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संतिमुहप्पवृत्तयं तिगरणपयओ, संतिमहं महामुणि सरणमुवणसे ॥ १८ ॥
(ललिअयं)
शब्दार्थःतित्थवर-श्रेष्ठ तोर्थना पवत्तय-प्रवर्तक तम-अज्ञान रूपी
अंधकार रय-कर्मरजथी रहियं-रहित धीर-धीर जण-पुरुषवडे थुअ-स्तवाया अच्चिअं-पूजायेल चुअ-गयेलां कलि -वैर कलुसं-मलिनता संति-शांति (मोक्ष) सुह-सुखना तिगरण-त्रिकरण पयओ सावधान उवणमे-लउं छै (मन-वचन-काया)
भावार्थ-उत्तम धर्मतीर्थने स्थापन करनार, अज्ञान अने कर्मरजथी अथवा तमोगुण अने रजोगुणथी रहित, विद्वान जनोए स्तवेला अने पूजेला, क्लेश अने मलिनताथी रहित एवा तथा शांति अने सुखने आपनारा महामुनि श्री शांतिनाथ भगवान- मन, वचन अने कायाथी हुं शरण लउं छु. १८. ___x शांतिसुखप्रवृत्तदं शांति सुखने माटे प्रवर्तनार (संयमी ) ने पालन करनारा एवो पण अर्थ थाय छे.
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