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जं किंचि-जे काइ
तुम्मे जाणह-तमे जाणो से मझ-मारे
अहं-हुं विणय-विनय
न याणामि--हुं जाणतो नथी परिहीणं-रहितपणुं 1 तस्स-ते मुहुमं-सूक्ष्म
मिच्छामि--दुक्कडे-मारुं पाप बायरं-बादर
नाश थाओ भावार्थ:-हे गुरु महाराज ! माराथी जे काइ आपनी सामान्य के विशेष अप्रीति उत्पन्न थई होय, कया कया विषयमां ? ते कहे है.आहारमां, पागीमां, आपनो अभ्युत्थानादिक विनय करवामां, औषध अने पथ्यादिक वैयावच्च करवामां, एकवार बोलवामां, परस्पर कथा फरवारूप वारंवार बोलवामां, आपनाथी उंचा के समान आसनपर बेसवामां, आप बोलता हो तेनी वञ्चे बोलवामां तथा आफ्ना बोली रह्या पछी तरत ज ते विषय उपर विस्तारथी बोलवामा में जे कांइ विनयरहितपणे सूक्ष्म एटले अल्प प्रायश्चित्तथी शुद्ध थाय तेवो के बादर एटले मोटा प्रायश्चितथी शुद्ध थाय तेवो अपराध को होय, के जे अपराध ज्ञानने लीधे आप जाणता हो, अने हुं अज्ञानने लोधे जाणतो न होउं, ते सर्व अतिचारनुं मारे मिथ्यादुष्कृत हो. ते पापर्नु हुं मिथ्यादुकृप्त आपुंछु.
___ गुरु १५, लघु १११, सर्व वर्ण १२६. (आ रीते खामणा दइने, "आवस्सई" कहीने अवग्रहनी बहार आचीने " आयरिस उवझार" करें)
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