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संपइ वट्टइ जे जिण, सीमंधर सामी पमुह ते सव्वे । भविय पडिबोह दिणयर, तिकरण मुद्धण पूएमि ॥७॥ __अर्थः-हमणा सीमंधरस्वामि विगेरे जे तीर्थंकरो भव्यजनोने प्रतिबोध करवाने सूर्यसमान छे, ते सर्वने मन-वचन अने कायाए त्रिकरण शुद्रे पूजुं छं. ७ पछी उभा थइ गुनह गंभीरनी थुइ कहेवी ॥
॥५६ अथ श्री जिनेंद्र स्तुति ॥ गुनह गंभीर अचलजीम धीर कर्मरिपुवीर भवजल तारी, वसी गृहवास तजी उद्दास भजी वनवास भए अनगारी; मनम्मथ मान मोरिकर ध्यान पाय सुभ ग्यान बहुत सुखकारी, समर अरिहंत भजित भगवंत मुक्तिवरकंत वृषभपदधारी. १ अजित जिनराय सुरासुरपाय नमत बहुभाय गुणाकर जाणी, सुधाकर वृष्टि करत सुखसृष्टि सदा समदृष्टि कहत मुखबानी; सुनत सतोष करत धर्म पोष हरत मनरोष धरत जे प्राणी, समरसिंघदेव करहु तसु सेव जोड करबेव भाव मन आणी. २ संभव जगदीस नमुं निसदीस भक्ति सुजगीस मुक्तिपंथ गामी, मानमात्तंग दमीउत्तंग भये निरभंग मिथ्या मत नामी; सफल मुझ नयन देखी प्रभु वयन अभिनव मयन रूपसम पामी, परं तुम चरण छोर जरा मरण भवभयहरण करहु मोरा स्वामी.३ अभिनंदननाथ परम सुख साथ जोर दोउं हाथ रंग चित लावू, बारजीउंमाय पालफुनिआय कहत्त निर्माय भाग्यवसि पाउं; .
रस नमुहएक बहुरन विवेक तुम गुन छेक केम हुँ गाऊं, , भ्रमणकउमूर कर्मउनमूर रहे प्रभु दूर भावधर ध्यावं. ४
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