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प्रम
॥५३ अरहंदेवोनी सज्झाय ॥ अरहं देवो गुरुणो, सुसाहुणो जिणमयं महपमाणं । इच्चाइ मुहो भावो, सम्मत्तं बिति जमगुरुणो ॥१॥
अर्थः-अरिहंत देव, सुसाधुओ-गुरु अने जिन मत ए मारे प्रमाण छे, इत्यादि शुभ भाव तेने जगत्गुरु तीर्थकरो सम्यक्त्व कहे छे.१
लप्मइ मुरसामित्तं, लभइ पहुअत्तणं न संदेहो । एगं नवरि न लप्मइ दुल्लहं रयणं च सम्मत्तं
अर्थः-देवेन्द्रपणुं मळे छे, स्वामिपणुं मळे छे एमां शंका नहि; परन्तु एक दुर्लभ समकित रत्न नथी मळतुं. २
सम्मत्तमि ऊ लद्धे, विमाण वज्जं न बंधए आउं ।
जइवि न सम्मत्त जढो अहव न बद्धाउ पुनि ॥३॥ __ अर्थ:-जो समकितथी भ्रष्ट न थयो होय, अथवा ते पहेलां आयुष्य न बाध्यु होय तो समकित प्राप्त थवाथी वैमानिक सिवायर्नु आयुष्य न बांधे. ३
दिवसे दिवसे लक्खं देइ सुवनस्स खंडियं एगो। एगो पुण सामाइयं, करेइ न पहुप्पए तस्स ॥४॥
अर्थ:-कोइ दररोज एक लाख सुवर्ण खांडीनुं दान करे, तो पण ते एक सामायिकनी समान फळ न पामे. ४
निंद पसंसासु समो, समोअ माणावमाण कारिमु। समसयण परिअणमणो, सामाइय संगओ जीवो ॥५॥
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