतिचार; गुरुमुख सांभळी तेहनी विगत, जाणी टालिशुं आतमशकत ॥४८॥ जीवादिक जिनभाषित तत्त, साचुं सदहतां समकित; तेह विषे संशय आणिए, शंकादोष ते श्रुत जाणिये ॥ १९ ॥ बीजा धर्मतणो अभिलाष, ते कंखा कहिये जिन भाष, धर्मतणा फलनो संदेह, त्रीजी जे धर्ममां आवां बे भाव नयी तेज साचो धर्म कह्यो छे. ए रीते त्रण देव, गुरु अने धर्म तत्त्वने पाळु अने तेने ज सारी रीते पाळतां समकित कहेवाय छे. ४७ आवी रीते समकितना मूळ बार व्रत कह्यां छे अने तेना पांच "पांच अतिचार छे. तेओनी विगत गुरुमुखथी जाणी, आत्मशक्तिए ते टाळवा प्रयत्न करीशु. ४८ जीवादि छ द्रव्य नवतत्त्वो जिनेश्वर भगवाने कहां छे. तेने साची रीते सदहतां समकित थाय छे. तेने विषे संशय करीए तो शास्त्रमा शंकादोष वर्णव्यो छे. ४९ बीजाना धर्मनी इच्छा ते जिनधर्ममा आकांक्षा कही छे अने धर्मना फळमां Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ वितिगिच्छानी रेह ॥ ५० ॥ मिथ्यादृष्टि प्रशंसा करे, तसु परिचय दंसण अतिचरे; समकितना पंचय अतिचार, तेहतणो करिशु परिहार ॥ ५१ ॥ एह छतां समकित दुषाय, मूल विना फल फूल न थाय; धर्म मूल तिम समकित जाण, एह विना हुवे बहु व्रत हाण ॥५२॥ समकितविणु व्रत वार अनंत, पालंता न थयो भव अंत; करे अभव्य बहु कायकलेश, तोय न आवे समकित लेश ॥ ५३ ॥ संदेह करवो तेने वितिगिच्छानामनो त्रीजो प्रकार कीधेल छे.५० मिथ्या-- दृष्टिनी प्रशंसा करवी, तेनो परिचय करवो. आ समकितना पांच अतिचारो छे, तेने दूर करीशु. ५१ एम छतां समकितने दूषण लागे अने रही जाय तो जेम मूळ न होयतो मूलं विनाकुतः शाखा ए कथन अनुसार मूळज न होय, सडेलं होय तो फळ-फूलनी आशा केम रखाय ? तेवी ज रीते धर्मर्नु मूळ समकित छे, तेज जो न होय तो पछी व्रतो पळे नहि पण नाश थाय, व्रत भंग थाय. ५२ समकित न होय अने वारंवार व्रत-जप-तप-नियम करवामां आवे तो पण भव-संसारनो अंत थइ शकतो नथी. अभव्य कायक्लेश घणा सहन करे तोपण लेशमात्र समकित न पामी शके. ५३ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ तिण समकित जा मलि नहु कोय, जिनवर वचन विमासी जोय; समकित लाधे दुर्गति टले, अनुक्रमे शीवपुर पदवी मीले॥५४॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामीये, आ भव परभव ते खामिये ॥ ५५ ॥ अहनिसि पक्वि चउमासी फुडं, संवच्छरी मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिझ सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥ ५६ ॥ समकितना पांच अतिचार तेहने विषे, जे कोइ पख्खी, चउमासो, संवच्छरी दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुँ मन, वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं. ते समकित ज्यांसुधी मलीन न थयुं होय त्यांसुधी कोइ पण जिनेश्वरना वचनमा विचार करी जोशो. समकित मळवाथी दुर्गतिनरक टळी जाय छे अने परंपराए मोक्ष मळे छे. ५४ सूक्षम अने बादर बे प्रकारमाथी जे कोइ अतिचार मने लाग्या होय तेनी बे हाथ जोडी आ भव अने परभव माटे हमेशा, पख्खी, चोमासी के संवत्सरीनी प्रगट रीते गुरु समीपे मिच्छामि दुक्कडं चाहुं छु. ते अरिहंत, सिद्ध सवे जाणजो. ५५-५६ . समकितनां पांच अतिचारो संबंधी जे कोइ दोष पाक्षिक, ___ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१९ रीसे दृढबंधन दृढघात, अंग चर्मनो करे विघात; अति भारारोपण विख्यात, रुंधी जे जे पाणी भात ॥ ५७ ॥ पहिला व्रतना ए अतिचार, न लगाडे श्रावक सुविचार; व्रतनो धारक इम जाणिये, तेहना गुण हियडे आणिये ॥ ५८॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; करजोडी मस्तक नामीये, आ भव परभव ते खामिये ॥ ५९॥ अहनिशि पक्खि चउमासी फुडं, संवच्छरी मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥६॥ चउमासिक, संवत्सरिक दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार के अनाचार लाग्यो होय ते बधुं, हुं, मन, वचन अने कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं आपुं छु. प्रथम स्थूल प्राणातिपातना अतिचारनी आलोचना करे छे. पशुने क्रोधथी कठन बांधवू, सख्त बांधी मारवं, शरीरथी अथवा चामडाथी घा करवा, घणो भार भरवो, रुंधी राखवो अने खावा-पीवान न आपq.५७ आ प्रथम व्रतना अतिचार अत्यंत विचारक श्रावक लागवा न दे, अने पोते विचार करे के में व्रत लीधेलुं छे, माटे आ न कर जोइए, अने व्रतना गुण हृदयमां धारण करवा जोइए-५८ (अर्थ गाथा ५५-५६ प्रमाणे छे. ५९-६०) Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० पहेलुं स्थूल प्राणातिपात विरमण बत, तेहना पांच अतिचार, तेहने विषे जे कोइ पख्खी, चउमासी, संवच्छरी दिव.. सने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुँ मन, वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं. कूड आल दे सहसाकार, गुज्झ प्रकाशे जे अविचार; मंत्रभेद नीज नारी तणो, करतां लागे दुषण घणो ।। ६१ ॥ जे दीजे मिथ्या उपदेश, कर्मधर्म पामीये किलेश; कूड लेख ए बीजे व्रते, अतिचार समर सुंदीन प्रते ॥ ६२ ।। सूक्षम बादर पहेले स्थूल प्राणातिपात विरमण व्रतना पांच अतिचार संबंधी ते कोइ दोष, पाक्षिक, चउमासिक, संवत्सरीक दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार के अनाचार लाग्यो होय ते बधुं, हु, मन, वचन, अने कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं आपुं छं. वीजे स्थूल मृषावादना अतिचारनो आलोचना करे छे:---- एकदम खोटुं आळ देवू, विचार कर्या विना छानी वात प्रकाश करवी, पोतानी स्त्रीनी छानी वात जाहेर करवी विगेर बाबतोथी घj दूषण लागे छे. ६१ खोटो उपदेश आपवो, खोटो लेख लखवो. आथी धर्मकार्यमां घणो क्लेश थाय छे. बीजा बतना अतिचारनी आलोचना करशु. ६२. Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामीये, आ भव परभव ते खामिये ॥ ६३ ॥ अहनिसि पक्खि चउमासी फुडं, संवच्छरी मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥ ६४ ॥ बीजुं स्थूल मृषावाद विरमण व्रत, तेहना पांच अतिचार, तेहने बिषे जे कोइ पख्खी, चउमासी, संवच्छरी दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुँ मन, वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुकडं. चौर हरी वस्तु ववहरे, चौरप्रयोग सखायत करे; दाण विसाइ राज्यविरुद्ध, उत्तम श्रावकने प्रतिषिद्ध ॥६५॥ (अर्थ गाथा ५५-५६ प्रमाणे ६३-६४.) बीजे स्थूल मृषावादना विरमण व्रतना पांच अतिचारी संबंधी जे कोइ दोष, पाक्षिक, चउमासिक, संवत्सरिक दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार के अनाचार लाग्यो होय ते बधुं, हुं, मन वचन, अने कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं आपुंछं. त्रीजा स्थूल अदत्तादानना अतिचारनी आलोचना करे छे: चोरे लावेली वस्तुनो वहेपार करे-खरीदे, चोरने हमणा केम कंइ . लावतो नथी एम चोरी लाववा प्रेरणा करे, जगात चोरी करी राज्य विरुद्ध आचरे, आ बाबत विचारक व्रतधारी श्रावकने न करवी जोइए. ६५ २१ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ वानि भेलने कूडु मान, कूड तोल परिहरे सुजाण; त्रीजा व्रतना ए अतिचार, पंचतणो करिशुं परिहार ॥६६॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामिये, आ भव परभव ते खामिये ॥ ६७ ॥ अहनिसि पक्खि चउमासी फुडं, संवच्छरी मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरु साखे ते मुजने हजो ॥ ६८॥ त्रीजे स्थूल अदत्तादान विरमणव्रत, तेहना पांच अतिचार, तेहने विषे जे कोइ पख्खि, चउमासी, संवच्छरी, दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुं मन, वचन, कायाए करी तस्ल मिच्छामि दुकडं. अनाजने राख भेळवी, खोटे मापे मापी, खोटो तोल करी, ल्ये-वेचे. आ त्रीजा व्रतना पांच अतिचार छे तेने टाळवा जोइए. ६६ ।। ( अर्थ गाथा ५५-५६ प्रमाणे ६७-६८) त्रीजे स्थूळ अदत्तादान विरमण व्रतना पांच अतिचारी संबंधी जे कोइ दोष, पाक्षिक, चउमासिक, संवत्सरिक दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार के अनाचार लाग्यो होय ते बधुं हुं मन, वचन, कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं आपु छु. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ भाडे राखी थोडे काल, इत्तर परिग्गहिया संभाल; विधवा दासी वेश्या जाण, अपरिग्गहिया ते मन आण ॥ ६९ ॥ तेहतणो जे कीजे संग, उत्तमने जाणो व्रत भंग; फरसे परनारीना अंग; क्रीडा कहिये तेह अनंग ॥ ७० ॥ आतम संतति विणु परतणा, मेले नात्रा जे नर घणा; कामभोग नावे संतोष, चउथे व्रत ए पंचय दोष ॥ ७१ ॥ शेठ सुदंसण प्रमुख अनेक, तेहना गुण जाणो सुविवेक; निरतिचार जे पाले शील, हवे चोथा व्रतना अतिचार वर्णवे छे. थोडा समय माटे कोइए भाडे राखेली, बीजानी स्त्रो, कोइए ग्रहण करेली स्त्री वीधवा दासी, के वेश्या अने कोइए नहि ग्रहग करेली स्त्री आटलाने मनमा लाववाथी अथवा तेमनो संग करवाथी उत्तम व्रतधारी श्रावकने व्रतभंग दोष लागे छे. पर नारीना आने अडकवाश्री तथा तेनी साथे विषयभोग करवाथी अनंग क्रीडानो दोष लागे छे. ६९-७० पोताना बच्चा सिवाय बीजाना बच्चाना सगपण करावी आपे थोडा या घगा जे माणस नालरां करे अने कामभोगमां संतोष न पामको आ पांच प्रकारना दोष चोथा अति चारना छे. ७१. सुदंसणशेठ आदि घणा गुणवान पुरुषोना गुणोने विवेकपूर्वक जाणग जोइए के जेओ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ आ भव परभव तेहने लील ॥७२॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; करजोडो मस्तक नामीये, आ भव परभव ते खामिये; ॥७३॥ अहनिशि पक्खि चउमासी फुडं, संवच्छरी मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरु साखे ते मुजने हजो ॥ ७४ ॥ चो, स्थूल स्वदारा संतोष, परदारा विरमण व्रत, तेहना पांच अतिचार, तेहने विषे जे कोइ पक्खी, चउमासी, संवच्छरी दीवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुं मन,वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं. बांधी मुके जे धन धन्न, इणिपरे रुप सोवन्न हिरन्न क्षेत्र गेह बे मेली एक, दुपद चउपद गर्भ अतिचार रहितपणे पोताना शीयळ पाळवा तत्पर हता अने जेओए आभव अने परभवने भोगव्यो. ७२. (अर्थ गाथा ५५-५५प्रमाणे७३-७४.) चोथा स्थूल स्वदारसंतोष विरमण व्रतना पांच अतिचारो संबंधी जे कोइ दोष पाक्षिक, चउमासिक, संवत्सरिक दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार के अनाचार लाग्यो होय ते बधुं हुं मन, वचन, अने कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं आपु छु. हवे पांचमां परिग्रह परिमाण व्रतने वर्णवे छे. धन-धान्य, रुपुं-सोनु, हीरा, क्षेत्र-घर, विगेरे तेमज बे पगवाळा Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____३२५ अनेक ॥ ७५ ॥ कुविय वधारे तोले जेह, परिग्रह मान अतिक्रम तेह; पंचमत्रत अतिचार निवार, सफल करे ते धन संसार ॥ ७६ ॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामिये, आ भव परभव ते खामीये ॥ ७७ ॥ अहनिसि पक्खि चउमासि फुडं, संवच्छरी मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जा. णजो, गुरु साखे ते मुजने हजो ॥ ७८ ॥ दास-दासी तथा चार पगवाळां गाय, भेश आदिना अनेक गर्भना बच्चानो संग्रह करे तथा तांबा विगेरे वासणना तोलमां वधारो करे अने तेथी परिग्रह ओळंगी गयो गणाय छे. आ पांचमा अतिचारनो जे त्याग करे ते आ संसारने सफळ करी जाय छे. ७५-७६. (अर्थ गाथा ५५-५६ प्रमाणे ७७-७८). हवे त्रण गुणव्रत कहे छे. ___ पांच अणुव्रतने लाभ करनार होवाथी तेने गुणत्रत कहे छे जेमके छद्रं व्रत ग्रहण करनारे परिमाण करेली दिशानी बहार रहेला तमाम जीवोनी दया पाळी, त्यांनी कन्या विगेरे संबंधी असाय टळ्यु, त्यां रहेला द्रव्यादिक माटेर्नु अदत्तपणुं गयुं, त्यां रहेली स्त्रीओनो सहेजे त्याग थइ गयो अने त्यां रहेला द्रव्य माटे परिग्रहबुद्धि नाश पामी. आ प्रमाणे पचे अणुव्रतने गुण करवाथी नीचेना त्रणने गुणत्रत कहे छे. Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ पांचमुं स्थूल परिग्रह परिमाण व्रत, तेहना पांच अतिचार, तेहने विषे जे कोइ पख्खी, चउमासी, संवच्छरो दीवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुं मन, वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं. उंचो नीचो तिरछी दीसे, मान अतिक्रम करिये वसे; स्वारथ उणो अधिको करे, पंचम मान कर्यो विसरे ॥ ७९ ॥ छठ्ठा व्रतना ए अतिचार, न लगाडे श्रावक सुविचार; व्रतनो धारक इम जाणिये, तेना गुण हियडे आणिये ॥ ८० ॥ पांचमा परिग्रह परिमाण व्रतना पांच अतिचारो संबंधी जे कोइ दोष, पाक्षिक, चउमासिक, संवत्सरिक दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार के अनाचार लाग्यो होय ते बधुं हुं मन, वचन, अने कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं आपु छं. छड्डा दिग्परिमाण व्रतने बतावे छे. ऊर्ध्व, अधो अने चारे दिशा - विदिशाओमां जवा-आववानुं परिमाण करी, तेने उल्लंघी जाय ते तथा स्वार्थ जोइ एक बाजु ओछी करी, बीजी बाजु वधारे तथा यादी भूली जइ कइ दिशाए केटलुं जवानुं या नहीं जवानुं ते भूली जाय. आ पांच छट्टा व्रतना अतिचार छे तेने विचारक व्रतधारी श्रावक लागवा देतो नथी, आवा गुणधारी श्रावकना गुणोने हृदयमा धारण करवा जोइए. ७९-८०, ( अर्थ गाथा ५५-५६ प्रमाणे ८१-८२ ). Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ सूक्ष्म बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामिये, आ भव परभव ते खामिये ॥ ८१ ॥ अहनिसि पक्खि चउमासी फुड, संवच्छरि मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्धू सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥ ८२ ॥ छट्टुं दिसिविदिसिपरिमाण व्रत, तेहना पांच अतिचार, de विषे जे को पक्खी, चउमासी, संवच्छरी दीवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुं मन, वचन कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं. सप्तमव्रत हवे करिशुं विचार, तेना संभारुं अतिचारः करमे पनरह भोजन पंच, एवं वीस छडा दिग् परिमाण व्रतना पांच अतिचारो संबंधी जे कोइ दो पाक्षिक, चउमासिक, संवत्सरिक दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार के अनाचार लाग्यो होय ते बधुं हुं, मन, वचन अने कायाए करी मिच्छामि दुकडं आपु छं. सातमा भोगोपभोग परिमाणत्रतने वर्णवे छे. हवे सातमा व्रतना अतिचारने आलोवुं कुं. तेमां कर्मने आश्रयी पंदर अने भोजनने आश्रयी पांच मळी वीस अतिचार थाय छे तेमां जरापण फेरफार नथी. ८३. Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ नही खल खंच ॥ ८३ ॥ सचित आहारे अचिते वृंद, वृक्षथकी उखेडी गुंद; खारेक रायण बीज समिद्ध, बीजो छे सच्चित्त प्रतिबद्ध ॥ ८४ ॥ अग्नि अपक्क ते अप्पोलिआ, ओला पहुंक ते दुप्पो. लिआः बीज रहित ओसही जे तुच्छ, जे भुंजे तेहनी मति तुच्छ ॥ ८५॥ अतिचार भोजन जा. णवा, कर्मादान पनर टालवाः त्रिविधे श्रावकनो आचार, पंचमंगिए भण्यो विचार ॥ ८६ ॥ सचित्त खाय अथवा सचित्तथो मळेल पदार्थ-जेमके वृक्षने चोटेल गूंद उखाडी खाय, खारेक, रायण, बोजवाळी चीज, ओ सचित्तनोज बीजो भेद छे. ८४. सचित्त वस्तु पकव्या वगर खाय, कांइक पाकी, कांइक काची, ओळा, (चणाना), उंबी (घउं ने जवनी), पोख-घउं के बाजरानो अने पापडी-वाल, चोळी विगेरेने खााथी अतिचार लामवान कहुं छे ते पण सचित्त त्यागना अंगर्नु ज छे. अने तेने दुप्पोलिआ कहे छे. बीज वगरनी तुच्छ औषधि-थोडं खवाय अने झाझं काढी नखाय तेवू जे खाय, तेनी मति हलकी छे. आ भोजन आश्रयी पांच अतिचारो पांचमां अंगमा कह्या छे तेने अने कर्मादानना पंदर दोष श्रावके मन, वचन, कायाथी टाळवा. ८५-८६. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२९ ( यतः श्रीभगवती सूत्रे अष्टमे शतके पंचमोदेशके) " जे ईमे पुणोसमणोवासगा भवन्ति तेसिं नो कप्पंति इमाई पन्नरस कम्मादाणाई सई करेत्तए वा ॥ करवेत्तए वा, करंतं वा अन्नं समजाणित्तए वा ॥ तंजहा इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे, लक्खवाणिज्जे, रसवाणिज्जे, केसवा - णिज्जे, विसवाणिज्जे, जंतपिल्लणकम्मे, निलंछण कम्मे, दवग्गिदावणया, सरदहतलायसोसणया, असइजणपोसणया. " (इतिवचनात् ) ( भगवतीसूत्रना आठमा शतकमां पांचमा उद्देशमां कह्युं छे ) - जे आवो रीते श्रावक होय तेओने आ जातना पंदर कर्मादान न कल्पे, पोते करे नहीं, बीजा पासे करावे नहीं अने करता एवा बीजाने अनुमोदन - योग्य न जाणे ते आत्री रीते बे-इंगाल-कर्म, वनकर्म, साडीकर्म, भाटककर्म, फोडीकर्म, दंतवाणिज्य, लख्खवाणिज्य, रसवाणिज्य, केशवाणिज्य, विषवाणिज्य, यंत्र पीलण कर्म, निलींछन कर्म, दवाग्निदापणय, सरदहतलावसोषण कर्म अने असती पोषण कर्म. (आप्रमाणे पाठ छे ) Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० भाडभुंज सोनार ठंठार, इंटवाह नीवाह लोहार, धातुधमण इत्यादि अधर्म, ए पहेलो इंगाली कर्म ॥ ८७ ॥ कण भरडावे आटा दाल, पान फूल फल विक्रय टाल; मुंढ लोढावे जे कपास, वणकर्म ते भणि पाप निवास ॥ ८८ ॥ वेचे सगड अने सगडंग, साडिकर्म करे व्रतभंग, सकट पमुह जसु भाडे वहे, भाडी कर्म ते गिरुआ कहे ॥ ८९ ॥ जे भुंइ फोडे हल कुद्दाल, खणिवो कूप सरोवर पाल; काढे लूण माटि पाषाण, फोडी भाडभुंजा, सोनी, कंसारा, इंटोना निभाडा करनार कुंभार, लुहार, धमणीआओ अने अग्निनुं काम इंगालकर्म छे. ने ते अधर्म छे. ८७. धान्य भरडावे, आटा - डाळ पीसावे, पान, फळ, फूलनो वेपार करे, कपास, कपासीया विगेर पीलावे, लाकडा कपावबा, कोलसा पडावा विगेरे बनकर्म कहेवाय अने तेमां पापनो वास छे. तथा घोडागाडीओ दिगेरेनो सामान वेचे तेने साडी कर्म कहे छे अने ते व्रतनो भंग करनारुं छे. घोडा, हाथी, बळदोया, उंट, खच्चर विगेरे पशुओथी भाडुं उपजावे ते सर्वने गुरुओ भाडीकर्म कहे छे. ८८-८९. वळी जे हळथी अथवा कोदाळीथी जमीन फोडे हळे तथा तळाव, कुवा विगेरे खोदावे, तथा खाणमांथी मीटुं, माटी, पत्थर कढावे - Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ कर्म कुकर्मनि हाण ॥९०॥ मृगमद चामर ने गज दंत, करे प्राण जे त्रसना अंत; आगर जलपी ए ववहरे, दंतवणिज्ज पापे पिंड भरे ॥ ॥ ९१ ॥ लाख गुली मणसिल धाहुडी, तूरी दुषी सूरो फिटकडी, साजी साबु ने पडवास, इण व्यापारे दुर्गति वास ॥ ९२ ॥ मधु माखण विस मद ववहार, मीण महुडां प्रभृति असार; दुपद चउपद विक्रय करे, रस केसहवाणिज किम तरे॥ तथा फोडावे ते बधां कुकर्म कहेवाय छे अने ते फोडीकर्म कहेवाय छे. ९०. कस्तूरी माटे कस्तूरीआ हरणने, चामर माटे चमरी गायने, दांत माटे हाथीने, पीछांओ माटे पक्षीने मारे. आवी रीते पोतानी आजीविका माटे जंगलमां घास खाइ अने खाणोना पाणी पी जीवतां अनेक प्राणीओनो नाश करे. आ दंतवाणिज्य कर्मथी घणुं पाप बंधाय छेछे. ९१ लाख, गळी, मणसील, धाउडी, तेजंतूरी, हडताळ, राइ, पटमा वास (पापडीओ खारो) आपयो, फटकडी, साजी, साबू, टंकणखार, बनाववा-- वेचवा, आ व्यापारोथी दुर्गति मळे छे अने आलाखवाणिज्य कहेवाय छे.९२ मध, माखण, मदिरा, मीण, महुडां, मांस, तेल विगेरेनो व्यापार रसवाणिज्य कहेवाय छे. दास, दासी, गाय, मेंशनो वेपार केशवाणिज्य कहेवाय छे रसवाणीन्य अने केशवाणीज्य करनारा भक्तरी न शके. ९३. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ ॥ ९३ ॥ विसहल लोह अने हरताल, वेचे बहु सावध हथियार; ए विष वाणिज प्रवचन जाण, नहु टाले तेहने व्रतहाण ॥ ९४ ॥ ईष तेल सरसव एरंड, पमुह पीलणे पाप प्रचंड; तिल दलेलं देवं वार, यंत्रपीलण कर्म अधर्म निवार ॥९५॥ नासा वेध अंकनुं दाण, गलकंबल कापे जे अजाण; वींधी करे करणनो छेद, निलंछणनो करे निषेध ॥ ९६ ॥ पुण्यबुद्धि वसुने दव देइ, दवदाणे ते सुकृत खवेइ; कूबा सर नदि द्रह जल शोष, विष, हळदिक, शस्त्र, कोश, कोदाळो विगेरेनो वेपार बहु पापवाळो छे, तेने विषवाणिज्य कहे छे. तेने जे हठावे नहीं तेने व्रतनी हानि थाय छे. ९४. शेरडी, तल, सरसव, एरंडा प्रमुख पीलाववामां घणुं पाप छे. पीलेला तल आपवानो व्यवहार बंध करो जोइए. तथा शीला, खारणीयो, घंटी, रेंट, विगेरेनो वेपार करवो या उपयोग करवो तेमां घणुंज पाप छे अने ते यंत्रपीलन कर्मकहेवाय छे. तेथी ते अघर्म छे अने तेनुं निवारण कर जोइए ९५. गाय विगेरे पशुओना गळकंबल, शींगडा, पुच्छ विगेरे कपाववा, नाक वधवा, चिह्न करावा, कान छेदाववा आ निलीन कर्म कहेवाय छे. माटे तेनो निषेत्र करवो जोइए ९६ . पुण्यबुद्धिथी वननी झाडी बाळवी, जंगलो बाळवा, ते महापाप छे तेने दवदान Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३३ मोटुं दुषण ते सर शोष ॥ ९७ ॥ सूआ सालहि तितर मोर, कूकर कूकड हीये कठोरः दुष्ट चित्त दासी मंजार, पोषे असती पोष निवार ॥ ९८ ॥ सप्तम व्रत विसे अतिचार, टालंता श्रावक आचारः पाटा तुलावट दाण अधर्म, एम अनेरा जे खर कर्म ॥ ९९ ॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचारः कर जोडी मस्तक नामिये, आ भव परभव ते खामिये ॥ १०॥ अहनिसि पक्खि चउमासी फुडं, संवच्छरी मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥ १०१ ॥ कर्म कहे छे. अने तेथी पुण्यनो नाश थाय छे. कुवा, तळाव, नदी, जंगल, पाणी सूकाववा, आदि महापापो छे अने तेने शोषकर्म कहे छे.. ९७. सूडा, पोपट, मेना, तेतर, मयूर, कूकडा, कूतरा, वांदरा तथा हिंसक प्राणी चित्तो बिलाडी आदिने पोषवा ते असती पोषण कहेवाय छे. ९८. सातमा व्रतना आ उपर कह्यां ते वीस अतिचारो छे तेने श्रावके टाळवा जोइए. गाडाना पैडाना पाटा (वाटो) एने तोलवापूर्वक दानमां आपी देवा अथवा दाणचोरी विगेरे अधर्म छे आवा बीजा जे दुष्ट को होय ते बधां वर्जवा जोइए. ९९ (अर्थ ५५-५६ प्रमाणे १००-१०१). Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ सातमुं भोगोपभोग परिमाण व्रत, तेना वीस अतिचार, पांच भोजनना ने पंदर कर्मादानना, एवं वीस अतिचार, तेने विषे जे कोइ पख्खी, चउमासी, संवच्छरो दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुँ मन, वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं. अष्टम व्रत पंचय जाणवा, सकतिसोम ते पण टालवाः जेहथी दीपे कामविकार, इस्या वचन बोले अविचार ॥१०२ ॥भंडतणी पर चेष्टा करे, लोक हसाडी व्रत अतिचरे, मुखथी भाषे आलपंपाल, लोकमांहो भणीए वाचाल ॥१०३॥ सातमा भोगोपभोगना बीस अतिचारो संबंधी जे कोइ दोष पाक्षिक, चउमासिक, संवःसरिक दिसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार के अनाचार लाग्यो होय ते बधुं हुं मन, वचन, अने कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं आपु छं. हवे आठमा व्रतने वतावे छे. आठमा व्रतना पांच अतिचार छे. शक्ति अनुसारे ते टाळवा जोइए. जेनाथी कामधिकारने उत्तेजन मळे एq विचार विनानुं वचन न बोले.१०२ भांडनी जेम चेष्टा करवी, लोकोने हसाववा व्रत भंग करे, मोडेथी जेम आवे तेम वगर विचायु बोले, आवाने लोकमां पण वाचाळ कहे छे.१०३ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३५ . जोग करे अधिकरणह तणो, इणपरे लागे दूषण घणो; न्हाण अधिक खल जल रेडवो, अधिको भोजन आरंभवो ॥१०४ ॥ ए अतिचार सहु टालिये, निर्मल अष्टम व्रत पालिये श्रावकने ए करवा नहि, एह वात जिन आगम कही॥१०५॥ सुक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामीये, आ भव परभव ते खामीये ॥ १०६ ॥ अहनिसि पक्खि चउमासी फुडं, संवच्छरी मिच्छादुकडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥ १०७॥ ___ पाप लागे तेवा सावनोनो जोग राखे खेल, नाटक, सीनेमा विगेरे जोवा, जळ क्रीडा जळाशये जवं, खूब पाणीथी न्हावं, जीववाळी भूमिमां पाणी नाखवू, भोजन माटे जातजातना आरंभ करवा, आथी घj पाप लागे छे. आ अतिचारो टाळवा जोइए आ आठमुं व्रत निर्मळ रीते पाळकुंजोइए. श्रावके आ नहीं करवू, ए वात जिनेश्वर भगवानना आगममा कहेल छे.१०४-१०५ (अर्थ गाथा ५५-५६ प्रमाणे १०६-१०७) Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठमुं अनर्थदंड विरमणवत तेना पांच अतिचार, तेने विषे जे कोइ पख्खी, चउमासी, संवच्छरी दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुँ मन, वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं. सामायक लीधे दुर्ध्यान, मन आणे ते दोषनिधान, वचने भाषे जेय सपाप, कायाए करि ते प्राण संताप ॥ १०८ ॥ विस्मृति आवे ___आठमे अनर्थदंड विरमणबत तेना पांच अतिचारो संबंधी जे कोइ दोष, पाक्षिक, चउमासिक, संवत्सरिक दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार के अनाचार लाग्यो होय ते बधुं हुं मन, वचन, कायाए करी मिच्छामि दुकडं थजो. नवमा सामायिक व्रतने वर्णवे छे. नवथी बार सुधीना चार व्रतो शिक्षावत कहेवाय छे. जे वारंवार करवामां आवे ते शिक्षा कहेवाय छे. सामायिकादिक श्रावके दररोज करवा जोइए अने पौषध पर्व दिवसे करवो जोइए. कारणके आ व्रतोना आराधनथी समकित निर्मळ थाय छे तथा देशविरतिधर्मनुं चारित्र स्वरूपे आराधन थाय छे. तेमां प्रथम सामायिक व्रत छे तेने बतावे छे. सामायक लइ त्रण प्रकारना दुर्ध्यान ध्यावे, मनमां घर दुकान विगैरे संबंधी सावध व्यापार- चितवन करे ते मनोदुष्प्रणिधान, कर्कश आदि सावध वचन बोले ते वाग्दुष्प्रणिधान, अने प्रमार्जन अने पडिलेलेहण न करेली भूमि उपर बेसे अथवा पग विगेरे अवयवो लांबा-ढूंका करे ते कायदुष्प्रणिधान कहेवाय छे. आ त्रण अतिचार कहेवाय छे.१०८ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेलातणी, आदर न करे जे व्रत भणी, नवमा व्रतना एअतिचार,जे टाले तसु हुं बलिहार ॥१०९॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामिये, आ भव परभव ते खामिये ॥ ११० ॥ अहनिसि पक्वि चउमासि फुडं, संवच्छरि मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो॥ १११॥ नवयु सामायिक व्रत, तेना पांच अतिचार लेने विषे जे कोइ पख्खो, चउमाली, संवच्छरी दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुं मन, वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं. - बे घडी समय पूरो थया पहेला अथवा सामायिक लीधानो या पारवानो समय भूली जइ सामायिक पारे अथवा जेम तेम सामायक करे अथवा अवकाश छतां सामायिक न करे अने घर-वेपारनी चिंताने लइ शून्य मन थत्राथी में सामायक कयु, आ सामायिकनो समय छे. विगेरे स्मृतिविहिन थाय, आ नवमा व्रतना अतिचार छे, तेने जे हठावे तेनी बलिहारी छे. १०९ ( अर्थ गाथा ५५-५६ प्रमाणे गाथा, ११०-१११) २२ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ ... दशमे व्रत दिसिनुं परिमाण, संखेपे जे श्रावक जाण; तेना जाणी पंचय दोष, टाली आणे मन संतोष ॥ ११२ ॥ बाहिरथकी मांहि आणवे, माहिथकी बाहिर मोकले; साद करी देखाडी रूप, कांकरि नांखी कहे सरूप ॥११३॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामिये, आ भव परभव ते खामीये ॥ ११४ ॥ अहनिसि पक्खि चउमासि फुडं, संवच्छरि मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥११५॥ दशभु देशावगाशिक व्रत वर्णवे छे.-आ व्रतमांजे सातमा व्रतमा आखा जीवन माटे स्वीकारेला चौद नियमने माटे करेली धारणामां एक दिवस माटे संक्षेप करवानो छे, तेमां पण दिशा-उपाश्रय के पौषधशाळाथी बहार न जवानो नियम करवानो छे (धर्मकार्य माटे जवानी छूट होय छे) तेना पांच दोष टाळी श्रावक पोताना मनमां संतोष करे छे. ११२ मुकरर करेली हदनी बहारथी कह वस्तु मंगाववी, तेमज अंदरथी मुकरर करेली हदनी बहार कंइ वस्तु मोकलवी, नियमित भूमिकाथी बहार रहेलाने बोलाववा माटे व्रतर्नु उल्लंघन न थाय ए भयथी शब्द करी बोलावे, कंइ मुंगो शब्द करे, अथवा पोतानुं शरीर देखाडे या | Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३९ दसमुं देसावगासिक वत, तेना पांच अतिचार, तेने विषे जे कोइ पक्खी, चउमासी, संवच्छरी दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुं मन, वचन, कायाए करी तस्ल मिच्छामि दुक्कडं. __ अतिचार इग्यारमे व्रते, सकतिसिम टालसुं दिन प्रते; अप्रतिलेखी दुप्रति लेख, शय्या संथारो उवेख ॥ ११६ ॥ अपमज्जण दुपमज्जण करी, शय्या संथारो परिहरी; नीति वडीलहुडी ठंडीला, पडीलेहण पमज्जण भला ॥ ११७॥ सम्यक्विधिए नहु पालिये, पोसह अतिचार टालिये; पर्वतिथे ए व्रत अधिकार, जाणे श्रावक जे सु. विचार ॥ ११८॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; करजोडी मस्तक नामिये, कांकरो नाखी पोतापणुं प्रगट करे. ११३. ( गा. ५५-५६ प्रमाणे गा. ११४-११५नो अर्थ.) अग्यारसु पौषधोपवास व्रत बतावे छे.-अग्यारमा पौषको'पवास व्रतधारी श्रावके संथारो, वडीनीति-उधुनीति, संबंधी अविधि एटले ते बन्ने बाना शक्ति अनुसार दिवसे बराबर जोइ न राख्या, जेम तेम दरकार-उपयोम वगर जोयां, पडिलेह्यानहीं, वेठ-खराब रीते पडिलेह्या. ११६-११७ पौषध लइने विधि प्रमाणे करवा योग्य न कर्य Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० आ भव परभव ते खामिये ॥ ११९ ॥अहनिसि पक्खि चउमासी फुडं, संवच्छरी मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥ १२० ॥ इग्यारसु पोसह व्रत, तेहना पांच अतिचार, तेहने विषे जे कोइ पक्षी, बउमासि, संबच्छरी दिबसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिबार, अनाचार लाग्यो होय, ते सधि हुँ मन, , वचन, कायाथे करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं.. - पर्वदिवस पोसह पारणे, अवलोके निज घर बारणे; भोजन वेला पामी साध, मन चिंतवे भले ए लाध ॥ १२१ ॥ भूके सचित उपरे जेय, सचितशु बलि ढांके तेय; वस्तु आपणी परनी कहे, अने पौषधना अतिचार टालवा जोइए व्यारे श्रावकने पर्वतिथिए पौषध लेवानो अधिकार छे. जे विचारक श्रावक जाणे छे. ( अर्थ गाथा ११९-१२० नो गाथा ५५-५६ प्रमाणे ) __ बारमा अतिथि संविभाग-त्रतना पांच अतिचार छे. तिथि एटले पर्व जेने न होय अर्थात् बधां दिवस जेने सरखां होय ते अतिथि कहेवाय. तेमने दान आप, ते अतिथि संविभाग. पर्वना दिवसे, पोषहना पारणे जे पोताना घरना आंगणे जुवे छे के भोजन समय थयो छे अने साधु-मुनिराज पधार्या छे तो पोताना मनमा शुभ चिंतन करे Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३४१ भोलपणे मन मच्छर वहे ॥ १२२ ॥ गोयरवेला टाली करी, साधु निमंत्रे भोलम घरी; बारमा व्रतना ए अतिचार, टालता श्रावक आचार ॥ १२३ ॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामिये, आ भव परभव ते खामिये ॥ १२४ ॥ अहनिसि पक्खि चउमासी फुड, संवच्छरी मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणं जो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥ १२५ ॥ बारमुं अतिथिसंविभाग व्रत, तेना पांच अतिचार, तेहने विषे जे कोइ पक्खि, चउमासी, संवच्छरी दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुं मन, वचन, कायाए करो तस्स मिच्छामि दुक्कडं. " सारुं थयुं." १२१ पण कोइ वस्तु सचित्त उपर मूकवी अथवा सचित्तं वस्तुवाळा वासणथी अचित्त वस्तुवाळा पात्रने ढांक के जेथी मुनि लइ शके नहिं. अथवा पोतानी वस्तु छतां नहीं देवाना कारणे पारको कहे अने पारकी वस्तु छतां देवानी बुद्धिथी पोतानी कहेवी तथा भोळासथी मत्सर - अभिमान करी दान दे. १२२ तथा गोचरीनो समय पूरो थइ गया पछी मुनिने तेडवा जाय अने आग्रह करी लावीने वहोरावे. आ रीते आ पांच अतिचार बारमा व्रतना छे तेने आचारवाळो श्रावक आलोवे टाळे. १२३ ( गाथा १२४ - १२५ नो अर्थ गाथा ५५ - ५६ प्रमाणे छे.) Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ राजरिद्धि वंछे इहलोक, इंद्रादिक पदवी परलोकः सुखियो वंछे बहु जीविये, दुख आवे मर वंछिये ॥ १२६ ॥ कामभोगनी आशा करे, संलेहण इणिपरे अतिचरे; ए अतिचार टालि व्रत धरे, तासु प्रशंसा सुरपति करे ॥ १२७ ॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामिये, आ भव परभव ते खामिये ॥ १२८ ॥ अहनिसि पक्खि चउमासि फुडं, संवच्छरि मिच्छादुक्कर्ड; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥ १२९ ॥ आ ते बार व्रत पूरा थयां. पण श्रावके खास याद राखवं जोइए के-मरण क्यारे अशे ? तेनो निश्चय नथी, अचानक थसे, तेथी अंत समये करवानी संलेखनाने अंगे जे पांच अतिचार लागवा संभव छे, तेनो दररोज अथवा पाक्षिक प्रतिक्रमणावसरे तो अवश्य ख्याल राखवो जोइए. उपरना कारणथीज संलेखणाना अतिचार बतावे छे संदेखणा अंत समय नजीक जणाय त्यारे करवानी होय छे. तेमां आलोक संबंधी, परलोक संबंधी, जीववा संबंधी, मरवा संबंधी तथा कामभोग संबंधी इच्छा करवारूप पांच अतिचार मने मरण सुधी न थाओ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४३ संलेखणाना पांच अतिचार, तेहने विषे जे कोइ पख्खी, घउमासी, संवच्छरी दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुं मन, वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं. __ तपाचार बारह आचार, विपरीताचरणे अतिचार; ते प्रमाद वलि आणाभोग, ते आलोवू गुरु संजोग ॥ १३०॥ बाहिर अभ्यंतर छह छह भेद, ए जाणे जे होइ सभेद; देखीतो ते बाहिर गूजारेली जींदगीमां करेला धर्मना प्रभावथी आलोक संबंधी मनुष्यपणाने लगता राजऋद्धि, मरण पाम्या पछी परलोकमां देव-देवेन्द्रविद्याधर-चक्रवर्ती, राजा-महाराजा, धनाढ्य विगेरे थवानी इच्छा, सुख आव्ये वधारे जोववानी इच्छा करवी, दु:ख आव्ये तात्कालिक मरण चाहे. १२६ पांच इन्द्रियोना विषयोनी अनुकूळता इच्छवी. संलेख. णाना आ पांच अतिचार टाळी व्रत धारण करे तो देवाधिदेव इंद्र महाराज पण प्रशंसा करे. १२७. ( गाथा १२८-१२९ नो अर्थ गाथा ५५-५६मा जुओ.) तपाचारना बार आचार छे, तेने विपरीत आचरता अतिचार थाय छे. ते प्रमादथी या अजाणता थयां होय तोतेने गुरु साक्षीए आलोवुलु. १३०. तेना छ बाह्य अने छ आभ्यंतर मळी बार भेद छे. तेना. भेदो जाणवा जोइए. देखावमां आवे ते बाह्य अने अंतरमां थाय न देखाय Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ कह्यो, अभ्यंतर बीजो संग्रह्यो ॥ १३१ ॥ अणसण कहीए जे उपवास, एक थकी ज्यां लगी छम्मास; ऊणोदरी उणो आहार, इक बिति-कवले करी विचार ॥ १३२ ॥ विगइ सचित्त द्रव्यादिकतणो, एनो करिये संखेपणो; वृत्तिसंखेप ए त्रीजो भेद, आंबील नीवी रस विच्छेद ॥ १३३ ॥ सीत वात आतप जे सहे, एहने कायकिलेस जे कहे; संलीनता जे अंग उवंग, आसन करि संवरबेरंग ॥ १३४ ॥ ए छ भेद बाहिर तप जाण, छती ते आभ्यंतर. बाह्य करतां आभ्यंतरनुं फळ वधारे होय छे अने अभ्यंतर तप निकाचित कर्म तोडी शके छे. १३१ अगसण - एक उपवासथी छ महीनाना उपवास सुधी जाय ते, उणोदरी - पोताना आहार करता एक-वे के तेथी वधारे कोळी भा ऊणा रहेवुं ओलुं जमवुं. १३२ वृत्तिसंक्षेप-सचित्त द्रव्यादिनो त्याग ए त्रीजो भेद तथा चौद नियममां पण जेम बने तेम घटाडो करवो. रसत्याग तपमां एक बे या क्रमथी एकेक विगयनो त्याग करवो अने आयंबिल, नीवी, विगेरे करवुं. १३३. कायक्लेशशरदी - गरमी, हवा, तडको वगेरेने सहेवा अने संलीनता - तप एकलठाणं करतां मात्र हाथ ने मुख बेज हलाववा, बीजा अंग न हलावत्रा, एक आसन करी बेसवुं -जूदी जूदी रोते अंगने न हलावतां संवर-अटकाव करवो, तेमज संलीनताना बीजा पण द्रव्य-भाव आदि भेदो छे. १३४ - Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४५ शक्ति आलस मन आण; न कों जतन रतन आदरी, जाणे नाख्यो कांकर करी ॥ १३५॥ अभ्यंतर तपतणा प्रकार, सुगुरु साखे आलोयण सार; काढी शल्य न तप पडिवज्यो, वडातणो विनय में तज्यो ॥ १३६ ॥ बालगिलानने तपसीतणो, वेयावच्च न कीधो घणो; वायण पुच्छण परियट्ठणा, धम्मकहा ने अणुपेहणा ॥ १३७ ॥ पंचभेद सज्झाय नहु कों, ध्यानरंग हियडे नहु धर्यो; यथाशक्ति काउसग नहु कीध, मणुय जनमर्नु नहु फल लीध ॥ १३८॥ सूक्षम बादर आ छ भेद बाह्य तपना छे. छती शक्तिए मनमां आळस करी मन उपर न लीधुं अथवा आवा हाथमां आवेला रत्ननुं रक्षण न कयु पण कांकरो जाणीज फेंकी दीधुं. १३५. ... हवे अभ्यंतर तपना भेदो गुरु साक्षीए आलोवे छे. माया, निदान अने मिथ्यात्व, आ त्रण शल्य रहितपणे तप न को, मोटानो पिनय छोडी दीघो. १३६ बाळक के ग्लान के तपस्वी तणो खूब वेयावच्च न कर्यो, वाचना, पृच्छना, पुनरावर्तन, धर्मकथा तथा अनुप्रेक्ष्या (१३७) आ पांच रीते स्वाध्याय न कीघो तथा हृदयमां ध्यान न कयु, छती शक्तिए काउस्सग्ग न कों, आ रीते मनुष्य जन्मनुं फळ लीधुं नही. १३८. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૪૬ उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामिये, आ भव परभव ते खामिये ॥ १३९ ॥ अहनिसि पक्खि चउमासी फुडं, संवच्छरि मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥ १४० ॥ तपाचारना बार अतिचार, तेहने विषे जे कोइ पक्खी चमासी संवच्छरी दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुं मन, वचन, कायाप करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं. विरियायार त्रणे आचार, विपरीताचरणे अतिचार; ते प्रमाद वलि आणाभोग, ते आलोवुं गुरु संजोग ॥ १४१ ॥ रुडुं धर्मध्यान परिहरी, ( गाथा १३९ - १४० नो अर्थ गाथा ५५-५६ प्रमाणे ) वीर्याचार (मनोवीर्य, वचनवीर्य ने काया संबंधीवीर्य ) ना आ त्रण आचार विपरीतपणे आचरता अतिचार थाय छे. ते प्रमादधी या अजाणता थयां होय तेनी गुरु साखे आलोयणा चाहुं कुं. १४१ ध्यान करवा योग्य धर्मध्यान ने शुक्लध्यान छोडी आर्त्तध्यान ने रौद्रध्यान ध्यायां तथा शक्ति छूपावी राखी, आ प्रथम अतिचार छे. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आर्त रौद्र तिहियडे धरी; मननो वीर्य एम गोपव्यो, अतिचार पहिलो ए ठव्यो ॥ १४२ ॥ ताति कलह निंदा चस्तरी, पाप तणे उपदेशे करी; फोरव्यो वीरिय वचनतणो, बीजो अतिचार ए भण्यो ॥ १४३ ॥ कायाए कीधो आरंभ घणो, न कर्यो आवश्यक वंदणो, छती शक्ति आलस व्यापार, कायवीर्य त्रीजो अतिचार ॥१४४॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; कर जोडी मस्तक नामीये, आ भव परभव ते खामिये ॥ १४५ ॥ अहनिसि पक्खि चउमासी फुडं, संवच्छरी मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिझसके जाणजो,गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥१४६॥ १४२, घणो कजीओ कयों, चोतरफ निंदा फेलावी तथा पाफ्नो उपदेश दीघो, ए प्रमाणे वचननो वीर्य फेलाव्यो ते वचनवीर्यनामनो बोजो अतिचार छे. १४३, शरीरथी घणां आरंभ कर्या, खमासमणा बराबर न दीघां, आवश्यक साचवीने वांदणा न दीघां, कायाथी कराता अनेक प्रकारना धर्मकार्य छती शक्तिए कर्या नहीं, आ कायवीर्य नामनोत्रीजो अतिचार छे.. १४४ (गाथा १४५-१४६ नो अर्थ गाथा ५५-५६ मा जुवो.) Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૩૪૮ विर्याचारना त्रण अतिचार तेहने विषे, जे कोइ पख्खी, चउमासी, संवच्छरी दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुं मन, वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं. इम आलोवे सवि व्रत धार, एकसो चउवीसे अतिचार पर्व दिवस गुरु साखे करी, जिनवर वचन ते हियडे धरी ॥ १४७ ॥ जासु नही व्रतनो उच्चार, ते आलोवे पाप अढार; दाडातणो वरतारो करे, गुणतो सूत्र सवे ऊचरे ॥ १४८ ॥ जिनवर प्रतिषेध्युं ते कर्यु, करवा क ते नहु कर्यु; जिनभाषित जे नहु सद्दयुं, आगमथी विपरीत जे कह्युं ॥ १४९ ॥ व्रतधारकने जे जिनेश्वर भगवाननी आ प्रमाणे आज्ञा छे एम हृदयमां धारी आ रीते बधां मळीने १२४ अतिचार जे बार व्रतवारी श्रावक पर्व दिवसे गुरुनी साक्षीए आलोवे. १४७. अने जे बार व्रतधारी न होय तेणे पण अढार पापस्थानक आलोक्वा. आखा दिवसनी वर्त्तणुक केवी रीते करी छे तेनो हिसाब गणी बंधां सूत्र उच्चारी जाय. १४८. जिनेश्वर भगवाने जे कार्य करवानो निषेध कर्यो होय ते कर्यु १, जे कार्य करवा कहेल होय ते न कर्यु, २, परमात्माना वचनोनी अश्रद्वा करी ३, अने परमात्माना शास्त्रोक्त कथनथ विपरीत प्ररूपणा करी ४, १४९ - आ चार प्रकारमां तमाम Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४९ अतिचार, अविरतने ते पाप व्यापार; आलोवंता हलुवा करे, अल्प अल्प भारे उतरे ॥ १५० ॥ निंदण गरहण टाले दोष, थाये धर्मतणो इम पोष; सहुए श्रावक इणपरे करे, हेले जेम भवसायर तरे ।। १५१ ।। धन धन दश श्रावक निर्मला, आणंदादिक मन निश्चला; करे सलाघा श्री मुख वीर, जे प्रभु सागर जिम गंभीर ॥ ॥ १५२ ॥ तेणिपरे हुं व्रत न शकुं पाल, पण तेहना गुण मन संभाल; शक्तिसीम अविरती परिहरु, वार वार अनुमोदन करूं ॥ १५३ ॥ एवं अतिचारनो समावेश थाय छे. व्रतधारीने जे अतिचार छे तेज अविरति श्रावकने पापनो व्यापार छे, तेने आलोबी हळवी थाय अने एम करी हळवो थतो थतो पापनो बोजो - भार उतारे. १५० थयेलां पापनी निंदा, गर्हा, करतो बधां दोषो टाळे अने एम करो धर्मनी पुष्टि करे. आधी रीते बधां श्रावको करे तो जल्दी भवसागरने तरी जाय. १५१ आनंद आदि मनथी पण चलायमान न थाय तेवां दस श्रावकोने धन्य छे के जेओनी समुद्रनी जेवा गंभीर परमात्मा श्री वीर भगवाने पोताना मुखे प्रशंसा करी. १५२. आवी रीते जो के हुं व्रत पाळी न शकुं पण तेओमां रहेला गुणनी प्रशंसा जरुर करूं अने पोतानी शक्ति प्रमाणे अविरतिने दूर करूं, अने Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० श्रावकना अतिचार, एकसो चउवीसे सुविचार; एकठ छंद करी चउपई, पार्श्वचंद्र सूरि हरखे कही ॥ १५४॥ पक्खि चउमासी संवच्छरी, सहुए श्रावक आदर करी; श्राविका भणजो गुणजो सदा, लहिजो शिवसुखनी संपदा ॥१५५॥ पवंकारे समकितमूल बारे व्रततणा एकसोचोवीस अतिचार तेहने विषे जे कोइ पक्खि, चउमासी, संवच्छरी, दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार लाग्यो होय ते सवि हुँ मन, वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं. ॥ इति श्रावक पाक्षिकादि अतिचार । वारंवार अनुमोदना करूं. १५३ आवी रीते श्रावकना १२४ अतिचारोने बहु विचार पूर्वक छंदोने एकठा करी चापाइमां गोठवी श्रीपार्श्वचंद्रसूरिजीए हरखथी बनान्या छे. १५४. पाखी, चोमासी, संवच्छरी आ दिवसोमां बहु आदर साथे बधां श्रावक तेमज श्राविकाए तेने बोली जवां, विचारी जवा. जो आ प्रमाणे करशो तो पापनी परंपराथी हळवा थइने मोक्षरूपी लक्ष्मीने मेळवशो. १५५. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथा पछी सव्वस्तवि० पक्खिय. दुञ्चितिय, दुब्भासिय, दुश्चिद्विय, इच्छाकारेण संदिसह भगवान् इच्छं, तस्स मिच्छामि दुक्कडं, इच्छाकारेण पक्खितप प्रसाय करोजी. पछी पक्खितष चउत्थ भत्तेणं, एक उपवास, बे आयंबिल, त्रण निवि, चार एकासणा, बे हजार सज्झाय, (तप कर्यों होय तो पइडिओ कहिये अने करवो होय तो तहत्ति कहिये, न करवो होय तो मौन रहिये) पछी नीचा बेसी नवकार० करेमिभंते० चत्तारि. मंगलं० इच्छामि पडिक्कमिडं जो मे पक्खिओ० इरियावहि कही अढारलाख चोवीस हजार एकसोवीस मेदे इरियावहिनी क्रियाने विषे दूषण लाग्या होय ते सवि हुँ मन वचन कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं, पछी बंदित्तु कहेवू, अब्भुट्टिओमि आराहणाए पद बोलतां उभा थq. पछी वांदणां +बे देवां. तेमां पक्खिओ वइक्कतो भणवो, पछी इच्छाकारेण संदिस्सह भगवान् अन्भुट्टिओमि अभितर पक्खियं खामेउ? इच्छं खामेमि पक्खियं, एगपख्खाणं पन्नरसह दिवसाणं, पन्नरसराइयाणं जंकिंचि अपत्तियं, मिच्छामि दुक्कडं दइ उभा थइ नीचेनुं सूत्र बोलवू. ४५ पुढवाइसु पत्तेयं पुढवाइसु पत्तेयं, सगवण पत्तयणंत दस चऊदस। विगले दुदु सुरनारय, तिरियचऊ चउदसनरेसु ॥१॥ शब्दार्थ:पुढवाइसु-पृथ्वी- पत्तेय-दरेक सग-सातलाख काय आदि. वणपत्तेयणंत-प्रत्येक दस-दस चऊदस-चौद वनस्पतिकाय अने विगले-विकलेदुदु-बब्बे अनन्तकाय . न्द्रियमां + बीजी वखतना वांदणा बेठा बेठा देवा ने आवस्सइ न बोलवू. Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ सुर-देव नारय- नारकी तिरिय-तियेच चऊ-चार नरेसु-मनुष्योमा - भावार्थ:-पृथ्वीकाय (पृथ्वी-अप्-ते उ-वाउ) विगेरे दरेकमां सात लाख, प्रत्येक वनस्पतिकायमां दस लाख, अनन्तकायमा चौद लाख, विकलेन्द्रियमा बब्बे लाख, देव-नारकी अने तिर्यंचमां चार चार लाख अने मनुष्यमां चौद लाख जीवायोनि छे. १ छउमत्थो मूढमणो, कित्तियमित्तपि संवरइ जीवो। जं च न संभरामि, मिच्छामि दुकडं तस्स ॥२॥ शब्दार्थ:छउपत्थो-मस्थ मूढमणो-मूढ मनबाको कित्तिय-कहेला मिलपि-मात्रथीज संवरइ-संवरे छे जीवो-जीन ज-जे च-अने न संभरामि-सांभरे नहीं मिच्छा-मिथ्या थाओं मि-मारं दुक्कर्ड-पाप तस्स-तेनु भावार्थ:-छमस्थ मूढ मनवाळो जीव कह्या मात्रथी ज संवर करे छे अने जे नथी सांभरतुं तेनुं पाप मारे मिथ्या-फोगट थाओ. मू-जंज मणेण बद्धं, जं जं वायायभासियं पावं । असुहं कारण कयं, मिच्छामि दुक्कडं तस्स ॥३॥ शब्दार्थःजं जं-जे जे मणेण-मनवडे बद्धं-बांध्यु होय वायाय-वागी वडे भाषियं-कह्यु होय पावं-पाप अमुहं-अशुभ कायाए-कायाथी कयं-कर्यु होय Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-मनद्वारा जे जे पाप बांध्यु होय, वचन वडे जे जे पाप फयु होय अने कायाए जे जे अशुभ कयु होय, ते बधुं पाप मारे फोगट थाओ. ३ सव्वे जीवा कम्मवस, चऊदहरज्जभमंत । ते में सव्वखमाविया, मुज्झवि तेह खमंत ॥४॥ शब्दार्थ:सवे-बधां जीवा-जीवो कम्मवस-कर्म आधीन रज्ज-राजलोकमां भमंत-भमे छे ते-तेओने खमाविया-खमाव्या छे मुज्झ-मने वि-पण तेह-ते बधां खमंत-क्षमा करो मावार्थ-पोतपोताना शुभाशुभ कर्मने आधीन थयेला बर्षा जीवो चौद राजलोकमां फरे छे, ते तमाम जीवोने में त्रिकरणयोगे खमाव्या छे अने तेज प्रमाणे तेभो पण मने क्षमा करे. ४. खम्यो खमाव्यो में खम्यो, छबिहजीवनिकाय । सिद्ध साख आलोयणा, ते मुज वैर न भाव ॥५॥ शब्दार्थछबिह-छ प्रकारना निकाय-समूहने साख-साक्षीए आलोयणा-आलोचना करी भावार्थ-छ प्रकारना जीव समुदायने में क्षमा करी छे अने करावी छे. तेओ पण मने क्षमा करो, हुं सिद्ध भगवाननी साक्षीए आलोचना करुं बुं के मारे तेओ पर द्वेषभाव नथी, ५ २३ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ जे मे जाणंति जिणा, अवराहा जेसु जेसु ठाणेसु । तं तहा आलोएमि, मायामोसं पमुत्तूणं ॥ ६॥ . शब्दार्थःजे-जेओ मे-मारा जाणंति-जाणे छे जिणा-जिनेश्वरो अबराहा-अपराधो जेसु-जे ठाणेसु-स्थानोमां तं-ते . तहा-ते रीते आलोएमि-प्रगट- मायामोसं-कपट-जूटुं पमुत्तणं-छोडी दइने __ करं छं भावार्थ-जे जे स्थानमां मारा जे जे अपराध थया होय, ते बधांने जिनेश्वर भगवंतो जाणे छे, ते अपराधो-गुन्हाओ तेवी ज रीते कपट अने असत्य-जूठने छोडीने प्रगट-खुल्ला करुं छं. ३ पछी नवकार० करेमिभंते० इच्छामि ठामि काउस्लग्गं० तस्सउत्तरी० अन्नत्थ० कही बार लोगस्स ( अथवा ४८ नवकार)नो काउस्सग्ग करी, प्रगट लोगस्स कही, मुहपत्तिनी दृष्टि पडिलेहण करी, वांदणां दइ, इच्छामो अणुसद्धि नमो खमासमणाणं, नित्थारपारगाहोह, पक्खियं पडिकमणं सम्मत्तं, अवसेसं देवसियं भणेमि० पछी वांदणां देवसिना देवा, अब्भुडिओ खमाववो, पछी आयरिय उवज्झाए कही, नवकार, करेमिभंते. इच्छामि ठामि काउस्सग्गं० तस्स उत्तरी० अन्नत्थ० कही बे लोगस्सनो काउस्सग्ग करी प्रगट लोगस्स कही, सव्वलोए अरिहंत चेइआणं० कही एक लोगस्लनो काउस्सग्ग पारी, पुख्खरवरदीवड्ढे० कही, एक लोगस्सनो काउस्लग पारी, Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५५ सिद्धाणं बुद्धाणं कही मुहपत्ति दृष्टिप जोइ वांदणां देवां, पछी सामायिक, चड़विसत्थो, वांदणां, पडिक्कमणु, काउस्सग्ग, पच्चक्खाण कर्तुं छे जो. पछी इच्छामो अणुसहिं नमो खमासमणाणं, नमो दुर्वाररागादि० कही, नमुत्थुणं कही, खमासमण द स्तवनं संदिसापमि, बीजे खमासमणे स्तवनं भणेमि, एम कही नवकार गणी, अजितशांति स्तवन बोलवु (कहेतुं ) ४६ अथ अजितशांतिस्तवनम्. x अजिअं जिअ सव्वभयं *, संतिं च पसंतसव्वगयपावं | जयगुरु संतिगुणकरे, दोवि जिगवरे पणिवयामि ॥ १ ॥ ( गाहा ) + पूर्वे श्रीवर्धमानजिन शिष्य श्रीनंदिषेणजी श्रीशत्रुंजय तीर्थे यात्रामाटे गयेला. त्यां मूळ प्रासादमां प्रथम तीर्थंकर श्रीआदिनाथने नमस्कार करीने पछी बे प्रासादमा रहेला अजितनाथ अने शांतिनाथने नमस्कार करी ते बन्ने प्रासादनी बच्चे कायोत्सर्गे रह्या. यथाशक्ति कायोत्सर्ग पूर्ण करीने श्रीअजितनाथ अशांतिनाथ जननी एक साथ स्तुति करी. आ विषे कोइ आचार्य एम कहे छे के- -आ श्रीनंदिषेणजी मुनि श्री नेमिनाथना शिष्य हृता, अने तेमणे उपर प्रमाणे बे प्रासादनी बच्चे रहीने आ स्तवन कर्यु छे. ते बाबत श्रीशत्रुंजय महाकल्पनेविषे कधुं छे के–“नेमिवयणेण जत्तागरण जहिं नंदिसेणगणिवरणा | विडिओ अजिअसंतिथओ, जयउ तयं पुंडरिअं तित्थं ॥१॥" — श्रीनेमिनाथना वचनवडे यात्राने माटे गयेला नंदिषेण नामना गणिपतिए एटले गणधरे ज्यां रहीने अजितनाथ अने शांतिनाथनुं स्तवन कर्यु छे, ते श्रीपुंडरीक तीर्थ जय पामो." आ प्रमाणे आ स्तवनना कर्ता श्रीनंदिषेणने श्रीनेमिनाथना शिष्य पण कहे छे. सत्य वात तो ज्ञानीगम्य छे. * १ भय सात प्रकारे छे ते आ प्रमाणे - इहलोक भय, २ परलोक भय, ३ आदान भय, ४ अकस्मात् भय, ५ आजीविका भय, ६ मरण भय अने ७ अपकीर्ति Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ शब्दार्थ:अजिअं-अजितनाथ गय-रोग गुणकरे-गुणना करना। जिअ-जीत्या छे पावं-पाप जिणवरे-जिनेश्वरोने भयं-भयने जय-जयपामो पणिवयामि नमस्कारपसंत-शांत थया छे संति-शांतिना करूं छु . भावार्थ-इहलोक भय १, परलोक भय २, आदान भय ३, अकस्मात् भय ४, आजीविका भय ५, मरण भय ६, अने अपकीर्ति भय ७, ए साते भयने जितवावाळा श्रीअजितनाथ तथा सर्व रोग अने पापनो नाश करनार श्रीशांतिनाथ ए बन्ने जिनेश्वरो जगतना गुरु एटले धर्मतत्त्वना उपदेशक अने शांतिने करनारा छे, तेमने हुं नमस्कार करुं छु. १. ववगयमंगुलभावे, तेहं विउलतवनिम्मलसहावे । निरुवममहप्पभावे, थोसामि मुदिट्ठसम्भावे ॥२॥ (गाहा) शब्दार्थ:ववगय-नाश थयो छे तब-तपवडे सु-रुडी रीते मंगुल-मोहभाव जेमनो निम्मल-निर्मळ छे दिट्ठ-दीठी छे ते-ते बन्ने प्रभुओनी सहावे-स्वभाव जेमनो सब्भावे-उतानिरुवम-निरूपम भावो विउल-विस्तीर्ण महप्पभावे-मोटो प्रभाव थोसामि-स्तुति करीश | Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३५७ भावार्थ-जेमनो अशुभ परिणाम नाश पाम्यो छे, उग्र तपवडे जेमनो स्वभाव निर्मळ थयेलो छे, जेमनो प्रभाव उपमा रहित अने मोटो छे तथा जेमणे यथार्थ तत्त्वोने संपूर्ण रीते जाण्या छे, ते श्रीअजितनाथ अने शांतिनाथनी हुं स्तुति करीश. २. सबदुक्खप्पसंतीण, सयपावप्पसंतिणं । सया अजिअसंतीणं, नमो अजिअसंतिणं ॥३॥ (सिलोगो) शब्दार्थ:सच-बधां दुक्ख-दुःखनी पसंतिणं-शांति छे जेमने सया-हमेशां अजिअ-नहीं जिताय संतिणं-शांतिने धारणएवा करनारा भावार्थ-सर्व दुःखथी रहित, सर्व पापथी रहित, कोइथी जीताय नहीं तेवा अने शांतिने धारण करनार एवा श्रीअजितनाथ अने शांतिनाथने नमस्कार थाओ. ३ अजिअजिण ! सुहप्पवत्तणं, तव पुरिमुत्तम ! नामकित्तणं । तह य धिइमइप्पवत्तणं, तव य जिणुत्तम ! संति !कित्तणं ॥४॥ (मागहिआ) शब्दार्थःमुह-सुख प्पवत्तणं-करनारुं छे तव-तमारं पुरिमुत्तम-पुरुषोने नामकित्तणं-नामकीर्तन य-तथा विषे उत्तम जिणुत्तम हे जिनोत्तम संति- शांतिनाथ तह-तथा धिइ-धीरज मइ-मति Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ भावार्थ - हे पुरुषोत्तम अजितनाथ ! तथा हे जिनोत्तम शांतिनाथ ! तमारा बन्नेनुं नाममात्र कीर्तन करवाथी ज प्राणीओ सुख, धीरज अने बुद्धिने पामे छे. ४. किरिआविहिसंचिअकम्मकिलेसविमुक्खयरं, अजिअं निचिअं च गुणेहिं महामुणिसिद्धिगयं । अजिअस्स य संतिमहामुणिणो वि अ संतिकरं, सययं मम निव्वुइकारणयं च नमसणयं ॥ ५ ॥ (आलिंगणयं) शब्दार्थःकिरिआविहि-क्रि- संचिअ - एकठा करेला कम्म-कर्म याना विधान वडे किलेस - कषायथी अथवा विमुक्खयरं - विशेष • कर्मना क्लेशथीx नमंसणयं - नमस्कार निव्वुइ - निर्वृत्तिनुं निचिअं- परिपूर्ण करीने मूकावनार सययं - हंमेशा गयं - पामेला, मम-मारी कारणयं - कारण थाओ भावार्थ - श्री अजितनाथने तथा महामुनि श्री शांतिनाथने करेलो नमस्कार हमेशां मने मोक्षनुं कारण थाओ. ते नमस्कार कायिकी आदिक * कायिकी वगेरे पांच अथवा पच्चीश क्रिया तेनुं स्वरूप नव तत्त्वथी समजवु. x अहीं कषायनुं कर्ममाहे अंतर्गतपणुं छे तो पण संसारना कारणने विषे कषायनी मुख्यता छे, ए जणाववा माटे कषायनुं जूदुं ग्रहण क छे. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रियाथी करेला कर्म अने कषायथी अथवा कर्मना क्लेशथी मूकावनार छे, आ नमस्कारनो प्रभाव एटलो बधो छे (के बीजा अन्य देवोना नमस्कारथी जीताय तेवो नथी एटले के अन्य देवादिकना नमस्कारथी आ नमस्कार अधिक फळ आपनार छे) तथा आ नमस्कार समग्र गुणोवडे युक्त छे, महा योगीओनी अणिमादिक अष्ट सिद्धिने आपनार छे, अने शांतिने आपनार छे. ५. पुरिसा ! जइ दुक्खवारणं, जइ य विमग्गह सुक्खकारणं। अजिअं संतिं च भावओ, अभयकरे सरणं पवजहा ॥६॥ ___ (मागहिआ) * अणिमादिक आठ सिद्धिओ आ प्रमाणे अणिमा-झीणा छिद्रमा प्रवेश करवानी शक्ति १, महिमा-मे मोटुं शरीर करवानी शक्ति २, गरिमा-तोलमां अत्यंत भारे नी शक्ति ३, लघिमावायुथी पण हलका थवानी शक्ति ४, प्राप्ति-पृथ्वीपर उभा रहीने आंगळीवडे मेरुना शिखरने तथा सूर्यादिकने स्पर्श करवानी शक्ति ५, प्राकाम्य-जळमां स्थळनी जेम चाले अने स्थळमां जळनी जेम डूबकी मारीने नीकळे तेवी शक्ति ६, ईशित्व-स्थावर पण आज्ञा माने तेवी शक्ति अथवा तीर्थकर, चक्रवर्तीनी जेवी ऋद्धि विस्तारी शके ७, अने वशित्व-जीव अजीव सर्व पदार्थ वशमा रहे तेवी शक्ति, ८. Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० . १५ शब्दार्थ:पुरिसा-हे पुरुषो जइ-जो दुक्खवारणं-दुःखना विमग्गह-शोधता हो अभय-निर्भय निवारणने करे-करनारा भावओ-भावथी शरणं-शरण रूप पवज्जहा-अंगीकार करो भावार्थ:--हे प्राणीओ ! जो तमे दुःखना निवारणने एटले विनाशने तथा सुखना कारणने शोधता हो तो अभयने करनारा श्रीअजितनाथ तथा शांतिनाथने भावथी तेमना शरणने प्राप्त करो, ६. श्री अजितनाथनी स्तुति. अरइरइतिमिरविरहिअमुवरयजरमरणं, सुरअसुरगरुलभुयगवइपययपणिवइयं । अजिअमहमवि अ सुनयनयनिउणमभयकर, सरणमुवसरिअ भुविदिविजमहियं सययमुवणमे ॥७॥ (संगययं) शब्दार्थ:अरइ-दुःख रइ-समाधि तिमिर-अज्ञान विरहिअ-रहित उवरय-विनाश पाम्या छे जर-घडपण मरणं-मरण गरुल-सुवर्ण कुमार भुयग-नागकुमार वइ-पतिओए पयय-प्रयत्नथी पणिवइयं-नमस्कार करेला Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३६१ अहमवि अ-हुं पण सुनय-सुंदर नैगमनय-न्याय - आदि नय उपसरिअ-पामीने भुवि-पृथ्वी पर ज-उपजेला महियं-पूजेला निउण-डाह्यो दिवि-देवलोकमां उवणमे-नमस्कार करुं छु भावार्थ:-जे भगवान संयमने विषे अरति, असंयमने विषे रति अने अज्ञानवडे रहित छे, अथवा अरतिमोहनीयना उदयथी थयेलो चित्तनो उद्वेग अने रतिमोहनीयना उदयथी थयेलो चित्तनो आनंद ए बन्ने सम्यक् ज्ञानने आच्छादन करनार होवाथी तेरूप अज्ञानवडे रहित छे. जे जरावस्था अने मरणथी मुक्त थया छे, अथवा 'उपरतजरम्' अने ' अरणं' एवो पदच्छेद करी जरा रहित तथा रणसंग्राम रहित एवो अर्थ करवो. तथा सुर एटले वैमानिक देव, असुर एटले भवनपति देव, गरुड एटले ज्योतिष्क देव अने भुजग एटले व्यंतर देवना अथवा सुर, असुर, सुवर्ण कुमार अने नागकुमारना इंद्रोए जेमने आदरथी नमस्कार कर्या छे, तथा जे सारी नीति अने न्यायने विषे निपुण छे, तथा जे अभयने करनारा छे, तथा जे मनुष्य अने देवोथी पूजित छे, ते अजितनाथनुं शरण लइने हुं पण तेमने सदा नमस्कार करूं छु. , श्री शांतिजिननी स्तुति. तं च जिणुत्तममुत्तमनित्तमसत्तधरं, अज्जवमद्दवखंतिविमुत्तिसमाहिनिहिं । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ३६२ संतिकरं पणमामि दमुत्तमतित्थयर, संतिमुणी मम संतिसमाहिवरं दिसउ (ऊ)॥ ८॥ (सोवाणयं) __ शब्दार्थ:जिणुत्तमं-सामान्य- उत्तम-उत्तम नित्तम-अज्ञान रहित __ केवळीमा उत्तम सत्तधरं-भाव यज्ञने. अज्जव-सरळता मद्दव-नम्रता धारण करनार विमुत्ति-निभिता खंति-क्षमा समाहिनिहि-समा- संतिकरं-शांतिना कर- पणमामि-नमस्कारधिना भंडार नारा करुं दमुत्तम-इन्द्रिय द- तित्थयर-तीर्थकर संतिमुणी-शांतिनाथ मन करवामां श्रेष्ठ मम-मने मुनि संति-शांतिवडे समाहिवरं-समाधि दिसउ-आपो रूपी वरदान भावार्थ-जे शांतिनाथ सामान्य केवळीने विषे उत्तम छे, जे ॥ हित एवा भावयज्ञने अथवा पराक्रमने धारण करनारा छे. जे आर्जव, मार्दव, क्षांति, निर्लोभता अने समाधिना निधान छे, जे शांतिने करनारा छे तथा जे इंद्रियो- दमन करवामां श्रेष्ठ अने तीर्थने करनारा छे, ते श्रीशांतिमुनिने हुं प्रणाम करूं छु, वळी ते शांतिमुनि मने शांति अने समाधिरूप वरदान आपो. ८. _श्रीअजितनाथनी स्तुति. सावत्थिपुव्वपत्थिवं च वरहत्थिमत्थयपसत्थविच्छिथनसंथियं, थिरसिरिच्छवच्छ मयगललीलायमाणवरगंधहत्थिपत्थाणपत्थियं Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संथवारिहं । हथिहत्थबाहु धंतकणगरुअगनिरुवहयपिंजरं पवरलक्खणोवचिअसोमचारुरूवं, सुइमुहमणाभिरामपरमरमणिज्जवरदेवदुंदुहिनिनायमहुरयरसुहगिरं ॥९॥ (वेड्डओ) शब्दार्थ: सावत्थि-श्रावस्ति पुव्वपत्थिव-प्रथमराजा वरहत्थि-श्रेष्टहाथीना मत्थय-मस्तकनी पसत्थ-प्रशस्त विच्छिन्न-विस्तीर्ण समान संथिय-संस्थान थिर-स्थिर सिरिच्छ-श्रीवत्सवाळु वच्छं-हृदय मयगल-मदोन्मत्त लीलायमाण-लीलायुक्त वरंगंधहत्थि-श्रेष्ठगध- पत्थाण-गति जेवी छे पत्थिअं-गति जेनी हस्तीनी - संथवारिहं-स्तुति ___ एवा, हत्थि-हाथीनी __करवाने योग्य हत्थ-सूंढ बाहु-हाथ धंत-धमेला कणग-सोनाना रुअग-घरेणा निरुवहय-स्वच्छ पिंजरं-देहवाळा पवर-श्रेष्ठ लक्खण-लक्षणोवडे उवचिअ-व्याप्त सोम-सौम्य चारु-सुंदर रूवं-रूप सुइसुह-कानने सुख मणाभिराम-मनने परमरमणिञ्ज-अतिर- करनार आनंदकारी मणीय देवदुंदुहि-देवदुंदुभिना निनाय-नाद करतां महुरयर-अत्यंत मधुर सुह-सुखकारक . गिरं-वाणी जेनी एवी पण Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ भावार्थ-जे प्रभु(दीक्षा लीधा पहेलां)श्रावस्ती-अयोध्या नगरोना राजा हता, हाथीना मस्तकनी जेवू सुंदर अने विशाळ जेमनुं संस्थान हतुं, जेमना हृदयमां निश्चळ श्रीवत्स हतुं, जेमनी चाल उत्तम हाथीनो चाल जेवी हती, जे प्रशंसाने लायक छे, जेमनी भुजाओ हाथीनी सूंढ जेवी लांबी हती, जेमना शरीरनो वर्ग तपावेला सुवर्गना अलंकार जेको पीळो हतो, जेओ उत्तम लक्षणोवडे सहित हता, जेमनुं रूप कांतिवाढू अने मनोहर हतुं, जेमनी गंभीर वाणो कानने सुख कारक, मनने आनंद दायक अने अत्यंत रमणीय एवा उत्तम देवदुंदुभिना नादथी पण अतिमधुर हती. ९ . अजिअ जिआरिगणं, जिअसन्नभयं भवोहरि। पणमामि अहं पयओ, पावं पसमेउ मे भयवं! ॥१०॥ (रासालुद्धओ) शब्दार्थ:जिआरिगणं-जीत्या छे जिअसबभयं-जीत्या छे भवोहरि-संसा शत्रुना समूह जेमणे सर्वभय जेमणे एवा रनी परंपराना पणमामि-प्रणाम करूं छं पयओ-आदरथी शत्रुरूप पावं-पापने पसमेउ-शांत करो मे-मारा भयवं-हे भगवान! भावार्थ-जेमणे मोहादिक शत्रुना समूहने जीत्या छे, जेमणे सर्व प्रकारना भयने जीत्या छे, तथा जे संसारनी परंपराना शत्रु छेनाश करनार छे, ते श्रीअजितनाथने हुं आदर पूर्वक प्रगाम करूं छु, तो हे श्रीअजितनाथ भगवान ! मारा पापने दूर करो. १०. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६५ श्रीशांतिनाथनी स्तुति. कुरुजणवयहत्थिणाउरनरीसरो पढमं तओ महाचक्वट्टिमोए महप्पभावो, जो बावत्तरिपुरवरसहस्सवरनगरनिगमजणवयवई बत्तीसारायवरसहस्साणुयायमग्गो। चउदसवररयणनवमहानिहिचउठिसहस्सपवरजुबईण सुंदरवई, चुलसीहयगयरहसयसहस्ससामी छन्नवइगामकोडिसामी आसी जो भारहम्मि भयवं ॥११॥ (वेढ्ढओ) शब्दार्थकुरुजणवय-कुरुदेशना हत्थिणाउर--हस्ति- नरीसरो-नगरनाराजा पढम--प्रथम नापुर तओ-पछी महाचकवाट्टि--म्होटा भोए-भोगवता महप्पभावो-म्होटा प्रभाचक्रवर्तिना जो-जे ववाळा बावत्तरि-व्होतेर पुरवर--घरवडे श्रेष्ठ सहस्स-हजार नगर-नगरो १ निगम-निगम २ जणवय-देशना वई-पति-स्वामी बत्तीस-बत्रीश रायवर-राजाओमां श्रेष्ठ अणुयाय-अनुयायी मग्गो-मार्ग चउदस-चौद वर--श्रेष्ठ रयण-रत्नो३ नव-नव४ महानिहि--महानिधान चउसद्धि-चोसठ पवर--श्रेष्ठ १ जेमा कर न होय ते. २ महोटा व्यापारीओनी दुकानवाळा स्थाने व्यापारना स्थानो, Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जुवईण--स्त्रीओनां हय--घोडा सुंदर--सुदर गय- हाथी चुलसी-चोराशी रह-रथ ३ चौद रत्नो दरेक चक्रवर्तिने होय ते आ प्रकारे जाणवा-१ चक्ररत्न ते धनुष्य प्रमाण होय, वैरिनुं मस्तक छेदे. २. छत्ररत्न ते धनुष्य प्रमाण होय, चक्रवर्तिना हस्त स्पर्शे बार योजन विस्तारवाळु थाय, जे उत्तरना ग्लेच्छ राजानां देवताए वरसावेला वर्षादने रोकवा समर्थ थाय, ३ दंडरत्न ते धनुष्य प्रमाण होय, वांकी भूमिने सरखी करे, जरुर पड्ये हजार योजन जमीन खोदे. ४ चर्मरत्न बे हाथ, होय, जरुर पडये चक्रवर्तिना स्पर्श बार योजन लांबु थाय, तेमां सवारे शालि प्रमुख धान्य वाव्यां होय ते सांजे उपभोग योग्य तैयार थाय. ५. खड्गरत्न बत्रीश आंगळy होय ते संग्राममां अत्यंत शक्तिवंत होय. ६ कांगिणीरत्न चार अंगुल प्रमाण होय तेना वडे वैताढ्य पर्वतनी गुफामां बंने बाजु ओगणपचास प्रकाश आपनारा मंडळ करे. ७ मणिरत्न चार अंगुल लांबु बे आंगळ पहोळ होय, ते छत्र रत्नना तुंबा उपर बांध्यु छतुं बार योजन प्रकाश करे अने हाथे के मांथे बांध्यु छतुं समस्त रोगने हरे. ए सात रत्न एकेन्द्रिय जातिना छे अने बीजा सात पंचेद्रिय जातिना छे. ८ पुरोहितरत्न ते शांति कर्म करे. ९ अश्वरत्न, १० गजरत्न ए बंने महापराक्रमवाळा होय. ११ सेनापतिरत्न ते चक्रवर्तिनी सहाय विना गंगां सिंधुनी बाहेरनी पासेना चार खंडने जीते. १२ गृहपतिरत्न ते गृहनी चिंता राखे. १३ वाधिरत्न ते मकानो बांधे, लश्करना पडाव करावे, वैताब्यनी गुफामां आवेली उन्मगा अने निम्नगा Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ सय -सो सहस्स -- हजार छन्नवइ-- छन्नु गाम-गाम नदीना पूल बांधे. इत्यादि बांधकाम करे. १४ स्त्रीरत्न अत्यंत अद्भूत रूपवंत चक्रवर्तिने भोग योग्य होय. ए प्रत्येक रत्न एक हजार यक्षोए अधिष्ठिने होय अने बे हजार यक्ष चक्रीनी बे बाहुना अधिष्ठित होय एम १६ हजार यक्ष चक्रवर्तिना सेवक होय. चक्र, दंड, छत्र अने चर्म ए चार आयुधशाळामां उत्पन्न थाय. खड्ग, कांगिणी अने मणि एत्रण भंडारमां उत्पन्न थाय. गज अने अश्व वैताढ्य पर्वतमा उपजे, स्त्री रत्न क्षत्रीय राजाने घेर थाय अने बाकीना चार चक्रीना नगरने विषे उत्पन्न थाय. ४ नव निधाननुं स्वरूप आ प्रमाणे जाणवु - १ ग्राम ( फरती वाडी होते ) आकर ( मीटुं पाके ते ), नगर ( राजधानी थाय ते ), पाटण ( जळ अने स्थळना मार्ग होय ते ), द्रोणमुख ( ज्यां जळमार्गज होय ) मंडप ( अढी गाउ फरतां गाम न होय ते ), सैन्य अने गृहनी मांडणी ए सर्व नैसर्पि नामे निधानने विषे होय. २ गणित, गीत, चोवीश जातना धान्यना बीज तथा तेनी उत्पत्तिना प्रकार ए सर्व पांडुक विधानमां होय. ३ सर्व जातना आभरण, अश्व तथा हाथीना आभरण, तेना विधि पिंगलक निधानने विषे होय. ४ चक्रवर्तिना चौद रत्न विगेरे सर्वरत्न चोथा निधानना योगे थाय. केंटलाएक कहे छे के आ निधानथी ते त्नो महा दिप्तिवंत थाय वस्त्रनी उत्पत्तिनां प्रकार रंगनी उत्पत्ति, सात धातु, वस्त्र धोवानी रीत वगेरे महापद्म निधानमां होय. ६. समस्त काळ ज्ञान ( ज्योतिष्क ), सामी - स्वामी कोडि-क्रोड • Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसी-हता. जो-जे . भारहम्मि-भरतमा भयवं-भगवान् तं संतिं संतिकर, संतिण्णं सव्वभया । संति थुणामि जिणं संति विहेउ मे ॥ १२ ॥ (रासानंदियं) ... शब्दार्थसंति-उपशम रूप संतिकरं-शांतिने करनारा संतिण्ण-रुडी रीते तर्या सव्वभया-बधा भय संति-शांतिनाथने थुणामि-स्तवु छु जिणं-जिनने संति-शांति - विहेउ-करवाने ए-संबोधन अर्थमा (हे उत्तम ! पुरुष) तीर्थकरादिना वंशादिकनुं कथन, शिल्प विद्या, कर्षण, (खेती ), वाणिज्य ( वेपार ) वगेरे काळ विधानमा होय. ७ लोढुं, सोनु, मणि, मोती, स्फटिक अने प्रवाळाना समूह महाकाळ निधानमा होय, ८ शूरवीर योद्धानी उत्पत्ति, हथीयार वगेरे युद्ध सामग्री, युद्धनीति, दंडनीति, ए माणवक निधानमा होय. ९ नाट्यविधि, गद्य पद्यनी विधि ए महाशंख निधानमा होय. आ नवे निधान उत्सेधांगुले आठ योजन उंचा, नव योजन पहोळा अने बार योजन लांबा पेटीना आकारे गंगानदीना मुख आगळ सदा रहे छे. चक्रवर्ति उत्पन्न थइ छ खंड साधीने ज्यारे पाछा वळे त्यारे तेनी साथे आवी चक्रवर्तिनी नगरीमां पाताळमां रहे. आ निधानो विविध रत्नमय छे अने घणा धन अने रत्नादि स्मृद्धिए करी सहित छे. भानुं विशेष वर्णन जोवानी इच्छावाळाए प्रवचनसारोद्धारादि ग्रंथ जोवा. Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T भावार्थ-श्री शांतिनाथ स्वामी प्रथम तो कुरुदेशमां हस्तिनापुर नगरना राजा हता. पछी छ. खंड . भरतक्षेत्रना मोटा चक्रवर्ती थया. ते वखते महाप्रभाववाळा ते स्वामी बहोतेर हजार नगरों, निगमो अने देशोना स्वामी थया, बत्रीश हजार मुकुटबद्ध राजाओ तेना सेवक हता. चौद महारत्नो, नव महानिधि अने चोसठ हजार श्रेष्ठ स्त्रीभोना ते सुंदर स्वामी हता. चोराशी लाख भव, हस्ती अने रथना तथा छन्नू करोड गामना स्वामी आ भरत क्षेत्रमा थया. ११. उपशमरूप, शांतिने करनारा अने सर्व भयथी मुक्त थयेला ते श्री शांतिनाथनी हुँ स्तुति करु छं. ते भगवान मने शांति आपो. १२. . श्रीअजितनाथनी स्तुति. इक्खाग विदेहनरेसर नरवसहा मुणिवसहा,ॐ नवसारयससि Xसकलाणण विगयतमा विहुअरया। अजि उत्तम तेअगुणेहि : महामुणि अमिअबला विउलकुला, पणमामि ते भवभयमूरण जगसरणा' मम सरणं ।। १३॥ (चित्तलेहा) * मुणिवसहानव ए प्रकारे पद लइए त्यारे “ मुनिपसभानव इन्द्रोनी सभाने विषे स्तुति थाय छे जेनी एवा " आवो अर्थ थाय छे. x सकल शब्दनो अर्थ पूर्ण लइए त्यारे चंद्रनुं विशेषण लेवु पडे ते विशेष्यनी पहेला आवq जोइए पण प्राकृतने लीधे पर निपात थाय छे. :-गुण बे प्रकारना छे-रूप वगेरे बाह्य अने ज्ञानादि ते अभ्यंतर. • जगसरण अने अमम (निर्ममत्व) एवा वे पद पण नीकळे छे. २४ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थ:इक्खाग-हे इक्ष्वाकु- विदेह-विदेहना नरवसहा-मनुष्योमा. . कुलवंश्य मुणिवसहा-मुनिनव-नवीन . ओमां श्रेष्ठ सारय-शरद् ऋतुना ससि-चंद्र सकलाणण-कलायुक्त विगयतमा-अज्ञानविहुअरया-कर्मरूप. मुखवाळा - रहित : ... रजरहित अजि-हे अजित उत्तम-उत्तम तेअ-तेजवाळा गुणेहि-गुणोवडे महा-मोटा मुणि-मुनिवडे . अमिअ-माप वगरना बला-बळवाळा पणमामि-नमस्कार . ते-तमोने ... भव-संसारना करूं छं. भय-भयने मूरण-तोडनारा जग-जगतना सरणा-शरण मम-म्हारा सरणं-शरण भावार्थ:-हे इक्ष्वाकु वंशमां जन्मेला ! हे विदेह देशना राजा! हे मनुष्योमा प्रधान ! हे मुनिओमां श्रेष्ठ ! हे शरद् ऋतुना पूर्ण चंद्र जेवा मनोहर मुखवाळा ! हे तमोगुण-अज्ञान अने कर्मरज रहित ! हे तेजस्वी गुणोबडे अथवा तेज अने गुणोवडे उत्तम ! अथवा गुणोवडे हे उत्तम तेजवाळा ! हे महामुनिओथी पण जाणी न शकाय तेवा सामर्थ्यवाळा ! हे विशाळ कुळवाळा! हे संसारना भयनो नाश करनार ! एवा हे अजितनाथ ! हुं तमने प्रणाम करुं छं. केमके तमे जगतना Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शरण छो, तेथी मारा पण शरण थाओ. अथवा 'जगसरण अमम' एवो पदच्छेद करी हे जगतना शरण अने हे ममता रहित एवो मर्थ करवो १३. श्रीशांतिनाथनी स्तुति. देवदाणविंदचंदसूरवंद हतुजिठपरम, लहरूव धंतरूप्पपट्टसेयसुद्धनिद्धधवल । दंतपंति संति सत्तिकित्तिमुत्तिजुत्तिगुत्तिपवर, दित्ततेअवंद घेअ* सव्वलोअभाविअप्पभाव अ पइस मे समाहिं ॥१४॥ (नारायओ) शब्दार्थ:देव-देव दाणव-असुरना . इंद-इंद्र चंद-चंद्र सूर-सूर्यने वंद-वंदनयोग्य ह-आरोग्य वाळा तुह-प्रीतिवाळा जि-प्रशस्य परम-अत्यंत लह-कांतियुक्त रूव-रूपवाळा धंत-धमेल रूप्प-रूपाना पट्ट-पाटा सेय-सफेद सुद्ध-निर्मळ निद्ध-कोमळ . * धेयसव्वलोय पोषण करवा योग्य छे सर्व लोक जेना वडे एवा, भाविअप्पभाव ( भावित आत्मभावः) जाण्यो छे आत्मारूप पदार्थ जेणे एवा ( आत्मगुणमां रक्त ) अने णेय (नेतः) स्वामि एम पण पदो नीकळे छे. Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घवल-उज्ज्वळ दंत-दांतनी पंति-पंक्ति सत्ति-शक्ति कित्ति-कीर्ति मुत्ति-निर्लोभता जुत्ति-युक्ति गुत्ति-गुप्ति छे पवर-श्रेष्ठ दित्त-देदीप्यमान तेज-तेजना वंद-समूहवाळा घेअ-ध्यानकरवा योग्य माविअ-जाण्यो छे प्पभाव-प्रभाव णेअ-जाणवा योग्य पइस-आपो . मे-मने समाहि-समाधि भावार्थ-सुर असुरना इंद्रोए अने चंद्र सूर्ये दिवा योग्य ! हर्षित, प्रसन्न श्रेष्ठ, उत्कृष्ट अने पुष्ट स्वरूपवाळा ! तपावेली रूपानी पाट जेवी श्वेत, निर्मळ, चकचकित अने उज्ज्वळ दंतश्रेणिवाळा ! शक्ति, कीर्ति, निलेभिता, युक्ति अने गुप्तिवडे सर्वोत्तम ! देदीप्यमान तेजना समूहवाळा ! ध्यान करवा योग्य ! सर्व लोकमां प्रसिद्ध महिमावाळा ! तथा जाणवा योग्य ! एवा हे श्री शांतिनाथ स्वामी ! मने समाधि एटले चित्तनी शांति आपो. १४. श्रीअजितनाथनी स्तुति. विमलससिकलाइरेअसोम, वितिमिरमरकराइरेअतेयं । .xतिअसवइगणाइरेअरूवं, धरणिधरप्पवराइरेअसारं ॥१५॥ (कुसुमलया) x सर्व देवता मळी पोतानुं रूप एकत्र करी भगवंतनी रचली आंगळी पासे मूके तो सुवर्ण अने तांबाना रूपमा जेटलो अंतर लागे तेटलो भगवंतनी टचली आंगळी अने देवताना एकत्र करेल रूपमा लागे. Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दार्थविमल-निर्मळ ससि-चंद्रनी कला-कळाथी अइरेअ-वधारे सोमं सौम्यता वाळा वि-रहित तिमिर-अंधकार सूर-सूर्यना कर-किरण तेयं-तेजवाळा तिअस-देवना वइ-स्वामी (इंद्र) गण-समुदाय , रूवं-रूपवाळा धरणि-पृथ्वीने . धरप्पवर-धारण- असारं-स्थिरतावाळा करनारा (मेरु) भावार्थ-हुं श्री अजितनाथ जिननी स्तुति करूं छु. ते प्रभु निर्मळ चंद्रनी कळाथी पण अधिक सौम्यतावाळा छे, वादळाना आवरण रहित सूर्यना तेजथी पण अधिक तेजस्वी छे, इन्द्रोना समूहथी पण अधिक रूपवाळा छे अने मेरुथी पण अधिक सारवाळा छे. १५.. सत्ते असया अजिअं, सारीरे अ बले अजि।। तवसंजमे अ अजिअं, एस थुणामि जिणं अजिअं ॥१६॥ (भुअगपरिरिंगिअं) शब्दार्थसत्ते-सत्त्वमां अ-वळी सया-हमेशां सारीरे-शरीर संबंधी बले-बळमां तव-तपमा संजमे-संयममां एस-ए प्रकारे धुणामि-स्तबु जिणं-जिनने | Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ भावार्थ- वळी ते प्रभु सदा आत्मबळमां कोइथी जीताया नथी, शरीरना बळमां जीताया नथी, अने तप तथा संयममां पण जीताया नथी. ए प्रकारे हुं अजितनाथ जिनने स्तवुं कुं. १६. श्रीशांतिनाथनी स्तुति. तं नवसरयससी, X सोमगुणेहिं पावइ न * संयम सत्तर प्रकारे छे ते आ प्रमाणे पांच इन्द्रिय अने चार कषायनो जय, पांच अवतनो त्याग अने त्रण योग ( मन, वचन, काया) नुं निवर्तन. संयमना १७ प्रकार बीजी रीते पण छे ते आ प्रमाणे:१ पृथ्वीकाय संयम, २ अपूकाय संयम, ३ तेउकोय संयम, ४ वाउकाय संयम, ५ वनस्पतिकाय संयम, ६ बे इंद्रिय संयम, ७ तेइंद्रिय संयम, ८ चौरिंद्रिय संयम, ९ पंचेंद्रिय संयम, १० प्रेक्ष्य ( जोवुं ) संयम, ११ उपेक्ष्य (उपेक्षा करवी ) संयम, १२ प्रमार्जना संयम, १३ अपहृत्य ( परठववुं ) संयम, १४ मन संयम, १५ नचन संयम, १६ काय संयम अने १७ अजीव ( उपकरण ) संयम. N x चंद्र, सूर्य, इंद्र अने मेरुपर्वत पोताना सौम्यता, तेज, रूप अने स्थैर्य गुणवडे करीने भगवंतना सौम्यता आदिगुणनी समानता प्राप्त करी शकता नथी एटले के भगवंतना गुणो अधिकतर छे. : अह तत् शब्दे पूर्वोक अजितनाथ लीधा छे. परंतु हवे पछी शांतिनाथ कहेवा एम वृद्धो कहे छे. केमके अजितनाथनी स्तुति आवाज गुणोबडे प्रथम कराइ गइ छे तेमज तत् शब्दनो अर्थ वक्ष्यमाण पण करी शकाय छे. Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७५ तेअगुणेहिं पावइ न तं नवसरयरवी। रूवगुणेहिं पावइ न तं तिअसगणवई, सारगुणेहिं पावइ न तं धरणिधरवई ॥ १७ ॥ . (खिजिययं) शब्दार्थ:सोम-सौम्य गुणेहि-गुणवडे पावइ-पामे न नहीं नव-नवीन सरय-शरदऋतुना ससी-चंद्र रवी-सूर्य सार-स्थिरताना ___ भावार्थ-शीतळताना गुणोवडे शरद् ऋतुनो पूर्णचंद्र पण श्री शांतिनाथनी तुलनाने पामतो नथी, तेजना गुणवडे शरद् ऋतुनो सूर्य पण तेमनी तुलनाने पामतो नथी, सुंदरताना गुणवडे इन्द्र पण तेमनी तुल्यताने पामतो. नथी अने दृढताना गुणवडे सुमेरु पर्वत पण ते प्रभुनी तुल्यताने पामतो नथी अर्थात् प्रभुना ते ते शीतलतादिक गुणो चंद्रादिकथी अधिक छे. १७. *तित्थवरपवत्तयं तमरयरहिअं, धीरजणथुअच्चिअं चुअकलिकलुसं । x पामइ एवो पाठ होय त्यां पण प्रामत गत्यर्थक होवाथी एवोज अर्थ थाय छे. __. * तित्थयर एवो पाठ पण छे त्यां तीर्थतर एटले प्रकृष्ट तीर्थ एवो अर्थ थाय छे. Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . संतिमुहप्पवृत्तयं तिगरणपयओ, संतिमहं महामुणि सरणमुवणसे ॥ १८ ॥ (ललिअयं) शब्दार्थःतित्थवर-श्रेष्ठ तोर्थना पवत्तय-प्रवर्तक तम-अज्ञान रूपी अंधकार रय-कर्मरजथी रहियं-रहित धीर-धीर जण-पुरुषवडे थुअ-स्तवाया अच्चिअं-पूजायेल चुअ-गयेलां कलि -वैर कलुसं-मलिनता संति-शांति (मोक्ष) सुह-सुखना तिगरण-त्रिकरण पयओ सावधान उवणमे-लउं छै (मन-वचन-काया) भावार्थ-उत्तम धर्मतीर्थने स्थापन करनार, अज्ञान अने कर्मरजथी अथवा तमोगुण अने रजोगुणथी रहित, विद्वान जनोए स्तवेला अने पूजेला, क्लेश अने मलिनताथी रहित एवा तथा शांति अने सुखने आपनारा महामुनि श्री शांतिनाथ भगवान- मन, वचन अने कायाथी हुं शरण लउं छु. १८. ___x शांतिसुखप्रवृत्तदं शांति सुखने माटे प्रवर्तनार (संयमी ) ने पालन करनारा एवो पण अर्थ थाय छे. Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ श्री अजितनाथनी स्तुति. विणोणयसिररइअंजलिरिसिगणसंथुअं थिमि,x +विबुहाहिवधणवइनरवइथुअमहिअचिअं बहुसो । अइरुग्गयसरयदिवायरसमहिअसप्पभं तवसा, गयणंगणवियरणसमुइअचारणवंदिअं सिरसा ॥ १९॥ (किसलयमाला) शब्दार्थ: विण-नियम ओणय-नमेला सिर-मस्तकने विषे रइ-रचेली अंजलि-हाथजोडी रिसि-ऋषिओना गण-समुदाये संथुअं-स्तवायेल थिमि-निश्चळ विबुह-इंद्रना अहिव-स्वामी धणवइ-कूबेर नरवइ-चक्रवर्ती बहुसो-घणीवार अइर-तत्काळ उग्गय-उगेल सरय-शरद् ऋतुना दिवायर-सूर्य समहिअ-खूब सप्पभं-शोभनिक तवसा-तपवडे गयणंगण-आकाशने विषे कांतिवाळा वियरण-विचरवावडे समुइअ-एकठा थयेल चारण-चारण मुनि वंदिअं-वंदायेला सिरसा-मस्तकवडे X मनना शुभ अशुभ विकल्परहित होवाथी तरंग विनाना समुद्र जेवा निर्मल. - + विबुध एटले पंडित-सारा कवि तेना अधिप एवो अर्थ पण थाय छे. | Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ भावार्थ-विनयथी नमेला मस्तकपर अंजळि करीने मुनिओना ('जंघाचारण अने विद्याचारण ) समूहे जे प्रभुनी स्तुति करी छे, जे कदापि चलायमान नथी, देवेंद्रोए, कुबेर विगेरे दिकूपाळोए अने चक्रवर्तीओए जेमनी वचनवडे स्तुति करी छे, कायावडे जेमने नमस्कार कर्या छे अने पुष्पादिकवडे जेमनी पूजा करी छे, जे तपवडे तत्काळ उदय पामेला शरद् ऋतुना सूर्यथी पण अधिक कांतिवाळा छे, आकाशने विषे विचरवाना क्रमथी एकठा थएला चारण मुनिओए मस्तक नमावी जेमने वंदन कयु छे. १९. असुरगरुलपरिवंदिअं, किन्नरोरगनमंसि। कदेवकोडिसयसंथुअं, समणसंघपरिवंदिरं ॥२०॥ (सुमुहं ) शब्दार्थ:परिवंदिअं-समस्त प्रकारे नमंसि-नमस्कार समण-श्रमण वंदाएला करायेला . संघ-संबवडे भावार्थ-असुरकुमार अने सुवर्णकुमारोए जेमने समग्र रीते वंदना करी छ, किन्नर अने नागकुमारोए जेमने नमस्कार कर्या छे, सेंकडो करोड देवोए जेमनी स्तुति करी छे, श्रमणसंघ-साधुसमुदाय जेमने निरंतर वंदन करे छे. २०. १ चारण मुनि मुख्य बे प्रकारना छे-जंघाचारण अने विद्याचारण, ए सिवाय बीजा पण अनेक प्रकारना चारण मुनिओ ज्योतिरश्मि चारण विगेरे श्री प्रवचनसारोदारादिमां बतावेला छे. * जघन्यथी पण एक क्रोड देवता भगवंतनी सेवामां होय छे. Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७९ अभयं अण, Xअरयं अरुयं । अजियं अजियं, पयओ पणमे ॥ २१ ॥ ((विज्जुविलसिअं ) ( त्रिभिर्विशेषकम् ) शब्दार्थः अरुयं-रोगरहित + अहं पापरहित अरयं- आसक्ति रहित पयओ - आदरवडे पणमे -नमुं लुं. भावार्थ - जे भयरहित, पापरहित अने रोगर हत छे, तथा जे बाह्य अभ्यंतर शत्रुधी कदापि जीताया नथी, ते श्री अजितनाथस्वामीने हुं आदरपूर्वक प्रणाम करूं छं. २१. श्री शांतिनाथनी स्तुति. आगया वरविमाणदिव्वकणगरहतुरयपहकरसएहिं हुलिअं । ससंभमोअरणखुभिअलुलियचल कुंडलंगयतिरीड सोहंतमउलिमाला ||२२|| (ओ) शब्दार्थ वरविमाण - श्रेष्ठ विमान दिव्वकणगरह - मनोहर सुवर्ण मय रथ तुरय- अश्वना पहकरसएहिं - सेंकडो समूह वडे x अरजं कर्मरज रहित एवो अर्थ पण थाय छे. + पांशयति-मलिनयति तत् पापं आत्माने मलिन करे ते पाप... Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० हुलिअं-शीघ्रपणे | चल-चंचल एवा आगया-आवेला कुंडलंगयतिरीड-कुंडळ, अंगद ससंभमोअरण-संभ्रम सहित -बाजुबंध, किरीट-मुगट _एटले उतावळे उतरवाथी सोहंतमउलिमाला-शोभती मुखुभिअ-क्षोभ पामे छते कुटनी माळाओ छे जेमनी लुलिय-डोलता एवा, भावार्थ-आ चार श्लोकोवड़े भगवानने देवादिक वंदन करवा आवे छे ते केवी रीते ? विगेरे बतावीने पछी आचार्य वंदना करी छे ते आ प्रमाणे-देवो तथा असुरो श्रेष्ठ विमान, मनोहर सुवर्णना रथ अने अश्वना समूह लइने शीघ्रपणे आवे छे, ते वखते उतावळथी उतरतां क्षोभ पामीने डोलता अने चंचळ कुंडळ, बाजुबंध, मुगट अने शोभती मुगटनी माळाओथी तेओ देदीप्यमान देखाय छे. २२. नं सुरसंघा सासुरसंघा वेरविउत्ता भत्तिसुजुत्ता, आयरभूसिअसंभमपिंडिअसुटुसुविझिअसव्वबलोधा । उत्तमकंचणरयणपरूवियभासुरभूसणमासुरिअंगा, गायसमोणयमत्तिवसागयपंजलिपेसिअसीसपणामा ॥२३॥ (रयणमाला) शब्दार्थ: ज-जे सुरसंघा-देवोना समूह सासुरसंघा-असुरना समूह स हित एवा Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेरविउत्ता-वैरभाव रहित एवा | उत्तमकंचणरयणपरूविय-उत्तम मत्तिमुजुत्ता-भक्तिवडे युक्त एवा कांचन अने रत्नवडे अत्यंत आयरभूसिअ-आदरथी-बाह्य रूपवाळा करेला उपचारथी भूषित थयेलो संममपिंडिअ-उतावळथी एकठो भासुरभूषणमासुरिअंगा-देदीथयेलो प्यमान अलंकारोवडे दीप्त छे अंग जेना एवा. मुठुसुविह्मिअ-अत्यंत विस्मय पामेलो गायसमोणय-शरीरना अवयवो सव्वबलोघा-सर्वगजाश्वादिक वडे नम्र थयेला सैन्यना समूह छ जेमनो | मत्तिवसागय-भक्तिने वश थयेला एवा अथवा "आयर पंजलिपेसिअसीसपणामा-हाथ भूसि" विगेरे देवनां जोडीने कों छे मस्तकवडे विशेषण करवा. प्रणाम जेमणे एवा भावार्थ-वळी ते देवो अने असुरो वेरभाव तजी भक्तियुक्त थइ बाह्य अलंकारो पहेरी सर्वे एकत्र थइ अत्यंत विस्मय पामेला गज, अश्व विगेरे सैन्य समूहने साथे लइने आवे छे, तथा उत्तम सुवर्ण अने रत्नोवडे देदीप्यमान अलंकारोथी तेमना शरीरो सुशोभित देखाय छ, तथा तेओ शरीरथी नम्र थइ भक्तिथी हाथ जोडी मस्तकवडे वंदन करे छे.२३ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदिऊण थोऊण तो जिणं, तिगुणमेव य पुणो xपयाहिणं । “पणमिऊण य जिणं मुरासुरा,पमुइआ सभवणाइँ तो गया॥२४॥ ॥खित्तयं ॥ शब्दार्थ:बंदिऊण-वांदीने पणमिऊण-प्रणाम करीने थोऊण-स्तुति करीने य-तथा जती वखते फरीथी तो-त्यार पछी जिणं-जिनेश्वरने जिणं-जिनेश्वरने सुरासुरा-ते सुर अने असुरो तिगुणमेव-त्रण वारज य-तथा: पमुइआ-हर्ष पाम्या छता पुणो-वळी सभवणाइँ-पोताने स्थाने पयाहिणं-प्रदक्षिणा दईने गया-गया भावार्थ-आ रीते ते देवो तथा असुरो जे जिनेश्वरने वांदी, स्तुति करी अने त्रण प्रदक्षिणा पूर्वक फरो वांदीने हर्ष पामता पोताने स्थाने जाय छे. २४ तं महामुणिमहं पि पंजली, रागदोसभयमोहवज्जि। देवदाणवनरिंदवंदिअं, संतिमुत्तममहातवं नमे ॥ २५॥ खित्तयं ॥ ४. प्रदक्षिणा करायेल छे जेने-प्रदक्षिणा करायेला एवा भगवंत ए प्रकारे भगवंतनुं विशेषण लेवाथी अर्थ थाय छे. अहीं कृत्वा अध्याहार छे. Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८३ शब्दार्थतं-ते रहित एवा महामुणि-मोटा छे मुनिओ जेने देवदाणवनरिंदवंदिअं-देवेंद्र, . एवा दानवेंद्र अने नरेंद्रोएवंदना अहं पि-हुं पण करेला एवा तथा पंजली-जेणे हाथ जोड्या छे । संति-शांतिनाथने एवा उत्तममहातवं-श्रेष्ठ मोटा तपरागदोसभयमोहवज्जिअं-राग, वाळा एवा द्वेष, भय अने मोहे करीने । नमे-नमुं छं. भावार्थ-ते जिनेश्वर, मुनिओना मोटा परिवारवाळा छे, राग, द्वेष, भय अने मोहने जीतनार छे, तेमने देवेंद्र, दानवेंद्र अने नरेंद्रो निरंतर नमन करे छे, तथा ते उग्र तपस्या करनार छे, आवा ते शांतिनाथने हुं पण हाथ जोडीने नमुं छु. २५. श्री अजितनाथनी स्तुति. अंबरंतरविआरणिआहिं, ललिअहंसबहुगामिणियाहिं। पीणसोणिथणसालिणिआहि,सकलकमलदललोअणिआहिं ॥२६॥ ॥दीवयं ॥ पीणनिरंतरथणभरविणमिअगायलयाहिं, मणिकंचगपसिढिलमेहलसोहि असोणितडाहिं । . १ प्रीण कामीजनने खुशी करे एवा. २. व्यवधान (आंतरा) रहित. ३. नाजुक अने कोमळ शरीर होवाथी नमी गयेला. Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरखिंखिणिनेउरसतिलयवलयविभूसणिआहिं, रहकरचडर + मणोहर सुंदरदंसणिआहिं ||२७|| चित्तक्खरा ॥ देवसुंदरी हि पायवदिआहि वंदिआ य जस्स ते सुविक्रमा कमा, अप्पणो निडालएहि मंडगोड्डण पगारएहि केहि केहि वी । अवंगतिलय पत्तलेहनामहि चिल्लएहि संगयंग याहि, भत्तिसन्निविठ्ठवंदणागयाहिँ हुंति ते वंदिआ पुणो पुणो ॥ २८॥ " ॥ नारायओ ॥ ३८४ तमहं जिणचंद, अजिअं जिअमोहं । धुयसव्वकिलेसं, पयओ पणमामि ॥ २९ ॥ नंदिअयं ॥ शब्दार्थः अबरंतर विआरणिआहिं-आकाशना अंतराले विचरनारी ललिअहंसव हुगामिणिआहिंमनोहर हंसीना जेवुं गमन करनारी पीणसोणिथण-पुष्ट एवा कटीतट अने स्तनवडे सालिणिआहिं- शोभती सकलकमलदल - संपूर्ण कमळना पत्र जेवा लोअणिआहिं- लोचनवाळी पीणनिरंतर - पुष्ट अने आंतरा रहित - गाढ एवा थणभर - स्तनना भारखंडे विणमिअ-नमेली छे गायलयाहिं - गात्रलता - शरीर रूपी लता जेमनी एवी मणिकंचण - मणि अने सुवर्णनी पसिढिलमेहल - शिथिल एवी मेख ळावडे (कंदोरो) सोहिअ - शोभायमान छे + मनोधर - मनने अन्यत्र गमननो निषेध करवाथी मनने अटकावनार एवों पण अर्थ थाय छे. Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोणितडाहि-कटिप्रदेश जेमनो | जस्स-जे प्रभुना एवो अवंग-अपांग-नेत्रप्रांत अर्थात वर-श्रेष्ठ नेत्रमा रहेला अंजन खिखिणि-घुघरीओ तिलय-तिलक नेउर-नुपूर-झांझर अथवा घुष पत्तलेह-पत्रलेख एटले कस्तुरी रीओवाळा झांझर विगेरेयी कपाळ पर करेली सतिलय-उत्तम तिलक पत्रलेखा (आड्य) वलय-कंकण, ते रूप छे नामएहिं-नामना विभूसणिआहि-आभूषणो जे चिल्लएहिं-देदीप्यमान एहवा. मने एवी अप्पणो-पोताना रइकर-प्रीतिकारक निडालएहिं-ललाटवडे चउरमणोहर-चतुर जनना म- मंडणोड्डणप्पगारएहि-आनने हरण करनार भूषणनी रचनाना प्रकारे सुंदर-सुंदर छे. करीने दंसणिआहिं-दर्शनीय शरीर जे- केहि केहिं वी-कोइ कोइ___मनुं एवी अपूर्व देवसुंदरीहिं-देवांगनाओए संगयंगयाहिं-युक्त छे अंग पायवंदिआहि-शरीरना अथवा जेमनां एकी आभूषणोना पाद एटले भत्तिसनिविठ्ठवंदणागयाहिंकिरणोना वृंद एटले भक्ति युक्त थइने वंदन समूहवाळी करवाने आवेली एवी Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ते-ते एटले प्रसिद्ध एवा जिणचंद-सामान्य केवळीने विषे मुविक्कमा-सुंदर गतिवाळा ___चंद्र समान एका कमा-बे चरणो अजिअं-अजितनाथने वंदिआ य-बांद्या छे जिअमोहं-मोहने जीतनार ते-ते चरणो पुणणे पुणो-वारंवार धुअसव्वकिलेसं-सर्व क्लेशने वंदिआ हुति-बांद्या छे नाश करनार तं-ते पयओ-आदरवाळो छतो अहं-हुं पणमामि-प्रणाम करूं छु भावार्थ-भगवानने देवांगनाओए जे रोते वंदन कयु ते चार श्लोकवडे बतावे छे.-आकाशमां विचरनारी, मनोहर हंसीना जेवो गतिवाळी, पुष्ट एवा नितंब अने स्तनोवडे शोभित, संपूर्ण एटले विकस्वर कमळना पत्र जेवा नेत्रवाळी, जाडा अने गाढ स्तनना भारवडे जेमन शरीर नमी गयुं छे. जेमना कटिप्रदेश उपर मणि अने सुवर्णनी बनावेली विशेष शिथील मेखळा शोभी रही छे, श्रेष्ठ घुघरीओ अने झांझर अथवा धुघरीवाळा झांझर, सुंदर तिलक अने कंकणवडे जेओ अत्यंत शोभे छे, जेमना शरीरनु सौंदर्य प्रीतिकारक, चतुर जनना मनने हरनारुं अने सुंदर छे, शरीरना अथवा अलंकारोना किरणोथी जेओ शोभे छे, देदीप्यमान अपांग, (नेत्रने विषे अंजननी रचना) तिलक अने पत्रलेख नामनी अपूर्व रचनावडे जेमना अंगो युक्त करेलां छे तथा भक्ति युक्त थइ वंदन करवा आवेली एवी देवांगनाओए पोताना ललाट वडे जे प्रभुना सुंदर गतिवाळा बे चरणोने Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वारंवार वांधा छे, तेवा मोहने जीतनार अने सर्वक्लेशनो नाश करनार श्रीअजितनाथ जिनचंद्रने हुं आदरथी वंदन करुं छु. २६-२९. . श्रीशांतिनाथनी स्तुति. थुअबंदिअयस्सा रिसिगणदेवगणेहिं, तो देववहुहिँ पयओर पणमियस्सा। जस्सजगुत्तमसासणयस्सा, भत्तिवसागयपिंडिअयाहिं। . देववरच्छरसाबहुआहिं, +मुरवररइगुणपंडिअयाहिं ॥३०॥ ॥ मासुरयं ॥ वंससदतंतितालमेलिए पतिउक्खराभिरामसदमीसए कए अ, xनमंसियस्सा (नमंस्थितकस्य ) इति पाठान्तरं. भगवंत समीपे प्रथम गणधर नमस्कार करे, पछी देवता अने देवोओ नमस्कार करे ते क्रम अहीं दर्शाव्यो छे.. .:जसूच मोक्षणे जस् धातु मोक्ष करवाना अर्थमा छे तेथी जास्य एटले मोक्ष प्राप्त कराववाने शक्तिवान. __ + श्रेष्ठ देवोने प्रीति जे थकी थाय एवा (संगित कुशळता चगेरे गुणोने विषे पंडिता-विदुषी एवी देवनर्तकी एवो अर्थ पण थाय छे. १ एक मुखवाळा अने बे मुखवाळा वाजिंत्र मळीने त्रण मुरू वाळू वांजिंत्र ते त्रिपुष्कर. Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ २ सुइसमाणणे अ सुद्धसज्जगी अपायजाल घंटिआहिं । वलयमेहला कलावनेउराभिरामसद्दमीसए कए अ, देवनट्टिआहि हावभावविभम पगारएहि । ४ ૫ ७ ८ नच्चिऊण अंगहारएहि वंदिआ य जस्स ते सुविकमा कमा तयं तिलोयसव्वसत्तसंतिकारयं पसंतसव्वपावदोसमेस हं नमामि संतिमुत्तमं जिणं ॥ ३१ ॥ नारायओ ॥ शब्दार्थःरिसिगणदेवगणेहिं-ऋषिओना | धूअवंदिअयस्सा - स्तुति करायेला समूह अने देवोना समू तथा वंदना करायेला तो त्यारपछी होए १ अनुनासिकादि दोष रहित शुद्ध उच्चारवाळु. २ षड्ज, मयूर, केका, शंख आदिना शब्दोवडे ( सद् ) सारं अथवा सद्य तत्काळ गायेलं. एवो अर्थ पण थाय छे. ३ नृत्यकलामां कुशळ एषी देवांगनाओ. ४ मुखनी चेष्टादि बहु कामविकारवाळो अभिप्राय. ५ चित्तमां रहेल अल्प कामविकारनो अभिप्राय, ६ वाणी, वस्त्र अने भूषण वगेरेनुं भ्रमथी स्थान बदलावुं अथवा विलास ७ नेत्र मुख वगेरेना विकारी फेरफार. ८ हाथ आंगळी प्रमुख अंगना लटका - अभिनय वडे ९ शोभितो पंडित जनोनो आचार जेना समीपे छे एवा, एवो अर्थ पण थाय छे. • Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देववहुहिं देवांगनाओए ळीनो शब्द, वीणा अने पयओ-सावधानपणे पटहनो ताल मेळवे छते पणमियस्सा-नमस्कार करायेला | तिउक्खराभिरामसद्दमीसए कर जस्सजगुत्तमसासणयस्सा अ-त्रिपुष्कर वाजिंत्रना मनोहर मुक्ति पमावडाने शक्य छे शब्दवडे मिश्र करे छते जगत जेनावडे एवं उत्तम शासन छ जेनुं एका सुइसमाणणे अ-सर्व शब्दनी भत्तिवसागयपिंडिअयाहिं-भ प्राप्ति थवा माटे कानने क्तिना वशथी आवीने एकत्र समान-सावधान करे छते थयेली सुद्धसज्जगीअपायजालघंटिदेक्वरच्छरसाबहुआहि-नृत्य आहिं-शुद्ध-निषि एव॒ षड्ज करनार अने वगाडनार स्वरवडे जे गोत अथवा एवा श्रेष्ठ देवो तथा सज्ज करेलु जे गीत, तेणे नृत्यमां कुशळ एवी अप्स- करीने सहित एवो पगने राओवडे धणी संख्यावाळी विषे जाळना आकारवाळी थयेली घुघरीओवडे नृत्यादिक मुरवररइगुणपंडिअयाहि-सुर जणाते छते तथा बरोनी साथे रतिक्रीडा वलयमेहलाकलावनेउराभिकरवारूप गुणने विषे रामसहमीसए कए अ-कंकण कुशळ एवी कटिमेखळा, कलाप नामनो वंससद्दतंतितालमेलिए-वांस- | अलंकार अने नू पुरना में Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छते नोहर शब्दथी मिश्र करे । तयं-ते . तिलोयसव्वसत्तसंतिकारय, देवनट्टिआहि-देवनी नर्तकीओ त्रण जगतना सर्व प्राणीहावमावविभमप्पगारएहिं ओने शांत करनारा अथवा हाव, भाव अने विलासना मोक्षने आपनारा . प्रकारवाळा . नचिऊण-नृत्य करीने पसंतसव्वपावदोसं-विशेषशांत थया छे सर्व पाप-कर्म अने अंगहारएहिं - अंगना विक्षेपे - द्वेष विगेरे जेना एवा करीने एस हं-आ हुं वंदिआ य-जेना बे चरणोने नमामि नमस्कार करुं छं संति-शांतिनाथ बस्स-जे भगवानना ते मुविकमा कमा-ते उत्तम प उत्तम-उत्तम राक्रमवाळा बे चरणोने जिणं-जिनेश्वरने भावार्थ-आ बे छंदमां देवीओए नृत्य पूर्वक श्रीशांतिनाथने वंदना करी छे, तेनुं वर्णन आपलं छे.-जे प्रभु प्रथम ऋषिओ अने देवोना समुदाय वडे स्तुति तथा वंदन कराया छे, अने पछी देवांगनाओए सावधानपणे नमस्कार करेला छे, जेनी शक्ति आखा जगतने मुक्ति पमाडे तेवी ले अने जेनुं शासन सर्वोत्तम छे, तथा जेनाश्रेष्ठ पराक्रमवाळा बे चरणोने भकिना वशथी आवीने एकत्र थयेली, नर्तक वादक देवो तथा देवीओथी थुक थयेली अने देवोनी साथे रतिक्रीडा करवामां कुशळ एवी देवनी वांथा छे Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९१ नर्तकीओए हाव, भाव अने विभ्रमना प्रकारवाळा अंगना विक्षेपे करीने नृत्य करवा पूर्वक बंदना करो छे, के जे नृत्य वखते वांसळीनो शब्द, वीणानो स्वर अने पटहादिकनो ताळ मेळववामां आव्यो हतो, त्रिपुष्कर नामना वाजिंत्रनो मनोहर शब्द मिश्र करवामां आव्यो हतो, सर्व प्रकारना शब्द सांभळी शकाय तेम सर्वना कान सावधान थया हता, षड्ज स्वरवडे शुद्ध गीत गातां पगमां बांधेली घुघरीओना शब्दथी नृत्यादिकनी संभावना करवामां आवती हती, तथा ते नृत्य कंकण, कटिमेखळा, कलाप अने नूपुरना मनोहर शब्दथी मिश्र हतुं. आवा त्रण जगतना सर्व प्राणीओने शांति करनारा अने पाप, द्वेष विगेरेथी मुक्त थयेला उत्तम श्रीशांतिनाथ जिनने हुं नमस्कार करूं छं. ३०-३१. श्री अजितनाथ तथा शांतिनाथनी स्तुति ૧ ૨ ૩ छत्तचामरपडागजू अजवमंडिआ, झयवरमगरतुरयसिरिवच्छमुलंछणा । ७ दीवस मंदर दिसा गयसोहिया, सत्थियवसहसीहरहचक्कवरंकिया || ३२ || ललिअयं ॥ १ नानी ध्वजा २ यज्ञ स्तंभ. ३ सिंहादिना चित्रवाळो मोटो ध्वज ४ उत्तम पुरुषना वक्ष स्थळ ( छाती ) मां आ लक्षण होय छे कोइने पगमां पण होवानो संभव छे. ५ जंबू द्वीप वगेरे द्वीप अने लवण समुद्र वगेरे समुद्र जाणवा. ६ मंदिरं एवो पाठ होय त्यां " प्रासाद" एवो अर्थ करवो. ७ मेरु पर्वतनी आसपास चारे दिशाएं हस्तिना आकारना करीकुटो भद्रशाळ वनमां छे ते. Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ सहावलहा समप्पइटा, अदोसदुहा गुणेहि जिहा पसायसिहा तवेण पुढा, सिरीहिंइटा रिसीहिं जुटा ॥३३॥ वाणवासिआ ॥ ते तवेण धुअसव्वपावया, सव्वलोअहिअमूलपावया । संथुआ अजिअसंतिपायया,इंतु मे सिवसुहाण दायया॥३४॥ ॥ अपरांतिका ॥ शब्दार्थछत्त-छत्र जव-जववडे चामर-चामर मंडिआ-शोभित पडाग-पताका झयवर-श्रेष्ठ ध्वज जूअ-यज्ञस्तंभ मगर-मघर १ असमप्रतिष्टाः निरुपम छे प्रतिष्ठा (ख्याति) जेमनी एवा. २ रताश तथा कोमळता आदि अथवा ज्ञान दर्शन चारित्रादि गुणो. ३ प्रसातशिष्ठाः एटले उत्कृष्ट सुखवाळा श्रेष्ठ पुरुषो छे जेनी समीपे एवा. ४ शंस्तुता सुखना कारणभूत स्तवन कयु छ जेनुं एवा. ५ शिव सुखना दातार एवा अजितनाथ अने शांतिनाथ पूज्य मने स्तुति करायेला थामओ, अर्थात् तेमनुं नित्य दर्शन थाओ एम पण अर्थ लइ शकाय. Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ तुरय-अश्व सिरिवच्छ-श्रीवत्सरूप सुलंछणा-सुंदर लांछनवाळा दीव-द्वीप समुद्द-समुद्र मंदर-मेरु दिसागय-दिग्गजवडे सोहिया-शोभता सथिअ-स्वस्तिक 'वसह-वृषभ सीह-सिंह रह-रथ चकवर-श्रेष्ठ चक्रवडे अंकिया-चिन्हवाळा सहावलठा-स्वभावथी ज सुंदर समप्पइटा-समभावने विषे रहेला. अदोसदुहा-दोषवडे अदुष्ट गुणेहि जिहा-गुणोबडे मोटा पसायसिहा-रागादिकना अभा. वरूप निर्मळतावडे श्रेष्ठ तवेण-तपवडे पुछा-पुष्ट सिरिहिं इछा-लक्ष्मीवडे पूजा येला रिसीहिं जुट्टा-मुनिओए सेवेला तवेण-तपवडे धुअसव्वपावया-नाश कर्या छे सर्व पाप जेमगे एवा सव्वलोअहिअमूलपावया-सर्व लोकना हितरूप जे मोक्ष तेनुं मूळ जे ज्ञान, दर्शन अने चारित्र तेने पमाड. डनारा संथुआ-सम्यक् प्रकारे स्तुति करेला ते-ते अजिअसतिपायया-पूज्य एवा अजितनाथ अने शांतिनाथ इंतु-थाओ मे-मने सिवसुहान-मोक्षसुखना दायया-भापतार दुष्ट Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ मावार्थ-जे छत्र, चामर, पताका, यज्ञस्तंभ अने जवना लक्षणोवडे शोभता छे, जे श्रेष्ठ ध्वज, मगर, अश्व अने श्रीवत्सना सुंदर लांछनवाळा छे, जे द्वीप, समुद्र, मेरुपर्वत अने दिग्गजना चिन्हवडे शोभायमान छे, जे स्वस्तिक, वृषभ, सिंह, रथ अने श्रेष्ठ चक्रना चिन्हवान छे, जे स्वभावथीज सुंदर छे, जे समतानी भूमिपर प्रतिष्ठित छे, जे रागादिक दोषवडे दूषित थया नथी, जे ज्ञानादिक गुणोवडे मोटा छे, जे रागादिक मळना अभावने लीधे निर्मळतावडे श्रेष्ठ छे, जे तपवडे पुष्ट छे, जे लक्ष्मीवडे पूजित छे, जे मुनिओवडे सेवायेला छे, जेमणे तपवडे सर्व शुभाशुभ कनो नाश कयों छे, जे सर्व लोकना हितनामोक्षना मूळरूप ज्ञान, दर्शन अने चारित्रने प्राप्त करावनार छ, तथा जे सम्यक् प्रकारे स्तुति कराया छे, ते श्रीअजितनाथ तथा शांतिनाथ प्रभु मने मोक्षसुखना आपनारा थाओ ३२-३४ एवं तवबलविउलं, थुअंमए अजिअसतिजिणजुअलं । ववगयकम्मरयमलं, गई गयं सासयं विउलं+ ||३५|| गाहा। शब्दार्थ:एवं-आ प्रकारे मोटा । अने मल एटले बांधेला तवबलविउलं-तपना बळथी कर्म जेमना एवा थुअं-स्तुति करी छे. ववगयकम्मरयमलं-गया छे मए में ज्ञानावरणादिक आठ कर्म, रज एटले बंधाता कर्म अजिअसतिजिणजुअलं-अजि+ विमलं इति पाठान्तरं. Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तनाथ अने शांतिनाथ - गई-मोक्षरूप गतिने नामना बे जिनेश्वरोनी गयं-पामेला एवा ववगयकम्मरयं अलं-अत्यंत गयो छे कर्मनो रय-प्रवाह सासयं-शाश्वती जेमनो एवा विउलं-विपुल-विस्तारवाळी भावार्थ-आप्रमाणे श्रीअजितनाथ अने शांतिनाथना जिनयुगलनी में स्तुति करी छे, ते बन्ने प्रभु तपना बळथी बळवान छे. बंधाता अने बांधला कर्मथी मुक्त थया छे, अने शाश्वती तथा विस्तारवाळी मोक्षगतिने पामेला छे. ३५. तं बहुगुणप्पसायं, मुक्खसुहेण परमेण *अविसायं । नासेउ मे विसाय,कुणउ अ परिसा विअ पसायं ॥३६॥ गाहा॥ शब्दार्थतं-ते बन्ने जिनेश्वरो नासेउ-नाश करो बहुगुणप्पसायं-ज्ञानादिक घणा | मे विसायं-मारा विषादने. गुगोनी निर्मळतावाळा खेदने अथवा विसातने एटले दुःखने मुक्खसुहेण-मोक्षसुखवडे कुणउ-करो परमेण-उत्कृष्ट एवा अ-तथा अविसायं-विषाद रहित एटले | परिसा वि अ-आ स्तवनने विकळता रहित सांभळनार सभा पण * अविसातं गयुं छे सुख जेनुं ते विसात अने न विसात अविसावं सुख रहित नहि अर्थात् मुखवाळा एवो अर्थ पण थाय छे. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ पसायं-प्रसादने एटले मारा । दोषना त्यागरूप महेरबा वचनमा गुणनुं ग्रहण अने] नीने भावार्थ-ज्ञान दर्शनादि अनेक गुणनो प्रसाद छे जेने एबुं ( अथवा घणा प्रकारनी निर्मळतावालु); उत्कृष्ट मोक्ष सुखवडे विषाद (विकलता) रहित ते युगल; मारा विषाद ( अथवा विसात दुःख) ने नाश करो अने वळी सभा (आ स्तवनने सांभळनारी सभा) पण मारा उपर अनुग्रह ( कहेल स्तवनना गुणन ग्रहण अने दोषना त्यागरूप महेरबानी) करो. ३६ अंत्य मंगळाचरण. तं मोएउ अ नंदि, पावेउ अ xनंदिसेणमभिनदि । परिसा वि अ सुहनदि, मम य दिसउ संजमे नंदि॥३७॥गाहा।। शब्दार्थतं-ते बन्ने जिनेश्वरो लोकोने नंदि-आनंदने अथवा समृद्धिने मोएउ-हर्ष आपो पावेउ-पमाडो अ-अने अ-तथा x आ नंदिषेण मुनि श्रेणिकना पुत्र के बीजा कोइ महर्षि छे तेनो बराबर निर्णय थतो नथी. केटलाक वळी एम कहे छे के श्री शत्रुजयनी गुफौमां अजितनाथ अने शांतिनाथ वर्षाऋतुमा रहेला हता ते जग्याए अनुपम सरोवरनी समीपे अजितनाथर्नु चैत्य हतुं अने मरुदेवीनी टुंकनी पासे शांतिनाथर्नु चैत्य हतुं त्यां नेमनाथजीना गगधर नंदिपेणजीए अजितशांति स्तवननी रचना करी तेथी ते बंने चैत्यो पूर्वाभिमुख स्थयां. मूळ ग्रंथकारे अहीं सुधी रचना करी छे तेमा ३७ गाथा भने २४२३ अक्षरो आवे छे. बाकीनी गाथाओ अन्यनी करेली छे. Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२७ नंदिसेणं-नंदीषेणने सहनंदि-सुखनी वृद्धिने अभिनंदि-समरत प्रकारे समृ- | मम य-अने मने द्धि अथवा आनंद दिसउ-आपो परिसा वि अ-श्रोताओनी स- | संजमे नंदि-संयमने विष आभाने पण नंदने भावार्थ-श्रीअजितनाथ तथा शांतिनाथ लोकोने हर्ष आपो, समृद्धि आपो, नंदीषणने विशेष समृद्धि आपो, श्रोताओने सुखनी वृद्धि आपो अने संयमने विष आनंदने आपो. ३७. ___आ स्तवननो महिमा कहे छे.पक्विअचाउम्मासिअ-+संवच्छरिए अवस्स भणिअव्वोर। सोअव्वो सव्वेहिं, उवसग्गनिवारणो एसो॥३८॥ (गाहा) शब्दार्थएसो-आ अजितशांति स्तवन | संवच्छरिए-सांवत्सरिक प्रतिपक्खिअ-पाक्षिक क्रमणने विषे चाउम्मासिअ-चातुर्मासिक । अवस्स-अवश्य - + संवच्छर राइए अदीअहे अ इति पाठान्तरं. . x आ स्तवन एकज जणे भणवानुं कर्तुं छे तेनुं कारण ए के एक साथे घणाना बोलवाथी कोलाहल थाय तेथी सर्वने उपयोग पूर्वक संभळाय नहि तेथी एक साथे बोलवानी पद्धति उचित नथी. Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भणिअव्वो भगवानो छे सोअन्वो-सांभळवानो छे सव्वेहिं - बीजा सर्वेए भावार्थ- पाक्षिक, चातुर्मासिक अने सांवत्सरिक प्रतिक्रमणने 'विषे आ अजितशांतिस्तोत्र एक जणे अवश्य भणवो अने बीजा सर्वेए - सांभळवो. केमके आ स्तव उपसर्गनो नाश करनार छे. (एक साधे सर्व भणे तो कोलाहलनो संभव छे, माटे एक जणे ज भणवो ए योग्य छे.) ३८. जो पढइ जो अनिसुणइ, भओ कालं पि अजिअसंतिथयं । जो पढइ - जे माणस भणे जो अ निसुणइ-अने जे माणस सांभळे नहु हुंति तस्स *रोगा, पुव्वुष्पन्ना विणासंति ॥ ३९॥ ( गाहा ) शब्दार्थ उभओ कालं पि-प्रातः काळ तथा सायंकाळ सायंकाळ बन्ने ३९८ शांति स्तवने न हु हुंति - थता ज नथी तेम तस्स - तेने रोगा - कास, श्वास, विगेरे रोगो पुव्प्पन्ना वि - पूर्वे उत्पन्न थयेला होय ते पण णासंति-नाश पाने छे * कास, श्वास, भगंदर, कोढ वगेरे रोगो, अथवा सर्व प्रकारनी वखत अजिअसंतिथयं - आ अजित उवसग्गनिवारणो- उपसर्गने निवारण करनार पीडाओ. Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९९ भावार्थ -आ भजितशांति स्तवने प्रातः सायं बन्ने काळे ( उपलक्षणथी सवार बपोर ने सांज) जे भणे छे अने सांभळे छे, तेने रोगो थता नथी, अने प्रथम उत्पन्न थया होय तो ते पण नाश पामे छे. ३९ जइ इच्छह परमपयं, अहवा किर्त्ति सुवित्थडं भुवणे । ता तेलुक्कुद्धरणे, जिणवयणे आयरं कुणह ॥ ४० ॥ ( गाहा ) शब्दार्थ जइ-जो तमें इच्छह- इच्छता हो परमपयं - मोक्षने अहवा - अथवा कित्तिं - कीर्तिने सुवित्थड - विस्तार पामती भुवणे - जगतने विषे ता-तो तेलुक्कुद्धरणे - त्रण लोकनो उद्धार करनार जिणवणे- जिनेश्वरना वचनने विषे आयरं- आदर कुह-करो भावार्थ — जो तमो मोक्षने इच्छता हो अथवा त्रण जगतमां विस्तार पामेली कोर्तिने इच्छता हो तो ऋण लोकनो उद्धार करनार श्रीजिन वचनने विषे आदर करो - जिनेश्वरनी आज्ञा प्रमाणे करो. ववगयकलिकलुसाणं, ववगयनिद्धंतरागदोसाणं । ववगयपुणभवाणं, नमोत्थु देवाहिदेवाणं ॥ ४१ ॥ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० शब्दार्थववगय-नाश पाम्या छे पुणव्भवाणं-पुनर्भव कलि-क्लेष नमोत्थु-नमस्कार थाओ कलुसाणं-मलीनता ... देवाहिदेवाणं-देवाधिदेवने निदत-अत्यंत भावार्थ-नाश पाम्यां छे क्लेश अने मलीनता जेनां एवा, निर्मळपणे नाश पाम्यां छे राग द्वेष जेना एका, गया छे पुनर्जन्म जेनां एवा, ते देवाधिदेवोने नमस्कार हो. ४१ सव्वं पसमइ पावं, पुर्ण वडइ नमसमाणस्स । संपुणचंदवयणे, कित्तयणे अजिअसंतिनाहस्स ॥ ४२ ॥ सव्वं-सर्व नारना पसमइ-शान्त थाय छे संपुण-संपूर्ण पावं-पाप चंदवयणे-चंद्र जेवा मुखवाळा कित्तयणे-कीर्तन वढ्इ-वधे छे अजिअ-संति-नाहस्स-अजित नमंसमाणस्स-नमस्कार कर- ] -शांति-नाथर्नु भावार्थ-संपूर्ण चंद्रना जेवा मुखवाळा अजितनाथ अने शांतिनाथ जिननें कीर्तन कर्ये छते वंदन करनारनां सर्व पाप विशेषे शांत थाय छे अने पुन्य वधे छे. ४२ ॥ इति अजितशान्तिस्तवन संपूर्णम् ॥ पुणं-पुण्य | Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०१ पछी जयवीयराय कही ऋण खमासमणे आचार्य० उपाध्याय० सर्व साधु वांदी, खमासमण दई इच्छाकारेण० देवसिप्रायच्छित्त अन्नत्थ कही चार लोगस्सनो काउस्सग्ग करवो, प्रगट लोगस्स कही; पछी सज्झाय माटे चार खमासमणा दइ, नवकार गणा पख्खी सज्झाय कहेवी. ४७ अथ पक्खि सज्झाय ॥ नमिऊण तिलोअ गुरुं, लोयालोयप्पयासअं वीरं । संबोह सत्तरि महं, रएमि उद्धार गाहाहिं ॥ १ ॥ अर्थ:-त्रण लोकनां गुरु अने लोकालोक प्रकाशक श्री महावीर देवने नमस्कार करीने संबोधसित्तरी ( नामा ग्रंथ ) उधृत गाथाओ वडे हुं रचुं . १ सेयंबरो अ आसंबरो अ, बुद्धो अ अहव अन्नो वा । समभाव भाविअप्पा, लहेइ मुक्खं न संदेहो ॥ २ ॥ अर्थः — श्वेताम्बर - दिगंबर - बौद्ध अथवा अन्य कोइ पण दर्शनी जो समभावथी वासित ( राग द्वेष रहित ) आत्मा होय तो ते 'मोक्ष मेळवे छे एमां संशय नथी. २ अहदस दोसरहिओ, देवो धम्मोवि निउण दयसहिओ । सुगुरु वि बंभयारि, आरंभ परिग्गहा विरओ ॥ ३ ॥ अर्थ — अढार दोष रहित देव, दया सहित श्रेष्ट धर्म अने आरंभ परिग्रह रहित ब्रह्मचारि गुरु. ३ अन्ना कोह मय माण लोह, माया रइअ अरइअ । निद्दा सोग अलिअवयण चोरिया मच्छर भयाय ॥४॥ २६ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ पाणिवह पेमकीला पसंग हासा य जस्स ए दोसा। अहारसवि पणठा, नमामि देवाहिदेवं तं ॥५॥ [ आ बे गाथानो अर्थ पाछळ चैत्यवंदनमां आव्यो छे. तेथी त्यां जोइ लेवो.] पछी खमासमण दइ इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् , दुक्खक्खय कम्मक्खय कही, अन्नत्थ, कही, बारलोगस्सनो काउस्सग्ग करी; पारी पछी प्रगट लोगस्स कही; पछी सामायिक पारवानी विधी करवी. ॥ इति पक्खि प्रतिक्रमण ॥ ॥४८ अथ श्री चोमासी प्रतिक्रमण विधि ॥ चोमासी प्रतिक्रमणनी पण एज विधि जाणवी, पण एटली विशेषता के, पख्खिना स्थानके (ठेकाणे) चोमासीनो पाठ कहेवो; तथा बार लोगस्सना ठेकाणे वीस लोगस्सनो काउस्सग्ग करवो. तथा तपने ठेकाणे छठेणं, बे उपवास, चार आंबिल, छ निवी, आठ एकासणा, चार हजार सज्झाय; ए रीते कहेवु. (इति) ॥ ४९ अथ श्री सांवच्छरिक प्रतिक्रमण विधि ।। आ पण उपर लखेली विधि प्रमाणे छे पण पक्खिना ठेकाणे संवच्छरीना आगार कहेवा. (बोलवा) तथा बार लोगस्सना काउसम्गने ठेकाणे चालीस लोगस्स, अथवा एकसोने साठ नवकारनो काउसग्ग करवो 'अने तपने ठेकाणे संवच्छरीतप अमेणं, त्रण उपवास, छ आंबिल, नव निवि, बार एकासणा अने छ हजार सज्झाय, ए रीते कहेवू. ॥ इति सांवत्सरिक प्रतिक्रमण विधि ॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ ॥५० अथ श्री पोसह विधि ॥ , पोसह करनार श्रावक आभूषण अलंकारनो त्याग करे, 'पहेलां राइप्रतिक्रमण विधिपूर्वक करी; आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु वांदी, पछी इरियावही पडिक्कमि, एक लोगस्सनो काउसग्ग पारी, प्रगट लोगस्त कही, खमासमण दइ, इच्छा कारेण संदिस्सह भगवन् पोसह मुहपत्ति पडिले हुं ? एम कहो मुहपत्ति पडिलेहवी, पछी खमासमण देइ इच्छाकारेण संदिसह भगवन् , पोसह संदिसाऊं? बोजे खमासमणे पोसह ठावू?. कही, नवकार गणी, इच्छकारी० भ० पोसह दंडक ऊञ्चरावोजी॥ ॥५१ अथ पोसहनु पञ्चक्खाण ॥ करेमिभंते पोसहं, आहार पोसहं, देसओ सव्वओवा, सरीर सकार पोसहं सवओ, अव्वावार पोसह सवओ, बंभचेर पोसहं सवओ, चउब्धिहे पोसहे ठामि; जावदिवस अहोरत्तं वा, पज्जुवासामि, दुविहं, तिविहेणं, मणेण, वायाए, कापणं, न करेमि, न कारवेमि, तस्स भंते पडिकमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि ॥ इति ।। ( पछी खमासमण दइ इच्छाकारेण सामायक संदिसाहुं ? बीजे खमासमणे सामायक ठाउं? एम कहीं नवकार गणी सामायक उचरीये) ___ करेमिभंते सामाइयं सावजंजोग पञ्चक्खामि, जावपोसहं 'पज्जुवासामि, दुविहं, तिविहेणं मणेणं वायाए कापणं, न करेमि, न कारवेमि, तस्लभते पडिकमामि, निंदामि गरिहामि, अप्पाणं बोसिरामि ॥ ए पछी खमासमण दइ, इच्छाकारेण संदिसह भगवन् बढुवेलं संदिसाएमि? बीजुं खमासमण दइ; इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् , बहुवेलं करेमि? Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ॥ ५२ सवारना पडिलेहण, विधि ॥ इच्छामि खमासमणो, वंदिउं जावणिज्जाए निसिहियाए मत्थएण वंदामि. इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् , पडिलेहणं संदिसाएमि ? बीजा खमासमणे पडिलेहणं करेमि ? इच्छं कही मुहपत्ति, चरवलो, कटासणुं पडिलेहि, खमासमण दइ, इच्छाकारेण संदिस्लह भगवन् , अंगपडिलेहणं संदिसाएमि? बीजे खमासमणे अंगपडिलेहणं करेमि ? एम कही पेहेरवानुं वस्त्र, तथा सुतरनो कंदोरो, उतरासण पडिलेहि; पछी खमासमण दइ, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् पडिलेहणा पडिलेहावो ? एम कही स्थापनाचायेनी वेयावञ्च करीये, स्थापना न होय तो वडीलनुं एक कपड़े पडिलेहो पछी खमासमण दइ इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् उपधि पडिलेहणं संदिसाएमि? बीजे खमासमणे उपधि पडिलेहणं करेमि ? एम कही बाकी रहेला सर्व उपकरण (वस्त्र) पडिलेहिये, पछी खमासमण देइ, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् , पोसहसालं पमज्जेमि; एम कही उपाश्रय पुंजी, जयणाथी काजो उद्धरीने शुद्ध भुमिकामां परठवतां अणुजाणह जस्सवग्गहो कही, काजो परठववो, पछी घोसिरे वोसिरे त्रण वखत कहेवू. पछी गुरु स्थापनाजी पासे आवीने खमासमण दइ इरियावहि पडिक्कमि, एक लोगस्सनो काउस्सग्ग करी, प्रगट लोगस्स कही खमासमण दइने, इच्छाकारेण० बेसणे संदिसाएमि, बीजे खमासमणे बेसणे ठाएमि, इच्छामि० इच्छा० सज्झायं संदिसारमि? बीजे खमासमणे सज्झायं करेमि, एम नवकार कही अरहंदेवीनी सज्झाय कहेवी ॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४०५ प्रम ॥५३ अरहंदेवोनी सज्झाय ॥ अरहं देवो गुरुणो, सुसाहुणो जिणमयं महपमाणं । इच्चाइ मुहो भावो, सम्मत्तं बिति जमगुरुणो ॥१॥ अर्थः-अरिहंत देव, सुसाधुओ-गुरु अने जिन मत ए मारे प्रमाण छे, इत्यादि शुभ भाव तेने जगत्गुरु तीर्थकरो सम्यक्त्व कहे छे.१ लप्मइ मुरसामित्तं, लभइ पहुअत्तणं न संदेहो । एगं नवरि न लप्मइ दुल्लहं रयणं च सम्मत्तं अर्थः-देवेन्द्रपणुं मळे छे, स्वामिपणुं मळे छे एमां शंका नहि; परन्तु एक दुर्लभ समकित रत्न नथी मळतुं. २ सम्मत्तमि ऊ लद्धे, विमाण वज्जं न बंधए आउं । जइवि न सम्मत्त जढो अहव न बद्धाउ पुनि ॥३॥ __ अर्थ:-जो समकितथी भ्रष्ट न थयो होय, अथवा ते पहेलां आयुष्य न बाध्यु होय तो समकित प्राप्त थवाथी वैमानिक सिवायर्नु आयुष्य न बांधे. ३ दिवसे दिवसे लक्खं देइ सुवनस्स खंडियं एगो। एगो पुण सामाइयं, करेइ न पहुप्पए तस्स ॥४॥ अर्थ:-कोइ दररोज एक लाख सुवर्ण खांडीनुं दान करे, तो पण ते एक सामायिकनी समान फळ न पामे. ४ निंद पसंसासु समो, समोअ माणावमाण कारिमु। समसयण परिअणमणो, सामाइय संगओ जीवो ॥५॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ४०६ अर्थ:-सामायिकना संगथी जीव निंदा अने प्रशंसामां, मान भने अपमान करनारा उपर तेमज स्वजन अने परिजन उपर समान चित्तवाळी-समभाववाळो थाय छे. ५ पछी बे वांदणां दइ, ' अप्मुडिओ खमावी, पच्चख्खाण करवू पछी विस्तार पूर्वक चैत्यवंदन देव वांदे ॥ ॥५४ अथ देववंदन विधि ॥ खमासमण दइ, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् , इरियावहियं पडिकमामि, एम कही इरियावहि पडिक्कमिने एक लोगस्सनो, काउस्सग्ग पारी, प्रगट लोगस्स कही; पछी खमासमण दइ, उत्तराखण करी, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् चैत्यवंदन करूं ? एम कही चैत्यवंदन करवू ॥ ॥५५ अथ चैत्यवंदन ॥ सिरिरिसह पढमनाहं, निवं मुणिं जिणचरं च तित्थयरं । युगआइ सयल भवियण, मंगल जयकारगं वंदे ॥१॥ अर्थः-सर्व भव्य जीवोने युगनी आदिमा मंगळ अने कल्याण करनार एवा प्रथम नाथ-प्रथम राजा-प्रथम मुनि-प्रथम जिन अने प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेवस्वामिने हुं वांदुं १ सयल जीवलोय पयर्ड, संतिकरं संतिनाह मुणि पवरं । सोलसमं वित्थयरं, पंचम चकिं नमसामि ॥२॥ अर्थ:-सर्व जीव लोकने प्रगट करनार, शान्ति करनार, मुनिओमा श्रेष्ट अने पांचमा चक्रवर्ति एवा सोळमा श्री शांतिनाथने हं. नमु छु. २ . . Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०७ जा जीव बंभयाहि, नियजस पसरेण रंजियं भुवणं । मोडिय वम्मह माणं, नेमिजिणं तं पणिवयामि ॥३॥ अर्थः-यावत् जीवनपर्यन्त ब्रह्मचारि अने पोताना यशना फेलावावडे त्रिभुवनने प्रसन्न करनार तेमज कामदेवना मानने नाश करनार ते बावीसमा श्री नेमि जिनेश्वरने हुं नमस्कार करुं छु. ३ सुरअसुर नाग महियं, लोगालोगप्पयासगं सूरं । मिच्छत्त तमोहरणं, पासजिणंदं थुणिस्सामि ॥४॥ ___अर्थः-देव-दानव अने भुवनपतिथी पूजीत, लोकालोकने प्रकाश करवाने सूर्य समान तथा मिथ्यात्व रूप अंधकारने हरनार श्री पार्श्वनाथ जिनेश्वरने हु स्तवीश. ४ तित्यपई सिरिवीरं, गुणागरं खंतिसागरं धीरं । पत्तं भवोहतीरं, वंदे कम्मारि सिरिवीरं ॥ ५॥ __अर्थ:-गुणना भंडार, क्षमाना सागर, धीर, संसार समूहना तीरने पार पामेला अने कर्मना शत्रु एवा तीर्थपति श्री वीर जिनेश्वरने हुँ वांदं छं. ५ सव्वे विय जिणनाहा, गणहर सहियाय केवलदिणंदा। अने वि जेय सिद्धा, सव्वे तिविहेण वंदामि ॥ ६ ॥ अर्थः-गणधरसहित केवळज्ञानरूप सूर्यसमान सर्वे तीर्थकरो अने बीजा पण सद्वो ते सर्वने मन-वचन अने कायाथी हुं वांदुं . ६ | Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ संपइ वट्टइ जे जिण, सीमंधर सामी पमुह ते सव्वे । भविय पडिबोह दिणयर, तिकरण मुद्धण पूएमि ॥७॥ __अर्थः-हमणा सीमंधरस्वामि विगेरे जे तीर्थंकरो भव्यजनोने प्रतिबोध करवाने सूर्यसमान छे, ते सर्वने मन-वचन अने कायाए त्रिकरण शुद्रे पूजुं छं. ७ पछी उभा थइ गुनह गंभीरनी थुइ कहेवी ॥ ॥५६ अथ श्री जिनेंद्र स्तुति ॥ गुनह गंभीर अचलजीम धीर कर्मरिपुवीर भवजल तारी, वसी गृहवास तजी उद्दास भजी वनवास भए अनगारी; मनम्मथ मान मोरिकर ध्यान पाय सुभ ग्यान बहुत सुखकारी, समर अरिहंत भजित भगवंत मुक्तिवरकंत वृषभपदधारी. १ अजित जिनराय सुरासुरपाय नमत बहुभाय गुणाकर जाणी, सुधाकर वृष्टि करत सुखसृष्टि सदा समदृष्टि कहत मुखबानी; सुनत सतोष करत धर्म पोष हरत मनरोष धरत जे प्राणी, समरसिंघदेव करहु तसु सेव जोड करबेव भाव मन आणी. २ संभव जगदीस नमुं निसदीस भक्ति सुजगीस मुक्तिपंथ गामी, मानमात्तंग दमीउत्तंग भये निरभंग मिथ्या मत नामी; सफल मुझ नयन देखी प्रभु वयन अभिनव मयन रूपसम पामी, परं तुम चरण छोर जरा मरण भवभयहरण करहु मोरा स्वामी.३ अभिनंदननाथ परम सुख साथ जोर दोउं हाथ रंग चित लावू, बारजीउंमाय पालफुनिआय कहत्त निर्माय भाग्यवसि पाउं; . रस नमुहएक बहुरन विवेक तुम गुन छेक केम हुँ गाऊं, , भ्रमणकउमूर कर्मउनमूर रहे प्रभु दूर भावधर ध्यावं. ४ Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૦૨ पछी जंकिंचि० नमोत्थुणं० कही खमासमण दइ, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् चारित्राचार विसोधनार्थ करेमि काउस्सग्गं. अन्नत्थ० बे लोगस्सनो काउस्सग्ग, पछी प्रगट लोगस्ल कही; सव्वलोप अरिहंत चेइआणं करेमि काउसग्गं, वंदण वत्तिआए० एक लोगस्सनो काउस्सग्ग पारी, पुख्खरवरदीवढ्ढे - कही एक लोगस्सनो काउस्सग्ग करवो, पछी सिद्धाणं बुद्धाणं कही निचा बेसी नमोत्थुणं जावति० जावंत कही, खमासमण दह, स्तवनं संदिसापमि, बीजे खमासणे स्तवनं भणेमि, एक नवकार गणी, श्री समेतसिखरनुं स्तवन कही, जयवीयराय जगगुरु० कद्देवा ॥ " ॥ इति देववंदन विधि ॥ पुर्णपोरसी समय थाय त्यारे उग्घाडापोरसी भणाववी. तेहनी विधि. खमासमण दह इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् उघाडापोरसी, बोजे खमासणे इरियावदि पडिक्कमि एक लोगस्सनो काउस्सग्ग पारी प्रगट लोगस्स कही खमासमण दइ इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् उग्धाडपोरसी मुहपत्ति पडिलेहुं ? एम कद्दी मुहपत्ति पडिलेहिने, जे पोषहमां भाजन वपराय ते पण पडिलेहवां, पाणी लाववा माटे ॥ इति ॥ पछी बोरे विधिथी देव वांदवा तेमां आयंबिल के एकासणु कर्या पछी चैत्यवंदन जगचिंतामणिथी जयवीयराय सुधी - करवुं. || ५७ अथ पच्चक्खाण पारवानी विधि ॥ समासमण दइ इच्छाका० इरियावहि पडिक्कमि एक लोगस्सनो काउस्सग्ग करो प्रगट लोगस्स कही खमासमण दइ इच्छाकारेण० चैत्यवंदन करूँ ? सिरि रिसहनुं० चैत्यवंदन Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करी जंकिंचि० नमोत्थुणं० जावंति० जावंत० बे खमासमण दइ स्तवननो आदेश मागी नवकार० उवसग्गहरं० जयवीयराय० पछी खमासमण दइ इच्छाका पच्चख्खाण पारवा मुहपत्ति पडिलेहुं ? मुहपत्ति पडिलेहिने पछी खमासमण दइ इच्छाका० पच्चख्खाण पारूं ? खमासमण दइ इच्छाका० पञ्चख्खाण पुरु. नवकार गणी उपवास कोधो तिविहार पोरसी, साढपोरसी,., पुरमद, अवट्ठ पञ्चख्खाण कर्यु चोविहार. . ॥५८ पच्चक्खाण पारवानीगाथा ॥ फासियं पालियं चेव सोहियं तिरियं तहा । किट्टियं आहाराहियं चेव, विसोहिज्ज जयंजइ॥१॥ अर्थः-पच्चख्खाण फरस्युं, पायु, शोध्यु, पूर्ण कयु, प्रशंस्यु भने आराध्यु. आ प्रमाणे यतनावान मुनि पच्चख्खाणने विशेष शुद्ध करे. - योग्य समये पच्चख्खाण पूर्ण थाय ते फरस्युं कहेवाय, वारंवार तेने संभाळवू ते पाळ्यूं कहेवाय, पञ्चख्खाण पाळती वखते लावेलो आहार गुरुने आप्या पछी वधे ते आहार करवो ते शोध्यु कहेवाय, पच्चरूखाणनो काळ पूर्ण थया पछी थोडी वार रहीने पार ते तीर्यु कहेवाय, पच्चख्खाण पाळीने आहार करती वखते " में अमूक पच्चख्खाण कयु हतुं पूर्ण थयु ' एम कहेवू ते कीयु कहेवाय, जे प्रतिज्ञाए. पञ्चख्खाण ली, होय ते प्रतिज्ञाए पारे ते आराध्यु कहेवाय. आ छप्रकारे पच्चख्खाण विशुद्ध करीने यतनावान् मुनि पोताना आत्माने मोक्षमामी करे. १ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फासुयं एसणिज्जं च, जं जिणेहिं पवेइयं । तं च नीरं गहिस्सामि, सामाइय पोसहे तहा ॥२॥ अर्थ:-निर्जीव अने दोषरहित जे आहार-पाणी जिनेश्वरोए कर्तुं छे ते आहार-पाणी हुँ | साधु धर्मनी प्रवृत्ति माटे] सामायिक अने पौषधमा ग्रहण करीश. २ ॥५९ सांजना पडिलेहण विधि ॥ पाछला पहोरे छ घडी दिवस रहे ते समये पडिलेहण करवं, तेहनी विधि. खमासमण दइ इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् पडिपुन्ना पोरसी; बोजे खमासमणे इरियावहि पडिक्कमि लोगस्स कही, खमासमण दइ इच्छाकारेण० पडिलेहणं संदिसाएमि बीजे खमासमणे पडिलेहणं करेमि एम कही मुहपत्ति पडिलेहवी. पछी चरवलो, कटासणुं पडिलेहीने बेखमासमणे अंग पडिलेहणनो आदेश मागी कंदोरो सुतरनो तथा धोतीयु, उत्तरासण पडिलेहवू पछी खमासण दइ इच्छाकारेण पोसहसाला प्रमाणु एम कही पोसहशालानो काजो एक स्थानके भेगो करवो. पछी इरियावहि पडिकमि एक लोगस्सनो काउस्सग्ग करी पछी खमासमण दइ, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् पडिलेहणा पडिलेह्रावो एम कही स्थापनाजी पडिलेहवा. स्थापना न होय तो वडीलनो एक कपडो पडिलेहवो. पछी खमासमण दइ, सज्झायं संदिसाएमि, बीजे खमासमणे सज्झायं करेमि, एम आदेश मागी एक नवकार गणी अरहंदेवो० सज्झाय करी पछी वांदणा दइ, पच्चक्खाण करवू, पछी खमासमण दइ, इच्छाका० पहेले खमासमणे उपधि पडिलेहणं संदिसाएमि. बीजे उपधि पडिलेहणं करेमि एम कही बाकी रहेलां वस्त्र संथारा प्रमुख सर्व पडिलेहीने, पछी सर्व काजो Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '४१२ शुद्ध करी जतनाथी परठववो; परठवतां अणुजाणह जस्सवग्गहो कहेवू, परठव्या पछी त्रण वखत वोसिरे वोसिरे पम कहेवू. पछी इरियावही तस्सउ० अन्नत्थ० कही एक लोगस्सनो काउस्लग्ग करी प्रगट लोगस्ल कहेवो पछी देववंदन कर (जुवो पृष्ट ४०६ मा) देव वांदी पछी जो रात्रि पोसह होय तो प्रतिक्रमणमा मांडला करवा तेनी विधि. खमासमण दइ इच्छाका० इरियावही पडिकमि काउस्सग्ग करी प्रगट लोगस्स कही खमासमण दइ इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् पच्चक्खाण करावोजी, पछी खमालमण दइ थंडिलभूमि प्रमाणु. ते आ प्रमाणे,-पोसहमां वडीनीति, लघुनीति, परठववा योग्य शुद्ध भूमि निरीक्षण माटे चोवीस मांडला करवा ते नीचे प्रमाणे. ॥ प्रथम संथारा पासेनी जग्यायें ॥ आगाढे आसन्ने उच्चारे पासवणे अणहियासे, ॥ १॥ आगाढे आसन्ने पासवणे अणहिआसे ॥ २ ॥ आगाढे मझे ऊच्चारे पासवणे अणहिआसे ।। ३ ॥ आगाढे मज्झे पासवणे अगहियासे ॥ ४ ॥ आगाढे दूरे ऊच्चारे पासवणे अणहियासे ॥५॥ आगाढे दूरे पासवणे अणहियासे ॥ ६ ॥ ॥ उपाश्रयना द्वार मांहेनी तरफना ॥ आगाढे आसन्ने उच्चारे पासवणे अहिआसे ॥१॥ आगाढे आसन्ने पासवणे अहिआसे ॥ २ ॥ आगाढे मझे ऊच्च रे पासवणे अहियासे ॥ ३ ॥ आगाढे मज्झे पासवणे अहियासे ॥ ४ ॥ आगाढे दूरे ऊच्चारे पासवणे अहियासे ॥ ५ ॥ आगढे दूरे पासवणे अहियासे ॥ ६ ॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ ॥ उपाश्रयना द्वार बाहिर नजीक रहीने करे॥ अणागाढे आसन्ने ऊच्चार पासवणे अणहिआसे ॥ १॥ अणागाढे आसन्ने पासवणे अणहियासे ॥ २ ॥ अणागढे माझे उच्चारे पासवणे अणहियासे ॥ ३ ॥ अणागाढे माझे पासवणे अणहियासे ।। ॥ ४ ॥ अणागाढे दूरे उच्चारे पासवणे अणहियासे ॥ ५ ॥ अणागाढे दूरे पासवणे अणहियासे ॥ ६ ॥ ॥स्थंडिलने स्थानके वेगला ॥ अणागाढे आसन्ने उच्चारे पासवणे अहियासे ॥१॥ अणागाढे आसन्ने पासवणे अहियासे ॥२॥ अणागाढे माझे उच्चारे पासवणे अहियासे ॥ ३ ॥ अगागाढे मझे पासवणे अहियासे ।। अणागाढे दूरे उच्चारे पासवणे अहियास ॥ ५ ॥ अणागाढे दूरे पासवणे अहियासे ॥ ६ ॥ इति चोवीस मांडला संपूर्ण ॥ पछी इरियावही कही संध्या प्रतिक्रमण विधिथी करवू, तेमां देवसियं आलोएमि, जो मे देवसिओ पाठ कही रह्या पठी, गमणागमण आलोवू ? इच्छं कही इर्यासमिति १, भाषा समिति २, एषणा समिति ३, आदान भंडमत्त निख्खेवणा समिति ४, पारिष्टापन समिति ५, मनोगुप्ति ६, वचनगुप्ति ७, कायगुप्ति ८, ए पांच समिति, त्रणगुप्ति ए अष्ट प्रवचन माता श्रावक तणे धर्मे पोसह सामायक माहि, खंडन विराधना थइ होय, ते सवि हुं मन, वचन, कायाए करी तस्स मिच्छामि दुक्कडं, पछी सात लाख० अढार पापस्थानक० चार विकथा० कहेवी, पछी. सबसवि० आ विधि पोसहवालाने देवसियं आलोएमि, Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ जो मे देवसियो ० आ पाठ कह्या पछेनी छे, अने छुटाने तो, आठ प्रवचन मातानो पाठ न कहेवो ॥ | ६० अथ राइ संधारा विधि | पहोर रात गया पछी खमासमण दह, बहुपडिपुन्ना पोरसो, आदेश मांगी इरिहि पकिमि, प्रगट लोगस्स कहो, इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन् बहुपडिन्नापोरसी; एम कही बेसीये. चऊकसाय० चैत्यवंदन • •नमुत्थुगं० जावंति० जावंत, बे गाथा कहो अनंता सिद्धजीवने माहरो नमस्कार होजो कही; स्तवननो आदेश मागी नवकार, ऊवसग्गहरं, 'जयवीयराय कही खमासमण दइ इच्छाकारेण संदिस्सह भगवन्, राइ - संथारा मुहपत्ति पडिले हुँ ? एम कही मुहपत्ति पडिलेही, संथारभूमि पाट पडिलेहवी, पछी संथारे बेसीने संथारा पोरसी भणवी ॥ ।। ६१ अथ संथारा पोरिसी । पण वेदन अणुजाणह जिहिज्जा, जिहिज्जा निसिही नमो खमासमणं गोयमाइणं महामुनीर्ण, अमे करेगी अणुजाणह परमगुरु गुणगण रयणेहि मंडिय सरीरा । बहु पडिपुन्ना पोरसी राइयं संथारयं ठामि ॥ १ ॥ अर्थ :- हे परमगुरु ! मोटा गुणरूप रत्नोथी शोभायमान शरीरवाळा, मने आज्ञा आपो के हुं रात्रिनो संथारो करूं, केमके पोरसी पूर्ण थइ छे. १ अणुजाणह संथारं बाहु वहाणेण वाम पासेणं । कुकड पाय पसारण अतरंतो पमज्जए भूमिं ॥ २ ॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ अर्थ :- हे गुरु | मने संथारानी आज्ञा आपो. (पछी) डाबा पासे हाथना ओशीकावडे कुकडीनी पेठे पग प्रसारीने (सूइ) न शके तो भूमिनुं प्रमार्जन करे. २ संको संडासा उव्वतेय कायपडिलेहा | दव्वाइउवओगा ऊस्सास निरंभणा लोए ॥ ३ ॥ अर्थ:-- ढोंचण संकोचीने पासु फेरवतां शरीरनुं पडिलेहण करे अने द्रव्यादिनो विचार श्वास संधीने करे. ( जेम के हुं कोण कुं ? क्या छु ? केवा समयमां हुं ? लघुनीति विगेरेनी बाधा छे के नहि ? विगेरे चितवे ). जर मे हुज्ज पाओ इमस्स देहस्सि माइ रयणीए । आहारमुवहिदेहं सव्वं तिविहेण वोसिरे ॥ ४ ॥ अर्थः--जो आ रात्रिमां आ शरीरनुं मरण थाय, तो आहारउपधि अने शरीर ए सर्व हुं वोसिरावुं (तनुं ) कुं. अरिहंतो महदेवो जावज्जीवं सुसाहुणो गुरुणो । जिण पन्नत्तं तत्तं इय सम्मत्तं मए गहियं ॥ ५ ॥ अर्थः- अरिहंत मारा देव, यावत् जीव पर्यन्त सुसाधुओ गुरु अने जिनेश्वरे कल तत्त्व ए प्रमाणे में सम्यक्त्व ग्रहण कर्तुं छे. ५ ( पछी चत्तारी मंगलं पूर्ण कहीने ) चउरंगा जिणधम्मो न कओ चऊरंग सरणम विनकयं । चऊरंग भवुच्छेओ, न कओ हा हारिओ जम्मो ॥ १ ॥ अर्थ:- चार अंगवाळो जिनधर्म न कर्यो, चार प्रक्रानुं शरण न कयुं अने चार प्रकारना भवनो नाश पण न कर्यो, अरे रे ! आ जन्म.. फोगट हारी गयो १ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ अरिहंत सिद्ध साहू केवलि कहिओ सुहावहो धम्मो ॥ एए चउरो चउगइ हरणो सरणं लहइ धन्नो || २ ॥ अर्थ :- अरिहंत - सिद्ध-साधु अने केवळी भगवन्ते कहेलो सुखकारी धर्म ए चार, नरकादि चार गतिना हरनार छे. तेनुं शरण जे धन्य पुरुष होय ते पामे छें. २ पाणाइवाय मलियं चोरिक्कं मेहुणं दविणमृच्छं । कोहं माणं माया लोहं पिज्जं तहा दोसं ॥ ३ ॥ अर्थः-- प्राणातिपात - पृषावाद - चोरी - मैथुन - द्रव्यनी मूर्च्छा (परिग्रह ) - कोध - मान - माया - लोभ - प्रेम तथा द्वेष. ३ कलहं अभक्खाणं पेसुन्नं रइअरइ समाऊत्तं । परपरिवायं माया मोसं मिच्छत्त सलं च ॥ ४ ॥ अर्थ:-- कलह ( कजीओ, जुहुं आळ, चाडी, प्रीति - अप्रीतियुक्त परनिंदा, माया ( कपट ) युक्त मृषा भाषण अने मिथ्यात्वशल्य. ४ वोसिरिसु इमाई मुक्खमग्ग संसग्ग विग्ध भूयाई ॥ दुग्गर निबंधणाई अठ्ठारस पावठाणाई ।। ५ । अर्थ:-- आ अढार पापस्थानको मोक्ष मार्गनी प्राप्तिमां विघ्नभूत छे अने दुर्गतिना कारण छे, माटे तेमनो त्याग करवो. ( आ पछी सातलाख० कहेवा ते पछी )+ एगोहं नत्थि मे कोई, नाह मन्नस्स कस्सइ | एवं अदीणमणसो अप्पाण मणु सासइ ॥ १ ॥ + पण अठार पापस्थानक तथा चार विकथा न कहेवी. Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "४१७ अर्थ:--हुँ एकज छु, मारुं कोइ नथी अने हुं पण कोइनो नथी. एम दीनतारहित मनवाळो थइने पोताना. आत्माने शिक्षा आपे. १.. एगो बच्चइ जीवो, एगो चेव ऊवज्जई। एगस्स होइ मरणं, एगो सिज्जइ नीरओ ॥ २॥ अर्थ:-आत्मा एकलोज परलोकमां जाय छे, एकलोज उत्पन्न थाय छे, एकलानुज मरण थाय ने एकलोज कर्मरहित थइ मोक्ष पामे. २ एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसणसंजुओ। सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥३॥ अर्थ:-ज्ञान-दर्शन युक्त एक मारो आत्माज शाश्वत [नित्य] छे, बाकीना मारा बाह्यभावो छे, ते सर्वे संयोगथी प्राप्त थया छे. ३ संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुक्खपरंपरा । तम्हा संजोगसंबंध, सव्वं तिविहेण वोसिरे ॥४॥ अर्थ:-संयोग जेनुं मूळ कारण छे एवी दुःखोनी परंपरा आ जीवे प्राप्त करी छे, माटे सर्व संयोग संबंध त्रिविधे वोसिरायूँ छु-तनुं छु ४ पछी नवकार गणवा, संसार स्वरूप भाव, अर्थ विचारीए, निद्रा टाळवानी खप करवी. ॥ इति रात्रि संथारा विधि। पाछली राते उठी इरियावाह पडिक्कमि राइ पडिक्कमणुं करवं, ते विधि पूर्वे जेम लखी छे ते प्रमाणे जाणवी; पछी पडिलेहण (जुवो पृष्ठ ४०१) करी सज्झाय करवी, पछी देव वांदवा (जु. पृ.४०६) इच्छामि० इच्छाका० इरियावहियं पडिक्कमामि एम कही इरियावहि पडिक्कमि काउस्सग्ग करी प्रगट लोगस्स कही पछी पोसहपारवा मुहपत्ति पडीलेही इच्छामिक २८ * Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्छाका० पोसह पारु ? इच्छामि० इच्छाका० पोसह पुरुं एम कही नवकार गणी पोसह पारवानी गाथा कहेवी. ॥६२ अथ पोसह पारवानी गाथा॥ सागरचंदो कामो, चंदवडिसो मुदंसणो धमो । जेसिं पोसहपडिमा, अखंडिया जीवियतेवि ॥१॥ " अर्थ:-सागरचंद्र,कामदेव,चंद्रवतंसक अने सुदर्शन शेठ (विगेरेने) धन्य छे, के जेम्नी पौषवप्रतिमा जीवितना अंते पण अखंडीत रही. १ जे तव सोसियकाया, ते सव्वे हुंति संथुआ जाया। आणंदकामदेवा, सुसावया दस वि ते धन्ना ॥२॥ अर्थ:-जेमणे तपथी काया शोषवी छे, ते सर्वे स्तववा योग्य छे, तथा आनंद-कामदेव विगेरे दस सुश्रावकोने पण धन्य छे. २ धन्ना सलाहणिज्जा, सुलसा आणंदकामदेवा य । जेसि पसंसइ भयवं, दढव्वयं तं महावीरो ॥३॥ अर्थ:-सुलसा-आनंद अने कामदेव श्रावक धन्य छे, तेओ वग्वाणवा योग्य छे के जेमना दृढवतनी भगवान महावीरे प्रशंसा करी. ३ पोसहेसु सुहे भावे, असुहाइ खवेइ नत्थि संदेहो। छिंदइ तिरिनिरयगइ, पोसहविहि अपमत्तो य ॥४॥ अर्थ:--पौषधमां शुभभावे वर्तता अशुभ कर्मों खपावे एमां संदेह नथी; बळी तियेच अने नरकगति पण प्रमाद रहित पौषध करवाथी छेदे छे. ४ पोसह सामाइय, संठियस्स जीवस्स जाइ जो कालो। सो सफलो बोधब्बो, सेसो संसारफलहेउ ॥ ५॥ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१९ अर्थः-- पौषध अने सामायिकमां रहेला जीवनो जे काळ जाय च्छे ते सफळ छे, बाकीनो काळ संसार फळ हेतु जाणवो. ५ " पछी इच्छामि० इच्छाकारेण • सामायक पारुं ? इच्छामि ० इच्छाकारण० सामायिक पुरुं पछी एक नत्रकार गणी सामाइयत्रयजुत्तो कहेवो. पछी त्रण नवकार गणवा. ।। इति श्री पोसह विधि समाप्त || अथ पच्चख्वाणानि. ६३ पुरिम अवढ्नुं पच्चक्खाण. सूरे उरंगए पुरिम पच्चक्खाइ, चउन्निपि आहारं, असणं, पाण, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नका लेणं दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरइ ॥ ॥ ६४ एकासणा बियासणानुं ॥ ॥ उग्गए सूरे, नमुकारसहिअं पोरिसिं पच्चख्खाइ, चउव्विपि आहारं असणं, पाणं, खाइमं, साइमं ॥ अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं, साहुवयगं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, एगासणं बियासणं पञ्चक्खाइ, तिविहंपि आहारं असणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, सागारियागारेणं, आउंटणपसारेणं, गुरुअब्भुट्टाणेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिबत्तियागारेणं || पाणस्स लेवेण वा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससित्थेण वा, असित्थेण वा वोसिरइ ॥ R Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० : ६५ ॥ आयंबिलमुं पच्चख्खाण. ॥ 1 उम्मए सूरे, नमुक्कारसहिअं, पोरिसिं साढपोरिसिं, पच्चख्खाइ || चव्विपि आहारं असणं, पाणं, खाइर्म, साइमं, अन्नत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं, दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवंत्तियागारेणं || आयंबिले पच्चक्खाइ || अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, लेवालेवेणं, गिहत्थ संसट्टेणं, उक्खित्तविवेगेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, एगासणं पच्चक्खाइ तिविहंपि आहारं असणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणा भोगेणं सहसागारेणं, सागारिआगारेणं, आउंटणपसारेणं, गुरुअब्भुट्ठाघोणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिबत्तियागारेणं पाणस्स लेवेण वा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससित्थेण वा असित्थेण वा, वोसिरइ || ६६ ॥ तिविहार उपवासनुं ॥ सूरे उग्गए, अब्भन्त पच्चक्खाइ तिविहंपि आहारं असणं, खाइमं, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिबत्तियागारेणं ॥ पाणहार पोरिसिं, साढपोरिसिं पच्चक्खाई ॥ अन्नत्थणा भोगेणं, सहसागारेणं, पच्छन्नकालेणं दिसामोहेणं, साहुवयणेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, पाणस्स लेवेण बा, अलेवेण वा, अच्छेण वा, बहुलेवेण वा, ससित्थेण वा, असित्येण वा वोसिरइ ॥ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म, पच्चाबहार खाइम, ६७॥ चउबिहार उपवासनु। ... सूरे उग्गए अब्भत्तठं पञ्चक्खाइ चउव्विहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, पारिट्ठावणियागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारण, बोसिरइ ॥ ॥अथ सांजना पच्चक्खाण ॥ ६८ ॥ पाणहारनुं पच्चक्खाण ॥ ॥ पाणहार दिवसचरिमं पच्चक्खाइ । अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, बोसिरइ ॥ इति ॥ ६९ ॥ चउविहार- पच्चख्खाण ॥ दिवसचरिम, पच्चक्खाइ । चउविहंपि आहारं, असणं, पाणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थगाभोमेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सञ्चसमाहिवत्तियागारे, वोसिरइ ॥ ७० ॥ विविहारनुं पच्चक्खाण ॥ दिवसचरिमं पच्चक्खाइ तिविहंपि आहारं, असणं, खाइम, साइमं, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं, सव्वसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरइ ॥ ७१ ॥ दुविहारर्नु पच्चक्वाण ॥ दिवसचरिमं पच्चक्खाइ । दुविहंपि, आहार, असणं, खाइम, अन्नत्थणाभोगेणं, सहसागारेणं, महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारणं वोसिरह ॥ ७२ ॥ चउदनियमनुं पच्चक्खाणा ॥ ..देसावगासिय उवभोगं परिभोगे पच्चक्खाइ । अन्नथणाभोगेणं; सहसागारेणं, महत्तरागारणं, सवसमाहिवत्तियागारेणं, वोसिरह ॥इति।। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ ॥ अथ मुट्ठिसहियं गट्ठसहियंर्नु पच्चक्खाण ॥ मुठिसहियं गंठिसहियं पच्चक्खामि, चउविहंपि आहारं असणं पाणं खाइमं साइमं अन्नत्थणाभोगेणं सहस्सागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ॥ ॥ ७४ अथ देशावगाशिक पच्चक्खाण ॥ अहन्नभंते तुम्हाणं समिवे देसावगासियं पच्चवखामि तं जहा दव्वओ खितओ कालओ भावओ दव्दओणं देशावगासियं खित्तओणं इत्थं वा अन्नत्थं वा कालोणं महत्तपरिमाणं जाव धारणापमाणं पाजुदासामि भाव ओणं जावगहेणं नगहि जामि जावलेणं नलिज्जामि अन्नेण केण रोगायकेण वा, परिणामो न परिवडइ ताव मे अभिग्गहो अन्नत्थणाभोगेणं सहस्सागारेणं महत्तरागारेणं सव्वसमाहिवत्तियागारेणं वोसिरइ ॥ इति । ७५॥ श्री आदि-अजित-श्रीशांतिनो स्तवनः।। आदि अजित श्रीशांतिनो, दीठो दरिसण आज ॥जाणिक जयवंता मिल्या, सीधां सवि काज ॥ १॥ त्रिजगजीवन जिन भेटिये, थयो हरख अपार ॥ ए संसार असारनो, लाधो एहिज सार । त्रि०॥२॥ वंश इख्यागे राजीयो, नृप नाभिमल्हार ॥ माता मरूदेवा रे, धन धन अवतार ॥ त्रि० ॥ ३ ॥ अढार सहस सीलंगरथे, सोहे धोरी धीर ।। वृषभलंछन तिहां आवियो, समरथ गंभीर ॥ त्रि० ॥ ४ ॥ जितशत्रु विजया कुलतिलो, स्वामि अजिअ जिणंद ॥ सौम्यकला ससियर जिसो, दीपे तेजे दिणिंद ॥ त्रि० ॥ ५ ॥ गयलंछण धनु च्यारसे, साढा देह प्रमाण ॥ तसु दिन दिन दीपे कला, माने जे जग आण ॥ त्रि०॥६॥ तीर्थकर जग सोलमो, मृगलंकन एह ॥ त्रीस अधिक दश धनुषनो, Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२३ सो परिमाणे देह ॥ त्रि० ॥ ७ ॥ गर्भ छतां गुण एहवा, शांतिकरण श्रीशांति ॥ पूरो आशा अम तणी, टालो भवभयभ्रांति ॥ त्रि० ॥ ८ ॥ ॥ कलश ॥ इम जिनचउवीसे, प्रतिमा दीसे, आदि अजित श्रीशांतिजिन ॥ जसु वासे पउमा, च्यारे पडिमा, आणी हियडे भाव घण ।। महिमागुणसुंदर, धीरिममंदर, मतिमंदिरे त्रिभुवनधणी ए ॥ जे जिनवर वंदे, ते चिरनंदे, श्रीपार्श्वचंद्रसूरि संथुणीए ॥ . ७६ शान्तिनाथ स्तवन. ( राग-रखीया बंधावो भैया.): शान्ति प्रभुनी सेवा, करी गुण गावो रे, अरिहंत ध्यावो भैया, कुमति हठावो रे. ( टेक.) विश्वसेनराय पिता, अचिरादेवी माता; पूजो देवाधिदेवा, शिवसुख पावो रे. ॥ शान्ति० ॥१॥ माताने गर्भे आया, मारी रोग निवार्या; प्रभुना प्रभाव एवा, सेवी लो लावो रे, ॥शान्ति०॥२॥ भावे वंदन करीए, भावशत्रु हरिए, तेथी शीवपद मेवा, वेगेथी पावो रे. ॥ शान्ति० ॥ ३ ॥ पार्श्वचन्द्रसूरि, गुण गणना भूरो, सहज राजेश देवा, एक चित्त ध्यावो रे. ॥ शान्ति० ॥ ४ ॥ मंगळ माळा वरवा, सरवे दुःख हरवा, परम पदने लेवा, भवसागर नावो रे. ॥शांति०॥५॥ ७७ श्री पार्श्वनाथ स्तवन. ( मीठा लाग्या छे-ए देशी)" नीरखी श्री पार्वतणी, मूरति मन मोहनी, आत्म थयो उजमाल रे, जिनराज मुजने संभारजो, कृपानिधि भवने हठावजो ॥ १ ॥ मुगट कुंडल दोय, दीपे रळीआमणा, कंठे हीरा तणा हार रे। जिन० कृपा० ॥ २ ॥ समये समये प्रभु, स्मरण कर्ता, आनंद प्रगटे अपार रे ॥ जिन० ॥ ३ ॥ प्रशम रसे प्रभु, ध्यान लगायो, करुणा रसे गरकाव रे ॥ जिन० ॥ ४ ॥ देदार देखी प्रभु, निरागी निर्मोही, भव्यो थया | Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ भवपार रे ॥ जिन० ॥ ५ ॥ सूरिः सागरचन्द्र, शिष्य वृद्धिचन्द्र, नमे प्रसुने वारंवार रे ॥ ६ ॥ जिन० कृपानिधि० ॥७॥ ७८ श्री पार्श्वनाथ मंत्र गर्भित स्तवन (देशी - चालती अने त्रुटकनी ) सकल सदा फल चिंतामणी समो, नवरंग नारंग पास भविक नमो . ॐ नमो भावे पास ध्यावे नाथ श्री श्री भगवती, धरणेंद्र पद्मावतीय माया बीजराया संजुती; अद्वेय मट्टे क्षुद्र विघट्टे क्षुद्रान्थमय थंभया, वाजंती भुंगल दूरि मयगल चूरि अष्ट महाभय ।। १ ।। आशा पूरे पास पंचासरो, श्री वरकाणो पास संखेश्वरो. संखेश्वरो श्री पास थंभण, गोडी मंडण नाहलो, नवखंड श्री कलि कुंड, इण जग जागतो जीराउलो; जागतो तीरथ हरे, अनरथ पास समरथ तुं धणी, हवे चडो व्हारे विघ्नभयहर, सारकर तिहुअण तणी ॥ २ ॥ कुरु कुरु वंछित नवनिधि संपदा, स्वाहा पदस्युं टाले आपदा आपदा टाले राजपाले, पास त्रिभुवन राजीओ, कलिकाल मांहि पास नामे, मंत्र महिमा गाजीओ, दारिद्र चूरे आस पूरे पास तुं जगदीश ए, चरण प्रमोद तसु शिष्य जंपे, पूरइ संघ जगीस ए ॥ ३ ॥ ७९ श्री पार्श्वनाथ ( २१ नाम गर्भित ) स्तवन. ( आतो लाखेणी आंगी कहेवाय - ए राग ) प्रभु पार्श्व ते प्रेमे नमाय शोभे जिनवरजी; भक्तिभावे ते भावना भवाय, शोमे जिनवरजो; पूजा आंगी ते सुंदर रचाय, शोमे जिनवरजी; टेक० (आंतरी) प्रभु चमत्कारे बहु नाम स्थपाय; भवि भयो स्थंभि, पार्श्व • Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थंभन कहेवाय, एतो नवपल्लव निरखाय ॥ शोभे जिन० ॥ १ ॥ (आंतरो ) - गोडी गाडलीया, कळी शंखेश्वरा; सेवुं चिंतामणि, पूजु अजाक्श, एतो गंभीरागुणे सोहाय ॥ शोभे जिन० ॥ २ ॥ भीडभंजन फलोधी, नमु भीलळीया; वरकाणा कंशारी, सोहे सामळीया, एतो अंतरीक नवखंडा नमायः ॥ शोभे० ॥ ३ ॥ जगवल्लभ शेरीसा, जिन अमीजरा, मन मोहन पार्श्व, प्रभु पंचासरा; एतो लोडण पार्श्व देखाय || शोभे ॥ ४ ॥ भ्रातृसागर सूरीश्वर सेवि सदा वृद्धि विनति स्वीकारो, आजे मुदा, एतो निरमल भावे सेवाय || शोभे० ॥ ५ ॥ ८० जगडीआ मंडन - श्रीरुषभदेव स्तवन देखी श्रीपार्श्वतणी ० मंगलकारि प्रभु रुषभदेव ते, दीठा जगडिआ माय रे; आदि देव सेवक संभारजो, कृपानिधि आत्म उगारजो. टेक. ॥ १ ॥ सुन्दर जिना - लय शोभे छे सारं, पंधराव्या प्रभुजी ते माय रे. ॥ आ० ॥ २ ॥ ध्यानस्थ मूर्ति, श्री रुषभदेवनी, नीरखिने मन मलकाय रे. ॥ आदि ० ॥ ३ ॥ मातृ वच्छल प्रभु, आप कहावो, उगार्या श्रेयांस राय रे. ॥ आदि० || ४ || सिधि सुखोने, भोगवता भारी, अजर अमर पद पाय रे. ॥ आ० ॥ ५ ॥ ओगणीसे सताणुं, चैतर मासनी, वदि सातमे कराय रे. ॥ आ० ॥ ६ ॥ प्रभुजी भेटीने, स्तवना करीए, वृद्धिचंद्र हरखाय रे. ॥ आ० ॥ ७ ॥ ८१ जिनेंद्र स्तवन ( भावना. ) नाथ ! मुने निर्बळ जागी निभावो, तुज पर दीन दासनो दाचो; नाथ ! मने निर्बळ जाणी निभावो ॥ १ ॥ भवसागरमा क्यारनो भवकुं Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ • शोध्यो जडे नहि भारों; आभमां काळा वादळ उमट्यां, क्यारे मळशे किनारो ? नाथ! मने निर्बळ जाणी निभावो ॥ २ ॥ डगमग डगमग डोलतो नैया, गुरु ! हलेसी मारो, संकटमा मने शरणं तमाएँ, संसार पार उतारो; नाथ ! मने निर्बळ जाणी निभावो || ३ || मंदमतिनो हुं कां न समज्यो, देहथी नेह वधार्यो, स्नेही, सबंधी, सगाव्हालामां, तुजने छेक विसार्यो; नाथ ! मने निर्बळ ज.णी निभावो ॥ ४ ॥ सूरज चांदो तेजथी छलके, एक किरण दरशावो, दिलमां उछळे सिंधु दयानो, एक बिंदु वरसावो; नाथ ! मने निर्बळ जाणी निभावो ॥५॥ दुरीशन आपो दीनदयालु प्रभु विद्याचंद विनवे ओथ बिनानो, दीन दयाळ शरणागत वत्सल, भेरु पंथ भूल्यानो; नाथ ! मने निर्बळ जाणी निभावो ॥ ६ ॥ ८२ श्री सद्गुरुनी स्तुति. शांति जिणंद प्रणाम करी, अहनिश निज चित्त प्रमोद धरी, पाप पडल सवि दूर हरी, सूरिपार्श्वचंद्र थवशुं हरखभरी ॥ १॥ सूरिशिरोमणी जग राजे, जसु सद्गुरु साहूरयण छाजे,, वडतपगच्छ नायक गाजे, सवि अरिहंत केरादल भाजे... ॥ २ ॥ शास्त्र सकल लघुपणे जाणे, वळि देव प्रभावे मेह आणे, रायराणा जेहने प्रणमे, पूज्य आगळ हीयडे मदनाणे ॥ ३ ॥ शीख लही सद्गुरु पासे, ग्रही संजम समता मनवासे, उत्तम लक्षण जसु तनु मासे, नर नारी गुण गावे रासे ||४|| गुर्जर मरु मालव देशे, प्रतिबोध्या भवियण उपदेशें कुमति Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२७ मिथ्यात्व न रहे लेशे, जिन मारग सुधो सम वेसे. ॥५॥ नयर जोधाणे अनुक्रमे आवे, लही अणसण सुरनी गति पावे, संघ मिली पगलां ठावे, जसु जात्रा दिशो दिशथी आवे ॥६॥ पूज्य शृंभ भली महिमा परसे, सेवक घर कमला केलि करे, परघर पुण्य भंडार भरे, जसु कीरति चिंहुदिश काज सरे ॥ ७॥ आतुर अरति रोग सोग समे, भय सात सहि ततकाल गमे, अडवी पडया जे पूज्यजी नमे, ते कुशल कल्याणे पंथ कमे. ॥ ८॥ जे गुरु चरण कमळ ध्यावे, सुत वंछे ते नर सुत पावे, अष्ट महासिद्धि घर लावे, दुःख सायर उत्तरि तट जावे. ॥९॥ वयर विरोध सन्ताप टले, गुरु समर्या वेरीना मान टळे, नवि भूत व प्रेत पिशाच छले, ग्रह गोचर भूडा जाय विले. ॥१०॥ नयर जोधाणे शोभा सुणी, वली नागोर बीकानेर पूजा घणी, सानिध करो पूज्यजी संघभणी, मुनि मेघराज भणे सुख लाभ गणी॥११॥ ८३ श्रीभ्रातृचंद्रसूरीश्वरजीनो छंद. (हरिगीत छंद) श्रीपार्धचंद्र सूरींद नागपुरीद तपगण नभमणी, तसपट परंपर गण धुरंधर हेमचंद्रसरि गुणी; निग्रंथ गुरु तस पाट राजे आज गाजे मुनिवरा, भवि भक्तिभावे नमो निशदिन भ्रातृचंद्रसूरीश्वरा ॥१॥छे शांत दांत महंत किरियापात्र समतासागरु, पंडित प्रवर विद्वान बुद्धिनिधान विद्याआगरु, अघ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ओधवारक महाप्रभावक धर्मधोरी धुरंधरा, मवि भक्तिमाये नमो निशदिन भ्रातचंद्रसूरीश्वरा ॥२॥छे भव्य आकृति धर्म मूर्ति प्रभु तुल्य मनोत्ति, तव तेज दीपे कदि न छीपे माग्यनी चडती रति, वळी शरद शशि सम सौम्य कांति शांतिवान शुभंकरा, मवि भक्तिभावे नमो निशदिन भ्रातृचंद्र सूरीश्वरा. ॥ ३ ॥ गुरु गच्छनायक ज्ञानदायक संघमां लायक मुदा, गतराग रोष न दोष जरिए तोष सुख दुःखमां सदा, छत्रीस गुणगण युक्त सूरीश्वर चरण गुणथी अलंकर्या, भवि भक्तिभावे नमो निशदिन भ्रातृचंद्र सूरीश्वरा ॥४॥ जिनमाण अस्त थतां सूरीश्वर ज्ञानदीप प्रकाशता, मिथ्यांधकार विकार टाळी भविकजन प्रतिबोधता; शुभ छंद सांकळचंद कहे पावन करी भारतधरा, भवि भक्तिभावे नमो निशदिन भ्रातृचंद्र सूरीश्वरा. ॥५॥ ८४ आचार्य दे० श्री भ्रातृचंद्रसूरीश्वरगुणनीसज्झाय. ॥ अरणीक मुनिवर चाल्या गोचरी-ए राग॥ सुगुण सनेहारे घडीय न विसरे, श्रीभ्रातृचंद्र सरिराजरे, 'शासन सूबोरे स्वर्ग सिधावियो, क्यां प्रगटयो दिन आज रे ॥ सु०॥१॥ भुज मुनि भक्ति शशि संवत्सरे (१९७२), "कृष्ण पक्ष वैशाखे रे, अष्टमी रात्रे रे राजनगर विषे, अस्त दीपक थयो दाखे रे ।मु० ॥२॥ ज्ञानदिवाकर आज डुबी गयो, मध्यवये शुभ ध्याने रे, स्वपर समय जाण गुरु क्या Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२९ गया ? निश्चय देव विमाने रे ॥ सु.॥३॥ भारतभूषण गतदूषण गुरु, समता सागर धीर रे; मिथ्यामत घनघोर विखेरवा, अप्रतिबद्ध समीर रे ॥ सु०॥४॥ पखी मेळो रे तजी शिष्य वर्गनो, हंसराज गयो उडी रे; निरागीथी रे रागनी रीतडी, प्रीत अनित्य ए कुडी रे ॥ मु०॥ ५ ॥ धर्म प्रासादनो भाग्यो थांभलो, त्रुटी पुण्यनी पाज रे, गिरुवा गुणनिधि गीतारथ गया, सकल मुनि शिरताज रे ॥ सु०॥ ६॥ भव्य स्वरूप तपतेज दिवाकरु, गौरवर्ण गुरुराज रे कंचन वरणी रे काया गुरु तणी, भवोदधिमां गुरु झाझ रे॥ मु० ॥ ७ ॥ सौम्य शीतलता रे चन्द्र समानता, सागर सम गंभीर रे; अमीय कचोळां रे नेत्र बे निर्मळां, वयण खरे फूल वीर रे ॥ सु० ॥ ८॥ जंगमतीरथ सुरतरु साह्यबो, मुनिपति करुणासिंधु रे; परमपुरुष परमारथ पुतळु, निष्कारण जग बंधु रे ॥ सु०॥ ९॥ धर्मधुरंधर धोरी भांगीयो, रथडो दड पडयो घाडो रे; वळी कोइ एवो रे सद्गुरु पाकशे, काढशे खुंत्यो गाडो रे॥ सु० ॥१०॥ सेवक कहीने रे कोण बोलावशे ? कोण करशे संघ साज रे ? पाप ताप हवे कोण निवारशे ? क्यां सरशे हवे काज रे? ॥ सु०॥ ११ ॥ वहेला मोडा रे सौ संसारमां, संचरवं ए वाटे रे; पण गुरु निजपर कारज साधिने, कर्म निकाचीत काटे रे ॥ सु० ॥१२॥ समरण करतां रे ए मूरिराजनु, मटे पाप संताप रे, स्वप्नमां मळजो रे एक दिन साह्यबा, साकळचंदने आप रे ।मु०॥१३॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ आचार्यदेव श्री सागरचंद्रसूरीश्वरजीनी स्तुति (आतो लाखेणी आंगी कहेवाय, शोभे जीनवरजी-ए राग ) आ तो आचार्य देव कहेवाय, शोभे सूरीश्वरजी; शुद्ध संयमथी कर्मों दलाय, शोभे सूरीश्वरजी, महीयले विचरी भव्यो तराय, शोभे सूरीश्वरजी. टेक (आंतरो)-भाव शत्रुओ दळवा तत्पर रहे, द्रव्य शत्रओ देखीने वैराग्य वहे; जाणे सूर्योमां सूरि सोहाय, शोभे सूरीश्वरजी. १ (आंतरो)-जिनवाणी वडे मवि भवो दहे, . शुद्ध समकित दइ शुभ मार्गे वहे; जाणे ज्ञानमां गुरु मलकाय, शोभे सूरीश्वरजी. २ (आंतरो)-गुरु वाणी सुधा नित्य मवि ग्रहे, जंगम कल्प जाणी गुरु सेवा वहे; ए तो निरमल नयणे निरखाय, शोभे सूरीश्वरजी. ३ (आंतरो)-गुरु भक्तिना उत्तम जे कार्यो करे, नित्य शुद्ध भावे शुभ गति वहे; ए तो पुन्य दीपक प्रगटाय, शोभे सूरीश्वरजी. ४ - (आंतरो)-भूरि सागरचन्द्रजी गुरु अनोपम, वृद्धि वंदन स्वीकारो आजे शुभोपम; भवि कुमुदो सहे. जे विकसाय, शोभे सूरीश्वरजी. ५ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३१ ८६ आचार्यदेव श्री सागरचंद्रसूरीश्वरजीनी सज्झाय वीसरे ए राग ) ( सुगुण सनेहा रे घड़ीय न सागरचंद्रसूरीश्वर क्यां गया, मुकी सौ समुदाय रे; मव्योधारक गुरुवर आप छो, आवो अम मन माय रे || सागर० ॥ १ ॥ वैराग वासीत वाणी सुणावीने, तार्या केइ नरनार रे; तुम उपगार न भूले मविजनो, भक्तिने भजनार रे ॥ सागर० ॥ २ ॥ भाडीआ गामे जन्म्या गुरु तमे, शुभ पुन्ये पाम्या नाण रे; उत्तम दीक्षा खंभात नगर विशे, आपे aaगुरु नीज हाथे रे; || सागर० ॥ ३ ॥ ज्ञानी ध्यानी चारित्र चूडामणी, उत्तम गुणे गुरु गाजे रे, संघ सकळने भाव घणो थयो, अर्पवा पद सौ साजे रे || सागर० ॥ ४ ॥ चतुर्विध संघ मळी सौ भावथी, राजनगरमां आवे रे; भ्रातृ सूरीश्वरनी पाटे स्थापना, सागरचंद्रमुनिने मावे रे | सागर ० ॥ ५ ॥ ध्रांगधा गामे सूरिजी पधारीया, वरसावी अमृत वाण रे; आयु कर्म ते पुरण भोगवी, गया स्वर्गे स नाण रे || सागर० || ६ || विसरे न घडी पल सूरि तुम नाम जे, सागर सम गंभीर रे;अम मन भमरा ते पुष्प खरी जता, दुःख माने जंजीर रे || सागर० || ७ || स्वप्नमां आवो रे आप दया करी, सेवकने संमारी रे; वृद्धिचंद्रनी विनती स्वीकारजो, महेर करी उपगारी रे ॥ सागर० ॥ ८ ॥ ŵ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८७ स्व० मणिपर्यश्री अगवचंद्रजी महाराजनी स्तुति (जिनने कोडो० देशी) जगतचंद्र तपस्वो मुनिने कोटी नमन, मुनिने कोटी नमन. देशलपुरमा जन्म ज लीधो, साल १९३५ सीधो, श्रावक कुल अभिराम, ॥ मुनिने. ॥ १॥ पिता रायशीभाइना नंदन, माता नेणवाइ गुणकंदन, तस कुखे अवतार. ॥ मुनिने. ॥ २ ॥ बाळपणे संयमना रागी, आत्मकल्याणनी लगनी लागी, करे धर्म अभ्यास. ॥ मुनिने. ॥ ३॥ ओगणीसे पंचावन साले, फागण वदी १० शुभवारे, संयम ले सुखकार. ॥ मुनिने. ॥ ४ ॥ भ्रातृचंद्र सूरीश्वर हाथे, वासक्षेप नंखाव्यो माथे; दिक्षा अंजार गाम. ॥ मुनिने. ॥ ५ ॥ धारशीभाइना नंदन जाणो, दामजीभाइ छे गुणखाणो; कों दिशा महोत्सव. ॥ मुनिने. ॥ ६ ॥ अखंड ब्रह्मचारी रहीने, शुद्ध मने चारित्र ग्रहीने, सार्यों आतम काम. ॥ मुनिने. ॥ ७ ॥ अरिहंत प्रभुनुं ध्यानज धरता, समता भावमां मन रस बसता, पाम्यां स्वर्ग सदन. ॥ मुनिने. ॥ ८ ॥ ओगणोसे सत्तागुं साले, वैशाख सुदि चोथ बुधयारे, देह छोड्यो उनावा गाम. ॥ मुनिने. ॥ ९ ॥ नाथ विनानो कयों परीवार, सफल कीधो निज अवतार, हवे अम कोण आधार. ॥ मुनिने, ॥ १० ॥ भीडभंजन पारस दरबारे, अट्ठाइ ओच्छव कीधो भारे. संघ मळीने साज. ॥ मुनिने, ॥ ११ ॥ उन्नीसो सत्ताणु वर्षे, विजयादशमी मंगळवारे, चरण स्थाप्या ते गाम. ॥ मुनिने ॥ १२ ॥ जगतचंद्रजी गुरु अमारा, विद्याचंद्र करे गुणगान तमारा, वंदन करीने विराम. ॥ मुनिने. ॥ १३ ॥ -: समाप्त: Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री परम पू. गुरुदेवोनी-स्तुतिः॥ (स्रग्धरा-वृत्तम् ) श्रीमत्पार्श्वन्दुमरिस्सकलमुनिजनैरय पादारविन्दो भक्तेभ्यस्सत्मबोधं सपदि भवगदच्छेदशक्तिं ददानः / / सोऽयं गच्छाधि नाथो जयति जिनमते भव्य सौभाग्यकीर्ति, स्तं भक्त्या भो पुमांसो नमत नतिगुणश्रेणीपंतत्वधीशम् // 1 // श्रीमद्विद्यावतंसाः शमदमसहिताबाल भावाद्विरक्ता, ज्ञानाभ्यासे प्रवृत्तानिखिलजनमनो हर्षदा स्वैर्गुणौ घैः। मध्यस्था मान्यवाक्या दलितमदबला भ्रातृचन्द्राभिधाना, सारुण्ये तीर्णमोहा निरुपमचरिताः मरिराजा जयन्तु // 2 // - शार्दूलवी क्रिडीतवृत्तम् - भीपाचप्रभुपादपद्ममधुलिड् जातः सदा सेवया, श्री जेनेंद्रमुखाब्जनिस्मृतवचो वीस्तारितं श्रेयसे / संसाराब्धि नियामकं बुधवरं देवैःसु सं पूजितं, तं सूरि सुखदं भजे गुरुवरं चंद्रोत्तरं सागरम् // 3 // (शीखरीणि - वृत्तम् ) सुरनरऋषिसेव्यो सर्वदोषैविमुक्ते भनजलधितरोही साधु भृङ्गः सुयुक्ते तवचरणसरोजे कोटिशो मे प्रणामः हदि वसतु गुणिन् मे श्रीजगच्चंद्र देव 4 // Finelibrary.org INDIA