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संतिकरं पणमामि दमुत्तमतित्थयर, संतिमुणी मम संतिसमाहिवरं दिसउ (ऊ)॥ ८॥
(सोवाणयं) __ शब्दार्थ:जिणुत्तमं-सामान्य- उत्तम-उत्तम नित्तम-अज्ञान रहित __ केवळीमा उत्तम सत्तधरं-भाव यज्ञने. अज्जव-सरळता मद्दव-नम्रता धारण करनार विमुत्ति-निभिता खंति-क्षमा समाहिनिहि-समा- संतिकरं-शांतिना कर- पणमामि-नमस्कारधिना भंडार नारा
करुं दमुत्तम-इन्द्रिय द- तित्थयर-तीर्थकर संतिमुणी-शांतिनाथ मन करवामां श्रेष्ठ मम-मने
मुनि संति-शांतिवडे समाहिवरं-समाधि दिसउ-आपो
रूपी वरदान भावार्थ-जे शांतिनाथ सामान्य केवळीने विषे उत्तम छे, जे ॥ हित एवा भावयज्ञने अथवा पराक्रमने धारण करनारा छे. जे आर्जव, मार्दव, क्षांति, निर्लोभता अने समाधिना निधान छे, जे शांतिने करनारा छे तथा जे इंद्रियो- दमन करवामां श्रेष्ठ अने तीर्थने करनारा छे, ते श्रीशांतिमुनिने हुं प्रणाम करूं छु, वळी ते शांतिमुनि मने शांति अने समाधिरूप वरदान आपो. ८.
_श्रीअजितनाथनी स्तुति. सावत्थिपुव्वपत्थिवं च वरहत्थिमत्थयपसत्थविच्छिथनसंथियं, थिरसिरिच्छवच्छ मयगललीलायमाणवरगंधहत्थिपत्थाणपत्थियं
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