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________________ ३४९ अतिचार, अविरतने ते पाप व्यापार; आलोवंता हलुवा करे, अल्प अल्प भारे उतरे ॥ १५० ॥ निंदण गरहण टाले दोष, थाये धर्मतणो इम पोष; सहुए श्रावक इणपरे करे, हेले जेम भवसायर तरे ।। १५१ ।। धन धन दश श्रावक निर्मला, आणंदादिक मन निश्चला; करे सलाघा श्री मुख वीर, जे प्रभु सागर जिम गंभीर ॥ ॥ १५२ ॥ तेणिपरे हुं व्रत न शकुं पाल, पण तेहना गुण मन संभाल; शक्तिसीम अविरती परिहरु, वार वार अनुमोदन करूं ॥ १५३ ॥ एवं अतिचारनो समावेश थाय छे. व्रतधारीने जे अतिचार छे तेज अविरति श्रावकने पापनो व्यापार छे, तेने आलोबी हळवी थाय अने एम करी हळवो थतो थतो पापनो बोजो - भार उतारे. १५० थयेलां पापनी निंदा, गर्हा, करतो बधां दोषो टाळे अने एम करो धर्मनी पुष्टि करे. आधी रीते बधां श्रावको करे तो जल्दी भवसागरने तरी जाय. १५१ आनंद आदि मनथी पण चलायमान न थाय तेवां दस श्रावकोने धन्य छे के जेओनी समुद्रनी जेवा गंभीर परमात्मा श्री वीर भगवाने पोताना मुखे प्रशंसा करी. १५२. आवी रीते जो के हुं व्रत पाळी न शकुं पण तेओमां रहेला गुणनी प्रशंसा जरुर करूं अने पोतानी शक्ति प्रमाणे अविरतिने दूर करूं, अने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001362
Book TitlePanch Pratikramana Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokaldas Mangaldas Shah
PublisherShah Gokaldas Mangaldas
Publication Year1942
Total Pages455
LanguageGujarati, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Ritual_text, & Ritual
File Size18 MB
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