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२५२ उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीकाल ते महाविदेह क्षेत्रने विषे क्यारे पण थतो नथी. स्वामी ऋषभदेव जिनेन्द्रना समयना सरखो समय छे तेमां क्यारे पग आंत पडतो नथी.
सत्तरिसय उक्कोसपदि, जघनपदे जिन वीस; विहरमान संपइ पयड, त्रिजगि नमुं निसदीस ॥८॥
अर्थ-उत्कृष्ट पदने विषे एकसो सित्तर जिन ए क्षेत्रोमां होय, अने जघन्य पदने विषे तो वोश जिन होय; प्रकट रीते त्रण जगत्ने विषे हाल विचरतां एवा जिनोने दररोज हुं नमुं छं.
चउरासीलख पुन्वआयु, ए वीस जिणेसर, पणसय धणुअ पमाणदेह, दाने अलवेसर; प्रभु अतिशय चौत्रीस, सहस अठोत्तर लक्षण, वाणी गुणतीसभणी, रंजीय विचक्षण ॥९॥
अर्थ--चोराशी लाख पूर्वनो आउखो एवीश जिनेश्वरोनो छे. बवाए 'पांचसो धनुष्यना प्रमाणना शरीरबाला छे अने दानमां अतिशय मोटा अग्रेसरो
छे. ए सर्व जिनो चोत्रीस अतिशयवाला छे अने एक हजारने आठ उत्तम लक्षगो छ जेमां एवा छे. वागीना जे पांत्रीश गुणोते जेमनामां विद्यमान होवाथी राजी कर्या छे विचक्षण डाह्या पंडितोने जेमणे एवा छे.
पालिराज महबयधरी, पामी केवलनाण पार्श्वचंद्रसूरि नित प्रहसमे, प्रणमे सुखनो ठाण ॥१०॥
अर्थ-पोत पोताना राज्यने पाली अने महानतोने धारण करीने केत्र ठ ज्ञानने जेओ पाम्या छे. श्री पार्श्व चंद सूर हमेशां सपारमां
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