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________________ सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन अने सम्यक्चारित्र रूप त्रण रत्नना आपनारा होवाथी समस्त प्रकारना उपकार करवामां सागर जेवा, जेनो कोइ पण वखत अंत नही थइ शके एवा समग्र गुणोनी खाण जेवा अने तेथी करीने भुवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क अने वैमानिक ए चार निकायना मळी चोसठ देवोथी पूजाएला. मू०-वज्रऋषभनाराच संघयण, समचतुरस्रसंस्थान, __ अष्टसहस्र वरपुरुषलक्षणना धरणहार . शब्दार्थःवज्रऋषभनाराच संघयण अष्टसहस्र-आठ हजार वज्रऋषभ नाराच संघयण वाळा वरपुरुष-श्रेष्ठ पुरुषना समचतुरखसंस्थान-समाकृति- लक्षणना-लक्षणोने वाळा धरणहार-धारण करनारा भावार्थ:-बज्रऋषभनाराचसंघयणवाळा, (एटले प्रथम संघयणवाळा ) सरखी आकृतिवाळा, एक हजार ने आठ उत्तम पुरुषोना लक्षणो सहित एटले एक हजार ने आठ जेमां उत्तम लक्षणो छे. एवा तथा मू०-समुद्रनी पेरे गंभीर, मेरुपर्वतनी परे धीर संखनी परे निरंजन, वायुनी परे अप्रतिबद्ध विहार, आकाशनी परे निरालंब, जीवनी परे अप्रतिहतगति, कूर्मनी परे गुप्तेन्द्रिय, खडगीजीवना श्रृंगनी परे एक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001362
Book TitlePanch Pratikramana Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokaldas Mangaldas Shah
PublisherShah Gokaldas Mangaldas
Publication Year1942
Total Pages455
LanguageGujarati, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Ritual_text, & Ritual
File Size18 MB
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