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शीतल संयमसिरि वरी, षट् जीवसु राखी, श्री श्रेयांस पाय प्रणमीये, इग्यारमो जिणिंद वासुपूज्य मन ध्याइये, केवलनाण दिणिंद ॥२॥
भावार्थ:-सातमा श्रीसुपार्श्वजिन मारी आशा पुरे छे अने भवना दु:खोने निवारनारा छे, आठमा श्री चन्द्रप्रभजिननी कान्ति देखवा मात्रथीज भन्योना मनने हरी ले छे, नवमा श्री सुविधिनाथे सुविधिए करीने त्रण भुवनना लोकनी सामे धर्मनुं स्वरूप बताव्युं छे, दशमा श्री शीतलजिनेश्वरे संयमरूप लक्ष्मीने अंगीकार करी छ काय जीवोनी सारी रीते रक्षा करी, अगीयारमा जिनेश्वर श्री श्रेयांसनाथना चरणने नमोये, बारमा केवळ ज्ञानरूपी सूर्यवाळा एवा वासुपूज्यने मनमां चिंतवीये ॥२॥ मू०-विमल विमलधीकरण, तरण-भवसायर-प्रवहण
जिण अनंते भवअंत कर्यो, जाणे सुरनर जण धर्मजिणेसर सोमवयण, तप तेजे दिनमणि कृपाकरण श्रीशांतिनाथ, त्रिसथावर अणूदिणि कुंथुनाथ चक्रीजगह, छट्ठो सत्तरमो धर्म
अर जिनवर पय ओलगे लब्भे शिवपदशर्म ॥३॥ भावार्थ:--तेरमा विमलबुद्धिना करनारा एवा विमलजिन भव. समुद्र तरवामां वहाण समान छे, चौदमा श्री अनंतनाथ जिनेश्वरे भवनो अंत को ते वातने देवलोक तथा मनुष्य. लोक निवासी भव्यो जाणे छे. पंदरमा सौम्य मुखवाळा एवा धर्म जिनेश्वर तप तेजे करीने सूर्य समान छे, त्रस अने थावर प्राणीओ उपर हमेशा कृपा करनार एवा श्री सोळमा शांतिनाथ भगवान छे. सत्तरमा श्री
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