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________________ ३१९ रीसे दृढबंधन दृढघात, अंग चर्मनो करे विघात; अति भारारोपण विख्यात, रुंधी जे जे पाणी भात ॥ ५७ ॥ पहिला व्रतना ए अतिचार, न लगाडे श्रावक सुविचार; व्रतनो धारक इम जाणिये, तेहना गुण हियडे आणिये ॥ ५८॥ सूक्षम बादर उभय प्रकार, जे मुजने लाग्या अतिचार; करजोडी मस्तक नामीये, आ भव परभव ते खामिये ॥ ५९॥ अहनिशि पक्खि चउमासी फुडं, संवच्छरी मिच्छादुक्कडं; अरिहंत सिद्ध सवे जाणजो, गुरुसाखे ते मुजने हजो ॥६॥ चउमासिक, संवत्सरिक दिवसने विषे अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार के अनाचार लाग्यो होय ते बधुं, हुं, मन, वचन अने कायाए करी मिच्छामि दुक्कडं आपुं छु. प्रथम स्थूल प्राणातिपातना अतिचारनी आलोचना करे छे. पशुने क्रोधथी कठन बांधवू, सख्त बांधी मारवं, शरीरथी अथवा चामडाथी घा करवा, घणो भार भरवो, रुंधी राखवो अने खावा-पीवान न आपq.५७ आ प्रथम व्रतना अतिचार अत्यंत विचारक श्रावक लागवा न दे, अने पोते विचार करे के में व्रत लीधेलुं छे, माटे आ न कर जोइए, अने व्रतना गुण हृदयमां धारण करवा जोइए-५८ (अर्थ गाथा ५५-५६ प्रमाणे छे. ५९-६०) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001362
Book TitlePanch Pratikramana Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokaldas Mangaldas Shah
PublisherShah Gokaldas Mangaldas
Publication Year1942
Total Pages455
LanguageGujarati, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Ritual_text, & Ritual
File Size18 MB
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