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जिनधर्म भाखस्ये; आगम भाख्या द्रव्य जिणंद, ते प्रणमुं मन धरि आणंद ॥ ४० ॥ इम चउवीसी जे जिन यदा, एहीज चउवीसत्थो तदा; वंदनीक इम द्रव्य जिनेश, गुरु पूछी जाणो सुविशेष ॥ ४१ ॥ एणिपरे देवतत्त्व अरिहंत, गुरु सुसाधुजे जग गुणवंत; सूधो निरवद्य दे उपदेश, टाले सावद्यनो लवलेश ॥४२॥ परिग्रहने आरंभ निवार, वरते निरते पंचाचार; आणधर्मनो फेलावो करशे एमने आगममां द्रव्य जीनेश्वर कीयां छे, तेमने हुं मनना आनंदथी प्रणमु छु.॥४०॥ ____ए रीते जे चोवीशी अने जिनेश्वरो ज्यारे हशे, त्यारे एज चउविसत्थो चोवीश जिनवरनी स्तुति हशे, ए रीते द्रव्य जिनेश्वरो पण वंदन करवा योग्य छे. वधारे जाणवानी इच्छा होय तो गुरु महाराजने पूछो. ४१
ए रोते देवतत्त्व श्री अरिहंत अने जगतमां गुणे करी सुशोभित पवित्र साधु गुरु कयां छे. जेओ पाप व्यापार रहित शुद्ध उपदेश आपे छे अने लेश-जरापण सावध-पाप करता नथी-पापथी दूर रहे छे. ४२ ____ परिग्रह धन, धान्य विगेरे नव प्रकारना आरंभथी-दूर रहे छे अने पांच आचार पाळवामां हमेशा सावध-चतुर-निपुण, शुद्ध रहे छे अने जेओ आज्ञा अने क्रिया शुद्ध रीते पाळे छे तथा बेंताळीश दोष रहितः
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