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भावार्थ-जे प्रभु(दीक्षा लीधा पहेलां)श्रावस्ती-अयोध्या नगरोना राजा हता, हाथीना मस्तकनी जेवू सुंदर अने विशाळ जेमनुं संस्थान हतुं, जेमना हृदयमां निश्चळ श्रीवत्स हतुं, जेमनी चाल उत्तम हाथीनो चाल जेवी हती, जे प्रशंसाने लायक छे, जेमनी भुजाओ हाथीनी सूंढ जेवी लांबी हती, जेमना शरीरनो वर्ग तपावेला सुवर्गना अलंकार जेको पीळो हतो, जेओ उत्तम लक्षणोवडे सहित हता, जेमनुं रूप कांतिवाढू अने मनोहर हतुं, जेमनी गंभीर वाणो कानने सुख कारक, मनने आनंद दायक अने अत्यंत रमणीय एवा उत्तम देवदुंदुभिना नादथी पण अतिमधुर हती. ९ .
अजिअ जिआरिगणं, जिअसन्नभयं भवोहरि। पणमामि अहं पयओ, पावं पसमेउ मे भयवं! ॥१०॥
(रासालुद्धओ) शब्दार्थ:जिआरिगणं-जीत्या छे जिअसबभयं-जीत्या छे भवोहरि-संसा
शत्रुना समूह जेमणे सर्वभय जेमणे एवा रनी परंपराना पणमामि-प्रणाम करूं छं पयओ-आदरथी
शत्रुरूप पावं-पापने पसमेउ-शांत करो मे-मारा भयवं-हे भगवान!
भावार्थ-जेमणे मोहादिक शत्रुना समूहने जीत्या छे, जेमणे सर्व प्रकारना भयने जीत्या छे, तथा जे संसारनी परंपराना शत्रु छेनाश करनार छे, ते श्रीअजितनाथने हुं आदर पूर्वक प्रगाम करूं छु, तो हे श्रीअजितनाथ भगवान ! मारा पापने दूर करो. १०.
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