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थाय ते जिह्वा इन्द्रिय अप्रशस्त छे ४, अने स्त्री आदिक इष्ट वस्तुना स्पर्शथी राग थाय तथा कंटकादिकना स्पर्शथी द्वेष थाय ते स्पर्श इन्द्रिय भप्रशस्त छे. ५.
कषाय पण प्रशस्त अने अप्रशस्त आ प्रमाणे छे.-अविनीत शिष्यादिक परिवारने शिक्षा आपवा माटे क्रोध थाय ते प्रशस्त छे अने कोइ साथे कलहादिक करतां क्रोध थाय ते अप्रशस्त छे १, सुदेवादिकने नमवू अने कुदेवादिकने न नमवू इत्यादिक सारी प्रतिज्ञानो निर्वाह करवा माटे मान राखq ते प्रशस्त छे अने नमन करवा योग्य देवादिकने न नमवू ए अप्रशस्त मान छे २, व्याधनी पासे मृगादिकनो अपलाप करवामां, व्याधिवाळाने कटु औषध पावामां तथा दीक्षामां विघ्न करनारा माता पितादिकने समजाववामां जे माया करवी पडे ते स्वपरने हितकारक होवाथी प्रशस्त छे, अने द्रव्यादिकनी इच्छाथी परवंचनादिक करवामां जे माया करवी ते अप्रशस्त छे ३, तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विनय, वैयावच्च, शिष्य विगेरेनो संग्रह करवामां जे लोभ राखवो ते प्रशस्त छे अने धनादिकना संग्रहमा लोभ करवो ते अप्रशस्त छे. ४.
. त्रण योग. पण प्रशस्त अप्रशस्त आ प्रमाणे छे.-धर्म शुक्लध्यानमा मनने प्रवर्तावबुं ते प्रशस्त अने आर्त रौद्र ध्यानमा प्रवर्तावq ते अप्रशस्त मनयोग छे १, देव गुर्वादिकना वर्णनमा प्रवर्तती वाणी प्रशस्त छे अने चौरादिकनों आक्षेप करवामां प्रवर्तती वाणी अप्रशस्त छे २, सामायिक, प्रतिक्रमणादिक धर्मकृत्यमा प्रवर्तती काया प्रशस्त छे अने विषय घ्तादिकमां प्रवर्तती काया अप्रशस्त छे. ३..
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