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________________ ३१७ वितिगिच्छानी रेह ॥ ५० ॥ मिथ्यादृष्टि प्रशंसा करे, तसु परिचय दंसण अतिचरे; समकितना पंचय अतिचार, तेहतणो करिशु परिहार ॥ ५१ ॥ एह छतां समकित दुषाय, मूल विना फल फूल न थाय; धर्म मूल तिम समकित जाण, एह विना हुवे बहु व्रत हाण ॥५२॥ समकितविणु व्रत वार अनंत, पालंता न थयो भव अंत; करे अभव्य बहु कायकलेश, तोय न आवे समकित लेश ॥ ५३ ॥ संदेह करवो तेने वितिगिच्छानामनो त्रीजो प्रकार कीधेल छे.५० मिथ्या-- दृष्टिनी प्रशंसा करवी, तेनो परिचय करवो. आ समकितना पांच अतिचारो छे, तेने दूर करीशु. ५१ एम छतां समकितने दूषण लागे अने रही जाय तो जेम मूळ न होयतो मूलं विनाकुतः शाखा ए कथन अनुसार मूळज न होय, सडेलं होय तो फळ-फूलनी आशा केम रखाय ? तेवी ज रीते धर्मर्नु मूळ समकित छे, तेज जो न होय तो पछी व्रतो पळे नहि पण नाश थाय, व्रत भंग थाय. ५२ समकित न होय अने वारंवार व्रत-जप-तप-नियम करवामां आवे तो पण भव-संसारनो अंत थइ शकतो नथी. अभव्य कायक्लेश घणा सहन करे तोपण लेशमात्र समकित न पामी शके. ५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001362
Book TitlePanch Pratikramana Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGokaldas Mangaldas Shah
PublisherShah Gokaldas Mangaldas
Publication Year1942
Total Pages455
LanguageGujarati, Prakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati, Ritual_text, & Ritual
File Size18 MB
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