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________________ जं - जे ज्ञानातिचाररूप अशुभ कर्म बद्धं - में बांध्युं होय इंदिएहिं - इंद्रियोवंडे अने चउहिं- चार कसाएहिं - कषायोवडे शब्दार्थ: अप्पसत्थेहिं अप्रशस्त - अशुभ एवा रागेण व- रागथी के तं तेने निंदे - हुं आत्मसाक्षीए निदुं कुं भावार्थ — अप्रशस्त एवा श्रोत्रादिक पांच इंद्रियोवडे, क्रोधादिक चार कषायवडे भने उपलक्षणथी मन, वचन, कायाना योगवडे राग के द्वेषने लीधे जे कांइ ज्ञानना अतिचाररूप अशुभ कर्म में बांध्युं होय, तेनी हुं आत्मसाक्षीए निंदा अने गुरु साक्षीए गर्दा करूं कुं. Jain Education International अहीं इंद्रियो प्रशस्त अने अप्रशस्त आ रीते कहीं शकाय छे. -देवादिकना गुणादिक सांभळवामां श्रोत्र, तेमनुं दर्शन करवाथी चक्षु, देवादिकनी पूजा निमित्ते केसर, कर्पूर विगेरेनी गंध परीक्षा करवामां नासिका, स्वाध्याय अने देवादिकनी स्तुति करवामां जिह्वा तथा जिनेश्वरनी स्नात्रादिक पूजा करवामां स्पर्श इंद्रिय प्रशस्त छे तथा इष्ट अनिष्ट शब्द सांभळवाथी राग द्वेष थाय, तेथी श्रोत्र इन्द्रिय अप्रशस्त छे १, स्त्रीना सुंदर अंगोपांग जोवाथी राग थाय अने अनिष्ट वस्तु जोवाथी द्वेष थाय ते चक्षु इन्द्रिय अप्रशस्त छे २, सुगंधि अथवा दुर्गंधि वस्तु सुंघवाथी राग द्वेष थाय ते घ्राणेंद्रिय अप्रशस्त छे ३, विकथादिकमां प्रवर्तेली जिहा राग द्वेषनो हेतु होवाथी तथा इष्ट अनिष्ट आहार करवाथी राग द्वेष For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001362
Book TitlePanch Pratikramana Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokaldas Mangaldas Shah
PublisherShah Gokaldas Mangaldas
Publication Year1942
Total Pages455
LanguageGujarati, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Ritual_text, & Ritual
File Size18 MB
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