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परिठवे, पंचमिसमिति एणिपरे हुवे ॥ २४ ॥ आतरौद्रचिंतन परिहरे, सर्व जीवनी समता धरे; एणिपरे चित्त सदा राखिये, मनोगुप्ति प्रवचन भाखिये ॥ २५ ॥ मौनी साने नहु ववहरे, हुंकारादिक सवि संवरे; वचनगुप्ति ते कहिये सहि, सुगुरुतणे वचने में लही ॥२६॥ ___ दुस्सह चउविह उवसग्ग सहे, मेरुतणी परे निश्चल रहे; तनु वोसिरावी काउस्सग करे, कायगुप्ति जिन इम उच्चरे ॥ २७ ॥इणिपरेआठे थाय, मळ मूत्र श्लेषमादिक तेवि जग्यामां परठववा, ए प्रमाणे पांचमी समिति सचवाय. ॥२४॥ - मनमा आर्त्त-रौद्रध्यान त्याग करवां, सर्व जीवो उपर समता राखवी, आवी रीते हमेशां चित्त राखे, तेने मनोगुप्ति कहे छे. २५
मौन करीने इसाराथी व्यवहार न करवो, हुंकार विगेरे पग न करे, आने गुरु महाराज स्वमुखे वचनगुप्ति कहे छे. २६
दुःखथी सहन थाय तेवा चार प्रकारना उपसर्गने, मेरु पर्वतनी जेम स्थिरपणे सहे अने शरीरने वोसरावी काउस्सग्ग करे, तेने जिनेश्वर भगवाने कायगुप्ति कही छे. २७
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