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________________ . ३६१ अहमवि अ-हुं पण सुनय-सुंदर नैगमनय-न्याय - आदि नय उपसरिअ-पामीने भुवि-पृथ्वी पर ज-उपजेला महियं-पूजेला निउण-डाह्यो दिवि-देवलोकमां उवणमे-नमस्कार करुं छु भावार्थ:-जे भगवान संयमने विषे अरति, असंयमने विषे रति अने अज्ञानवडे रहित छे, अथवा अरतिमोहनीयना उदयथी थयेलो चित्तनो उद्वेग अने रतिमोहनीयना उदयथी थयेलो चित्तनो आनंद ए बन्ने सम्यक् ज्ञानने आच्छादन करनार होवाथी तेरूप अज्ञानवडे रहित छे. जे जरावस्था अने मरणथी मुक्त थया छे, अथवा 'उपरतजरम्' अने ' अरणं' एवो पदच्छेद करी जरा रहित तथा रणसंग्राम रहित एवो अर्थ करवो. तथा सुर एटले वैमानिक देव, असुर एटले भवनपति देव, गरुड एटले ज्योतिष्क देव अने भुजग एटले व्यंतर देवना अथवा सुर, असुर, सुवर्ण कुमार अने नागकुमारना इंद्रोए जेमने आदरथी नमस्कार कर्या छे, तथा जे सारी नीति अने न्यायने विषे निपुण छे, तथा जे अभयने करनारा छे, तथा जे मनुष्य अने देवोथी पूजित छे, ते अजितनाथनुं शरण लइने हुं पण तेमने सदा नमस्कार करूं छु. , श्री शांतिजिननी स्तुति. तं च जिणुत्तममुत्तमनित्तमसत्तधरं, अज्जवमद्दवखंतिविमुत्तिसमाहिनिहिं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001362
Book TitlePanch Pratikramana Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokaldas Mangaldas Shah
PublisherShah Gokaldas Mangaldas
Publication Year1942
Total Pages455
LanguageGujarati, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Ritual_text, & Ritual
File Size18 MB
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